पिछले हफ्ते आई फिल्म PK अपने साथ कई विवाद लेकर आई। धर्म के प्रति इंसान के अन्धविश्वास को बड़ी ही सहजता से दर्शाती यह फिल्म अकारण ही हिन्दू धर्मावलम्बियों के निशाने पर आ गयी है। इसको लेकर सोशल मीडिया में बहस और फिल्मकार और फिल्म से जुड़े अन्य कलाकारों के प्रति कई प्रकार के चुटकुले और तीखी टिप्पणियां देखने को मिल रहे हैं। पिछले हफ्ते मुझे भी यह फिल्म देखने का मौका मिला। आमिर खान की अदायगी का पुराना कायल रहा हूँ इसलिए फिल्म को देखने की उत्सुकता काफी पहले से थी। राजू हिरानी की पिछली फिल्मों को देखने के बाद उम्मीद इस फिल्म से भी लगी थी। हालांकि फिल्म पिछली ऊंचाइयों को छूने में जरूर नाकाम रही मगर यह जरूर कहना चाहूंगा की एक अच्छे सन्देश के साथ ही ख़त्म हुई।
देश में मौजूदा समय में चल रहे "घर वापसी" की हवा ने विवादों की इस आग को और जोरों से भड़कने का मौका दे दिया है। अपने धर्म के अस्तित्व और झूठी रक्षा के इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के चोंचलों में आज हिन्दू यूँही फसाए जा रहे हैं। उनके इन्हीं चोंचलों में फसकर कई लोग इस सीधी साधी फिल्म को हिन्दू विरोधी ठहरा कर हिन्दू धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को दिखा रहे हैं। शायद मेरा ये ब्लॉग पढ़कर यही लोग मुझे भी हिन्दू विरोधी कहने लगेंगे। इसलिए कुछ भी आगे लिखने के पहले अपने बारे में, धर्म के प्रति अपनी सोच के बारे में बता देना ही सही होगा।
मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ और पालन-पोषण एक धार्मिक परिवेश में होने के कारण अपने आप को हिन्दू मानता हूँ। नानाजी की कहानियाँ सुनकर बड़ा हुआ हूँ जिनमें हमेशा से कई पौराणिक धार्मिक कथाएं रहा करती थी। इन कहानियों के जरिये हिन्दू धर्म को जानने और समझने की कोशिश करता रहा हूँ। कई सारे भगवान, एक भगवान के कई रूप, हर रूप की कई कहानियाँ। छोटे मन में सब समाती चली गयी। जैसे जैसे बड़ा होता गया, मन में सवाल उठते गए। ब्रह्मा का राक्षशों को वरदान देना, मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अपनी ही अर्धांगनी पर अविश्वास रखकर अग्नि परीक्षा में भेजने का उनका अमर्यादित कृत्य, रणछोड़ कृष्ण का महाभारत के युद्ध में किया गया छल, यह सब भगवान को न मानने और नाश्तिक हो जाने के प्रति मेरा झुकाव बढ़ाता चला गया। चूँकि घर में एक धार्मिक परिवेश शुरू से रहा है इसलिए खुलकर कभी अपने आप को नाश्तिक नहीं कह पाया। आज भी यह ब्लॉग पढ़कर शायद घरवालों को धक्का सा लगे, पर सच तो सच ही है। परिवार में चल रहे धार्मिक अनुष्ठानों में योगदान करता हूँ मगर धर्म के प्रति अंधविश्वास कभी नहीं रखता। विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए हर चीज़ पर सवाल करता हूँ, धर्म पर भी।
हिन्दू धर्म को मानता हूँ, मगर इसका ये मतलब नहीं की इसकी बुराइयों को नज़रअंदाज़ करूँगा। वो हिन्दू धर्म जो सनातन है, जो अनादि है, अनंत है उसके कोई ठेकेदार नहीं थे। उसे स्वयंसेवकों और परिषदों की जरुरत नहीं थी। वो इतना कमजोर नहीं था कि उसे घर वापसी की जरुरत थी। आज जिस हिन्दुवाद की हवा देश में फ़ैल रही है ये वो सनातन धर्म नहीं। हिन्दू धर्म कभी दूसरे धर्मों की अवहेलना नहीं करता। जितनी आसानी से दूसरे धर्मों को अपने साथ मिलाता है ये कहीं और देखने को नहीं मिलता। किसी चीज के लिए कभी विवश नहीं करता, इसकी कोई आचार संहिता नहीं। मंदिर में जाकर प्रसाद चढ़ाने वाले भी हिन्दू हैं और मंदिर में कभी न जाने वाले भी हिन्दू। धोती कुरता पहनने वाले भी हिन्दू और पैंट शर्ट वाले भी हिन्दू। गिरिजा या मस्जिद में जाने से हिन्दू धर्म भ्रष्ट नहीं होता।
डर पैदा करना हिन्दू धर्म की संस्कृति में था ही नहीं। पंडितों और बाबाओं ने डर का जो व्यापार खड़ा किया हम उसमें फंसते चले गए। बचपन से सत्यनारायण की कथा सुनता आ रहा हूँ। हर कथा में एक डर है, अमुक व्यक्ति कथा-पाठ का वचन देकर भूल गया तो उसके साथ ऐसा हो गया। इसी तरह कई बाबा पैदा होते चले गए। प्रवचन के नाम पर पैसे ऐंठना इनका धंधा हो गया। डर के इस व्यवसाय में लोग शिष्य बनते चले गए। काम-धंधा छोड़कर पूजा पाठ करो, कल्याण होगा। हिन्दू धर्म की नींव को ही हिलाने का काम इन धर्म-गुरुओं और बाबाओं ने शुरू कर दिया। 'कर्म करो, फल की चिंता मत करो' को भूलकर लोग बाबा के दरबार में फल की प्राप्ति के लिए टिकट कटाने लगे। डर के सामने कमजोर हो जाना ये इंसानी फितरत है। इंसान की इसी कमजोरी का फायदा ये बाबा लोग उठा रहे हैं और हम उनके चंगुल में फंसते जा रहे हैं। गलती उनकी नहीं जिन्होंने इस धंधे को शुरू किया। वो तो अपना कर्म कर रहे हैं, अपने धर्म का पालन। गलती हमारी है जो अपने कर्मों से दूर उनकी बातों में आकर उनके धंधे को और बढ़ा रहे हैं।
ऐसे ही बाबाओं के पीछे अपना धर्म भ्रष्ट कर रहे लोगों की कहानी कहती है यह फिल्म PK. हिन्दुओं को बुरा लग रहा है कि क्यों सिर्फ उनके धर्म के ऊपर ही टिप्पणी की जा रही है। यह बात उन्हें और चुभ रही कि फिल्म का नायक एक मुसलमान है। मुझे बुरा नहीं लग रहा, हिन्दू होकर भी। उल्टा मैं खुश हूँ। मैं खुश हूँ क्यूंकि यह फिल्म मेरे हिन्दू भाइयों को अपने भ्रष्ट होते धर्म को बचाने का एक मौका दे रही है। हिन्दू धर्म को उस 'घर वापसी' की जरुरत नहीं जो आज हमारे देश में चल रही है। इसे जरुरत है इस 'घर वापसी' की जहां लोग उस सनातन हिन्दू धर्म की तरफ दुबारा लौटे जहां कोई रोक-टोक नहीं थी, जहां कोई डर नहीं था।
देश में मौजूदा समय में चल रहे "घर वापसी" की हवा ने विवादों की इस आग को और जोरों से भड़कने का मौका दे दिया है। अपने धर्म के अस्तित्व और झूठी रक्षा के इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के चोंचलों में आज हिन्दू यूँही फसाए जा रहे हैं। उनके इन्हीं चोंचलों में फसकर कई लोग इस सीधी साधी फिल्म को हिन्दू विरोधी ठहरा कर हिन्दू धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को दिखा रहे हैं। शायद मेरा ये ब्लॉग पढ़कर यही लोग मुझे भी हिन्दू विरोधी कहने लगेंगे। इसलिए कुछ भी आगे लिखने के पहले अपने बारे में, धर्म के प्रति अपनी सोच के बारे में बता देना ही सही होगा।
मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ और पालन-पोषण एक धार्मिक परिवेश में होने के कारण अपने आप को हिन्दू मानता हूँ। नानाजी की कहानियाँ सुनकर बड़ा हुआ हूँ जिनमें हमेशा से कई पौराणिक धार्मिक कथाएं रहा करती थी। इन कहानियों के जरिये हिन्दू धर्म को जानने और समझने की कोशिश करता रहा हूँ। कई सारे भगवान, एक भगवान के कई रूप, हर रूप की कई कहानियाँ। छोटे मन में सब समाती चली गयी। जैसे जैसे बड़ा होता गया, मन में सवाल उठते गए। ब्रह्मा का राक्षशों को वरदान देना, मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अपनी ही अर्धांगनी पर अविश्वास रखकर अग्नि परीक्षा में भेजने का उनका अमर्यादित कृत्य, रणछोड़ कृष्ण का महाभारत के युद्ध में किया गया छल, यह सब भगवान को न मानने और नाश्तिक हो जाने के प्रति मेरा झुकाव बढ़ाता चला गया। चूँकि घर में एक धार्मिक परिवेश शुरू से रहा है इसलिए खुलकर कभी अपने आप को नाश्तिक नहीं कह पाया। आज भी यह ब्लॉग पढ़कर शायद घरवालों को धक्का सा लगे, पर सच तो सच ही है। परिवार में चल रहे धार्मिक अनुष्ठानों में योगदान करता हूँ मगर धर्म के प्रति अंधविश्वास कभी नहीं रखता। विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए हर चीज़ पर सवाल करता हूँ, धर्म पर भी।
हिन्दू धर्म को मानता हूँ, मगर इसका ये मतलब नहीं की इसकी बुराइयों को नज़रअंदाज़ करूँगा। वो हिन्दू धर्म जो सनातन है, जो अनादि है, अनंत है उसके कोई ठेकेदार नहीं थे। उसे स्वयंसेवकों और परिषदों की जरुरत नहीं थी। वो इतना कमजोर नहीं था कि उसे घर वापसी की जरुरत थी। आज जिस हिन्दुवाद की हवा देश में फ़ैल रही है ये वो सनातन धर्म नहीं। हिन्दू धर्म कभी दूसरे धर्मों की अवहेलना नहीं करता। जितनी आसानी से दूसरे धर्मों को अपने साथ मिलाता है ये कहीं और देखने को नहीं मिलता। किसी चीज के लिए कभी विवश नहीं करता, इसकी कोई आचार संहिता नहीं। मंदिर में जाकर प्रसाद चढ़ाने वाले भी हिन्दू हैं और मंदिर में कभी न जाने वाले भी हिन्दू। धोती कुरता पहनने वाले भी हिन्दू और पैंट शर्ट वाले भी हिन्दू। गिरिजा या मस्जिद में जाने से हिन्दू धर्म भ्रष्ट नहीं होता।
डर पैदा करना हिन्दू धर्म की संस्कृति में था ही नहीं। पंडितों और बाबाओं ने डर का जो व्यापार खड़ा किया हम उसमें फंसते चले गए। बचपन से सत्यनारायण की कथा सुनता आ रहा हूँ। हर कथा में एक डर है, अमुक व्यक्ति कथा-पाठ का वचन देकर भूल गया तो उसके साथ ऐसा हो गया। इसी तरह कई बाबा पैदा होते चले गए। प्रवचन के नाम पर पैसे ऐंठना इनका धंधा हो गया। डर के इस व्यवसाय में लोग शिष्य बनते चले गए। काम-धंधा छोड़कर पूजा पाठ करो, कल्याण होगा। हिन्दू धर्म की नींव को ही हिलाने का काम इन धर्म-गुरुओं और बाबाओं ने शुरू कर दिया। 'कर्म करो, फल की चिंता मत करो' को भूलकर लोग बाबा के दरबार में फल की प्राप्ति के लिए टिकट कटाने लगे। डर के सामने कमजोर हो जाना ये इंसानी फितरत है। इंसान की इसी कमजोरी का फायदा ये बाबा लोग उठा रहे हैं और हम उनके चंगुल में फंसते जा रहे हैं। गलती उनकी नहीं जिन्होंने इस धंधे को शुरू किया। वो तो अपना कर्म कर रहे हैं, अपने धर्म का पालन। गलती हमारी है जो अपने कर्मों से दूर उनकी बातों में आकर उनके धंधे को और बढ़ा रहे हैं।
ऐसे ही बाबाओं के पीछे अपना धर्म भ्रष्ट कर रहे लोगों की कहानी कहती है यह फिल्म PK. हिन्दुओं को बुरा लग रहा है कि क्यों सिर्फ उनके धर्म के ऊपर ही टिप्पणी की जा रही है। यह बात उन्हें और चुभ रही कि फिल्म का नायक एक मुसलमान है। मुझे बुरा नहीं लग रहा, हिन्दू होकर भी। उल्टा मैं खुश हूँ। मैं खुश हूँ क्यूंकि यह फिल्म मेरे हिन्दू भाइयों को अपने भ्रष्ट होते धर्म को बचाने का एक मौका दे रही है। हिन्दू धर्म को उस 'घर वापसी' की जरुरत नहीं जो आज हमारे देश में चल रही है। इसे जरुरत है इस 'घर वापसी' की जहां लोग उस सनातन हिन्दू धर्म की तरफ दुबारा लौटे जहां कोई रोक-टोक नहीं थी, जहां कोई डर नहीं था।