Wednesday, May 07, 2014

ज़िन्दगी और मौत


जीने की चाह से भरी
वो टिमटिमाती सी आँखें। 
मुझसे पूछती हैं,
'तू घबराया सा क्यूँ है?'
मैं चुप खड़ा हूँ। 
उसे देख रहा, एकटक।
महसूस कर रहा हूँ 
उसके ज़िंदा रहने की चाहत को.
महसूस करता हूँ 
उस निर्दयी मौत की आहट को। 
झांकता हूँ उसकी आँखों में,
देखता हूँ उनमें,
मुझसे उम्मीदें लगी हैं। 
सिहर जाता हूँ। 
अहसास होता है 
मैं कुछ नहीं कर सकता 
उसकी उम्मीदों को कभी 
पूरा नहीं कर सकता। 
फिर आँखें चुराता हूँ,
डर लगता है,
उसने देख तो नहीं लिया
मेरी आँखों में छुपी 
उस मौत के इंतज़ार को. 
अपने उन्हीं आँखों से। 
वही टिमटिमाती सी आँखें 
जीने की चाह से भरी.… 


ज़िन्दगी एक जुआ है। ऐसा कहते हुए कई बार कईयों को सुना है। कई बार ज़िन्दगी में ऐसी परिस्थितियां सामने आती हैं जब सच मे इस बात पर भरोसा होने लगता है। इस जुए के खेल में ज़िन्दगी ऐसी बाज़ियाँ चलती चली जाती है जिसके सामने आप कुछ नहीं कर पाते। ऐसी परिस्थितियां आती हैं जो आपको सिर्फ़ चौंकाती ही नहीं मगर हिला देतीं हैं। 

डाक्टरी के पेशे में जब से घुसा हूँ कई मौत देख चुका हूँ। शुरू शुरू में थोड़ा ख़राब महसूस होता था हर मौत के बाद। डेथ सर्टिफिकेट बनाते समय कलम थोड़ा डगमगाती थी। फिर खराब लगना बंद हो गया। जैसे रोज़ की बात हो। एक रूटीन। देखा जाये तो मौत तो है ही एक रूटीन। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तो निश्चित है ही। ज़िन्दगी का पहला और अन्तिम सच मौत ही तो है। फिर क्यूँ ऐसा होता है कि किसी के मरने से आदमी हिल सा जाता है।

किसी अपने नजदीकी के या चाहने वाले की मौत पर सदमा सबको लगता है। डाक्टर हूँ, हमें अनजान लोगों की मौत से भी वैसा ही धकका लगता है। ज्यादातर मौत रूटीन ही होती हैं मगर कुछ मौत बिल्कुल अलग होती हैं। जिनकी उम्मीद किसी को नहीं होती। वो सबको हिला कर रख देती हैं। ऐसी मौतें ही वो परिस्थितियां पैदा करती हैं जिनसे सच मे लगता है कि ज़िन्दगी एक जुआ है। कुछ मौके ऐसे भी आते हैं जब मौत की सिर्फ़ आहट भर ही दिल को दहला देने के लिये काफी होती है। आनंद फिल्म के आनंद की मौत की तरह।

20-22 साल की एक लड़की। देखने में 17-18 से ज्यादा की नहीं। पेट फुला हुआ। पिछले 15 दिनों से बीमार है। कुछ खा नहीं पा रही। पेट फूलता ही जा रहा है। गैस भी नहीं छूट रहा। हालत ख़राब है। अच्छे से जाँच करने पर पता चला शायद पैखाने के रास्ते में कैंसर है जिसने रास्ता ही बन्द कर दिया है। शुरूआती स्टेज नहीं, एडवांस्ड स्टेज लग रहा है। उसी दिन ऑपरेशन करके बाईपास कर देने की बात तय हो गयी।  ऑपरेशन भी हो गया। लड़की अभी ठीक है। उसके साथ रह रही उसकी माँ पूछती है कि उसकी बेटी कैसी है। हम डाक्टर लोग एक दूसरे का मुंह देखते रह जाते हैं।

किताबों में पढ़ा है, इस तरह के कैंसर के होने की औसत उम्र पिछले कुछ दशक में काफी कम हो गयी है। यह भी लिखा है कि कम उम्र मे होने वाले कैंसर से बचने की उम्मीद बहुत कम होती है। सब कुछ याद है फिर भी खड़े सोचते रह जाते हैँ कि उसकी माँ को क्या जवाब दें। कैसे बताये उसे कि उसकी बेटी की ज़िन्दगी हर गुजरते हुए पल के साथ कम होती चली जा रही है। कैसे बताएं उसे की जब इस छोटी उम्र की लड़की को देखता हूँ तो उसके चेहरे में मुझे मौत का चेहरा नज़र आता है। वो मौत जो ज़िन्दगी के जुआ के उस खेल की एक गहरी चाल है। वो मौत जो अपनी आहट के साथ एक सिहरन भी लाती है। वो मौत जिसके आने की आहट भर से दिल दहल सा जाता है। 

 

3 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 8-5-14 को चर्चा मंच पर दिया गया है
आभार

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर !

शिवनाथ कुमार said...

जिंदगी झूठ और मौत कब सच बनकर सामने आ जाता है
पता नहीं चलता
मर्मस्पर्शी!