tag:blogger.com,1999:blog-73086069797203795712024-03-06T02:19:21.126+05:30ENDEAVOUR, एक प्रयासAashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.comBlogger130125tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-54203898733512067852018-09-22T01:46:00.000+05:302018-09-22T01:49:45.767+05:30सब कुछ अच्छे के लिए नहीं होता!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ढाई साल के बाद आज इधर आया हूँ। पिछले कई सालों से यहाँ पहले की तरह आना नहीं हो पाता था। ज़िन्दगी में कई सारे बदलाव आये। समय की कमी और काम के प्रति व्यस्तता इस कदर बढ़ गयी कि चाह कर भी इधर आना संभव नहीं हो सका। या सच कहूँ तो कभी इधर आने की चाहत ही वैसी कुछ खास नहीं हुई।<br />
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जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसी घटना घट जाती है कि अंदर तक मन हिल जाता है। मन में कई सारे सवाल आते हैं। कुछ खुद से, कुछ सामने वाले से और कुछ भगवान से। एक ऐसी ही पारिवारिक त्रासदी झेल कर आज इधर कुछ सवाल करने आया हूँ। हमेशा से सुनता चला आया हूँ कि जो होता है अच्छे के लिए होता है, भगवान जो करते हैं सब अच्छे के लिए करते हैं, भगवान के हर काम के पीछे कहीं न कहीं कुछ भलाई छिपी रहती है। फिर क्यों कभी ऐसा भी कुछ हो जाता है कि फिर उस घटना के पीछे की अच्छाई ढूंढने से भी नज़र नहीं आती! लाख कोशिशों के बावजूद वो भलाई दिखाई नहीं देती जिसके लिए घटना घटी हो।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjx7W3Q57yXzBW3H1udTb6p9S7Zm6DqtRqHr8G0bhV4QgymBHzFp2Vk2VTbgchOZwC6Wvr8Y4kQZgq-zZssT0C8JVDK4amQGKNK_tQZFzx3ss8sTJV53OyZ-PoE-vS_VaGEiZ98Fq2uz0h1/s1600/IMG_20180922_014019.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1310" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjx7W3Q57yXzBW3H1udTb6p9S7Zm6DqtRqHr8G0bhV4QgymBHzFp2Vk2VTbgchOZwC6Wvr8Y4kQZgq-zZssT0C8JVDK4amQGKNK_tQZFzx3ss8sTJV53OyZ-PoE-vS_VaGEiZ98Fq2uz0h1/s320/IMG_20180922_014019.jpg" width="261" /></a>एक 82 साल के वृद्ध हैं जो कुछ वर्षों पहले अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी संतानों पर आश्रित हो चुके हैं। हाथ कांपने लगे हैं। पैरों में कमजोरी रहती है। अपने शरीर के नित्य कर्म किसी तरह से खुद कर पाते हैं। खान-पान पहले की तुलना में आधा हो चुका है। जीवन के इस पड़ाव में आकर अपने आप को दवाओं पर आश्रित रहकर जीने की तुलना में ऐसे ही बाकी समय काट लेने की सोच के साथ इलाज़ नहीं कराने के लिए अपने बच्चों को निरंतर ना करते रहते हैं। मगर इलाज़ कराने की क्षमता रखने के कारण बच्चों को उन्हें कष्ट में देखना गंवारा नहीं रहता। बच्चे ज़िद करते हैं। जबरदस्ती डॉक्टर से मिलकर दवाइयाँ लेते हैं। कसमें खिलाई जाती हैं। एक पैक्ट तैयार होता है, अगर कुछ दिन में दवाइयों का मनचाहा असर नहीं हुआ तो इलाज़ बंद कर देना है। दवाइयां शुरू की जाती हैं। कुछ हफ़्तों में असर दिखना शुरू होता है। दवाइयां चलती रहती हैं। दो महीने बीतते हैं। दवाओं का असर अच्छा दिखना शुरू हो चुका है। एक सुबह जिस छोटे बेटे के घर में रहते हैं वहाँ कुछ हलचल सी महसूस होती है। छोटा बेटा घर से निकल गया है। कुछ घंटे बाद बड़े दामाद दूसरे शहर से आते हैं और बताते हैं कि बड़े बेटे की तबियत अचानक थोड़ी ख़राब हो गयी है। सब बड़े बेटे के शहर जाते हैं, घर पहुँचते हैं और तब उस बूढ़े बाप को पता चलता है कि भगवान, जो जो कुछ भी करता है भले के लिए करता है, ने उनके कन्धों पर दुनिया का सबसे भारी बोझ रख दिया है। अपने ही जवान हँसते-खेलते बेटे के अर्थी का बोझ। भगवान! ये तुम ही जानो कि एक 82 साल के बूढ़े बाप के लिए, जो खुद अब बिमारियों से घिरे हुए हैं, ऐसा बोझ उठाने के पीछे क्या भलाई हो सकती है। ऐसी घटना के पीछे की अच्छाई भगवान तुमको ही पता होगी, हमने तो ढूंढ ढूंढ कर अब हार मान ली है!<br />
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सब ठीक ठाक था तब तो महीनों बीत जाते थे बात किये हुए। मिले हुए, एक दूसरे को देखे हुए कभी कभी सालों बीत जाते थे। यादों में हमेशा रहते थे मगर कभी उतनी कमी महसूस नहीं होती थी। पता होता था कि दूरी फ़ोन पर बस एक नंबर डायल करने भर की है। आज जब वो चले गए हैं तो हर पल कुछ खाली खाली सा लगता है। चमड़े और मांस का ये लबादा बस ऊपर ऊपर से महसूस होता है, अंदर सब कुछ खोखला मालूम पड़ता है। आज सामने होते तो न जाने कितनी बातें करते। हँसते, मुस्कुराते, एक साथ घंटों बिता देते। वो सब कुछ याद आता है जो वक़्त हमने साथ बिताया था। बचपन की वो सारी दीवालियाँ याद आती हैं जिनके पटाख़े आपने ला कर दिए थे। ननिहाल के बाज़ार में हमारी नन्हीं आँखों का वो टकटकी लगाए खोजते रहना कि कहीं किसी दुकान पर मामू खड़े हुए नज़र आएंगे और हमारे पटाखों की झोली भर जाएगी। हर महीने दो महीने पर आपका हमारे घर आना और हमें वो उपहार वाले लेटर पैड, कलम, रबर, चाय की ट्रे, कांटे-चम्मचों का सेट, और न जाने क्या क्या देकर जाना याद आता है। घर की सारी पढ़ाई, गणित के सारे अध्याय हमने आपके दिए हुए पैड पर ही तो की थी। आज आपके जाने के बाद जब घर में पहली चाय बनी तो उसे परोसने के लिए इस्तेमाल किया हुआ ट्रे भी तो आपका ही दिया हुआ था। क्या अच्छाई हो सकती है भगवान तुम्हारी इस करनी में, पता नहीं!<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWOcVfz8GnwHlNvPoWzWIquUWTEhJY_5ScEK4c4a2p-onncOgyoJ5hbmGsSvjT99J3cGTzSFjvqesNWWJYbtTNqgdSenZiYpUnsKvFv_QDU7D1_bCRxVkSn8TR8EJxkmKeiK_DlbonJHSW/s1600/IMG_20180922_013911.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1100" data-original-width="1600" height="274" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWOcVfz8GnwHlNvPoWzWIquUWTEhJY_5ScEK4c4a2p-onncOgyoJ5hbmGsSvjT99J3cGTzSFjvqesNWWJYbtTNqgdSenZiYpUnsKvFv_QDU7D1_bCRxVkSn8TR8EJxkmKeiK_DlbonJHSW/s400/IMG_20180922_013911.jpg" width="400" /></a></div>
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इतनी भी क्या जल्दी थी भगवान तुमको। माँ ने कहा था, "मामू से एक बार बात कर लेना। चेकअप के लिए कलकत्ता जाना चाहता है तुम्हारे यहाँ मगर थोड़ा सकुचाता है। बात कर के सामने से बुला लेना। अगली छुट्टी में तुम्हारे यहाँ जायेगा।" कुछ अपने आलस के कारण, कुछ काम की व्यस्तता और कुछ सारे कामों को टालने की अपनी लत की वजह से फ़ोन नहीं कर पाया। भगवान ही साक्षी है मेरी ख़ुशी का जब मुझे पता चला था कि मामू आने वाले हैं। आज भी भगवान को ही साक्षी बनाता हूँ अपने अफ़सोस का कि मैंने सही समय पर फोन नहीं किया। फ़ोन कर के बुला लिया होता तो शायद मामू आज छोड़कर गए नहीं होते। मैं दिल में बसता था उनके। सबसे प्यारा भगिना था मैं उनका। मेरा तो नामकरण भी उनका ही किया हुआ है। वो मेरे बुलाने को इस तरह से टाल नहीं सकते थे। पता नहीं इस बात के पीछे क्या भलाई छिपी हो सकती है कि बची हुई सारी ज़िंदगी ये मलाल साथ ही रहेगा कि समय पर फ़ोन कर लिया होता तो ये दिन देखना नहीं पड़ता। 82 साल के एक बूढ़े बाप को शायद ये बोझ नहीं उठाना पड़ता। 21 साल की एक बच्ची को अपने पिता को मुखाग्नि देने की कड़ी परीक्षा नहीं झेलनी पड़ती। परिवार के एक-एक सदस्य पर जो गुजरी वो दुखों का पहाड़ नहीं टूटता। काश! मैंने वो फ़ोन सही समय पर कर लिया होता!<br />
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-67940265033373423522016-01-20T16:18:00.000+05:302016-01-20T16:18:09.832+05:30यह भी बीत जायेगा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
घर के आस-पड़ोस में कई प्राणी देखने को मिल जाते हैं। कुछ जो सुबह सुबह अपनी ज़िन्दगी को दो-चार भली बुरी बातें बोलते हुए अपने काम को निकल जाते हैं। परिवार के पेट पालने की जद्दोजहद में दिनभर आने वाले कल की चिंता में अपने खून के साथ अपना आज जलाते हुए शाम को थक-हार कर घर वापस आते हैं। और कल फिर इसी दिनचर्या की चिंता लिए रात में सो जाते हैं। वहीँ उसी समाज में कुछ ऐसे भी प्राणी दिखते हैं जिन्हें ऐसी किसी बात की कोई चिंता नहीं होती। सुबह देर से उठते हैं। टेबल पर खाना परोसा हुआ मिल जाता है। आराम से सुकून की ज़िन्दगी जीते हैं। और रात में चैन की नींद सो जाते हैं। उन्हें किसी चीज की कोई चिंता नहीं करनी होती। उनके लिए चिंता करने के लिए उनके घर में पहले प्रकार के प्राणी मौजूद रहते हैं।<br />
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पैसे कमाने वाले बाप के इन बिगड़ैल अशिक्षित अमीरज़ादों की ज़िन्दगी को देखकर कभी कभी ऐसी ईर्ष्या होती है कि खुद पर से भरोसा उठने लगता है। मस्ती भरी ज़िन्दगी जीते हैं। सुन्दर पत्नी मिलती है जो उनके साथ साथ उनके घरवालों का ख्याल रखती है। भविष्य की चिंता में कोई समय बरबाद नहीं जाता। उनके लिए हर दिन सुखमयी होता है। कोई साल कभी खराब नहीं बीतता। या तो अशिक्षित होते हैं या बने रहते हैं जिसका लाभ उन्हें मिलता रहता है। शिक्षा के साथ मिलने वाली तार्किकता उनके पास नहीं होती। तर्क-वितर्क की क्षमता का विकास नहीं होता। उनके साथ कुछ ख़राब हो रहा है ये समझने की बुद्धि नहीं होती उनके पास। इसलिए सबकुछ अच्छा ही होता है। चारों ओर हरियाली रहती है। कहीं कोई दुःख नहीं, सिर्फ खुशियाँ ही खुशियाँ। </div>
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और इधर हमारे जैसे लोग पढ़े-लिखे बेवकूफ बने बैठे होते हैं। हर साँस किसी चिंता के साथ बीतती है। कोई साल कभी अच्छा नहीं निकलता। अच्छी खबर सुनने के लिए मन तरसता रहता है। हर तरफ हार ही मिलती है। कभी कोई सफलता गलती से मिल भी जाये तो भी उसके साथ आगे के लिए असफलताओं का अम्बार लेकर आती है। महात्वाकांक्षी होना शिक्षित होने के साथ उन्हें दहेज़ में मिलता है। और ये महत्त्वाकांक्षाएं अपने सर पर चिंताओं का बोझ उठाए आती हैं। </div>
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कितना अच्छा होता अगर हम भी वैसे ही कोई बिगड़ैल अशिक्षित अमीरज़ादे होते। हमें अफ़सोस नहीं होता कि हमारा पिछला साल इतना ख़राब बीता। हमें इस बात का डर भी नहीं होता कि यह साल भी हमारा वैसा ही निकलेगा। किसी ख़ुशख़बरी के लिए हमें इंतज़ार नहीं करना पड़ता। हम भी अपने जीवन में मगन होते। कोई भागदौड़ नहीं मची रहती। फालतू की बातों पर कभी खून नहीं जलाना पड़ता। </div>
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सोचते रहने की कोई बीमारी सी हो गयी है लगता है। शायद इसीलिए आज अपनी उस शिक्षा को भी धिक् दे रहा हूँ जिसने मेरे अंदर उस तर्क-वितर्क या कुतर्क की क्षमता का विकास किया है। अगर ये नहीं होती तो सोचते रहने की बीमारी भी नहीं होती और इसलिए कभी बुरा सोच ही नहीं पाता। नए साल में कुछ परेशान सा चल रहा हूँ शायद। एक अदद अच्छी खबर के इंतज़ार ने मन को विचलित कर के रख दिया है। बहुत कुछ व्यक्तिगत बातें हैं जो कहना चाहता हूँ मगर किसी से कह नहीं पाता। अपने इष्टजनों की चिंता का कारण नहीं बनना चाहता। कई दिन से इस पोस्ट को टाले जा रहा हूँ। जानता हूँ मेरा ब्लॉग घर वाले भी पढ़ते हैं। मैं नहीं चाहता कि वो ये पढ़ें और मुझे लेकर दुःखी हों। मैं नहीं चाहता कि कोई इसे पढ़े। ये शायद एक फेज भर है। यह भी बीत ही जायेगा। मैं जो हूँ वो शायद ये सही नहीं दर्शा रहा। मैं ऐसा नहीं था। मैं अभी भी शायद ऐसा नहीं हूँ। बस मन में बहुत कुछ भरा था जिसे कहीं निकालना चाह रहा था। ब्लॉग का ये सार्वजनिक मंच शायद इन व्यक्तिगत बातों के लिए सही नहीं है। पर फिर भी इस स्थिति में शायद मुझे इससे अच्छी जगह मिलती भी नहीं। मैं ठीक हूँ। मैं ठीक हो जाऊँगा। यह भी बीत जायेगा।<br />
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-36384573734299378452015-09-03T21:37:00.000+05:302015-09-03T21:37:41.506+05:30इंसानियत, दम तोड़ चुका।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqCbFT_yF-z9JMe9AzYE2o_lA_xps3KNc8bM9hhsB1mhFWzR5qalgmLhczPw-bSgwrRHLmGUYklMqHvxYW6RSKi2IiNBsL13qZALf6KdYPTDKchbgPGZEZnvgvIgYmjrXIiQqkA1g1vnt8/s1600/IMG_1303.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img adlesse_been_here="true" border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqCbFT_yF-z9JMe9AzYE2o_lA_xps3KNc8bM9hhsB1mhFWzR5qalgmLhczPw-bSgwrRHLmGUYklMqHvxYW6RSKi2IiNBsL13qZALf6KdYPTDKchbgPGZEZnvgvIgYmjrXIiQqkA1g1vnt8/s400/IMG_1303.JPG" width="400" /></a></div>
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वो पड़ा था,<br />
औंधे मुंह,<br />
लहरों के बीच,<br />
रेत पर,<br />
मासूम सा, निर्दोष।<br />
सांसें बंद थीं,<br />
नब्ज़ रुकी हुई।<br />
जाना पहचाना सा लग रहा था,<br />
इंसानियत सा,<br />
दम तोड़ चुका।<br />
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-59874495494234760632015-07-28T01:33:00.000+05:302015-07-28T01:33:18.762+05:30मसान - जीवन, मृत्यु और उनके बीच का सबकुछ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYD-pGxbU3Ftwm2_YIsX8GT5A5-fQsQ266YE3oQuYaXjeb-n-OdSefserU6AtqFfQb5-y-YyRkbsnPzXfZIFrauskSzWgmFvPrpiVjlwmvSU20UTRl1TmvlCPcOJeZYdF5lvcPW23zs7s9/s1600/CIKZsBTUAAE7Skp.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYD-pGxbU3Ftwm2_YIsX8GT5A5-fQsQ266YE3oQuYaXjeb-n-OdSefserU6AtqFfQb5-y-YyRkbsnPzXfZIFrauskSzWgmFvPrpiVjlwmvSU20UTRl1TmvlCPcOJeZYdF5lvcPW23zs7s9/s400/CIKZsBTUAAE7Skp.jpg" width="266" /></a></div>
कुछ महीने पहले की बात है। ट्विटर के बाज़ार पर दो भारतीय फिल्मों का किस्सा गर्म था। मराठी फिल्म कोर्ट और हिंदी फिल्म मसान। कोर्ट पहले ही रिलीज़ हो गयी थी मगर देखने का मौका नहीं मिला हालांकि चाहत देखने की काफी थी। मसान ने कान फिल्म महोत्सव में अच्छा धमाका किया था। इंतज़ार इसके रिलीज़ की तब से ही थी। इतना कुछ इसके बारे में सुना था कि कभी ट्रेलर देखने का मन ही नहीं हुआ, सीधे फिल्म देखने की ही इच्छा हुई थी। अंततः फिल्म देखने का मौका कल मिल ही गया। वरुण ग्रोवर की लिखी इस फिल्म का निर्देशन किया है नीरज घेवान ने।<div>
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फिल्म की शुरुआत होती है बनारस के एक छोटे से कमरे से। देवी (ऋचा चड्डा) अपने घर में खिड़की-दरवाजे बंद करके कानों में ईयर-फ़ोन लगाये पॉर्न देख रही है और फिर उठकर बाहर निकलती है। एक लड़के के साथ शहर के एक होटल में जाती है। "जिज्ञासा मिटाने"। उसी समय होटल में पुलिस छापा मारती है और उन्हें आपत्तिजनक स्थिति में पकड़ लेती है। लड़का बदनामी के डर से वहीँ हाथ की नसों को काटकर आत्महत्या कर लेता है। लड़की की उसी हालत में पुलिस इंस्पेक्टर एमएमएस बना लेता है। फिल्म की आगे की टोन और कथानक यहीं तय हो जाते हैं।</div>
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एक दूसरी कहानी में बनारस के श्मशान घाट पर मुर्दों को जलाने का काम करने वाले डोम समुदाय का एक लड़का दीपक (विक्की कौशल) एक ऊँचे जाति के लड़की शालू (श्वेता त्रिपाठी) को पसंद करता है। फेसबुक के माध्यम से दोस्ती होती है। दोस्ती प्यार में बदल जाती है। दीपक सिविल इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। बाप-दादा के श्मशान वाले धंधे से उसे बाहर निकलना है, नौकरी करनी है। शालू ग़ज़लों की शौक़ीन है। नीदा फ़ाज़ली और दुष्यंत कुमार को सुनती है। दीपक ग़ज़ल से कोसों दूर हैं। सुनना तो दूर, इन्हे समझने में भी उसे दिक्कत होती है। घंटों की टेलीफोन की बातों में शालू उसे शायरी सुनाती रहती है। बिना समझे दीपक सब सुनता रहता है। निर्दोष भाव से वो स्वीकार भी करता है कि उसे शायरी का श भी समझ नहीं आता। उसकी सच्चाई इस प्यार को नयी ऊंचाइयों तक ले जाती है।</div>
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दीपक शालू को चूमता है और फिर सफाई देता है, "तुम घर में सबसे छोटी हो न इसलिए प्यार आ गया।" छोटी जात के लड़के का ऊँची जात की लड़की से यह प्यार निष्पाप तरीके से परवान चढ़ता है। दर्शक जात-पात की बंदिशों को भूलकर इस निर्दोष प्यार के मजे लेते हैं तभी दीपक का दोस्त कहता है, "ऊँचे कास्ट की हैं, भाई ज्यादा सेंटीआईएगा नहीं।" आप इस अद्भुत प्यार को एक दर्दनाक अंत की तरफ बढ़ते हुए महसूस करते हैं। दीपक शालू के सामने अपना सच कह देता है। शालू अपने परिवार के साथ बद्रीनाथ की यात्रा पर जाती है। रास्ते में एक ढाबे पर वो रुकते हैं। ढाबा उनके जात के लोगों का ही है। शालू के माता-पिता जात के इस पुट के साथ खाने की बड़ाई करते हैं और तभी शालू यह निर्णय करती है कि वो जात-पात के इन बंदिशों को तोड़कर दीपक के साथ भागने को भी तैयार है। अगले ही सीन में दीपक घाट पर मुर्दों को जला रहा होता है। कोई बस पलट गयी थी इसलिए घाट पर काफी भीड़ है। उन्हीं मुर्दों में एक शालू भी है। दर्शक दहल से जाते हैं। दर्दनाक अंत का इंतज़ार सबको था मगर ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। दीपक टूट जाता है। और फिर शालू की यादों को दिल में संजोये बनारस छोड़ देता है। </div>
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उधर देवी की ज़िन्दगी श्मशान की तरह आगे बढ़ रही है। उसका प्यार मर चुका है और जिसके मौत का कारण उसे ही माना जा रहा है। उसके एमएमएस को यूट्यूब पर डालने की धमकी देकर वो इंस्पेक्टर देवी के बाप से पैसे ऐंठता है। घाट पर पूजा-पाठ की सामग्री बेचने वाला वो बूढ़ा बाप (संजय मिश्रा) संस्कृत का विद्वान है। कभी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था, आज मुसीबत में घिरा एक गरीब बाप है। कहीं-कहीं से वो पैसों का बंदोबस्त करता है। दूकान पर काम करने वाले एक छोटे बच्चे झोंटा को डुबकी लगा कर पैसे निकालने के खेल में शामिल कराकर किसी तरह से कुछ पैसे कमाता है और उस इंस्पेक्टर का मुंह बंद करता है। देवी इस ज़लालत से दूर निकलना चाहती है। रेलवे में अस्थायी नौकरी करके कुछ पैसे कमाती है और बाप की मदद करती है। उसके बाद बनारस छोड़कर बाहर चली जाती है। अपनी ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी से दूर।</div>
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कहानी कहाँ शुरू होती है और कहाँ ख़त्म कुछ पता नहीं चलता। किरदारों के जीवन के एक हिस्से को उठाकर कथाकार ने फिल्म में पेश कर दिया है। हर किरदार की एक पहले की कहानी है और एक बाद की। उन कहानियों का इस कहानी पर यदा-कदा ही असर होता दिखता है। मुख्य किरदारों के अलावा कुछ और सहायक किरदार हैं जो फिल्म को आगे ले जाने और अपनी बात कहने में मदद करते हैं। देवी के साथ काम करने वाला रेलवे का एक कर्मचारी (पंकज त्रिपाठी) वैसा ही एक किरदार है। उससे पूछे जाने पर कि वो अकेला रहता है, वो कहता है, "जी नहीं, मैं अपने पिताजी के साथ रहता हूँ, पिताजी अकेले रहते हैं।"</div>
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विक्की कौशल की अदाकारी फिल्म में जान डाल देती है। श्वेता त्रिपाठी की मासूमियत को उनकी अदायगी नए आयाम देती है। संजय मिश्रा और पंकज त्रिपाठी सहायक किरदारों में जंचते हैं। ऋचा चड्डा अपने किरदार के साथ पूरा इन्साफ करती नज़र आती हैं हालांकि उनके किरदार में रंगों की कमी उनकी अदाकारी को भी कहीं कहीं नीरस बना देती है। बनारस का शहर फिल्म में एक अभिन्न किरदार के रूप में बाहर आता है। गंगा के घाटों की खूबसूरती, दुर्गा-पूजा में दुल्हन सी सजी शहर की सड़कें या फिर अनंत ज्योति की तरह श्मशान घाट पर जलती हुई चिताएं। सब अपनी अपनी कहानी बताते हैं।</div>
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श्मशान के कुछ दृश्य सीधे दिलों पर वार करते हैं। अपने बेटे की चिता को आग देने वाले बाप से डोम-राज कहता है पांच बार बांस के बल्ले से शव के सर को मारकर फोड़ो तब तो मिलेगी आत्मा को मुक्ति। श्मशान की यात्रा कभी सुखद नहीं होती। अपने प्रिय को आग की लपटों में स्वाहा कर देना बड़ा दुःखदायी होता है। कई तरह के विचार मन में आते हैं। जो वहीँ रहकर अपनी रोजी-रोटी ही इस काम से निकालता है उसकी मनःदशा कभी समझने की कोशिश नहीं की थी। फिल्म में उन डोम के ज़िन्दगी को भी बखूबी दर्शाया है। शायद मुर्दों को जलाते रहने के दुःख को वो शराब के अपने नशे से मिटाते रहने की कोशिश करते हैं। तभी तो अंत में एक डोम पिता अपने बेटे को इस काम से दूर निकल कर पढ़ लिख कर नौकरी करने की सलाह देता है। </div>
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फिल्म जातिवाद पर भी चोट करती हुई आगे बढ़ती है। देवी का बाप उस इंस्पेक्टर से अपनी ही बिरादरी के होने की दुहाई देता है जिसका कोई असर नहीं पड़ता। सब अपनी फायदे की सोचते हैं। जात की सोचकर कोई नुकसान क्यों उठाये। उसी तरह शालू भी दीपक के साथ ज़िन्दगी बिताने का निर्णय तभी करती है जब उसके माँ-बाप एक ढाबे के खाने की बड़ाई करते हैं क्यूंकि वो उनके बिरादरी के लोगों का ही ढाबा है। फिल्म कई सारी बात पौने दो घंटे में कह देती है। </div>
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कैमरामैन ने बनारस की जिस नब्ज़ को पकड़ा है वो शहर के कई रूपों को सामने ले आता है। जलती हुई चिताओं और उससे उठता हुआ धुआं मन में चोट पैदा करता है वहीँ दुर्गा-पूजा में सजे शहर के ऊपर उड़ते हुए वो दो लाल गुब्बारे उस आशा के प्रतीक बनकर ऊपर उठते चले जाते हैं जिनमें आप सोचते हैं यहां सब कुछ बुरा ही नहीं होता। आपको पता है कि वो गुब्बारे ऊपर जाकर फूटने ही वाले हैं मगर फिर भी वो आस नहीं मिटती। यह सीन फिल्म का सबसे प्यारा सीन बनकर सामने आता है। जिस प्यार का इज़हार यह सीन करता है उसी की तरह यह भी अपने अंदर सारे जहां की मासूमियत दबाये रहता है। बनारस, जहाँ सब मरने के बाद मुक्ति के लिए आते हैं, वहीँ वहां के किरदारों को जीवन में अपने दुखों से मुक्ति नहीं मिलती। सब बनारस के मसान में आते हैं मुक्ति पाने मगर देवी और दीपक आगे बढ़ जाते हैं उस मसान की तलाश में जहां उन्हें मुक्ति मिले, दुःखों से, अपनी यादों से। </div>
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<iframe width="320" height="266" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/zpf8hrbT2d0/0.jpg" src="https://www.youtube.com/embed/zpf8hrbT2d0?feature=player_embedded" frameborder="0" allowfullscreen></iframe></div>
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-331241279393335432015-07-04T23:00:00.000+05:302015-07-04T23:03:35.678+05:30एक नया सफर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/0/00/IPGMER_SSKM_Woodburn.jpg/250px-IPGMER_SSKM_Woodburn.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="258" src="https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/0/00/IPGMER_SSKM_Woodburn.jpg/250px-IPGMER_SSKM_Woodburn.jpg" width="400" /></a></div>
जीवन एक यात्रा है। निरंतर चलती हुई। अंतिम सांस के साथ आने वाली मौत पर ही रुकने वाली। छोटे से इस जीवन में कई मुकाम आते हैं। रेलगाडी के सफर में आने वाले स्टेशनों की तरह। गाडी रुकती है, कुछ लोग चढते हैं कुछ उतर जाते हैं। गाडी फिर आगे बढ जाती है। नए लोगों का साथ मिलता है पुराने लोग छुट जाते हैं। आज ऐसी ही एक रेलगाडी में बैठा वो अपने जीवन के सफर के अगले मुकाम तक बढ रहा है।<br />
<br />
वक्त बढता तो निरंतर अपनी ही रफ्तार से है मगर लोग महसूस करते हैं अपनी सहूलियत से। गुजरता हुआ वक्त जब हसीं होता है तो और लम्बा चलने की हसरत में जल्दी जल्दी बीतता हुआ सा महसूस होता है। लगता है अभी तो शुरूआत हुई थी और अभी अभी सब खत्म हो गया। पिछले तीन सालों में उसने कई उतार चढाव देखे हैं। बडी ही सामान्य सी बात है, आखिर तीन साल कोई छोटा समय तो नहीं होता। कुछ पल बडे लम्बे बीते और कुछ अच्छे वाले पलक झपकते ही ओझल हो गए। यही कारण है कि चाहते हुए भी वह ऐसा नहीं सोच पा रहा है कि ये पिछले तीन साल बडे जल्दी बीत गए।<br />
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जो भी हो, कलकत्ता छोडकर जब आज वो निकल रहा है तो पिछले तीन साल के कई खट्टे मीठे पल अभी याद आ रहे हैं उसे। तीन साल और एक दिन। एक और सफर की शुरूआत होती है। ऐसे ही रेलगाडी के एक डिब्बे में। वो उस दिन भी अकेला चला था इस सफर में और आज भी अकेला है। कुछ सपने उस दिन भी थे आँखों में, कुछ आज भी हैं। आज मगर एक सुकून भी है। पुराने सपनों के पूरे हो जाने का। वो सपने जो उसके लिए उसके पापा ने देखे थे। वही सपने जो शायद उसके पापा के लिए उनके बाबूजी ने देखे थे। पिता के सपनों को पूरा करने की खुशी आज अपने सपने खुद देखने वाली पीढी क्या समझेगी!<br />
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3 जुलाई 2012 का वो दिन था, अस्पताल में उसका पहला। मंगलवार का दिन। सामने आने वाले 3 सालों के सपनों को देखते हुए अपने नए दोस्तों से मिल रहा था। सबसे पहले एक सीनियर से मुलाक़ात हुई। उसके अपने ही यूनिट के। गैर-हिंदी बोलने वाले इस नए जगह में उस हिंदी-भाषी से मिलकर शायद एक अपनापन सा महसूस हुआ था। समय के साथ दोनों अच्छे दोस्त बनने वाले थे। शुरुआत उस दिन ही हुई थी जो आजतक कायम है। उनके साथ ही उसने पहली बार वार्ड के चक्कर लगाये थे। और वहीँ मुलाक़ात हुई उसे अपने यूनिट के साथी से, जिसके साथ तीन साल बीतने वाले थे।<br />
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वार्ड के बाहर ड्यूटी-रूम में बत्तियां बुझाकर सो रहा था। हॉस्टल में कमरा नहीं मिला था। वो ड्यूटी-रूम ही उसका घर बना रहा था अगले ढाई-तीन महीनों के लिए। एक काला सा अजीब सा दिखने वाला लड़का। सांवला कहना सांवलेपन का अपमान था, इसलिए काला। घुंघराले बिखरे बाल। पसीने के दाग लगे हुए कमीज। आँखों में थकान। आने वाले पहले साल की थकान भरी ज़िन्दगी की कहानी बयां कर रही थी उसकी ये हालत। उसके कमरे में घुसते ही वो जग गया था। बत्ती जलायी, सिगरेट मुंह में लगाकर सुलगाया और फिर हाथ बढाकर हुई पहली मुलाक़ात। न जाने कितने सिगरेट पीने का असर उसे झेलना पड़ा था अपने इस नए दोस्त की इस आदत के कारण।<br />
<br />
अगले कुछ महीने उसके बड़े खट्टे-मीठे बीते। कभी वार्ड से डिस्चार्ज होते मरीज़ों की दुआएं मिलती और कभी किसी गलती पर सर की झाड़। झाड़ ज्यादा मिलती थी, दुआएं कम। फिर भी काफी होती थी हौसला बढ़ाये रखने के लिए। झाड़ तो अक्सर बंगाली में मिलती थी। शुरूआती कुछ महीने वो समझ ही नहीं पाता था। होठों पर मुस्कान रहती थी। सर और गुस्सा होते थे। और झाड़ पड़ती थी। उसकी मुस्कान टस से मस नहीं होती थी। बाद में उसके साथी उसे बताते थे, वो झाड़ खा रहा था। मुस्कान फिर ठहाकों में बदल जाती थी।<br />
<br />
समय गुजरता चला गया। नए मरीज़ भर्ती होते। इलाज़ होता, ऑपरेशन होता। ज्यादातर ठीक होकर घर जाते, कुछ साथ छोड़ देते। कभी दुआएं मिलती, कभी गालियां भी पड़ती। इन सब के बीच वो अपने घर से, परिवार से दूर चलता रहा अपने इस सफर में। कभी कुछ दोस्त होते थे, ज्यादातर अकेले ही रहता था। अकेलेपन का अहसास तो होता ही था, मगर उसने कभी इसे अपने मन पर हावी नहीं होने दिया। सपनों के पीछे भी ताक़त होती है जो उसे उसकी नियति की ओर ले जाती है। माँ-बाप के उस सपने के पीछे उनका ही आशीर्वाद होता है। उसी आशीर्वाद के सहारे आज फिर से उसने एक सपना देखा है। उसी नए सपने के साथ वह चल निकला है। इस नए सफर पर।<br />
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-88335066644947887412015-06-07T16:23:00.000+05:302015-06-07T16:23:20.504+05:30मारे गए गुलफाम! और तीसरी कसम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1W4YUYMVgXhqZvvEgq9vsHZBI1W1wl0qlwc4URUoeV0lqFWJUtkt4IRzy5SlyXvt_FQX_UqKjH3PZr6_DA5SzPbRIQXHdlAAxV92AA2CgRSJr01TlPELZVTSejCadJz6T26vIoUIWMB0h/s1600/TeesriKasam.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1W4YUYMVgXhqZvvEgq9vsHZBI1W1wl0qlwc4URUoeV0lqFWJUtkt4IRzy5SlyXvt_FQX_UqKjH3PZr6_DA5SzPbRIQXHdlAAxV92AA2CgRSJr01TlPELZVTSejCadJz6T26vIoUIWMB0h/s400/TeesriKasam.jpg" width="303" /></a></div>
कुछ दिनों पहले परीक्षाओं को लेकर पढाई में काफी व्यस्त था। दिन भर हॉस्टल के कमरे में किताबों के बीच पड़ा रहता था। बाहरी दुनिया से भौतिक तालमेल टूट चुका था। इंटरनेट के माध्यम से ही मन बहलाने का काम चलता था। बाहर जाना, घूमना-फिरना इन सब के लिए न तो समय था और न ही समय निकाल पाने की हिम्मत होती थी। मन बहलता था युट्यूब के वीडियो से। पुराने दूरदर्शन के धारावाहिक के एपिसोड या फिर कभी कभी कोई डाक्यूमेंट्री फीचर। इसी क्रम में मौका मिला फणीश्वर नाथ रेणु के जीवन पर बने <a href="https://www.youtube.com/watch?v=LjhdAAH91L8" target="_blank">इस कार्यक्रम</a> को देखने का। रेणु के बारे में पहले भी कई बार बहुत कुछ पढ़ चुका था। कार्यक्रम के दौरान कई नई जानकारी मिली और कुछ पुरानी बातों की पुनरावृति हो गयी।<br />
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बचपन में पापा पुस्तक मेला लेकर जाते थे। पुस्तक उनके लिए होते थे, मेला हमारे लिए। एकाध कोई भारती भवन की किताब हम पसंद करते थे, पापा पुस्तकों का एक जखीरा। राजकमल पेपरबैक्स के प्रतिनिधि कहानियों का कलेक्शन। अमृतलाल नागर, भीषम साहनी, इस्मत चुगताई, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश इत्यादि। इसी कलेक्शन में रेणु का नाम पहली बार सुनने का मौका मिला था। तब उम्र इन्हें पढ़ने की नहीं थी। बड़े हुए, घर बदला और शायद तबादले में या समय के साथ ये किताबें कहीं खोने लगी। बड़े भाई को भी साहित्य का शौख था। पुस्तक मेले में फिर उसके साथ जाने लगा। पुस्तकों के प्रति थोड़ा रुझान बढ़ चुका था मगर फिर भी ज्यादा समय नहीं दे पाता था। ज्यादा जानकारी भी नहीं थी। अपना इस्तेमाल मेले में मैं भैया की मदद के लिए करता था। "रेणु की 'मैला आँचल' कहीं दिखे तो ले लेना", उसने कहा था। उसके हाथ में पहले से 'परती परिकथा' और 'एक आदिम रात्रि की महक' थी। कुछ और किताबों के साथ। जिनमें वो प्रतिनिधि कहानियों का कलेक्शन भी था जो खो गए थे।<br />
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तब तक बड़ा हो चुका था और थोड़ी बहुत जानकारी सिनेमा और साहित्य के बारे में मिल चुकी थी। विविध भारती के कार्यक्रम पिटारा में शुक्रवार (शायद) को बॉयोस्कोप की बातें आती थी। उसमें फिल्म तीसरी कसम के बारे में सुना था कुछ ही दिन पहले। रेणु की प्रतिनिधि कहानियाँ वाली किताब में 'मारे गए गुलफाम' को ढूँढा और पढ़ा। तब से फिल्म देखने की इच्छा मन में रही। टीवी पर कई बार मौका मिला पर पूरी फिल्म टुकड़ों में ही देख पाया। जब से फिर से यूट्यूब पर रेणु पर वो कार्यक्रम देखा, तब से फिर से तीसरी कसम देखने की इच्छा बलवती हो गयी। फिर क्या था, इंटरनेटी युग है, हो गया सिनेमा डाउनलोड और आखिरकार कल फिल्म देख ही लिया।<br />
<br />
फणीश्वर नाथ रेणु उत्तर पूर्व बिहार से आते हैं और हिंदी साहित्य के उच्चतम लेखकों में एक हैं। बिहार से आते हैं और उनकी शैली में बिहारियात खुल कर बाहर आती है इसलिए शायद उनके साथ एक जुड़ाव अपने-आप बन जाता है। कोसी के उस इलाके से ताल्लुक रखते हैं जो न जाने कितनी बार कोसी की बाढ़ की मार झेलकर आज भी बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाकों में एक है। तकरीबन 50-60-70 साल पहले लिखी गयी उन कहानियों में इस क्षेत्र का दुःख, इनकी गरीबी, ज़मींदारों का सामंती रवैया सब छलक-छलक कर बाहर आता है। और उस सामाजिक कुरीतियों और चलनों के ताने-बाने में संवेदनाओं का अनूठा खेल रेणु की हर कहानी में उनकी शैली बनकर बाहर आता है।<br />
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ऐसी ही समाज की दकियानूसी सोच और रवैये के बीच संवेदनाओं का एक भंवर है 'मारे गए गुलफाम' जिसपर फिल्म तीसरी कसम बनी। हिरामन नाम के एक गाड़ीवान की कहानी जो अपने जीवन में दो कसम खा चुका है, एक चोरबाज़ारी का सामान कभी नहीं लेगा और दूसरा बांस कभी नहीं लादेगा। उत्तर-पूर्वी बिहार के एक गाँव का ये नवयुवक गाड़ीवान गाड़ीवानी को अपनी जान बताता है। अपनी शादी की बात पर बोलता है, <span style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-size: 16px;">"कौन बलाय मोल लेने जाए! ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सबकुछ छूट जाए, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन।" </span>इस बार उसे सवारी मिलती है नौटंकी कंपनी के एक बाई की, हीराबाई। हीराबाई हिरामन को मीता कहकर बुलाती है, कहती है, <span style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-size: 16px;">"तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं।, मेरा नाम भी हीरा है।"</span> हिरामन कुछ नहीं कह पाता सिर्फ मुस्कुराता है और पूरी मासूमियत से अंत में कहता है, "<span style="font-family: Solaimanlipi, Vrinda; line-height: 22.39999771118164px;">इस्स</span>"।<br />
<blockquote class="tr_bq">
<blockquote class="tr_bq">
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>"एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है। दूसरे रह-रहकर चंपा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में। बैलों को डाँटो तो 'इस-बिस' करने लगती है उसकी सवारी। उसकी सवारी! औरत अकेली, तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी नहीं! आवाज सुनने के बाद वह बार-बार मुड़कर टप्पर में एक नज़र डाल देता है; अँगोछे से पीठ झाड़ता है। भगवान जाने क्या लिखा है इस बार उसकी किस्मत में! गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चाँदनी उसकी गाड़ी में समा गई। सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा। हिरामन को सबकुछ रहस्यमय, अजगुत-अजगुत- लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गाँव तक फैला हुआ मैदान! कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं?</i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>हिरामन की सवारी ने करवट ली। चाँदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रूक गया, अरे बाप! ई तो परी है! परी की आँखें खुल गइं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुँह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटाकर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है। हिरामन की जीभ न जाने कब से सूखकर लकड़ी-जैसी हो गई थी!</i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>''भैया, तुम्हारा नाम क्या है?'' </i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>हू-ब-हू फेनूगिलास! हिरामन के रोम-रोम बज उठे। मुँह से बोली नहीं निकली। उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं।</i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>''मेरा नाम! नाम मेरा है हिरामन!''</i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>उसकी सवारी मुस्कराती है। मुस्कराहट में खुशबू है।</i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>''तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं।, मेरा नाम भी हीरा है।''</i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>''इस्स!'' "</i> </div>
</blockquote>
</blockquote>
कहानी आगे बढ़ती है। हिरामन उसे अपने गाँव-परिवार की बातें बताता है। अपने इलाके के लोक-गीत सुनाता है। कहानियाँ बताता है। महुआ घटवारिन की कहानी। एक कुंवारी सुंदरी जिसे एक सौदागर उठा कर ले गया था। हीराबाई को उस घाट पर नहाने से मना करता है जहाँ से महुआ को उठाया गया था जब वो नहा रही थी। सिनेमा और कहानी के इस प्रसंग में थोड़ा अंतर है। सिनेमा के इस प्रसंग में हिरामन की मासूमियत और कुंवारी शब्द सुनकर हीराबाई की मन की पीड़ा का भाव राज कपूर और वहीदा रहमान ने जिस प्रकार दिखाया है वो देखने लायक है। एक मासूम गाड़ीवान का एक कंपनी की बाई के लिए उमड़ता हुआ प्यार और समाज के अंदर ऐसे रिश्तों के प्रति नीची सोच के बीच का विरोधाभाष कहानी में पहली बार उमड़ कर सामने आता है और फिर इसी विरोधाभाष और इससे जुड़े संवेदनाओं को लेकर कहानी आगे बढ़ती जाती है।<br />
<br />
हिरामन और हीराबाई की नजदीकी बढ़ती जाती है। हीराबाई को नौटंकी में नाचना तो फिर भी हिरामन को भाता है मगर उसपर दर्शकों और उसके खुद के दोस्तों की प्रतिक्रिया को वो बर्दाश्त नहीं कर पाता। उसके अंदर जलन की भावना घर करने लगती है। उसके दोस्त हीराबाई की तरफ वही भावना रखते हैं जो लोगों में नौटंकी कंपनी की बाई के लिए होती है। उसके दोस्त कहानी में उस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका एक हिस्सा हिरामन खुद है। हिरामन के मन में फिर भी हीराबाई के लिए इज़्ज़त रहती है जो समय के साथ प्यार में बदलने लगती है। वो इज़्ज़त, वो प्यार जो हीराबाई के लिए बिलकुल नया था। कंपनी की बाई को भला इज़्ज़त कौन देता है।<br />
<br />
गाँव का ज़मींदार अपने दौलत के बल पर हीराबाई को अपना बनाने की कोशिश करता है। हीराबाई के लिए ये नया नहीं है। इसके पहले कई लोग उसका इस्तमाल इस तरह कर चुके हैं। मगर फिर भी उसको यहाँ यह नया लगता है। हिरामन से मिली इज़्ज़त से उसे लगता है कि उसे भी इज़्ज़त मिल सकती है, तो क्या हुआ अगर वो कंपनी की एक बाई है। अपने भूत, वर्त्तमान, और भविष्य के बीच में हीराबाई पिसती हुई नज़र आती है। वो क्या थी, वो क्या करती थी, उसके प्रति समाज की राय क्या थी। वर्त्तमान में हिरामन से मिलने वाली इज़्ज़त और प्यार के मायने उसके जीवन के लिए क्या थे, समाज में इस रिश्ते की प्रामाणिकता क्या होगी, ये रिश्ता उसे कहाँ ले जायेगा। उसका भविष्य क्या होगा, क्या हिरामन-हीराबाई के साथ का कोई भविष्य है। इन सभी प्रश्नों और इनसे जुड़े भावनाओं के बीच में हीराबाई टूटती हुई नज़र आती है। कंपनी के उसके दोस्त उसे कोई निर्णय जल्दी लेने के लिए बोलते हैं और पूरी समझदारी के साथ। ताकि इतनी देर न हो जाये कि, "कहीं ऐसा न हो कि हीरादेवी को कोई चाहने वाला न हो, और हीराबाई को कोई देखने वाला न हो।"<br />
<br />
भावनाओं के इस भंवर से हार मान कर हीराबाई चली जाती है। हिरामन दौड़ता भागता हुआ मिलने स्टेशन जाता है। अंतिम भेंट। हीराबाई अपने देश वापस लौट जाती है। हिरामन को उसके पैसे और अपनी एक निशानी देकर। ट्रेन सिटी मारती हुई आगे बढ़ जाती है। आंसुओं के फव्वारे दोनों और मन में निकलने लगते हैं। बाहर कोई नहीं आने देता। हिरामन गाड़ी लेकर वापस लौटने लगता है। उसके बैल पलट-पलट कर जाती हुई रेलगाड़ी को देखता है। हिरामन उन्हें झाड़ते हुए कहता है, "पलट-पलट के क्या देखते हो, खाओ कसम फिर कभी कंपनी की बाई को गाड़ी में नहीं बैठाएंगे।" हिरामन की तीसरी कसम।<br />
<blockquote class="tr_bq">
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>"रेलवे लाइन की बगल से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गई है दूर तक। हिरामन कभी रेल पर नहीं चढ़ा है। उसके मन में फिर पुरानी लालसा झाँकी, रेलगाड़ी पर सवार होकर, गीत गाते हुए जगरनाथ-धाम जाने की लालसा। उलटकर अपने खाली टप्पर की ओर देखने की हिम्मत नहीं होती है। पीठ में आज भी गुदगुदी लगती है। आज भी रह-रहकर चंपा का फूल खिल उठता है, उसकी गाड़ी में। एक गीत की टूटी कड़ी पर नगाड़े का ताल कट जाता है, बार-बार!</i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>उसने उलटकर देखा, बोरे भी नहीं, बाँस भी नहीं, बाघ भी नहीं, परी देवी मीता हीरादेवी महुआ घटवारिन, कोई नहीं। मरे हुए मुहूर्तो की गूँगी आवाजें मुखर होना चाहती है। हिरामन के होंठ हिल रहे हैं। शायद वह तीसरी कसम खा रहा है, कंपनी की औरत की लदनी।</i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i>हिरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारे हुए बोला, ''रेलवे लाइन की ओर उलट-उलटकर क्या देखते हो?'' दोनों बैलों ने कदम खोलकर चाल पकड़ी। हिरामन गुनगुनाने लगा- ''अजी हाँ, मारे गए गुलफाम!''</i> "</div>
</blockquote>
</div>
Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-41742904700341438152015-06-02T18:15:00.000+05:302015-06-02T18:17:52.535+05:30वसुधैव कुटुम्बकम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ दिनों से इधर घर से बाहर हूँ। हालांकि परदेस में ये अपने परिवार का घर ही है मगर फिर भी बात अपने आशियें की कुछ और होती है। दिनचर्या में बदलाव आ जाता है और रूटीन की गतिविधियाँ थोड़ी अनियमित हो जाती हैं। कल काफी दिन के बाद NDTV इंडिया पर रविश की रिपोर्ट देखने का मौका मिला। रविश का उन दिनों से फैन रहा हूँ जब उनका साप्ताहिक रिपोर्ट आया करता था। सीधे गाँव से, गली-मुहल्लों से। उनकी शैली में पुरविया टोन उनके नजदीक ले जाती थी। स्टूडियो के चहारदीवारी में उनकी रिपोर्टों की उड़ान पिंज़रे में बंद महसूस होती थी। कल वाली रिपोर्ट फिर से एक गाँव से आई थी।<br />
फरीदाबाद का अटाली गाँव। आदर्श गाँव अटाली। आदर्श लिखना जरूरी है। ये याद रखने के लिए और फिर ये समझने के लिए कि हमारे देश में अगर कोई गाँव आदर्श कहलाता है तो उसकी भूमिका क्या होनी चाहिए और क्या होती है।<br />
<br />
पहले ही लिख चुका हूँ कि कुछ दिनों से घर से बाहर हूँ इसलिए ताज़ा ख़बरों के मामले में थोड़ा अनभिज्ञ भी हूँ। इस आदर्श गाँव में कुछ दिनों पहले, 25 तारीख को, एक दुःखद घटना घटी। एक साम्प्रदायिक हिंसा। हिन्दुओं के एक गुट ने गाँव के मुसलमानों के ऊपर हमला कर दिया। विवाद एक मस्जिद बनाने को लेकर था। कोर्ट के आदेश के हिसाब से ज़मीन मुसलमानों की थी और मस्जिद बनाने में कोई आपत्ति नहीं थी। गाँव के हिन्दुओं को, मगर, कठिनाई थी मस्जिद के बनने से। क्यूंकि मस्जिद के ठीक सामने माँ का मंदिर था।<br />
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ऊपरी तौर से स्थिति और हालात दोनों वही पुराने दंगों वाले थे। वैसा ही कुछ यहाँ भी हुआ। पहले हिंसा, मारपीट, आगजनी फिर पलायन और शरण और फिर वोटों का राजनीतिक खेल। मैं इस सब के अंदर नहीं घुसना चाहता। उस प्रोग्राम में बड़ी बखूबी से दोनों पक्षों की बात साफ़-साफ़ दिखाई गयी है। बिना किसी पक्षपात के। मैं बात बस इन झंझटों के बीच में टूट जाने वाले इंसानी जज़्बातों की करना चाहता हूँ। गाँव का हरेक आदमी ये मानता है कि पहले हालात 'आदर्श' थे। कोई सांप्रदायिक भेदभाव की स्थिति पहले नहीं थी। सब मिलकर साथ में रहते थे। एक दूसरे के त्योहारों में शरीक होते थे। शादी-व्याह में न्योते चलते थे। एक बड़े परिवार के भाइयों की तरह उनलोगों का आचरण था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया। या अगर इसके पीछे छिपे बड़े तस्वीर को देखें तो फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है। हर उस मामले में जहां लोग ये आपसी सौहार्द छोड़कर भिड़ जाते हैं। धर्म के नाम पर, जात के नाम पर।<br />
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अपने कॉलेज के दिनों में जतियारी करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। कॉलेज के दोस्तों के साथ सम्बन्ध शायद आज उतने अच्छे नहीं है इसका एक कारण यह भी हो सकता है। जातिवाद और धर्मवाद का पक्षधर मैं आज भी हूँ। हर एक शख्श की एक पहचान होती है। ये जाति-धर्म इत्यादि उसी पहचान का एक हिस्सा है। आप अपने चेहरे से मुक्ति नहीं पा सकते, वैसे ही आप जात-धर्म से भी अलग नहीं हो सकते। पर जरुरत है इनको ढंग से समझने की। कोई जात या कोई धर्म सर्वोत्तम नहीं होता। कोई जात-धर्म दूसरी मान्यता रखने वालों को बुरा नहीं कहता। ये दुर्भावनाएं समाज में समय के साथ आती चली गयी हैं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए धर्म-गुरु लोगों को भड़काते गए हैं और हम अंध-भक्तों की तरह भड़कते गए हैं। अंतिम नतीजा ऐसा निकलता है जहाँ हर धर्म शिक्षा तो शांति और सद्भाव की देता है मगर लोगों के मनों में द्वेष के सिवा और कुछ नहीं रहता।<br />
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ब्लॉग के साथ लिंक <a href="http://khabar.ndtv.com/video/show/prime-time/prime-time-faridabad-ballabgarh-communal-tension-369552" target="_blank">यहाँ</a> शेयर कर रहा हूँ। उसी प्रोग्राम की। देखना चाहते हैं तो पूरा वीडियो देखिये। बहुत ही उम्दा रिपोर्ट है। मगर मैं जो कहना चाह रहा हूँ वो देखना चाहते हैं तो सीधे जाइये 36वें मिनट पर। गाँव की एक चौपाल पर लोग बैठे बातें कर रहे हैं। क्या हुआ और अब क्या करना है। जो हुआ उसके लिए दुःख सबको है। भाईचारे से मामले को सलटाने की बात भी सब कर रहे हैं। बुजुर्ग थोड़े नरम हैं। झुककर माफ़ी मांग लेने और सब कुछ पहले जैसा कर लेने की बात भी कह रहे हैं। एक नौजवान, हालांकि, थोड़ा गुस्से में नज़र आता है। गर्म खून। 'हर बार हम ही क्यों झुके' वाला। बातचीत का अंत होता है जब वही बुजुर्ग इस नौजवान को चुप करता है कि तुम तो बाहर से आये हो तुम क्या जानो कि गाँव की स्थिति क्या है और यहाँ क्या क्या हुआ।<br />
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इस एक बात से कितनी तस्वीर साफ़ हो जाती है। समाज का पूरा आइना बनकर ये बात सामने आती है। ऐसी हिंसाओं का कारण वो समाज खुद नहीं होता। हम अक्सर ऐसे बाहरी लोगों के बहकावे में आकर जोश खोते हैं। ऐसे लोगों के जिनका हमारी तकलीफों के साथ कोई सीधा सरोकार नहीं है। जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता हमारी हालात से। जो हमें उन्हीं अँधेरी गलियों में छोड़कर फिर बाहर निकल जायेंगे अपनी शहर की जगमगाती दुनिया में। अपना उल्लू सीधा करेंगे एक पूरे गाँव को उल्लू बनाकर।<br />
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इसीलिए कहता हूँ, दोष जात-धर्म को मानने वालों का नहीं है। दोष उनका है जो इनके नाम पर समाज को भड़काने का काम करते हैं। शांति और सद्भाव के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो रोष और द्वेष के उस चश्मे को उतार फेंकिए जो आपको इंसानों को इंसान की तरह देखने से रोकता है। अपनाइये उस महान सोच को जिसमें कहा गया है, वसुधैव कुटुम्बकम।<br />
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-17064292627174043652015-05-31T18:16:00.000+05:302015-05-31T18:16:29.344+05:30स्वाधीनता! शांति! प्रगति!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1_beRVrcz5gcR3Gea7QzrD_Bsfwt2BtL_MsOCUTImSHwp1FWWYFyjMqdYQ3xUlvqBNORQuzOMsATfTNpeCIySlQ037_JJ7B3Glkj9Rvj0l-KZJGLQdSAHgZnIoN6F1yH4FP-M7ZzkzLK6/s1600/images.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1_beRVrcz5gcR3Gea7QzrD_Bsfwt2BtL_MsOCUTImSHwp1FWWYFyjMqdYQ3xUlvqBNORQuzOMsATfTNpeCIySlQ037_JJ7B3Glkj9Rvj0l-KZJGLQdSAHgZnIoN6F1yH4FP-M7ZzkzLK6/s400/images.jpeg" width="266" /></a></div>
इधर कई दिनों के बाद हिंदी में कुछ पढ़ने को मिला। टेक्नोलॉजी के इस युग में सब कुछ सॉफ्ट होता चला जा रहा है। उपन्यासों को कांख के अंदर दबा कर चलने वाले भी अब सोफ्टकॉपी रखते हैं टेबलेट में। अंग्रेजी की कई किताब पहले से सॉफ्ट फॉर्म में मिलती थी। हिंदी पढ़ने वालों के लिए ज्यादा विकल्प नहीं रहते थे। अभी कुछ दिनों पहले कुछ हिंदी उपन्यासों की सॉफ्ट कॉपी मिली। हिंदी पढ़ना हो, बिहार से ताल्लुक रखते हों और घरेलु कहानियों का शौख हो तो फिर <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Nagarjun">बाबा नागार्जुन</a> से ऊपर और कुछ नहीं। कुछ साल पहले बलचनमा पढ़ने का मौका मिला था। हर शब्द में अपनेपन का अहसास होता था। समाजवाद से लेकर राष्ट्रवाद तक सबकुछ था। उत्तर बिहार की उस कहानी में बहुत कुछ अपना अपना सा लगा। दुबारा जब फिर से नागार्जुन को पढ़ने का मौका मिला तो हाथ से जाने नहीं दिया। इस बार बारी थी 'बाबा बटेसरनाथ' की।<br />
बरगद के एक बूढ़े पेड़ की नज़रों से एक गाँव की कहानी। 4 पीढ़ियों में फैली हुई। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत के शुरूआती दिनों में बदलते पृष्ठभूमि की एक अति-साधारण सी ये कहानी ज़मींदारों का शोषण और फिर उठती हुई ज़मींदारी के बीच किसान और दबे हुए वर्ग के लोगों की आंदोलन की एक ऐसी तस्वीर बयां करती है जिसमे उस समय के बिहार को जानने और समझने का बड़ा आसान सा मौका मिलता है। यथार्थ से जुड़े नागार्जुन के हर शब्द अपने आप में एक कहानी की तरह उभर कर आते हैं। पुरबिया भाषा के प्रयोग से हर प्रसंग अपना सा लगता है। मानो मेरे गाँव की ही कहानी हो। शब्दों के जाल से रिश्ते की गर्माहट को कुछ इस तरह से पेश करते हैं जैसे सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो।<br />
बूढ़ा बरगद का एक पेड़ अपने लगाने वाले के पोते को अपना पोता समझ कर कुछ इस तरह प्यार करता है जैसे वो उसका खुद का पोता हो। और पढ़ने वालों के सामने एक ऐसी तस्वीर बनती है जहां उसे उस किरदार में अपनी छवि नज़र आती है।<br />
<blockquote class="tr_bq">
<i>"अब इस अद्भुत मनुष्य ने सिर ऊपर उठाया और थोड़ी देर तक तन्मय दृष्टियों से पूर्ण चन्द्र की ओर देखता रहा- देखता रहा और देखता रहा देखता ही रह गया कुछ काल तक।<br />फिर महापुरुष ने चारों दिशाओं और आठों कोनों की ओर अपनी निगाहें घुमाईं। इसमें भी कुछ वक़्त बीता।<br />फिर वह झुका।<br />झुककर पालथी मार ली और जैकिसुन का माथा सूंघने लगा। उसी गहराई से, जिस गहराई से बरसात की पहली फुहारों के बाद जंगली हाथी धरती को सूंघता है।<br />सूंघता रहा, बार बार सूंघता रहा-नथने फड़क रहे हो, तृप्ति नहीं हो रही हो मानो।<br />और तब बाबा बटेश्वर जैकिसुन के कपार और छाती पर हाथ फेरने लगे।<br />जैकिसुन ने करवट बदल ली। उसका एक हाथ बूढ़े के पैर की उँगलियों को छू रहा था। नींद उसकी और भी गाढ़ी हो आई। "</i></blockquote>
इसी बरगद की ज़मीन पर गाँव के जमींदारों की नज़र रहती है। कई हथकंडे अपनाये जाते हैं ज़मीन पर दखल बनाने के लिए। किसान वर्ग विरोध करता है। स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरित होकर ये नवयुवक किसान अपने पिता समान इस बरगद की रक्षा के लिए आगे आते हैं। कहानी बरगद के आँखों से फ्लैशबैक में जाती है और बरगद के ज़मीन पर आने से लेकर उसके अलग अलग रूपों का वर्णन करती हुई आगे बढ़ती है। हर प्रसंग में रीतियों-कुरीतियों पर कटाक्ष करती हुई पाठक को सोचने पर मजबूर करती है। आधी शताब्दी पुरानी कहानी आज भी प्रासंगिक लगती है। समाज की वो कुरीतियाँ जिनका बखान नागार्जुन करते हैं वो कहीं न कहीं हमारी ज़िन्दगी का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। मन सोचने को मजबूर हो जाता है। इक्कीसवी शताब्दी के पंद्रह साल हो गए, हम आज भी वहीं हैं। क्या कभी आगे बढ़ पाएंगे। क्या हमें छुटकारा मिलेगा कभी हमारी खुद की बुराइयों से। आशावाद और निराशावाद के बीच यथार्थवाद का क्या होगा पता नहीं।<br />
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कहानी आगे बढ़ती है। किसान ज़मींदारों से बरगद की ज़मीन बचाने में सफल होते हैं। बाबा बटेसरनाथ जैकिसुन के पास फिर से आते हैं और अपनी उम्र पूरी हो जाने और अपने अंत की बात करते हैं। साथ ही एक नए बरगद के पेड़ उसी जगह लगाने की बात करते हैं। एक नया बरगद का पेड़, एक नया युग। एक बदला हुआ समाज, एक बदला हुआ भारत। स्वाधीन, शांत और प्रगतिशील।<br />
<blockquote class="tr_bq">
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">"श्रावण की पूर्णिमा थी आज ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">रंग–बिरंगी राखियों से पुरुषों की कलाइयाँ शोभित थीं ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">रजबाँध पर उसी जगह बरगद का नया पौधा लहरा रहा था । दतुअन–सा पतला सादा तना—दो पत्ते थे हलकी हरियाली में डूबे हुए, फुनगी पर एक टूसा था–दीप की लौ की तरह दमकता हुआ ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">प्रकृति नए सिरे से मानवता को नवजीवन का संदेश दे रही थी ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">आसपास चारों ओर सावनी समाँ छाई हुई थी ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">समय पर वर्षा हुई थी, सो, धान के पौधे झूम–झूमकर बच्चा बरगद को अभिनंदित कर रहे थे ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">सभी के चेहरे से उल्लास टपक रहा था ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">हाजी करीमबक्स की कलाई में भी किसी ने राखी बाँध दी थी । वह गुनगुना रहे थे :</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">“सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा!</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलिस्ताँ हमारा!”</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">दयानाथ कुछ बोल नहीं रहे थे, पोते को उँगली पकड़ाए टहल रहे थे । लछमनसिंह, सुतरी झा, सरजुग आदि कई आदमी पौधे की हिफाजत के लिए कैलियों से बाड़ बुन रहे थे । बना–बनाया गोल बाड़ रोपने का उत्सव समाप्त हो चुकने पर पौधे के गिर्द डाल देनी थी ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">जीवनाथ और जैकिसुन अलग कुछ बातें कर रहे थे ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">पास ही ताजे–कटे बाँस की हरी लंबी ध्वजा के सहारे एक श्वेत पताका फहरा रही थी । उस पर सिंदूरी अक्षरों में तीन शब्द अंकित थे ।</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">स्वाधीनता!</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">शांति!</span></i></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial;">
<i><span style="font-family: inherit;">प्रगति!"</span></i></div>
</blockquote>
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-79555449897766556232015-04-26T07:28:00.000+05:302015-04-26T07:28:44.584+05:30वक़्त का हर शह पर राज!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjk4zWR86-RAhRmZdUCQFdARXeSbxOX8kHzqXSO_p7-dwJLczBr0A1J8q6ER80XBYY66lXJc3pg7MuRf1bRPVK0bc2ZD6rhFwrRgZuF8LPZEy2UQCE5OQCj7Mr7ioOYm4uDAwp73AY6zO33/s1600/buriedalive.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjk4zWR86-RAhRmZdUCQFdARXeSbxOX8kHzqXSO_p7-dwJLczBr0A1J8q6ER80XBYY66lXJc3pg7MuRf1bRPVK0bc2ZD6rhFwrRgZuF8LPZEy2UQCE5OQCj7Mr7ioOYm4uDAwp73AY6zO33/s1600/buriedalive.jpg" height="266" width="400" /></a></div>
परीक्षा के दिनों में ब्लॉग पर सक्रिय हो जाने की बीमारी मेरी पुरानी है। MBBS के दिनों में अक्सर परीक्षा के समय ज्यादा पोस्ट लिखा करता था। ऐसे समय पर जब दिमाग ज्यादा चलता है तो शायद रचनात्मकता भी अपने आप ही बढ़ जाती है। या हो सकता है कि दिन भर किताबों में व्यस्त रहने और कमरे में कैद हो जाने के समय में ब्लॉग बाहरी दुनिया से सामंजस्य बनाये रखने का एक जरिया सा बन जाता है। जो भी हो, अभी फिर से परीक्षा से घिरा हुआ हूँ और सच कहूँ तो बड़ी दुविधा में था कि यहाँ पर कुछ समय दूँ या बस रहने दूँ। कल नेपाल में आई तबाही के एक कण को मीलों दूर यहाँ कलकत्ता में भी महसूस किया। उस भयावह मंजर की तस्वीरों को देख कर मन विचलित हो रहा था और कहीं न कहीं मुझे अपने एक दबे हुए डर की ओर ले जा रहा था।<br />
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भगवान की कृपा ही थी कि बचपन पूरा भूकम्प के अनुभव के बगैर बीता। इसके बारे में जितना जाना या समझा वो या तो भूगोल की किताबों से जाना या फिर हिंदी सिनेमा से अपने प्यार के कारण जाना। पापा बताते थे कि मेरे जन्म के बाद एक बार झटके उन्होंने महसूस किये थे। मुझे होश नहीं था। मेरी उम्र कुछ महीने रही होगी उस समय। किताबों में पढ़कर या सिनेमा में देखकर भूकम्प के रोमांच को कभी महसूस नहीं कर पाने पर खुद को कोसता था। जी हाँ, रोमांच। वही रोमांच, जिसे आज की हिंदी में एडवेंचर कहते हैं। लगता था कि कोई एडवेंचर ही होगा। इसके साथ जुड़े हुए तबाही की तरफ सोचने की कभी कोशिश नहीं की थी। बी. आर. चोपड़ा की वक़्त को कोई फिल्म-प्रेमी कैसे भुला सकता है। लाला केदारनाथ के उस हँसते गाते परिवार को पल भर में एक भूकम्प तहस-नहस कर देता है। अंत में फिर सब मिल जाते हैं। अगर नहीं मिलते तो शायद भूकम्प की उस तबाही की तरफ ध्यान जाता। तब शायद ये रोमांच नहीं डर पैदा करता।<br />
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बचपन जाते जाते कई चीजें देती चली जाती है। डर उनमें से एक है। बच्चा कभी नहीं डरता मगर जैसे जैसे बड़ा होता है, यथार्थ की तस्वीरें उसके अंदर डर पैदा करती चली जाती हैं। भूकम्प की खबरें अखबारों में पढ़कर मन में डर ने पैठ बनाने की शुरुआत की। इस तरह के अनर्थक अनिष्टों से अपनों को खो देने का डर मन में बैठने लगता है। आज तक अपने मन के एक विशेष डर के बारे में किसी को नहीं बताया है। मगर यह डर हमेशा मेरे साथ रहता है। जन्म इसका भी किसी सिनेमा से ही हुआ था। ठीक कौन सा सिनेमा, नाम नहीं याद अब। शायद कटी पतंग रहा होगा। रेलगाड़ी अचानक रात में दुर्घटना का शिकार हो जाती है जब एक पुल टूट जाता है। ऊपर से नदी में गिरते हुए रेलगाड़ी के डिब्बे और उसमें अपने माँ-बाप को खो देने वाला एक नवजात। न जाने इस सीन ने कब मन के अंदर घर कर लिया था। तब से अपनों को इस तरह से खोने का एक डर हमेशा दिल के किसी कोने में रहता है। समय-समय पर ऐसी आपदाओं को देखकर ये डर फिर बाहर निकलता है और दिल दहला देता है।<br />
<br />
परीक्षा के कारण दिनचर्या पूरी उलटी हो रखी है। रात भर पढाई और फिर सुबह में सोना। कल भी ऐसे ही सो रहा था। करीब साढ़े ग्यारह बजे होंगे, आँख यूँही खुली। नींद पूरी न होने के कारण और थोड़ी देर सोने के लिए चला गया। तभी कुछ हिलता हुआ महसूस हुआ। सब डोल रहा था। अहसास हुआ कि धरती डोल रही है, ये भूकम्प है। सच बताता हूँ, एडवेंचर का नामोनिशान नहीं था। हॉस्टल के कमरे से बाहर निकला। सब भाग रहे थे। भेड़ चाल में मैं भी भागा। धरती तब तक डोल रही थी। खैर, विपदा टली। थोड़ी देर में वापस कमरे में आया। व्हाट्सएप्प पर परिवार वाले सब झटकों की बात कर रहे थे। सब ठीक थे। किसी को कुछ नहीं हुआ था। हालांकि, फ़ोन पर बात नहीं हो पा रही थी मगर, व्हाट्सएप्प के जरिये सबकी खबर मिल रही थी।<br />
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धीरे धीरे ट्विटर पर खबरें आनी शुरू हुई। जिस मंजर ने ऐसा हिलाया था वह काल नेपाल के ऊपर टूटा था। पहले 400, फिर 688, 856, 1000 और रात होते होते मरने वालों की संख्या 1500 पार बताई जाने लगी। तस्वीरें सामने आने लगी और इस भयावह मंजर को महसूस करने लगा। वही अपनों से बिछड़ने का डर आज कितनों के लिए हकीकत बन गया होगा। गिनती बढ़ती ही चली जा रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि इस गिनती के लिए भगवान को दोष दूँ या इस गिनती में मुझे और मेरे परिवार वालों को शामिल नहीं करने के लिए उसका शुक्रिया अदा करूँ। दुविधा में था। बड़े भाई से बात हो रही थी। किसी बात पर उसने बताया कि नास्तिकवाद की शुरुआत ऐसे ही एक भयंकर भूकम्प से हुई थी। लिस्बन में आई उस तबाही के बाद पहली बार भगवान के अस्तित्व और इंसान के प्रति उसके दायित्व पर सवाल किये गए थे।<br />
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सच में, ऐसी आपदाएं जीने के एक नए तरीके को जन्म देती हैं। ज़िन्दगी के उस एकमात्र फ़लसफ़े को और मजबूत करती है जिसमें कहा गया है कि ज़िन्दगी की केवल एक सच्चाई है और वह है मौत। भूकम्प के केंद्र से काफी नजदीक सीतामढ़ी में मामाजी रहते हैं। फ़ोन से बात नहीं हो पा रही थी। डर सा था मन में। माँ से बात हुई तो उन्होंने बताया कि उनकी बात हुई है, सब ठीक हैं। फिर मेरी भी बात हुई। मामी कह रही थी कि मौत को नजदीक से देखा उनलोगों ने। सच में शायद जब मौत का तांडव होता है तो धरती ऐसे ही डोलती है। सब कुछ ठीक है जानकर मन अंत में थोड़ा हल्का हुआ, मगर नेपाल पर आई इस त्रासदी ने फिर से वक़्त के उस गीत की तरफ दुबारा लौटा दिया। वक़्त के आगे किसी की नहीं चलती। वक़्त का हर शह पर राज!<br />
<br />
कल जहाँ बसती थी खुशियाँ, आज है मातम वहाँ,<br />
वक़्त लाया था बहारें, वक़्त लाया है खिजां।<br />
वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज,<br />
वक़्त की हर शह ग़ुलाम, वक़्त का हर शह पर राज!<br />
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<iframe width="320" height="266" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/5Rk1mvxnC4g/0.jpg" src="https://www.youtube.com/embed/5Rk1mvxnC4g?feature=player_embedded" frameborder="0" allowfullscreen></iframe></div>
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-73324165585851464812015-03-15T03:52:00.000+05:302015-03-15T03:53:33.993+05:30एक रूह पड़ी थी झाड़ों में !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiC0urOfz9tr7auMag39cgxz7QQvS713ZkuF5uR9n2BPexn3WZVF12A0L0XyjoG_6DpJ__Yvy-0eOWjgvVq_A1UN_1WN7FXqA88xN3-CckkodjiG_iZe07pBL5pEXqhoo4CVmk0T4RnKewD/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiC0urOfz9tr7auMag39cgxz7QQvS713ZkuF5uR9n2BPexn3WZVF12A0L0XyjoG_6DpJ__Yvy-0eOWjgvVq_A1UN_1WN7FXqA88xN3-CckkodjiG_iZe07pBL5pEXqhoo4CVmk0T4RnKewD/s1600/images.jpg" height="400" width="270" /></a></div>
कुछ दिनों से BBC पर प्रसारित एक डाक्यूमेंट्री ने अपने देश में खासा ही बवाल खड़ा कर रखा है। दिल्ली के निर्मम बलात्कार काण्ड की सच्चाई बयां करती इस डाक्यूमेंट्री को कोर्ट ने भारत में प्रसारित होने से रोक लगा दी है। इंसानी फितरत होती है, जो नहीं करने बोला जाये वैसा ही करने की। इंसान हूँ इसलिए ऐसी फितरत मेरे अंदर भी है। कोर्ट ने रोक लगायी है तब तो पक्का देखना ही है। 2-3 दिन के अंदर ही इंटरनेट की बदौलत मैंने भी यह डाक्यूमेंट्री देख ही ली। डाक्यूमेंट्री कैसी बनी है या कैसी लगी इसके ऊपर जाने की अभी कोई मंशा नहीं है। डाक्यूमेंट्री को देखकर दिल को जो दुःख हुआ बस उसकी ही चर्चा यहाँ करना चाहता हूँ।<br />
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यह कृत्य निर्मम और नृशंस था इसमें संदेह की कोई गुंजाईश नहीं थी। मगर ऐसा करने वालों और उन्हें बचाने की दलील देने वालों की सोच आज भी ऐसी नीची और तंग हो सकती है ऐसा नहीं सोचा था। दुःख होता है ये सोचकर कि हम भी उस समाज में ही रहते हैं जहां ऐसी मानसिकता रखने वाले लोग भी रहते हैं। सरेशाम एक लड़की की इज़्ज़त कोई लूट लेता है और एक अमानवीय तरीके से मौत के घाट उतार देता है और हम कहते हैं कि ऐसा करने वाला एक नाबालिग था इसलिए उसे सजा उस हिसाब से ही मिले। सवाल उठते हैं। उसे नाबालिग मानने वालों पर भी और बालिगपने को सिर्फ उम्र से परिभाषित करने वालों पर भी। एक कृत्य जो बालिग़ होने की निशानी है, वो करने वाला एक नाबालिग। वाह रे देश का क़ानून। 3 साल की सजा हुई उस नाबालिग को। ज़ुर्म था एक निर्मम हत्या। जरा सोचिये, वो इस साल दिसंबर में रिहा होगा। यही नहीं अब वो कानूनन बालिग़ भी है। हमारे आपके बीच अपने समाज में रहेगा। बस सोचिये हम क्या दे रहे हैं अपने समाज को और अपनी पीढ़ी को।<br />
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एक दिन पहले ही एक फिल्म भी देखा। NH 10. डाक्यूमेंट्री और इस फिल्म में कोई समानता नहीं है पर चोट दोनों एक जगह ही करती है। इक्कीसवीं सदी में आकर भी हम अपनी माँ-बहन-बेटी की तरफ क्या सोच रखते हैं। परिवार की इज़्ज़त रखने के लिए भाई अपने बहन को मौत के घाट उतार देता है क्यूंकि वो उनके मर्ज़ी के विरुद्ध शादी करना चाहती है। देश की राजधानी की चकाचौंध से ठीक बाहर हरियाणा में ऐसे गाँव हैं जहां बेटियां पैदा नहीं होती, पहले ही मार दी जाती हैं। ये सब सच है। साफ़ सफ़ेद सच, हमारी सोच की, हमारी मानसिकता की। इस फिल्म और डाक्यूमेंट्री ने मिलकर मन को बड़ा विचलित किया। इसी विचलित मन से…<br />
<br />
एक रूह पड़ी थी झाड़ों में<br />
था लहू टपकता आँखों से,<br />
थी मांग रही एक हाथ अदद<br />
बढ़ सका न कोई सहस्त्रों में।<br />
<br />
था सुना महान है देश उसका<br />
संस्कृति उत्तम है, लिखा शास्त्रों में,<br />
इंसान बसा करते थे जहां<br />
आज हैवान पड़े हैं इन रास्तों में।<br />
<br />
माँ कहकर पूजते देश को जो<br />
औरत की इज़्ज़त कर न सके<br />
मरती रही रस्ते में पड़ी बेटी जो<br />
रह गए खड़े, कोई बढ़ न सके।<br />
<br />
हर ओर खड़े हैवान यहां<br />
मर रही हर ओर एक बेटी है,<br />
माँ का गर्भ जो सूना हुआ<br />
वो कोई नहीं एक बेटी है।<br />
<br />
की गलती उसने<br />
था प्यार किया<br />
इज़्ज़त की खातिर ही<br />
ज़िंदा उसको गाड़ दिया,<br />
<br />
है ख़ाक ये ऐसी इज़्ज़त जो<br />
मांगती खून अपनी ही बेटी की<br />
है धिक्कार समाज ये तेरे मस्तक पर<br />
जो रख सका न लाज अपनी ही बेटी की।<br />
<br />
एक रूह पड़ी थी झाड़ों में !<br />
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-family: Helvetica; font-size: 11px; min-height: 13px;">
<br /></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-family: Helvetica; font-size: 11px; min-height: 13px;">
<br /></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-family: Helvetica; font-size: 11px; min-height: 13px;">
<br /></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-family: Helvetica; font-size: 11px; min-height: 13px;">
<br /></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-family: Helvetica; font-size: 11px; min-height: 13px;">
<br /></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-family: Helvetica; font-size: 11px; min-height: 13px;">
<br /></div>
<div style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); -webkit-text-stroke-width: initial; font-family: Helvetica; font-size: 11px; min-height: 13px;">
<br /></div>
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-21420773378397280532015-02-24T16:28:00.000+05:302015-02-24T16:29:14.555+05:30कुछ पुराने पन्नों से<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoBA5rdM5u2OER3xTdQcY8GzbR599eiFX3ydUIEh_Vj2-tyAwI_20mrvCyysgLUGyN-VRWGZ8ZbTCrzV1nJa092v6dvL7BU5HF4f_sioreiGUovmqCGKeD8kWWgbX12qTBVPln3ZfIfaCi/s1600/Holding_Hands_2_by_nitanita.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoBA5rdM5u2OER3xTdQcY8GzbR599eiFX3ydUIEh_Vj2-tyAwI_20mrvCyysgLUGyN-VRWGZ8ZbTCrzV1nJa092v6dvL7BU5HF4f_sioreiGUovmqCGKeD8kWWgbX12qTBVPln3ZfIfaCi/s1600/Holding_Hands_2_by_nitanita.jpg" height="307" width="400" /></a></div>
<br />
कुछ साल पहले डायरी लिखने की शुरुआत की थी। पहले हर रात लिखा करता था। फिर कुछ अंतराल आने लगे। अंत में सब बंद हो गया। शुरुआत क्यों हुई थी और अंत क्यों हुआ इसके बारे में कभी गहरे विश्लेषण की जरुरत है। बस लिखा करता था। लिखने का शौख था शायद इसलिए या शायद कुछ ऐसी बातें होती थी जो किसी से साझा नहीं कर सकता था इसलिए। जो भी हो, कभी कभी डायरी के उन पन्नों को मिस जरूर करता हूँ। कभी मौका मिलता है तो उन पुराने पन्नों को पलट भी लेता हूँ। कभी हंसी आती है पढ़कर, कभी रोना। जो भी हो पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं। कभी कभी तो ऐसी बातें भी याद आती हैं जिसे समय ने एक गहरी परत के नीचे दफ़ना दिया था।<br />
<br />
आज हॉस्टल के अपने कमरे में अकेले बैठे कुछ पुराने कॉपी के पन्ने पलट रहा था। एक छोटा सा कागज़ का टुकड़ा मिला। 2-2.5 साल पुराना। कुछ लिखा हुआ। मन के किसी ख्याल को शायद अपने अकेलेपन में कागज़ पर उतरा होऊंगा। याद करने की कोशिश की। बहुत कुछ याद आया। हर किसी की ज़िन्दगी में कई मोड़ आते हैं। वो मेरी ज़िन्दगी का एक ख़राब समय चल रहा था। 6 साल साथ बिताने के बाद पहली बार हमलोग थोड़े दूर हुए थे। भौगोलिक दूरी का असर कहीं न कहीं हमारे दिलों की दूरी पर भी पड़ा था। झगड़े होते थे। बातें कम होती थीं। भावनाओं पर सवाल उठते थे। और जब उन सवालों से ऊब जाता था तो बस खामोशियाँ रहती थी। ख़ामोशी से और झगड़े होते थे। बातें और काम होती थीं। और सवाल उठते थे, जवाब में और खामोशियाँ आती थी। उसी कागज़ के पन्ने को आज यहाँ साझा कर रहा हूँ। बस यूँही, पुराने दिनों की याद में। कुछ पुराने पन्नों से…<br />
<br />
<br />
झुकी हुई सी उसकी नज़र सवाल दिल से पूछती है,<br />
मेरी खामोशियों में वो अपने जवाब ढूँढा करती है,<br />
इस ख़ामोशी को मेरी बेरुखी मत समझ लेना तुम,<br />
मेरे दिल का हाल बयां ये ख़ामोशी करती है।<br />
<br />
साथ तेरे ही शुरू किया था मैंने ये सफर<br />
मंज़िल भी अपनी आस-पास ही थी कहीं,<br />
फिर क्यों बढ़ गयी दिलों की ये दूरी,<br />
हर वक़्त इसी सोच में डूबी ये ख़ामोशी रहती है।<br />
<br />
साथ देने का वादा किया था तुमसे इक बार<br />
आज खामोश हूँ, ये न समझना कि भूल गया<br />
ये मेरी बेवफाई नहीं कि आज कुछ बोल नहीं रहा<br />
इस वादे को निभाने की शर्त बयां ये ख़ामोशी करती है।<br />
<br />
<br />
<br /></div>
Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-55799709980218821622014-12-27T21:01:00.000+05:302014-12-27T21:01:20.926+05:30PK और "घर वापसी"<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjiZg0300huJ_38q1OE3tdq7TcauqRRTP4MSohlyDGDMkpueQJLGrp7ZAmmizu5nvhcnmdL0OLs9Ar0PDr5d-GRY2kq1GSr9343iN0J6_aYqLJ4YRjy1VG73mqree_48Dr9F9hALywngpub/s1600/PK.png" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjiZg0300huJ_38q1OE3tdq7TcauqRRTP4MSohlyDGDMkpueQJLGrp7ZAmmizu5nvhcnmdL0OLs9Ar0PDr5d-GRY2kq1GSr9343iN0J6_aYqLJ4YRjy1VG73mqree_48Dr9F9hALywngpub/s1600/PK.png" height="400" width="280" /></a></div>
पिछले हफ्ते आई फिल्म PK अपने साथ कई विवाद लेकर आई। धर्म के प्रति इंसान के अन्धविश्वास को बड़ी ही सहजता से दर्शाती यह फिल्म अकारण ही हिन्दू धर्मावलम्बियों के निशाने पर आ गयी है। इसको लेकर सोशल मीडिया में बहस और फिल्मकार और फिल्म से जुड़े अन्य कलाकारों के प्रति कई प्रकार के चुटकुले और तीखी टिप्पणियां देखने को मिल रहे हैं। पिछले हफ्ते मुझे भी यह फिल्म देखने का मौका मिला। आमिर खान की अदायगी का पुराना कायल रहा हूँ इसलिए फिल्म को देखने की उत्सुकता काफी पहले से थी। राजू हिरानी की पिछली फिल्मों को देखने के बाद उम्मीद इस फिल्म से भी लगी थी। हालांकि फिल्म पिछली ऊंचाइयों को छूने में जरूर नाकाम रही मगर यह जरूर कहना चाहूंगा की एक अच्छे सन्देश के साथ ही ख़त्म हुई।<br />
<br />
देश में मौजूदा समय में चल रहे "घर वापसी" की हवा ने विवादों की इस आग को और जोरों से भड़कने का मौका दे दिया है। अपने धर्म के अस्तित्व और झूठी रक्षा के इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के चोंचलों में आज हिन्दू यूँही फसाए जा रहे हैं। उनके इन्हीं चोंचलों में फसकर कई लोग इस सीधी साधी फिल्म को हिन्दू विरोधी ठहरा कर हिन्दू धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को दिखा रहे हैं। शायद मेरा ये ब्लॉग पढ़कर यही लोग मुझे भी हिन्दू विरोधी कहने लगेंगे। इसलिए कुछ भी आगे लिखने के पहले अपने बारे में, धर्म के प्रति अपनी सोच के बारे में बता देना ही सही होगा।<br />
<br />
मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ और पालन-पोषण एक धार्मिक परिवेश में होने के कारण अपने आप को हिन्दू मानता हूँ। नानाजी की कहानियाँ सुनकर बड़ा हुआ हूँ जिनमें हमेशा से कई पौराणिक धार्मिक कथाएं रहा करती थी। इन कहानियों के जरिये हिन्दू धर्म को जानने और समझने की कोशिश करता रहा हूँ। कई सारे भगवान, एक भगवान के कई रूप, हर रूप की कई कहानियाँ। छोटे मन में सब समाती चली गयी। जैसे जैसे बड़ा होता गया, मन में सवाल उठते गए। ब्रह्मा का राक्षशों को वरदान देना, मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अपनी ही अर्धांगनी पर अविश्वास रखकर अग्नि परीक्षा में भेजने का उनका अमर्यादित कृत्य, रणछोड़ कृष्ण का महाभारत के युद्ध में किया गया छल, यह सब भगवान को न मानने और नाश्तिक हो जाने के प्रति मेरा झुकाव बढ़ाता चला गया। चूँकि घर में एक धार्मिक परिवेश शुरू से रहा है इसलिए खुलकर कभी अपने आप को नाश्तिक नहीं कह पाया। आज भी यह ब्लॉग पढ़कर शायद घरवालों को धक्का सा लगे, पर सच तो सच ही है। परिवार में चल रहे धार्मिक अनुष्ठानों में योगदान करता हूँ मगर धर्म के प्रति अंधविश्वास कभी नहीं रखता। विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए हर चीज़ पर सवाल करता हूँ, धर्म पर भी।<br />
<br />
हिन्दू धर्म को मानता हूँ, मगर इसका ये मतलब नहीं की इसकी बुराइयों को नज़रअंदाज़ करूँगा। वो हिन्दू धर्म जो सनातन है, जो अनादि है, अनंत है उसके कोई ठेकेदार नहीं थे। उसे स्वयंसेवकों और परिषदों की जरुरत नहीं थी। वो इतना कमजोर नहीं था कि उसे घर वापसी की जरुरत थी। आज जिस हिन्दुवाद की हवा देश में फ़ैल रही है ये वो सनातन धर्म नहीं। हिन्दू धर्म कभी दूसरे धर्मों की अवहेलना नहीं करता। जितनी आसानी से दूसरे धर्मों को अपने साथ मिलाता है ये कहीं और देखने को नहीं मिलता। किसी चीज के लिए कभी विवश नहीं करता, इसकी कोई आचार संहिता नहीं। मंदिर में जाकर प्रसाद चढ़ाने वाले भी हिन्दू हैं और मंदिर में कभी न जाने वाले भी हिन्दू। धोती कुरता पहनने वाले भी हिन्दू और पैंट शर्ट वाले भी हिन्दू। गिरिजा या मस्जिद में जाने से हिन्दू धर्म भ्रष्ट नहीं होता।<br />
<br />
डर पैदा करना हिन्दू धर्म की संस्कृति में था ही नहीं। पंडितों और बाबाओं ने डर का जो व्यापार खड़ा किया हम उसमें फंसते चले गए। बचपन से सत्यनारायण की कथा सुनता आ रहा हूँ। हर कथा में एक डर है, अमुक व्यक्ति कथा-पाठ का वचन देकर भूल गया तो उसके साथ ऐसा हो गया। इसी तरह कई बाबा पैदा होते चले गए। प्रवचन के नाम पर पैसे ऐंठना इनका धंधा हो गया। डर के इस व्यवसाय में लोग शिष्य बनते चले गए। काम-धंधा छोड़कर पूजा पाठ करो, कल्याण होगा। हिन्दू धर्म की नींव को ही हिलाने का काम इन धर्म-गुरुओं और बाबाओं ने शुरू कर दिया। 'कर्म करो, फल की चिंता मत करो' को भूलकर लोग बाबा के दरबार में फल की प्राप्ति के लिए टिकट कटाने लगे। डर के सामने कमजोर हो जाना ये इंसानी फितरत है। इंसान की इसी कमजोरी का फायदा ये बाबा लोग उठा रहे हैं और हम उनके चंगुल में फंसते जा रहे हैं। गलती उनकी नहीं जिन्होंने इस धंधे को शुरू किया। वो तो अपना कर्म कर रहे हैं, अपने धर्म का पालन। गलती हमारी है जो अपने कर्मों से दूर उनकी बातों में आकर उनके धंधे को और बढ़ा रहे हैं।<br />
<br />
ऐसे ही बाबाओं के पीछे अपना धर्म भ्रष्ट कर रहे लोगों की कहानी कहती है यह फिल्म PK. हिन्दुओं को बुरा लग रहा है कि क्यों सिर्फ उनके धर्म के ऊपर ही टिप्पणी की जा रही है। यह बात उन्हें और चुभ रही कि फिल्म का नायक एक मुसलमान है। मुझे बुरा नहीं लग रहा, हिन्दू होकर भी। उल्टा मैं खुश हूँ। मैं खुश हूँ क्यूंकि यह फिल्म मेरे हिन्दू भाइयों को अपने भ्रष्ट होते धर्म को बचाने का एक मौका दे रही है। हिन्दू धर्म को उस 'घर वापसी' की जरुरत नहीं जो आज हमारे देश में चल रही है। इसे जरुरत है इस 'घर वापसी' की जहां लोग उस सनातन हिन्दू धर्म की तरफ दुबारा लौटे जहां कोई रोक-टोक नहीं थी, जहां कोई डर नहीं था।<br />
<br />
</div>
Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-25762685032525855082014-08-06T08:44:00.001+05:302014-08-06T08:44:46.466+05:30कुछ रंग इस ज़िंदगी के<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEik_PybNvyJcKnsgpzFIbKYLdB-sbRi1zBtzFnmlBs76q0JpM3DosJ4Z-pkaDbJCQnPddM4c5N1A_DLCbAlRDmVosgmMPmtNtrlh5rl1w_RWMGv-ENhdirQ1Wu-ulBE5odxMZFAcWaQhJY4/s1600/2014-04-01+05.57.47.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEik_PybNvyJcKnsgpzFIbKYLdB-sbRi1zBtzFnmlBs76q0JpM3DosJ4Z-pkaDbJCQnPddM4c5N1A_DLCbAlRDmVosgmMPmtNtrlh5rl1w_RWMGv-ENhdirQ1Wu-ulBE5odxMZFAcWaQhJY4/s1600/2014-04-01+05.57.47.jpg" height="300" width="400" /></a></div>
बुजुर्गों से हमेशा सुबह उठने के फायदे सुनता रहा हूँ। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुबह जल्दी उठने की प्रथा जैसे ख़त्म ही होती जा रही है। पापा हमेशा सुबह उठते हैं, आज भी। हम सारे भाई-बहन मॉर्निंग स्कूल के दिनों को छोड़कर कभी सुबह जल्दी उठ नहीं पाये। जैसे जैसे बड़े होते गए, रूटीन और भी बदलता चला गया। पढाई का बोझ बढ़ता चला गया और उसके साथ रात में सोने का समय भी देर होता चला गया। शरीर की कई जरूरतों में हमने सबसे पहला स्थान नींद को ही रखा है। दुनिया इधर की उधर हो जाये हम तो नींद अधूरी छोड़ नहीं सकते। रात को सोने में देरी के साथ सुबह उठने का समय भी देर होता चला गया। हालत ऐसी हो गयी है कि अब छुट्टी के दिनों में सुबह का नाश्ता करने की भी जरुरत नहीं पड़ती। सीधा उठके दोपहर का खाना ही नसीब होता है।<br />
<br />
खैर, इधर कुछ दिनों से सुबह उठने की कोशिश चल रही है। कामयाबी भी मिल रही है। सुबह उठकर कुछ देर बाहर घूमने निकलता हूँ। कलकत्ता के जिस कोने में रहता हूँ, वो शायद सुबह की सैर के लिए सबसे सही और सबसे ज्यादा प्रचलित भी है। विक्टोरिया मेमोरियल और मैदान के आसपास का ये इलाका दक्षिण कलकत्ता के रईसों का सैरगाह काफी पुराने समय से रहा है। लोग अपनी लक्ज़री गाड़ियों में आते हैं और सैर करते हैं। मर्सिडीज, बीएमडब्लू, जैगुआर जैसी गाड़ियां जितनी यहाँ इस समय दिखती हैं, उतनी ज़िन्दगी में न कभी देखी थी और न कभी देखने की उम्मीद रखता हूँ।<br />
<br />
इस दौड़ती भागती ज़िन्दगी में सुबह का ये समय सुकून भरा लगता है। ज़िन्दगी ठहरी हुई सी मालूम पड़ती है। एक अलग सी दुनिया में होने का अहसास होता है। एक पूरी अलग दुनिया ही देखने को मिलती है। कुछ उम्रदार लोगों का झुण्ड पार्क में एक घेरा लगा कर एक्सरसाइज करता हुआ दिखता है। एक लय में, साथ साथ। तभी दूसरी तरफ से जोर जोर से हंसी की आवाज़ आती है। ऐसे ही लोगों का एक घेरा हाथ ऊपर कर के जोर जोर से हँसता हुआ दिखता है। लाफ्टर थेरेपी। उन हँसते हुए चेहरे को देखकर हंसी की कीमत समझ में आती है आज के भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में। साधारण सी हंसी भी आज कितनी मुश्किल से मिलती है!<br />
<br />
वहीँ पास में दो बूढी औरतें एक बेंच पर बैठी हैं। थोड़ी देर टहलने के बाद दम उखड़ आया है। उनकी चाल से पता चलता है कि जोड़ों ने अब जवाब दे दिया है। वो आपस में बात कर रही हैं। पास से गुजरते हुए कुछ बातें मेरे भी कान में पड़ी। थोड़ी दूर चलने से दम उखड़ जाना उनकी तकलीफ नहीं है, न ही उनका जोड़ों का दर्द। वही आज के युग की कहानी, या शायद चिरकाल की। बच्चों का अब अपना परिवार हो गया है, अब उन्हें इनकी जरुरत नहीं रही। न जाने कितनी बूढ़ी माँ की आँखों के आंसू यही फ़साना बयां करते हैं। तभी आँखों के सामने पापा-मम्मी का चेहरा नज़र आता है। घर में अकेले बरामदे में बैठे चाय पी रहे होंगे। तीन बच्चे, तीनों दूर, अपनी अपनी दुनिया में मशगूल। अजीब सा लगता है। दिल में कचोट होती है, मगर कुछ कर नहीं सकते। बस आगे बढ़ जाते हैं।<br />
<br />
आगे कुछ लोग बैठे भजन करते हुए दिखते हैं। सुबह सुबह भगवान का नाम सुनकर शांति का अहसास होता है। पीछे जो कुलबुलाहट मन में पैदा हुई थी वो यहां थम गयी सी लगने लगती है। तभी सामने से एक बुजुर्ग आदमी आते हुए नज़र आते है। आगे-आगे उनका पोता भी है। दादा के चेहरे पर चमक है, वो खुश हैं। अपने पोते की मासूमियत को महसूस कर रहे हैं। ज़िन्दगी हमेशा बुरी नहीं होती। दादा-पोते की इस जोड़ी को देखकर ऐसा ही लगता है। मन में थोड़ी ठंडक पड़ती है। और आगे बढ़ते हैं।<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTYZwl5JemuwEsAuhMpICKsPdWXxf6lxHI9N6jgQGEAbMWYdm7W283Wt-Ve-xRutwLVqr-57CTMwm75oSnuqYPy9FmUIWfsMznBz_W0aPcnu9_GY3c8dN7_MsWT4yQ1Ycwu302c77RyCYG/s1600/2014-04-01+06.53.08.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTYZwl5JemuwEsAuhMpICKsPdWXxf6lxHI9N6jgQGEAbMWYdm7W283Wt-Ve-xRutwLVqr-57CTMwm75oSnuqYPy9FmUIWfsMznBz_W0aPcnu9_GY3c8dN7_MsWT4yQ1Ycwu302c77RyCYG/s1600/2014-04-01+06.53.08.jpg" height="300" width="400" /></a>ज़िन्दगी का एक अलग ही रंग देखने को मिलता है। फूटपाथ पर कुछ लोग सो के उठ रहे हैं। रात उन्होंने यहीं पर बिताई है ऐसा मालूम होता है। शायद उनकी सारी रातें यहीं बीतती हैं, या शायद ऐसी ही किसी फूटपाथ पर। जब सुबह उठते हैं तो पता नहीं होता कि आज की रात कहाँ बीतेगी। दिन कैसे गुजरेगा। दो वक़्त की रोटी का क्या होगा। वहीँ बगल में एक बड़ी गाडी रूकती है। मालिक उतरता है और फूटपाथ पर अपनी सैर शुरू करता है। मन में अजीब सी उलझन शुरू होती है। फूटपाथ पर सोने वाले उस मजदूर के चेहरे पर उस एसी गाडी से उतरने वाले आदमी के चेहरे से ज्यादा सुकून दिखता है। सोचते सोचते आगे बढ़ता हूँ। सूरज मैदान के उस पार से अब चेहरे पर पड़ने लगता है। ज़िन्दगी के इन कई रंगों को देखता देखता सोचता हुआ अब लौटता हूँ। और न जाने कितनी कहानियाँ इन पार्क में और आसपास के फूटपाथ में चलती रहती हैं। निरंतर, लगातार, बिना रुके हुए। ठीक इस ज़िन्दगी की तरह।<br />
<br />
<br />
<br />
</div>
Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-17169657464527829102014-05-07T01:24:00.001+05:302014-05-07T01:24:39.564+05:30ज़िन्दगी और मौत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://allpainters.ru/cache/the-self-seers-death-and-man-1911_thumb_medium580_0.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://allpainters.ru/cache/the-self-seers-death-and-man-1911_thumb_medium580_0.jpg" height="400" width="387" /></a></div>
<div>
<br /></div>
<div>
जीने की चाह से भरी</div>
<div>
वो टिमटिमाती सी आँखें। </div>
<div>
मुझसे पूछती हैं,</div>
<div>
'तू घबराया सा क्यूँ है?'</div>
<div>
मैं चुप खड़ा हूँ। </div>
<div>
उसे देख रहा, एकटक।</div>
<div>
महसूस कर रहा हूँ </div>
<div>
उसके ज़िंदा रहने की चाहत को.</div>
<div>
महसूस करता हूँ </div>
<div>
उस निर्दयी मौत की आहट को। </div>
<div>
झांकता हूँ उसकी आँखों में,</div>
<div>
देखता हूँ उनमें,</div>
<div>
मुझसे उम्मीदें लगी हैं। </div>
<div>
सिहर जाता हूँ। </div>
<div>
अहसास होता है </div>
<div>
मैं कुछ नहीं कर सकता </div>
<div>
उसकी उम्मीदों को कभी </div>
<div>
पूरा नहीं कर सकता। </div>
<div>
फिर आँखें चुराता हूँ,</div>
<div>
डर लगता है,</div>
<div>
उसने देख तो नहीं लिया</div>
<div>
मेरी आँखों में छुपी </div>
<div>
उस मौत के इंतज़ार को. </div>
<div>
अपने उन्हीं आँखों से। </div>
<div>
वही टिमटिमाती सी आँखें </div>
<div>
जीने की चाह से भरी.… </div>
<div>
<br /></div>
<div>
<br /></div>
<div>
ज़िन्दगी एक जुआ है। ऐसा कहते हुए कई बार कईयों को सुना है। कई बार ज़िन्दगी में ऐसी परिस्थितियां सामने आती हैं जब सच मे इस बात पर भरोसा होने लगता है। इस जुए के खेल में ज़िन्दगी ऐसी बाज़ियाँ चलती चली जाती है जिसके सामने आप कुछ नहीं कर पाते। ऐसी परिस्थितियां आती हैं जो आपको सिर्फ़ चौंकाती ही नहीं मगर हिला देतीं हैं। </div>
<div>
<br /></div>
<div>
डाक्टरी के पेशे में जब से घुसा हूँ कई मौत देख चुका हूँ। शुरू शुरू में थोड़ा ख़राब महसूस होता था हर मौत के बाद। डेथ सर्टिफिकेट बनाते समय कलम थोड़ा डगमगाती थी। फिर खराब लगना बंद हो गया। जैसे रोज़ की बात हो। एक रूटीन। देखा जाये तो मौत तो है ही एक रूटीन। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तो निश्चित है ही। ज़िन्दगी का पहला और अन्तिम सच मौत ही तो है। फिर क्यूँ ऐसा होता है कि किसी के मरने से आदमी हिल सा जाता है।</div>
<div>
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किसी अपने नजदीकी के या चाहने वाले की मौत पर सदमा सबको लगता है। डाक्टर हूँ, हमें अनजान लोगों की मौत से भी वैसा ही धकका लगता है। ज्यादातर मौत रूटीन ही होती हैं मगर कुछ मौत बिल्कुल अलग होती हैं। जिनकी उम्मीद किसी को नहीं होती। वो सबको हिला कर रख देती हैं। ऐसी मौतें ही वो परिस्थितियां पैदा करती हैं जिनसे सच मे लगता है कि ज़िन्दगी एक जुआ है। कुछ मौके ऐसे भी आते हैं जब मौत की सिर्फ़ आहट भर ही दिल को दहला देने के लिये काफी होती है। आनंद फिल्म के आनंद की मौत की तरह।</div>
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20-22 साल की एक लड़की। देखने में 17-18 से ज्यादा की नहीं। पेट फुला हुआ। पिछले 15 दिनों से बीमार है। कुछ खा नहीं पा रही। पेट फूलता ही जा रहा है। गैस भी नहीं छूट रहा। हालत ख़राब है। अच्छे से जाँच करने पर पता चला शायद पैखाने के रास्ते में कैंसर है जिसने रास्ता ही बन्द कर दिया है। शुरूआती स्टेज नहीं, एडवांस्ड स्टेज लग रहा है। उसी दिन ऑपरेशन करके बाईपास कर देने की बात तय हो गयी। ऑपरेशन भी हो गया। लड़की अभी ठीक है। उसके साथ रह रही उसकी माँ पूछती है कि उसकी बेटी कैसी है। हम डाक्टर लोग एक दूसरे का मुंह देखते रह जाते हैं।</div>
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किताबों में पढ़ा है, इस तरह के कैंसर के होने की औसत उम्र पिछले कुछ दशक में काफी कम हो गयी है। यह भी लिखा है कि कम उम्र मे होने वाले कैंसर से बचने की उम्मीद बहुत कम होती है। सब कुछ याद है फिर भी खड़े सोचते रह जाते हैँ कि उसकी माँ को क्या जवाब दें। कैसे बताये उसे कि उसकी बेटी की ज़िन्दगी हर गुजरते हुए पल के साथ कम होती चली जा रही है। कैसे बताएं उसे की जब इस छोटी उम्र की लड़की को देखता हूँ तो उसके चेहरे में मुझे मौत का चेहरा नज़र आता है। वो मौत जो ज़िन्दगी के जुआ के उस खेल की एक गहरी चाल है। वो मौत जो अपनी आहट के साथ एक सिहरन भी लाती है। वो मौत जिसके आने की आहट भर से दिल दहल सा जाता है। </div>
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-22107427346762924622014-04-07T23:12:00.000+05:302014-04-07T23:12:11.571+05:30बस उस मौके की तलाश में...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAou1P5XGbFRAwQiegDLjP60PrAxzki8VE6TPBOf6D_4Miskv9xZXw_fSoS3nzw5-0M2kM2m7fo2rsCz4YalptqL49imLaHQZc0PUl85iRVxIQ6Ce7xTpIiH8fT7VWOtsg-AgDZf0i0GgD/s1600/TC_KITE-RUNNER-revised-final.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAou1P5XGbFRAwQiegDLjP60PrAxzki8VE6TPBOf6D_4Miskv9xZXw_fSoS3nzw5-0M2kM2m7fo2rsCz4YalptqL49imLaHQZc0PUl85iRVxIQ6Ce7xTpIiH8fT7VWOtsg-AgDZf0i0GgD/s1600/TC_KITE-RUNNER-revised-final.jpg" height="307" width="400" /></a></div>
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ऐसे पेशे में रहना जहां जीवित रहने के लिए (और मरीज़ों को रखने के लिए भी) पढ़ाई करने की जरुरत हमेशा बनी रहती है वहाँ अपने आप को किताबी-कीड़ा कहने में कोई परहेज़ नहीं होना चाहिए। हालांकि मुझे इस सम्बोधन से हमेशा ऐतराज़ रहा है और ऐसे किसी भी व्यक्ति की संगत मुझे कभी रास नहीं आयी। कभी भी अपने आप को एक किताबी-कीड़े की तरह नहीं रखा। पढ़ाई उतनी ही की जिससे काम चलता रहे। हाँ मगर, ये भी है कि उतनी ही पढ़ाई जिससे काम चलती रहे तक अपने को सीमित रखने के चक्कर में दिल लगाकर कुछ और कभी पढ़ नहीं पाया। दोस्तों के साथ जब साहित्य की और उपन्यासों की बात होने लगती थी तो अपने आप को हमेशा अलग-थलग महसूस करता था। शायद यही कारण था कि हमेशा से उन लोगों के प्रति जो अपना काफी समय साहित्य की तरफ देते थे, एक आदर की भावना मन में रहती थी और एक चाहत रहती थी कि काश कभी मैं भी समय निकाल कर कुछेक किताबें पढ़ सकूं।<br />
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ज़िन्दगी में कई समय ऐसे आये जब साहित्य की तरफ रूझान काफी उमड़-उमड़ कर बाहर आया मगर हर बार कुछ अपने आलस की वजह से और कुछ पेशे की जरुरत को देखकर बीच में ही ख़त्म हो गया। इधर कुछ दिनों से फिर से साहित्य की तरफ का आकर्षण बढ़ा है और कुछ नया पढ़ने की कोशिश जारी है। हालांकि जब लिखने की या बोलने की बात आती है तो हिंदी से ही अपनापन ज्यादा महसूस होता है मगर पढ़ने के समय खिंचाव अंग्रेजी साहित्य की तरफ ज्यादा चला जाता है। कारण कुछ ख़ास नहीं हैं। शायद जिन लोगों से ऐसी चर्चा होती है वो सब अंग्रेजी के ज्यादा शौक़ीन हैं इसलिए सुझाव भी अंग्रेजी के ही ज्यादा आते हैं। साहित्य किसी भी भाषा में हो, मानवीयता एक ही होती है, भावनाएं एक ही होती हैं। संस्कृति के थोड़े अंतर के कारण इंसानियत में बदलाव नहीं आता। साहित्य की यही खासियत होती है और इसलिए मेरा मानना है कि इसे भाषा के तराजू में तौलने से हमेशा बचना चाहिए। खैर…<br />
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कई बार कोई कहानी या उपन्यास पढ़ते-पढ़ते उनमे छुपी हुई भावनाएं, वो परिस्थितियां आपकी ज़िन्दगी से ऐसी मेल खा जाती हैं कि आपको लगता है कि आप अपनी ही कहानी पढ़ रहे हैं। कहानी के किरदारों के साथ आपका रिश्ता जुड़ने सा लगता है। उनके साथ अपनापन महसूस होने लगता है। दूर-दूर तक न उसके साथ न उसकी परिस्थिति के साथ आपका कोई सम्बन्ध होता है फिर भी आप कहीं न कहीं अपनी और उन भावनाओं में समानता देखने लगते हैं। कई बार आपको आपकी अपनी भावनाओं का एहसास ही तब होता है जब कहानी में उस किरदार को आप वैसा महसूस करते पाते हैं। ऐसा ही कुछ पिछले कुछ दिनों में कुछ हद तक मेरे साथ भी हुआ है, खालिद हुसैनी की "The Kite Runner" पढ़ कर।<br />
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चार युगों में फैले हुए अफ़ग़ानिस्तान में बसी तीन पीढ़ी की कहानी है The Kite Runner. ये कहानी है अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध और राजनैतिक अस्थिरता के मकड़जाल में फंसे भावनाओं के बवंडर की। ये कहानी है बाप-बेटे के रिश्ते की बनते-बिगड़ते रूप की। ये कहानी है बचपन की दोस्ती और उस दोस्ती में धोखे की। ये कहानी है धोखे से जुड़े पश्चाताप और उसे सुधारने की जद्दोजहद की। हालांकि इन किन्हीं भी परिस्थितयों से कभी मेरा कोई साक्षात्कार नहीं हुआ है मगर फिर भी कहीं न कहीं इस कहानी ने मुझे अपने अंदर झांकने को मजबूर जरूर किया है।<br />
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कई बार जाने-अनजाने में आप अपने चाहने वालों की महत्ता अपनी ज़िन्दगी में समझ नहीं पाते। बस घर की मुर्गी दाल बराबर समझते हुए निकलते चले जाते हैं। बार-बार टोके जाने पर भी समझ नहीं आता कि सामने वाले पर आपके इस व्यवहार का क्या असर पर रहा है। उसके दिल पर क्या गुजरती होगी जब आपकी तरफ से उसे रह रह कर बेरुखी ही मिलती है। सामने वाले के लिए उसके प्यार के प्रति, उसके विश्वास के प्रति, उसके भरोसे के प्रति ये आपका धोखा ही है। ना जानते हुए भी, ना समझते हुए भी आप उसके साथ धोखे पर धोखा करते ही चले जाते हैं। और सबसे ख़राब तब होता है जब आपको इस बात का अहसास होता है कि आपने कोई धोखा किया है मगर फिर उसे छुपाने की कोशिश में आप लगातार और धोखे करते चले जाते हैं। एक झूठ को बचाने के लिए सौ झूठ, वैसे ही एक धोखे को बचाने के लिए सौ और धोखे।<br />
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पापों का अम्बार खड़ा होता चला जाता है और फिर अंत में जब अहसास होता है तो फिर पीछे मुड़ कर सब कुछ ठीक कर देने की स्थिति से आप बहुत आगे निकल आते हैं। अब सिर्फ मौकों की तलाश रहती है कि कब कोई ऐसी स्थिति आये और आप अपने पापों का प्रायश्चित कर पाये। कहानी के नायक को अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए मौका मिल जाता है मगर आप, आप बस इंतज़ार करते चले जाते हैं कि कब वो मौका आये और आप अपने पापों को धो पाएं, उस विश्वास को, उस प्यार को, उस भरोसे को जिसे आपने बहुत पहले खो दिया है उसे वापस जीत पाएं। बस उस मौके की तलाश में... <br />
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-66470838286358768642014-01-29T01:02:00.000+05:302014-01-29T01:02:37.696+05:30डेढ़ इश्क़िया<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://gallery.oneindia.in/ph-big/2013/11/dedh-ishqiya-film-characters-poster_138388034500.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://gallery.oneindia.in/ph-big/2013/11/dedh-ishqiya-film-characters-poster_138388034500.jpg" height="225" width="400" /></a></div>
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तकरीबन चार साल बीत गए हैं। इसी ब्लॉग में एक <a href="http://draashu.blogspot.in/2010/02/blog-post_17.html">पोस्ट</a> लिखा था फ़िल्म इश्क़िया के बारे में और फ़िल्म देखने के बाद याद आये अपने कॉलेज के शुरूआती दिनों के बारे में। फ़िल्म में खुल कर देशी पुरबिया गालियों के प्रयोग से लेकर सूती साड़ी में लिपटी विद्या बालन का गज़ब का सेक्सी दिखने तक ने बड़ा ही प्रभावित किया था। कुछ सालों बाद जब फ़िल्म के सीक्वल बनने की बात सामने आयी तब से ही इस नयी फ़िल्म को देखने की बड़ी तमन्ना दिल में थी। काफी इंतज़ार के बाद जब डेढ़ इश्क़िया रिलीज हुई तो सिनेमा हॉल में जाकर इस फ़िल्म को देखने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया।<br />
<br />
फ़िल्म की कहानी पिछली फ़िल्म की तरह ही उत्तर प्रदेश में आधारित है। फ़िल्म की शुरुआत फिर से उसी कब्रिस्तान से होती हैं जहां से पिछली फ़िल्म की शुरुआत होती है। खालू जान और बब्बन एक बार फिर अपने सरदार मुश्ताक़ के कब्जे में हैं और बब्बन अपनी आखिरी ख्वाहिश में फिर से वही लतीफा सुनाता है। वही दो साधू तोते और गालियां बकने वाली तोती की कहानी। इस बार कहानी एक पायदान आगे तक पहुँचती है मगर फिर भी जाते जाते फ़िल्म की आने वाली कहानी के बारे में इशारा करती हुई ही जाती है। दर्शक समझ चुका होता है कि फिर से इन दोनों की ज़िन्दगी में कोई औरत तूफ़ान लाने वाली है। तूफ़ान की शुरुआत होती है वहीँ कब्रिस्तान में जहां मुश्ताक़ के चंगुल से दोनों उसकी ही गाड़ी में फरार हो जाते हैं और शुरू होता है भागम-भाग और चोरी-छिपे के खेले के बीच एक नया सस्पेंस।<br />
<br />
पिछली फ़िल्म का गोरखपुर का बैकड्रॉप इस बार उठकर पहुँचता है नवाबों कि नगरी लखनऊ के पास एक छोटे से कसबे महमूदाबाद में। इसके साथ ही पुरबिया की खालिस क्रुडनेस इस बार बदल जाती है नवाबों की अदबियत में। बेग़म पारा के सालाना जलसे में उनका दिल जीतने की तमन्ना लिए हुए आये नवाबों में एक खालू जान भी शिरकत करते हैं। पहली फ़िल्म में खुले आम गालियां बकने वाला खालू इस बार शायरी करता हुआ नज़र आता है। बेग़म पारा की खूबसूरती में फ़िदा हुआ खालू बब्बन के साथ एक शाजिश में धँसता चला जाता है। पहली फ़िल्म की तरह ही इश्क़ करने की फितरत में इस बार फिर बेमतलब दूसरों के फटे में टांग अड़ाते हुए दोनों नयी नयी मुसीबत में फंसते चले जाते हैं।<br />
<br />
सीक्वल होने के कारण सस्पेंस थोड़ा कमजोर होता लगता है और कहानी का पूर्वाभाष काफी हद तक हो जाता है। इसके बावजूद डेढ़ इश्क़िया पहली फ़िल्म की तरह ही प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहती है। विशाल भरद्वाज की चिर-परिचित शैली में बनी यह noir-comedy फ़िल्म भी रंग जमाती हुई अपनी छाप छोड़ती है। संगीत और गाने हालांकि पिछली फ़िल्म से काफी कमजोर हैं और कहीं से भी गुलज़ार-विशाल भरद्वाज की जोड़ी के नाम के साथ न्याय नहीं करते। फिर भी सब मिलाकर पिछले काफी दिनों के बाद एक ऐसी फ़िल्म देखने का मौका मिला जिसे देखकर काफी अच्छा लगा। अब तो बस डेढ़ के बाद ढाई इश्क़िया के इंतज़ार में.… <br />
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-66115009345314945762014-01-11T16:23:00.000+05:302014-01-11T16:25:08.578+05:30"नानी तुम सच में चली गयी?"<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
शाम के लगभग पौने सात-सात बजे होंगे। दिन भर किसी सेमिनार से थका-हारा हॉस्टल के अपने कमरे में घुसा ही था। मोबाइल को चार्ज में लगा कर पलटा ही था कि उसी मोबाइल की रिंग बज उठी। पापा का फ़ोन था। शाम के उस समय में उनका फ़ोन आना थोड़ा अटपटा लगा था। फ़ोन उठाया और पापा के हेल्लो बोलने के अंदाज़ ने ही मन में थोड़ी बेचैनी पैदा कर दी थी। फ़ोन पर आने वाली आवाज़ में एक अजीब तरीके की मनहूसियत का अहसास हो रहा था। माहौल के ग़मज़दा होने का बोध बिना कुछ बोले ही हो रहा था। कुछ अटपटी अनहोनी की आशंका ने अभी मन में घर करना शुरू किया ही था कि पापा की आवाज़ आयी। 'नानी नहीं रहीं'। इसके आगे न पापा ने कुछ कहा और न मैंने ही कुछ और सुनने की कोशिश की। फ़ोन रख दिया।<br />
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एक दिन पहले फ़ोन पर मम्मी से बात हुई थी। नानी की तबियत पहले से ठीक हुई है, मम्मी ने बताया था। थोड़ी परेशान थी। बोल रही थी कि नानी अब ज्यादा दिन बचेगी नहीं। बेचैन थी, बोली एक बार जाकर मिलने का मन कर रहा है। जल्दी ही जाने का प्रोग्राम बन रहा था। पापा के इस फ़ोन से अचानक एक दिन पहले की ये बातें याद आयी। कहते हैं कई बार यूँही कह दी गयी बात भी भगवान सुन लेता है और बात सच हो जाती है। अगले ही पल मन से एक धिक्कार भगवान के नाम की निकली। तुझे सुनना ही था तो ये बात। फिर याद आया कि इस खबर से मम्मी की क्या हालत हो रही होगी, और मैंने पापा से पूछा भी नहीं। तुरंत पापा को फ़ोन किया और बोल दिया कि मैं आ रहा हूँ। सोचा अभी स्टेशन चला जाउंगा तो किसी न किसी ट्रेन से सुबह तक पहुँच जाऊँगा। </div>
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एक घंटे बाद ट्रेन में बैठा था। बिना रिजर्वेशन के। टीटी को कुछ पैसे दिए और एक सीट मिल गयी। रात भर का समय यूँही बैठे-बैठे कट गया। सोच रहा था कि नानी से तो कभी भी इतनी नजदीकी नहीं थी, फिर भी इतनी बेचैनी कैसे। फिर लगा जिनसे खून का रिश्ता होता है उनसे नजदीकी उनकी गोद में खेलकर या बैठ कर उनके साथ बातें करने से नहीं होती। खून का रिश्ता आखिर खून का ही होता है। कोसों दूर सात समंदर पार रहने वाला इंसान भी हमेशा अपनी बगल में ही महसूस होता है। कुछ ऐसा ही रिश्ता मेरा नानी के साथ था। </div>
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शायद ही हमारे देश में कोई ऐसा बचपन होगा जो बिना नानी की कहानियों के बीता होगा। मेरा बचपन कुछ ऐसा ही था। बचपन में कहानियाँ तो कई सुनी, मगर नानी से एक भी नहीं। कहानियाँ नाना जी ही सुनाते थे और इसलिए घनिष्ठता उनसे ही अधिक थी। नाना जी के रहने से नानी के वहाँ नहीं होने की कोई कमी नहीं खलती थी। फिर क्यूँ आज नाना जी के रहते हुए नानी के चले जाने से इतनी बेचैनी हो रही है। आखिर समय पर खाने-पीने का पूछने के अलावा नानी से कभी और बात भी नहीं किया। फिर भी ट्रेन में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि कल जब बथुआ पहुँचूँगा तो अपने कोठरी के चौखट पर बैठी, इंतज़ार करती हुई नानी वहाँ नहीं होगी। कैसा लगेगा वो खाली चौखट!</div>
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सुबह जब बथुआ पहुँचा तो नानी वहीँ थी। अपने उसी कोठरी के चौखट के पास। बैठी नहीं थी, लेटी हुई थी। आँखें बंद, मानो गहरी नींद में सोती हुई। मम्मी वहीँ पास में बैठी रो रही थी। आँखों ने सबसे पहले नाना जी को ढूँढा था। बाहर कुर्सी पर बैठे रो-रोकर बुरा हाल हो रखा था। आधी सदी से ज्यादा वक़्त जिसके साथ बिताया था वो उन्हें छोड़कर चली गयी थी। आँखों से निरंतर आंसू मेरे भी निकल रहे थे। नानी के चले जाने का ग़म ज्यादा था या नाना जी की बची हुई ज़िन्दगी के खालीपन की तकलीफ ज्यादा थी, यह बात आज भी समझ नहीं आयी।</div>
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अर्थी को कांधा देकर श्मशान तक पहुँचाना और फिर उसे चिता पर रख कर आग लगा देना बड़ा अज़ीब लग रहा था। जब बांस काटकर उसका बल्ला बनाकर बचपन में खेलता था तो यही नानी मारे चिंता के न जाने कितनी बार टोकती थी कि ध्यान से कहीं हाथ न कट जाये। आज उनको ही कटे हुए बांस की बनी अर्थी पर लिटा दिया। आग की लपटों में देखकर ऐसा लग रहा था कि मेरा कोई हिस्सा जल रहा हो। दुनिया की भी क्या अजीब रीत है! जिस बेटे को माँ ज़िन्दगी भर हर तरह के तकलीफों से दूर रखती है, जिसके लिए सारा दुःख-दर्द अपने ऊपर ले लेती है उसी बेटे के लिए सबसे बड़ा पुण्य का काम उस माँ को आग देना होता है। फूट-फूट कर रोते हुए नानी को आग देते हुए मामू का वो चेहरा आज भी भुलाये नहीं भूलता। उनके मन में क्या चल रहा होगा। अपनी माँ को आग की लपटों में डाल देने की शक्ति उनमें कहाँ से आयी होगी। अपनी माँ को जलते हुए देखकर उनका खुद का कितना बड़ा हिस्सा जल कर ख़ाक़ हो गया होगा।</div>
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किसी के चले जाने से दुनिया रुक नहीं जाती। कुछ समय के लिए जीवन अधूरा जरुर लगता है मगर ख़त्म नहीं होता। ऐसी ही बातें ऐसे समय में अपने आप का ढांढस बढ़ाने के काम आती हैं, अपने आप को साहस देती हैं। नानी जा चुकी थी। राख बनकर वहीँ श्मशान की मिट्टी में मिल चुकी थी। पूरी ज़िंदगी जितना उनके साथ बिना बात नहीं किये हुए बिता दिया, उसकी भरपाई करने की इच्छा अब उनके जाने के तीन-साढ़े तीन महीने बाद भी होती रहती है। हर वक़्त जब भी नानी का चेहरा आँखों के सामने आता है, कई सवाल मन में उठने लगते हैं। अंतिम सवाल हमेशा एक ही होता है, "नानी तुम सच में चली गयी?" </div>
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-59109841182798962232014-01-09T23:29:00.001+05:302014-01-09T23:29:46.761+05:30कन्फेशन!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उफ्फ़! फिर वही कन्फेशन। एक पूरा साल बीत गया। कभी अंदाजा ही नहीं लगा। इतने दिन बीत गए इधर आये हुए। ऐसा कुछ भी नहीं कि 13 अंक से कोई नफरत हो या वैसा कुछ अंधविश्वास कि 2013 में कुछ काम ही न करूँ। वक़्त के लहरों में न जाने कब पूरा एक साल बह निकला, इसका अहसास ही कभी नहीं हो सका। पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग की याद आ रही थी और आज जब इस ओर आना हुआ तब जाकर पता चला कि यहाँ कभी अच्छा-ख़ासा समय बिताने वाला मैं पिछले पूरे साल में कभी आया ही नहीं।<br />
<br />
हर बार जब भी इस तरह का एक बड़ा अंतराल आया है तो कहीं न कहीं मन में सवाल उठते हैं इस ब्लॉग की जरुरत को लेकर। आत्मचिंतन करने को मन विवश हो उठता है और सबसे बड़ा सवाल इस ब्लॉग के पूरे अस्तित्व को लेकर ही उठ खड़ा होता है। आखिर वह कौन सी जरुरत थी या ऐसा क्या शौख था कि इस ब्लॉग पर मैं कभी इतना समय बिताया करता था। और अब मेरी ज़िन्दगी में ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं कि न अब वो जरुरत रही और न ही वो शौख।<br />
<br />
हालांकि, क्रिएटिविटी हमेशा से अकेलेपन की नाजायज़ औलाद की तरह रही है। इस ब्लॉग पर मेरी क्रिएटिविटी, मगर, सबसे ज्यादा उन दिनों में ही रही जब मैं घर में रहता था, कॉलेज में पढाई कर रहा था और दोस्ती और रिश्तेदारी अपने चरम पर थी। आज अकेला हॉस्टल में रहता हूँ। दोस्ती सीमित है और रिश्तेदारी एसटीडी फ़ोन कॉल्स पर निर्भर रह गयी है। फिर भी कभी ब्लॉग्स का ख्याल मन में नहीं आया, ये थोड़ा अचंभित करने जैसा लगता है।<br />
<br />
ब्लॉग नहीं लिखने का कारण हमेशा एक ही बहाने पर थोपता रहा हूँ। लिखने को कुछ था ही नहीं। इस बार ये बात हज़म होने वाली नहीं लगती। एक आदमी की ज़िन्दगी में पूरे एक साल से भी ज्यादा के समय में कुछ महत्त्वपूर्ण हुआ ही नहीं हो, ये कहीं से नहीं पचता। व्यक्तिगत ज़िन्दगी से लेकर पारिवारिक और सांसारिक ज़िन्दगी में कई बदलाव पिछले पूरे साल ने देखे। 6 साल पुराने प्यार की शादी ठीक होने से लेकर साल के अंत में शादी होने तक की पूरी यात्रा ही ब्लॉग पर बार बार आने के लिए काफी थी। परिवार की कुछ दुःखद घटनाओं का दर्द भी यहाँ बांटा जा सकता था, मगर नहीं।<br />
<br />
वक़्त नहीं मिला का बहाना भी नहीं चल सकता इस बार। जितना वक़्त इंटरनेट की गोद में इस पूरे साल में बीता है उतना शायद ही कभी और बीता होगा। बैठे बैठे Youtube पर न जाने कितने विडियो देख डाले। फेसबुक पर इतना समय बिताया कि अब ऊब सी हो गयी है और दिन में कभी कभार कुछ पलों के लिए ही उधर जाता हूँ और बंद कर देता हूँ। शायद उसी ऊबाई का नतीजा है कि फिर से ब्लॉग की तरफ आने का मन किया।<br />
<br />
देश दुनिया की ख़बरें पिछले साल ऐसी रही जिसने सोचने को मजबूर किया। अन्ना के आंदोलन से आप के अस्तित्व में आने तक और फिर उसी आप की ऐतिहासिक जीत ने मन में कई सवाल खड़े किये। उन सवालों या उनसे जुड़ी स्थितियों पर अपने नजरिये के साथ कई बार ब्लॉग पर आया जा सकता था, लेकिन नहीं।<br />
<br />
इसके पहले भी कई बार इस ब्लॉग के साथ मैंने बेवफाई की है। हर बार वादे के साथ लौटा हूँ कि ये एक नई शुरुआत है। हर बार उम्मीद रही है कि आगे ऐसा मौका नहीं आने दूंगा। उम्मीद इस बार भी है मगर वादा इस बार नहीं करूंगा। कहीं न कहीं वादाखिलाफी के डर से ज्यादा भरोसा अपने आलसीपने पर है जो शायद फिर से मुझे मेरे ब्लॉग से दूर ले जाये। इसी डर और भरोसे की ज़ंग के बीच उम्मीद करता हूँ इस ब्लॉग पर क्रिएटिविटी ज़िंदा रहे.… </div>
Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-89205257984301232502012-11-05T23:52:00.000+05:302012-11-05T23:52:43.411+05:30वो सब कुछ!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgv-9jZjhMxUwitvxT36qpvutLGYcRZ_UpvGEikLfG21XloPS0tbPFbJJOYBvGrM4b1lPhinEky0aEN08sG38DH1xMBSfePbMduFRyq-DVfx_KoUrll8UVJXVlMNbjhftk580dtbVPSqhhm/s1600/nidhi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgv-9jZjhMxUwitvxT36qpvutLGYcRZ_UpvGEikLfG21XloPS0tbPFbJJOYBvGrM4b1lPhinEky0aEN08sG38DH1xMBSfePbMduFRyq-DVfx_KoUrll8UVJXVlMNbjhftk580dtbVPSqhhm/s320/nidhi.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
कमरे में अकेला,<br />
पलंग पर करवटें बदलता,<br />
घड़ी की टिक-टिक सुनता,<br />
कोसता उस आवाज़ को<br />
जो याद दिला रही थी उसे<br />
बीते हुए वो दिन, वो पल,<br />
वो सब कुछ।<br />
<br />
वो चेहरा, वो मुस्कराहट,<br />
बड़ी सी मुस्कुराती आँखें<br />
शरारत से लबालब,<br />
होठों के नीचे वो काला तिल,<br />
तिल पर टिपटिपाती उंगलियाँ,<br />
वो छोटी छोटी प्यारी उंगलियाँ,<br />
उन्हें अपने हाथों में लेना<br />
अपनी उँगलियों में उन्हें समाना<br />
जैसे अपनी रूह में समाना उसे,<br />
वो सब कुछ।<br />
<br />
घड़ी की वही टिक-टिक<br />
याद दिला रही थी उसे,<br />
आज का उसका अकेलापन<br />
दिल का उसका वही खालीपन।<br />
कोशिश करता था वो<br />
उस खालीपन को भरने का<br />
उन्ही यादों के सहारे<br />
उन हर खूबसूरत पलों के सहारे<br />
जो साथ बिताया था उन्होंने,<br />
लड़ते, झगड़ते, हँसते, खेलते,<br />
साथ में।<br />
<br />
कितने प्यारे थे वो दिन,<br />
न जाने कहाँ चले गए।<br />
आज सब धुंधला था,<br />
वो चेहरा भी, वो मुस्कराहट भी,<br />
वो आँखें भी, शरारत की जगह<br />
अब आंसुओं से लबालब,<br />
छोटी छोटी वो उंगलियाँ<br />
तड़पती अपने आप को समाने।<br />
वो सब कुछ।<br />
<br />
सब कुछ धुंधला था,<br />
आँखों में नमी थी<br />
या सामने धुंध था,<br />
जो भी हो,<br />
एक उम्मीद थी,<br />
नमी हटेगी कभी<br />
धुंध छंटेगा कभी।<br />
वो चेहरा, व मुस्कराहट<br />
सब साफ़ दिखेंगे कभी,<br />
फिर से घड़ी की सुइयां<br />
लायेंगी वापस वही समय,<br />
वहीँ, जहाँ शुरू हुआ था सब कुछ।<br />
हाँ, वो सब कुछ! </div>
Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-27530069990539850882012-10-23T20:53:00.001+05:302012-11-05T23:53:20.140+05:30एक और मौत, फिर वही बेचैनी और फिर वही दौड़ती भागती ज़िन्दगी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
शाम के साढ़े चार बजे थे। सुबह वार्ड की थकान को मिटाने वो आराम से अपने कमरे में सो रहा था। दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ चल रही थी। वार्ड में ज्यादा पेशेंट थे नहीं। पिछले हफ्ते जिनका ओपरेशन हुआ था वही 3-4 बचे थे बस। एक को छोड़कर सब स्टेबल हो गए थे। एक की हालत थोड़ी गंभीर बनी हुई थी, बेड नंबर 61। उसी के चक्कर में सुबह से 3-4 दफे वार्ड के चक्कर लगाने पड़े थे। उसी की थकान थी जो अमूमन दिन में कभी न सोने वाला वो आज सो रहा था। तभी वार्ड से फ़ोन आया। सिस्टर ने इन्फॉर्म किया था, 61 नंबर की हालत बहुत ख़राब थी। जितनी जल्दी हो सका वो वार्ड में था। 61 नंबर अपनी आखिरी सांस ले चुका था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था। आज सुबह हालत गंभीर थी मगर फिर भी बातें कर रहा था। खराब होने की उम्मीद थी मगर इतनी जल्दी हो जायेगा इसका अहसास नहीं था। दुबारा ओपरेशन करने के बारे में अभी सोचना शुरू ही तो किया था। मौत को भी न जाने कौन सी हड़बड़ी थी, शायद शाम में महा-अष्टमी के मेले में पंडालों में घुमने जाना था उसे।<br />
<br />
मौत की फोर्मलिटी पूरी करके वो वापस अपने कमरे में आ चुका था। दुखी, अकेला और एक हद तक सन्न। जब से इस पेशे में आया है, कई मौतें देख चुका है। कोई नयी बात नहीं थी। फिर भी एक अजीब किस्म की बेचैनी थी। शायद उसकी मौत का जिम्मेदार एक हद तक अपने आप को मान रहा था। शायद वो उसे बचा सकता था। मगर कैसे। दिल था जो कह रहा था कि ये संभव था, दिमाग जानता था ऐसी मौतों को टाला नहीं जा सकता। लाख पन्ने पढने के बाद भी कभी कभी दिल दिमाग पर इस कदर हावी हो जाता है कि दिमाग की सोचने की शक्ति जाती सी लगती है। ये ऐसा ही एक समय था, जब दिल दिमाग पर हावी हुआ जा रहा था।<br />
<br />
कमरे में बैठा वो उस दिन को याद कर रहा था जिस दिन वो पेशेंट वार्ड में एडमिट हुआ था। एक गोरा-चिट्टा भरा-पूरा अच्छे घर का दिखने वाला 46 साल का आदमी। उसने खुद बताया था, "डाक्टर बाबु! पेट में कैंसर है। शरीर में खून भी ख़त्म हो गया है। बिना खून के ओपरेशन कैसे होगा। ऊपर से हार्ट का भी रोग है। ज़िन्दगी बर्बाद हो गया है। खाली अस्पताल और डाक्टर लोग का चक्कर। एकदम परेशान हो गए हैं।" होठों के किनारों में एक मुस्कराहट आ गयी थी। शरीर में खून ख़त्म हो गया है की बात से। मैंने कहा था, "खून नहीं रहता शरीर में तो जिंदा थोड़े रहते। कुछ नहीं होगा, खून चढ़ेगा, ओपरेशन होगा, ठीक हो जाईयेगा एकदम। चिंता नहीं करिए।"<br />
<br />
वही चेहरा बार बार उसकी आँखों के सामने आ रहा था। आँखें बंद करता तो बेड के किनारे नीचे बैठकर चीत्कार करती पेशेंट की पत्नी याद आती। दिन भर भूखा-प्यासा खून के इंतज़ाम के लिए दौड़ता उस पेशेंट का बेटा याद आता जो अपने बाप की मौत की खबर सुनते वही वार्ड में ही बेहोश हो गया। वो सारी आँखें उसे अपनी ओर उठती और सवाल करती दिखती थी। विचलित करती, उसे परेशान करती। उसका दिल उन सभी आँखों का गुनाहगार उसे ठहरा रहा था। एक बेचैनी उसके मन में घर कर रही थी। तकरीबन आठ बज गए थे। बाहर महा-अष्टमी के मेले की धूम शुरू हो चुकी थी। चारों ओर से लाउड-स्पीकर की आवाज़े कानों में आ रही थी। घुमने जाने का प्रोग्राम उसका भी था, दोस्तों के साथ, मगर दिल इजाज़त नहीं दे रहा था।<br />
<br />
* * * * * * * * * * * * <br />
<br />
रात के दो बज चुके थे। थका-हारा वो अपने कमरे में आ चुका था। बंगाल में आया और दुर्गा पूजा का मजा नहीं लिया तो क्या किया। यही बोलकर उसके दोस्त उसे उठाकर घूमने ले गए थे। माँ के पंडाल, पंडालों की भीड़ और भीड़ में बंगालन सुंदरियां। जब कॉलेज के दोस्त साथ होते हैं तो सुंदरियां अजेंडे में सबसे ऊपर होती है। हमारे अजेंडे में वो सबसे ऊपर नहीं थी, क्यूंकि उन्हें छोड़कर अजेंडे में कोई था ही नहीं। थोड़ी मस्ती हुई, घूमकर सब वापस आये। दिल शांत हो चुका था। दिमाग ने एक बार फिर दिल के ऊपर जीत हासिल की थी। मन मान चुका था कि कई बार सब कुछ करने के बाद भी मौत को टालना अपने हाथ में नहीं होता। मौत सबसे ऊपर है, सबसे ताक़तवर। ये एक जीवन-चक्र है, हमारी ज़िन्दगी का। रोज़ नए पेशेंट आयेंगे। मीठी-मीठी बाते होंगी, इलाज़ होगा। कई ठीक हो जायेंगे, कई मौत के साथ अपनी जंग हार जायेंगे। कुछ को मौत जंग लड़ने का मौका भी नहीं देगी, यूँही साथ लेकर चली जाएगी। जैसे उसे ले गयी थी, बेड नंबर 61 को।<br />
<br />
<br />
* * * * * * * * * * * *<br />
<div>
<br /></div>
<div>
आज वार्ड से लौटकर जब ये ब्लॉग लिखने बैठा हूँ तो सोच रहा हूँ, मौत कितनी कमीनी होती है। कभी भी किसी को भी अपने साथ उठाकर ले जाती है, और हम कुछ कर नहीं पाते। थोडा उदास होते हैं, कभी कभी थोड़ी बेचैनी भी होती है, मगर कितनी देर। इस पेशे में हूँ तो शायद ज्यादा देर उदास होने या बेचैन होने की इजाज़त भी नहीं है। मगर क्या इस पेशे का नाम लेकर इंसानियत से दूर हुए अपने अहसासों को सही ठहराना खुद सही है। एक ऐसा पेशा खुद चुना है जिसमे ज़िन्दगी और मौत की ये लड़ाई हर रोज़ चलती मिलेगी और उसमे रेफरी के अपने किरदार को हमेशा निभाना पड़ेगा। युद्ध शुरू होने के पहले की अर्जुन की दुविधा कही न कही हमारे पेशे में भी घर करती मिलती ही है। फर्क सिर्फ इतना रह जाता है कि अर्जुन को खुद बाण चलाने थे और वो भी अपने भाइयों पर। हमें बाण नहीं चलाना होता। हमें जिनकी चिंता होती है वो हमारे अपने भी नहीं होते। मगर फिर भी। एक पेशेंट के लिए भगवान के बाद का दर्जा हमें दिया जाता है। जिसकी तकदीर में वो मौत लिख देता है, उसे भी हमारे पास भेजता है। शायद हमें ये याद दिलाने कि हम भगवान नहीं, उसके बाद दुसरे नंबर पर ही हैं। </div>
</div>
Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-42534018204985649302012-10-17T19:42:00.001+05:302012-10-17T19:42:52.784+05:30फिर से लिखेगा वो!!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHNZ-OlaSKYJVPSRpVDCOHmtO7lpnzt_F6eSPNU5qyBigZ33elvCw7ZzzYSCccOqRYziPqiEJAKdWC3HcjX5LyY8a-5jU8Q4PKwpoli5ZG0gY0gqtntblFjHCF2-3hfKE-b81QPbYVvAk3/s1600/blog.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHNZ-OlaSKYJVPSRpVDCOHmtO7lpnzt_F6eSPNU5qyBigZ33elvCw7ZzzYSCccOqRYziPqiEJAKdWC3HcjX5LyY8a-5jU8Q4PKwpoli5ZG0gY0gqtntblFjHCF2-3hfKE-b81QPbYVvAk3/s320/blog.jpg" width="319" /></a></div>
कमरे में वो अकेला बैठा हुआ था। न जाने कितनी देर से। बाहर धीरे धीरे अँधेरे ने घर कर लिया था और उसे इसका अंदाजा तक न लग सका। कानों में इयरफोन लगाए लैपटॉप के आगे बैठा गाने सुन रहा था, गुलाल फिल्म के। गीत के भयानक बोलों में खोया था या किसी और उलझन में, पता नहीं। बस समय का अंदाजा नहीं लग रहा था उसे। यूँही बैठा लैपटॉप खोले अपने ही ब्लॉग के पुराने पोस्ट्स पढ़ रहा था। वहीँ बिस्तर पर बगल में वो नोवेल भी रखी थी जिसे उसने लगभग 3-4 महीने पहले पढना शुरू किया था मगर चंद पन्नों के आगे कुछ भी नहीं पढ़ पाया। कुछ सोच रहा था। शायद खुद को उलाहने भी दे रहा था।<div>
<br /><div>
वो भी क्या समय था। लैपटॉप पर बैठा ब्लॉग खोलता और शब्द यूँही निकलने लग जाते। कभी अपनी मनःस्थिति के बारे में तो कभी आस-पास की गतिविधिओं के बारे में। कुछ भी। बस लिखता रहता था। 2 साल हो गए। ढंग से कुछ भी नहीं लिखा था उसने। ब्लॉग मर सा गया था उसका। और शायद उस मरे हुए ब्लॉग के सामने बैठा उसी के शोक में डूबा हुआ था। कई बार समय की कमी का बहाना बनाया, कई बार प्रायोरिटी लिस्ट में ब्लॉग के काफी नीचे होने का हवाला भी दिया। बहानों की कभी कोई कमी नहीं रही। बहाने कोई भी हो, परिणाम एक ही था। एक ही तो भली आदत थी उसकी, उसने उसे भी आसानी से जाने दिया था। शायद उस आदत की ही यादों में कहीं खोया हुआ था।</div>
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<br /></div>
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ज़िन्दगी चलते चलते काफी आगे निकल गयी थी। ज़िन्दगी के साथ चलता तो साथी छूट जाते थे और साथ निभाता था तो ज़िन्दगी भागती चली जाती थी। अजीब उधेड़बुन में फंसा हुआ था। न घर का न घाट का। ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने उसे कही अलग अकेला लाकर खड़ा कर दिया था। जिसके सहारे ज़िन्दगी जीने के सपने देखे थे उसने, वो तो कहीं पीछे ही छूट गयी थी। बहुत पीछे। पीछे मुड़कर उसे पुकारता तो भी वो सुन नहीं पाती। समय ने एक ऐसी खाई खड़ी कर दी थी जिसे पाटना तो दूर, गहराई को बढ़ने से भी वो रोक नहीं पा रहा था। वही तो एक सहारा था जो उसकी हर आदत का आधार थी। जब आधार ही खो दिया था उसने तो आदतें कहाँ बचतीं।</div>
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<br /></div>
<div>
पहले जब प्यार की बातें होती थी तो खुश रहता था। खुश रहता था तो यूँही सबकुछ अच्छा लगता था। अकेला बैठना भी तब अच्छा लगता था। कुछ करने का जी करता था। कुछ भी करता था। अक्सर लिखता था। जब तकरार होती थी, तब भी लिखता था। कभी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए, कभी मन की भड़ास निकालने के लिए। अक्सर लिखता था। आज न प्यार होता है, न ही तकरार। न खुश ही रहता है, न दुखी ही होता है। Indifferent सा हो गया है। अपनी तरफ, अपनी ज़िन्दगी की तरफ, अपने उस सहारे की तरफ। आदतें छूट गयी हैं।</div>
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दिल ही नहीं करता कुछ भी करने का। कहीं भी मन नहीं लगता। बस अकेला बैठा रहता है कमरे में। यूँही। खिड़की के बाहर अँधेरे को गिरता देखता रहता है। उस अँधेरे को जिसने उसके अन्दर घर कर लिया है। रातें उसे अपनी अपनी सी लगने लगी हैं। शायद रात के अँधेरे में वो अपने मन के अँधेरे को देखता है। सुबह होने की कोई चाहत नहीं बची है अब उसके मन में। अँधेरे की ऐसी आदत लगी है कि शायद सूरज की रौशनी अब उसकी आँखों को चौंधियाने के अलावा कुछ भी नहीं करती। आँखें बंद हो जाती है रौशनी में या कि वो खुदबखुद कर लेता है, पता नहीं। पर जो भी हो, बंद आँखों से वो रौशनी उसके अन्दर के अन्धकार को ख़त्म नहीं कर पाती। ख़त्म नहीं कर पाती या वो उसे ख़त्म करने देना नहीं चाहता, पता नहीं। शायद उसे उस पुरानी रौशनी का ही इंतज़ार है जिसने उसकी ज़िन्दगी को रौशन रखा था। इंतज़ार है उसे उसी रौशनी का। आएगी वो एक दिन उसके पास, उसके मन के अंधेरों में और ख़त्म होगा वो अँधेरा। फिर से रौशन होगी उसकी ज़िन्दगी, फिर से खुश होगा वो प्यार की बातों से। फिर से दुखी होगा तकरारों से। फिर से ज़िन्दगी जीना शुरू करेगा वो। फिर से लिखेगा वो!!!</div>
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-4468217622558765912012-02-21T00:23:00.000+05:302012-02-21T00:33:50.868+05:30काश.........काश.......काश!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEim9CwoQAIsK00mqkCsXYFdrnYk2FYgRps4WV3-uMDM2zVhlatoQFs8hpmy_9DN4Lc5t0knBOvHncTMHRx_sxbHBfeKXnYnGGxMyu6SEyPD9A30TjSTTpVN2eei8ttOvpjsIUSjnCxfrG_G/s1600/blog.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="318" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEim9CwoQAIsK00mqkCsXYFdrnYk2FYgRps4WV3-uMDM2zVhlatoQFs8hpmy_9DN4Lc5t0knBOvHncTMHRx_sxbHBfeKXnYnGGxMyu6SEyPD9A30TjSTTpVN2eei8ttOvpjsIUSjnCxfrG_G/s320/blog.jpg" width="320" /></a></div>
शाम के 5 बज चुके थे........वो बेचैन सा हो रहा था.......लैब में बैठे बैठे कोई काम न था.........बस मैडम के जाने का इंतज़ार.....मन ही मन गालियाँ दे रहा था......कब जाएगी ये खूसट और कब निकलूंगा मैं बाहर. बाहर जाने की यूँ कोई हड़बड़ी नहीं रहती थी, पर उस दिन बेचैन था. वो जो आई हुई थी. बाहर लाइब्ररी में बैठ कर इंतज़ार कर रही थी उसका......पिछले आधे घंटे से........जुगत में बैठा था कि कब मैडम निकले और वो जाकर उससे मिले................सुबह सुबह फ़ोन पर झगडा जो हुआ था. ऐसे ही किसी बात पर कहा-सुनी हो जाना आम बात हो चुकी थी.........सुबह में झगडा और शाम में फिर मिल कर बात सलटा लेना अमूमन रोज़ की बात. उस रोज़ भी वो मुलाक़ात वैसी ही होने वाली थी और यही उसकी बेचैनी का कारण भी......<br />
मैडम के कमरे में कुछ सुगबुगाहट शुरू हुई........मन को थोड़ी तसल्ली हुई कि अब बस थोड़े देर की ही बात है........वो खुश था. उसने मिस कॉल मार दिया..........5<span> </span>-10 मिनटों में मैडम भी चली गयी. दौड़ता हुआ वो बाहर निकला. लाइब्ररी की तरफ जैसे ही कदम बढ़ाये, उस ओर से वो आती हुई दिखी.....<br />
खुले हुए लहराते बाल, कुर्ते-जींस पहने हुए, होठों पर मुस्कान लिए वो उस ओर आ रही थी............उसने नोटिस किया, उसने बाल कटवाए थे. पूरे छोटे नहीं, किनारों से. उसे लम्बे बाल पसंद थे. उसका बाल कटवाना उसे अच्छा नहीं लगता था. न बाल खुले रखना. वो चाहता था कि हमेशा उसके बाल लम्बे ही रहे. उसे उसका जींस पहनना भी पसंद नहीं था. कई बार जाहिर भी कर चुका था ये बात...........यूँ बाल कटवा कर इस तरह से जींस में उसका आना उसे गंवारा नहीं गुजरा..........वो समझ नहीं पा रहा था कि सब कुछ जानते हुए भी क्यूँ वो आज सुलह करने इस तरह से आई थी........उसे कुछ समझ नहीं आया. वक़्त की नज़ाक़त और उसकी मुस्कान को देखकर उसने चुप रहना ही मुनासिब समझा..........कई बार ख़ामोशी एक ऐसी जरुरत बन जाती है जिसके सामने कोई शब्द मायने नहीं रखते........ये ऐसा ही समय था........वक़्त के ऊपर सब कुछ छोड़ते हुए वो भी मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ा.......<br />
<span>"काफी देर इंतज़ार करना पड़ा."</span><br />
<span><span>"नहीं लाइब्ररी में पढाई कर रही थी, इसलिए समय का पता नहीं चला."</span></span><br />
<span><span>"चाय पीना है?" </span></span><br />
<span><span>"चलो."</span></span><br />
<span><span>न जाने कितनी दफे चाय इस तरह बातचीत के बीच समय काटने के लिए एक मजबूत हथियार बनेगा, वो सोच रहा था.........</span></span><br />
<span><span><span>"तुमने तो नोटिस भी नहीं किया, मैंने बाल कटवाए हैं."</span></span></span><br />
<span><span>"ह्म्म्मम्म.........मैंने किया..........कुछ बोलने को नहीं है उसपर इसलिए बोला नहीं.......यू नो, आई डोंट लाइक इट मच!"</span></span><br />
<span><span>"अरे, शौख से नहीं कटवाया है बाबा........बाल फूटने लगे थे नीचे.........नहीं कटवाती तो ये कभी नहीं बढ़ते."</span></span><br />
<span><span>"हम्म्म्म........मगर अचानक?........सुबह तो कुछ नहीं बताया."</span></span><br />
<span><span>"सुबह तुम्हारा मूड कहाँ था बात करने का..........कुछ बोलो तो उल्टा जवाब.........क्या बताती.........वैसे भी अचानक ही प्रोग्राम बना.........सब जा रहे थे तो मैं भी चली गयी..........जावेद हबीब में कटवाया है......99 रुपये में."</span></span><br />
<span><span>"गधा जनम छुड़ा ही लिया आखिर........हेयर डिजाइनर से कटवा कर.....अच्छा है.........बट, यू नो, आई स्टील डोंट लाइक ईट."</span></span><br />
<span><span><span><span>एक चाय, एक काफी और 2 मफिन लेकर वो काफी शॉप पर ही बैठ गए थे.......... बातों बातों में उसने बताया की बाल काटने वाले, उस पार्लर में, लड़के थे...........काफी की सिप मुंह की मुंह में और कप की कप में ही रह गयी. बात बर्दाश्त से बाहर हो चुकी थी. जींस पहनना, बाल खुले रखना, उन्हें कटवाना ये सब वो बर्दाश्त कर चुका था. लड़कों से बाल कटवाना उसे बर्दाश्त न हुआ..........जिन बालों में खुद ऊँगली फिराने की उसकी चाहत थी उन बालों को अभी थोरी देर पहले कोई लड़का घंटे भर संवार रहा था, इस सोच ने उसे अन्दर तक गुस्से से भर दिया. उसने उससे पूछना चाहा कि क्या उसे ऐसी सोच से कोई दिक्कत नहीं. बहुत कोशिश की अपने गुस्से को काबू में रखने की पर वो रख न सका. अंत में पूछ ही लिया उसने..........और जिस बात का डर था, वही हुआ...........जब जवाब नहीं के रूप में आया तो फिर उसके पास बोलने को कुछ नहीं बचा था. कुछ और बात करने को उसका दिल नहीं हो रहा था..........</span></span></span></span><br />
<span><span><span><span>सुबह के झगडे को सुलझाने वाली मुलाक़ात, खुद एक झगडे का सबब बन कर रह जाएगी, वो नहीं जानता था.........बड़ी कोशिश की उसने खुद को समझाने की कि ऐसा होता है आज के युग में. वो कल की बात थी जब लड़कियां लड़कों के सलून में नहीं जाती थी और लड़के लड़कियों के. आज दोनों के लिए एक ही पार्लर होते हैं.............लाख कोशिशों के बावजूद भी वो खुद को समझा न सका..........खुद पर धिक्कार करने की भी कोशिश की कि छोटे शहर की छोटी सोच के साथ ही जियेगा, मगर जितना धिक्कार करता उतना ही उस सोच पर उसे गुमान होता..........आखिर मध्यम-वर्गीय परिवार से आने का उसे गर्व जो था. वो चुप नहीं रहा............बाते हुई, झगडे बढे.........भावनाओं को ठेस पहुची........दोनों तरफ..........जो मुलाक़ात सुबह के झगडे को ठीक करने के लिए शुरू हुई थी वो खुद एक ऐसे झगडे का रूप ले चुकी थी जिसका अंत उसके उठ कर वापस अपने घर चले जाने से हुआ. जींस पहनने पर तो कोई बात भी नहीं हो सकी. वो खफा थी. उसकी छोटी सोच से.......उसके मध्यम-वर्गीय ढकोसलों से..........उसकी बातों से...........अपने ऊपर उसके विश्वास की कमी से..........</span></span></span></span><br />
<span><span><span><span><span><span><span><span><br /></span></span></span></span></span></span></span></span><br />
<span><span><span><span><span><span><span><span><b><u>कुछ दिन बाद:</u></b></span></span></span></span></span></span></span></span><br />
<span><span><span><span><span><span><span><span>वो पहले से तय प्रोग्राम के मुताबिक़ शहर छोड़कर अपने घर वापस जा चुकी थी.........इसे यही रहना था..........इसी शहर में, इसी लैब में.........वो इसी कैम्पस में था...........रोज़ लैब जाता था........सुबह फ़ोन पर थोड़ी बात होती थी........झगडा सुलझ चुका था.......रोज़ 5<span> </span>बजते थे........बेचैनी रोज़ होती थी........मिलने की नहीं, इस बात की कि आज बाहर कोई मिलने वाला नहीं होगा..........रात को लाइब्ररी में अकेले अपने लैपटॉप और किताबों के साथ घंटों बैठता था...........बाहर निकलेगा तो फ़ोन पर कोई बात करने वाला न होगा, इस सोच से डर जाता था..........बाहर निकलता था तो हर ज़र्रा उसे उसकी याद दिलाता था........उस पेड़ के नीचे बैठ कर कभी प्यार की तो कभी तकरार की बाते करते थे.......वहां वो फिसल कर गिर रही थी तो उसने हाथ थाम कर उसे रोका था..........उस कैंटीन में बैठ कर शाम का नाश्ता करते थे..........बाते करते हुए इसी रास्ते से रात के 2-3 बजे लाइब्ररी से निकल कर काफी पीने जाते थे.........वो काफी शॉप, जहां न जाने कितनी बाते हुई है, कितने झगडे हुए हैं, कितने झगडे सुलझे हैं........सब कुछ..........वही काफी शॉप जहां वो अंतिम झगडा भी हुआ था..........उस सोच का झगडा.........क्या वो झगडा जरुरी था, क्या वो उसे समझ नहीं सकता था या क्या उसने झगडा करके कोई गलती की थी..........क्या इसकी पसंद-नापसंद को समझने का उसका कोई फ़र्ज़ न था..........क्या उसने इसका विश्वास तोड़ा था.........न जाने कितने सवाल मन में आते हैं और चले जाते हैं........बस रह जाती है एक कचोट की काश साथ रहने के उन अंतिम कुछ दिनों में वो झगडा नहीं करता. ...........काश.........काश.......काश!</span></span></span></span></span></span></span></span><br />
<span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><br /></span></span></span></span></span></span></span></span></span></span></span><br />
<span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><br /></span></span></span></span></span></span></span></span></span></span></span></div>Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-86296432757152788762012-02-04T11:37:00.000+05:302012-02-04T11:37:43.597+05:30वो चीखता है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGCBdhLF5owXNQAysHM0BsCGIz_kMwzVfeyy6RwbAvb3_L0DTMo-ZK2g4PYSMMniz0gC9oItA1eRzsqSXi4ploxW3Sn-JoYL6OOHueWFkftdmkyjE5r1VF-JKDIgvFgjydT2sBVMx2oyHN/s1600/blog.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGCBdhLF5owXNQAysHM0BsCGIz_kMwzVfeyy6RwbAvb3_L0DTMo-ZK2g4PYSMMniz0gC9oItA1eRzsqSXi4ploxW3Sn-JoYL6OOHueWFkftdmkyjE5r1VF-JKDIgvFgjydT2sBVMx2oyHN/s320/blog.jpg" width="242" /></a></div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
वो हँसता था, खिलखिलाता था,</div>
<div style="text-align: left;">
झूमता था, गाता था, गुनगुनाता था,</div>
<div style="text-align: left;">
दोस्ती थी, प्यार था,</div>
<div style="text-align: left;">
मस्ती थी, तकरार था.</div>
<div style="text-align: left;">
वो जिंदा था, क्यूंकि,</div>
<div style="text-align: left;">
वो ज़िन्दगी को जीता था.</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
हँसता वो आज भी है, मगर,</div>
<div style="text-align: left;">
वो हँसी कही खो गयी.</div>
<div style="text-align: left;">
खिलखिलाना वो भूल गया है,</div>
<div style="text-align: left;">
झूमना, गाना, गुनगुनाना</div>
<div style="text-align: left;">
उसकी आदत नहीं रही.</div>
<div style="text-align: left;">
दोस्त हैं, प्यार है, मगर.</div>
<div style="text-align: left;">
वो प्यार वो दोस्ती नहीं रही.</div>
<div style="text-align: left;">
जिंदा वो आज भी है,</div>
<div style="text-align: left;">
पर ज़िन्दगी जी नहीं पाता. </div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
अकेला, गुमसुम, चुपचाप,</div>
<div style="text-align: left;">
जब बैठता है तो रोता है,</div>
<div style="text-align: left;">
सब के साथ होता है तो</div>
<div style="text-align: left;">
बस सांस लेता है, क्यूंकि, जिंदा है.</div>
<div style="text-align: left;">
अक्सर चिल्ला उठता है, चीखता है.</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
एक गुस्सा है, मन में, आग है.</div>
<div style="text-align: left;">
एक विस्फोट होने की आहट है.</div>
<div style="text-align: left;">
ऐसा विस्फोट जिसकी गूंज</div>
<div style="text-align: left;">
उसे खुद बहरा कर देगा,</div>
<div style="text-align: left;">
वो जानता है.</div>
<div style="text-align: left;">
वो समझता है,</div>
<div style="text-align: left;">
एक ऐसा विस्फोट जो </div>
<div style="text-align: left;">
आस पास सब ख़त्म कर देगा,</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
इसलिए रोकता है, रोके रहता है.</div>
<div style="text-align: left;">
दिल के हर कोने में</div>
<div style="text-align: left;">
गुस्से को छुपाने की जुगत में रहता है.</div>
<div style="text-align: left;">
तड़पता है, सब कुछ सहता है,</div>
<div style="text-align: left;">
नाकाम कोशिश करता रहता है</div>
<div style="text-align: left;">
और अंत में चीख उठता है,</div>
<div style="text-align: left;">
अपने दोस्तों पर, अपने प्यार पर.</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
वो कहते हैं, वो बदल गया है,</div>
<div style="text-align: left;">
वो कुछ नहीं बोलता, बस सुनता है</div>
<div style="text-align: left;">
बैठता है, सोचता है, ढूंढता है,</div>
<div style="text-align: left;">
खुद को देखता है तो पाता है,</div>
<div style="text-align: left;">
वो आज खुद का अक्स न रहा,</div>
<div style="text-align: left;">
जो पहले था, अब वो शख्स न रहा. </div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
</div>
</div>Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-32312584910866533922010-12-13T17:49:00.000+05:302010-12-13T17:49:43.059+05:30उम्र और इंसानियत का रिश्ता, सुना था, इन्वर्सली प्रपोर्शनल होता है!!!भगवान् भला करे उसका जो आज ड्यूटी पर आने से पहले उससे बात हुई और उसने दुआ दी कि आज कोई डेथ सर्टिफाई न करनी पड़े........पता नहीं इमरजेंसी ड्यूटी के ऐसे कितने और 8 घंटे मिलेंगे ज़िन्दगी में जिसमे एक भी मौत से पाला न पड़े.........अपनी 8 घंटे की ड्यूटी बजाकर इमरजेंसी से निकल ही रहा था कि बाहर गेट पर एक दोस्त मिल गया, एक बैचमेट...........पिछले 5 सालों में जो कुछ चीज़े कमाई हैं यहाँ कॉलेज में उनमे से एक उसकी दोस्ती भी है. अगले 8 घंटों की शिफ्ट उसकी ही थी..........हाथ में सिगरेट लिए अपने मदमस्त चाल में वो चला आ रहा था.<br />
"एक सुट्टा मारेगा?", उसने पूछा. मैंने कुछ नहीं कहा. "मारा कर साले........कब तक सन्यासी बना रहेगा.........बड़े काम की चीज़ है साले........जो अन्दर 8 घंटे तक दिमाग की दही करके आया है न उससे बचने का सबसे सरल, सस्ता और टिकाऊ उपाय है बे."........ पिछले ५ सालों में न जाने उसने कितनी बार सिगरेट के गुण गिनाये थे........."चल कॉफ़ी पीला यार, सर दर्द कर रहा है.", हर बार की तरह मैंने डिमांड रख दी. बगल के कैंटीन में दो कॉफ़ी का आर्डर करके उसने पूछा, "क्यूँ बे साले, आज कितनों को मौत के घाट उतारा बे?"............... इंटर्नशिप शुरू होने के बाद से हर इमरजेंसी शिफ्ट के बाद आपस में बात करने को ये ही पहली टोपिक मिलती थी. साढ़े चार सालों तक बीमारियाँ और उनके इलाज़ को पढने के बाद जब सच में बीमारियों से पाला पड़ा तो पता चला कि साली सारी किताबें बकवास हैं. मौत की कोई गारंटी नहीं होती. वो अपना एप्वाईंटमेंट खुद लेकर आती है. और तुम कुछ भी कर लो, कुछ नहीं कर सकते.<br />
"अबे यार, आज तो गज़ब हो गया, साला एक भी डेथ सर्टिफाई नहीं किया यार. भीड़ थी, पेशेंट थे, लेकिन फिर भी, पता नहीं. जानता है, आज आने के पहले एक पुरानी दोस्त से बात हुई, फोन पर. उसने दुआ दी थी कि आज मौत से पाला न पड़े. साली की दुआ लग गई लगता है.", मैंने उससे कहा............. "सच में यार, लकी मैन. अब मैं जाता हूँ, देखता हूँ भगवान् मेरे हाथों कितनो की वाट लगाता है आज. साला अजीब लगता है यार..........एक जज मौत की सजा सुनकर कलम की नीब तोड़ देता है. उस कलम से फिर कोई काम नहीं होता, और हम साले न जाने यूँही लगातार कितनो को सर्टिफाई करते रहते हैं.........यार अब तो हाथ भी नहीं धोता मैं सर्टिफाई करने के बाद." सिगरेट की अंतिम कश खीचते हुए उसने कहा.............. "ओये दो-दो रसगुल्ले भी बढ़ाना यार", कैंटीन वाले को उसने आर्डर किया.............. "कितना अजीब लगता है न यार, मौत की बातें कर रहे हैं और मन साला रसगुल्ले खाने को कर रहा है. साली इंसानियत कही घोड़े बेचकर सो गयी लगती है.", मैंने उससे कहा था. "अबे जो होता है साला अच्छे के लिए ही होता है. जब तक मौत से पाला नहीं पड़ता था तब तक मौत 'मौत' लगती थी अब तो साली यारी हो गयी है उससे. अच्छा है न कि कोई फर्क नहीं पड़ता. साला अगर लोड लेने लगते तो ज़िन्दगी यूँही सड़ जाती. छोड़ बे, अपन लोग ऐसी लाइन में आ ही गए हैं तो अब इस बात का रोना क्या. एन्जॉय कर साले." उसने मेरा ढांढस बढाया था. अपने मन को शांत करने के लिए आदमी कई बहाने ढूँढ लेता है, उसने भी यही किया था.<br />
कॉफ़ी की चुस्कियां ख़त्म हो चुकी थी. मेरे चेहरे पर पिछले 8 घंटों की थकान और उसके चेहरे पर आने वाले 8 घंटों की चिंता साफ़ दिख रही थी.............. ऊपर से तो हर कोई मजबूत दिखना चाहता है कि उसे मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता पर अन्दर से सब विचलित होते हैं............ वो भी ऐसा ही था. मन में उसके भी यही चल रहा था. "जा ड्यूटी कर, किस्मत अच्छी रही तो तुझे भी एक भी सर्टिफाई नहीं करना पड़ेगा." मैंने उसे हिम्मत दी थी. "साले खुद एक लौंडिया की दुआ से बच गया तो बड़ा फ़कीर बन रहा है!" यूँही डपट कर हंस देना उसकी पुरानी आदत थी. उस समय भी उसके चेहरे पर हंसी दिख रही थी. अंतिम रसगुल्ले को मुंह में रखते हुए मैंने उससे कहा, "चल अब घर चलता हूँ भाई. जाकर सबसे पहले उसे ही फोन करके शुक्रिया करूँगा. जा तू भी, सर खोज रहे होंगे." "साला वो टकलू क्या खोजेगा मुझे. साला खुद तो कुछ आता नहीं बस बैठा हुआ आर्डर चलता रहता है.", बोलते हुए वो मेरे साथ कैंटीन से बाहर निकल गया.<br />
बाहर थोड़ी अफरा-तफरी मची हुई थी.............कोई रोड एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल लड़की को कुछ लोग इमरजेंसी के अन्दर ले जा रहे थे..............मैंने उससे कहा, "जा साले, कर जाकर सर्टिफाई.".........."लगता है आज फिर शुरुआत मौत से ही होने वाली है भाई." मुस्कराकर उसने कहा था.........वो अन्दर चला गया और मैं अपनी गाडी में बैठकर घर की ओर बढ़ गया. थोरी ही दूर पर मोबाइल बज उठा. एक दोस्त का फ़ोन था. फ़ौरन ब्रेक लगाकर यु-टार्न लिया और फिर इमरजेंसी पहुच गया. जिस दोस्त की दुआओं ने दिन भर मौत के साए से दूर रखा वही दोस्त वहाँ अपनी आखरी साँसे गिन रही थी. एक्सीडेंट हुआ था. होश में थी.................'और कोई डेथ सर्टिफाई किया या नहीं, नहीं मालूम पर मेरा तुम ही करना.'..............उसके अंतिम शब्द थे!<br />
<br />
<b>दम तोड़ती उन आँखों ने अंतिम गुजारिश की थी.</b><br />
<b>डाक्टरी के लबादे ने दिल तक पहुचने ही न दिया.</b><br />
<b><br />
</b><br />
<b>उम्र और इंसानियत का रिश्ता, सुना था, इन्वर्सली प्रपोर्शनल होता है!!! </b><br />
<br />
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Aashuhttp://www.blogger.com/profile/01903987800218010521noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-7308606979720379571.post-17407169172674286892010-12-01T19:31:00.000+05:302010-12-01T19:31:43.700+05:30यूँही फुर्सत में: कुछ ख्याल!<b>चंद रोज़ बेगारी के,</b><br />
<b>कुछ पल कामचोरी के,</b><br />
<b><br />
</b><br />
<b>कई सफहों को कलम फिर गंदा कर गयी!</b><br />
<br />
वो जब कुछ नहीं करता तो कितना कुछ कर देता है या कितना कुछ कर देने की शक्ति रखता है. कमरे में अकेले किताबों के बीच बैठा हुआ. बड़ी मुश्किल से ध्यान वहीँ बगल में रखे अपने लैपटॉप पर से हटा पाता है. किताबों की पतली-मोटी अक्षरें उसका ध्यान अपनी तरफ खींच पाने में अक्सर असफल हो जाती हैं. कमरे के बाहर सड़क पर से गुजरती हुई वो 'उमर बिजली मलहम' की प्रचार गाड़ी उन अक्षरों को हमेशा मात दे देती हैं. कमरे के बाहर का कुछ भी उसे कितना भाता है. उसका मन हमेशा यूँही कुछ ख्यालों में खोया रहता है. बेतरतीब से कई ख्याल, कुछ ढंग के, बाकी सारे बेढंगे, बिना सर पैर के. ख्यालों की कोई निश्चित दिशा नहीं होती, इसका प्रमाण वो हर रोज़ अपनी ज़िन्दगी में देखता है. घर के बाहर काम कर रहे मजदूर के चेहरे पर के झुर्रियों से जो उड़ान ख्याल भरते हैं उनकी लैंडिंग न जाने कहाँ कहाँ हो जाती है. एयर ट्रैफिक कंट्रोल वालों को कितनी मुश्किल होती होगी. कभी आगे से, कभी पीछे से, कभी ऊपर से, कभी नीचे से, अचानक, ख्यालों का एक्सीडेंट न जाने कितनी बार हवाई जहाज़ों से होता होगा.<br />
न जाने कितने ख्याल कुछ मिनटों में उसका मन बुन लेता है. कुछ ख्याल ऐसी सवालों के शक्ल में आते हैं जिनका जवाब कोई नहीं दे सकता. 'मनमोहन देसाई न होते तो "खोया-पाया" फिल्मों का वजूद क्या होता?'.......'अमिताभ बच्चन की ऊंचाई थोड़ी कम होती तो ड्रीम हसबैंड की ऊंचाई का मानक कौन होता?'.......'माधुरी दीक्षित की चोली के पीछे इतनी हलचल क्यूँ रहती थी?'.........'विनोद मेहरा के शर्ट के ऊपर के चार बटन नदारद क्यूँ होते थे?'.........'हेलेन आंटी का पीठ हमेशा खुला ही क्यूँ होता था'.......'हंगल साहब अपने बेटे की अर्थी उठाते उठाते खुद कभी क्यूँ नहीं मरे?'........'सचिन तेंदुलकर बैटिंग के पहले टाँगे क्यूँ फैलाता है?'........'सिद्धू के मुहावरों की गंगोत्री हिमालय के किस भाग से निकलती है?'.........ऐसे ही कई सौ सवाल है..........जवाब न मिलता है, न मिलने की ख्वाहिश होती है. बस एक ख्वाहिश रहती है ऐसे सवालों के हमेशा जिंदा रहने की. शायद मन को घूमने का इक आयाम देती हैं ये. उनकी उड़ान के लिए पंखों का सहारा बनती हैं ये. शायद इसीलिए जवाब ढूंढता भी नहीं वो. कहीं जवाब मिल गए तो मन की उड़ान बंद न हो जाये.....<br />
कई ख्याल ऐसे भी होते हैं जो उसे कुछ सोचने को मजबूर करती है. कई दिन की चिलचिलाती धूप के बाद वो कुछ घंटों के लिए बादलों का घुमड़ना.......हवा के झोकों में किसी लड़की का दुपट्टा फिर से उड़ना.........दिन भर काम करते उस मजदूर का झुर्रियों भरा चेहरा.........अस्पताल में इमरजेंसी में एक गरीब की अपनी किस्मत से हार........उस दिन टेलीफोन पर प्रेमिका से झगडा........न जाने और क्या क्या........रेखा के मन को बहकने के लिए बेली के महकने की दरकार होती थी, उसके मन के लिए ऐसी कोई जरुरत नहीं. बहकना उसके मन का शौक है, मजबूरी नहीं. बिना किसी सीमा के किसी भी गली में कभी भी घुस जाता है उसका मन. मंजिल तक पहुचने की कोई लालसा नहीं, बस राह चलते रहने की अभिलाषा होती है.<br />
कुछ ऐसे ही बेगारी भरे दिन बीते पिछले कुछ दिन. कई ख्याल मन में उमड़ते रहे. कुछ नाकाम रह गए तो कुछ ने शब्दों की शक्ल ले ली. ऐसे ही कुछ ख्याल यहाँ पेश करने के कोशिश कर रहा हूँ. उम्मीद है पसंद आयेंगे!<br />
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उस रोज़ सूरज ने आँखें मूंदी थी<br />
या बादल के साए में छुप गया था.<br />
<br />
चाँद दो पल के लिए ही सही, मुस्करा रहा था!<br />
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ज़ालिम हवा के वो झोंके<br />
उड़ता हुआ वो तुम्हारा दुपट्टा<br />
<br />
उफ़! खुली आँखों के ये सपने बड़े जालिम होते हैं!<br />
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चाँद आया था धरती और सूरज के बीच<br />
तारे भी उस रोज़ मुस्करा रहे थे.<br />
<br />
बीच दोपहर में भी रात आती है कभी!<br />
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वो झुर्रियों भरा चेहरा आज भी ईंट ढो रहा था.<br />
आसमान में आज बादल छा गए थे<br />
<br />
आख़िरकार आज सूरज ने भी हार मान ही ली!<br />
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वक़्त की बेवफाई कहूं<br />
या शुबहे की दगाबाजी थी.<br />
<br />
जागे हुए बड़ी लम्बी गुजरी थी वो रात!<br />
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ज़िन्दगी और मौत की जद्दोजहद में<br />
गाँधी के चंद हरे-लाल चेहरों ने फिर बाजी मार ली<br />
<br />
ये बीमारियाँ गरीबों का पेटेंट ही क्यूँ नहीं करा लेती?<br />
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