कमरे में वो अकेला बैठा हुआ था। न जाने कितनी देर से। बाहर धीरे धीरे अँधेरे ने घर कर लिया था और उसे इसका अंदाजा तक न लग सका। कानों में इयरफोन लगाए लैपटॉप के आगे बैठा गाने सुन रहा था, गुलाल फिल्म के। गीत के भयानक बोलों में खोया था या किसी और उलझन में, पता नहीं। बस समय का अंदाजा नहीं लग रहा था उसे। यूँही बैठा लैपटॉप खोले अपने ही ब्लॉग के पुराने पोस्ट्स पढ़ रहा था। वहीँ बिस्तर पर बगल में वो नोवेल भी रखी थी जिसे उसने लगभग 3-4 महीने पहले पढना शुरू किया था मगर चंद पन्नों के आगे कुछ भी नहीं पढ़ पाया। कुछ सोच रहा था। शायद खुद को उलाहने भी दे रहा था।
वो भी क्या समय था। लैपटॉप पर बैठा ब्लॉग खोलता और शब्द यूँही निकलने लग जाते। कभी अपनी मनःस्थिति के बारे में तो कभी आस-पास की गतिविधिओं के बारे में। कुछ भी। बस लिखता रहता था। 2 साल हो गए। ढंग से कुछ भी नहीं लिखा था उसने। ब्लॉग मर सा गया था उसका। और शायद उस मरे हुए ब्लॉग के सामने बैठा उसी के शोक में डूबा हुआ था। कई बार समय की कमी का बहाना बनाया, कई बार प्रायोरिटी लिस्ट में ब्लॉग के काफी नीचे होने का हवाला भी दिया। बहानों की कभी कोई कमी नहीं रही। बहाने कोई भी हो, परिणाम एक ही था। एक ही तो भली आदत थी उसकी, उसने उसे भी आसानी से जाने दिया था। शायद उस आदत की ही यादों में कहीं खोया हुआ था।
ज़िन्दगी चलते चलते काफी आगे निकल गयी थी। ज़िन्दगी के साथ चलता तो साथी छूट जाते थे और साथ निभाता था तो ज़िन्दगी भागती चली जाती थी। अजीब उधेड़बुन में फंसा हुआ था। न घर का न घाट का। ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने उसे कही अलग अकेला लाकर खड़ा कर दिया था। जिसके सहारे ज़िन्दगी जीने के सपने देखे थे उसने, वो तो कहीं पीछे ही छूट गयी थी। बहुत पीछे। पीछे मुड़कर उसे पुकारता तो भी वो सुन नहीं पाती। समय ने एक ऐसी खाई खड़ी कर दी थी जिसे पाटना तो दूर, गहराई को बढ़ने से भी वो रोक नहीं पा रहा था। वही तो एक सहारा था जो उसकी हर आदत का आधार थी। जब आधार ही खो दिया था उसने तो आदतें कहाँ बचतीं।
पहले जब प्यार की बातें होती थी तो खुश रहता था। खुश रहता था तो यूँही सबकुछ अच्छा लगता था। अकेला बैठना भी तब अच्छा लगता था। कुछ करने का जी करता था। कुछ भी करता था। अक्सर लिखता था। जब तकरार होती थी, तब भी लिखता था। कभी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए, कभी मन की भड़ास निकालने के लिए। अक्सर लिखता था। आज न प्यार होता है, न ही तकरार। न खुश ही रहता है, न दुखी ही होता है। Indifferent सा हो गया है। अपनी तरफ, अपनी ज़िन्दगी की तरफ, अपने उस सहारे की तरफ। आदतें छूट गयी हैं।
दिल ही नहीं करता कुछ भी करने का। कहीं भी मन नहीं लगता। बस अकेला बैठा रहता है कमरे में। यूँही। खिड़की के बाहर अँधेरे को गिरता देखता रहता है। उस अँधेरे को जिसने उसके अन्दर घर कर लिया है। रातें उसे अपनी अपनी सी लगने लगी हैं। शायद रात के अँधेरे में वो अपने मन के अँधेरे को देखता है। सुबह होने की कोई चाहत नहीं बची है अब उसके मन में। अँधेरे की ऐसी आदत लगी है कि शायद सूरज की रौशनी अब उसकी आँखों को चौंधियाने के अलावा कुछ भी नहीं करती। आँखें बंद हो जाती है रौशनी में या कि वो खुदबखुद कर लेता है, पता नहीं। पर जो भी हो, बंद आँखों से वो रौशनी उसके अन्दर के अन्धकार को ख़त्म नहीं कर पाती। ख़त्म नहीं कर पाती या वो उसे ख़त्म करने देना नहीं चाहता, पता नहीं। शायद उसे उस पुरानी रौशनी का ही इंतज़ार है जिसने उसकी ज़िन्दगी को रौशन रखा था। इंतज़ार है उसे उसी रौशनी का। आएगी वो एक दिन उसके पास, उसके मन के अंधेरों में और ख़त्म होगा वो अँधेरा। फिर से रौशन होगी उसकी ज़िन्दगी, फिर से खुश होगा वो प्यार की बातों से। फिर से दुखी होगा तकरारों से। फिर से ज़िन्दगी जीना शुरू करेगा वो। फिर से लिखेगा वो!!!
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