परीक्षा के दिनों में ब्लॉग पर सक्रिय हो जाने की बीमारी मेरी पुरानी है। MBBS के दिनों में अक्सर परीक्षा के समय ज्यादा पोस्ट लिखा करता था। ऐसे समय पर जब दिमाग ज्यादा चलता है तो शायद रचनात्मकता भी अपने आप ही बढ़ जाती है। या हो सकता है कि दिन भर किताबों में व्यस्त रहने और कमरे में कैद हो जाने के समय में ब्लॉग बाहरी दुनिया से सामंजस्य बनाये रखने का एक जरिया सा बन जाता है। जो भी हो, अभी फिर से परीक्षा से घिरा हुआ हूँ और सच कहूँ तो बड़ी दुविधा में था कि यहाँ पर कुछ समय दूँ या बस रहने दूँ। कल नेपाल में आई तबाही के एक कण को मीलों दूर यहाँ कलकत्ता में भी महसूस किया। उस भयावह मंजर की तस्वीरों को देख कर मन विचलित हो रहा था और कहीं न कहीं मुझे अपने एक दबे हुए डर की ओर ले जा रहा था।
भगवान की कृपा ही थी कि बचपन पूरा भूकम्प के अनुभव के बगैर बीता। इसके बारे में जितना जाना या समझा वो या तो भूगोल की किताबों से जाना या फिर हिंदी सिनेमा से अपने प्यार के कारण जाना। पापा बताते थे कि मेरे जन्म के बाद एक बार झटके उन्होंने महसूस किये थे। मुझे होश नहीं था। मेरी उम्र कुछ महीने रही होगी उस समय। किताबों में पढ़कर या सिनेमा में देखकर भूकम्प के रोमांच को कभी महसूस नहीं कर पाने पर खुद को कोसता था। जी हाँ, रोमांच। वही रोमांच, जिसे आज की हिंदी में एडवेंचर कहते हैं। लगता था कि कोई एडवेंचर ही होगा। इसके साथ जुड़े हुए तबाही की तरफ सोचने की कभी कोशिश नहीं की थी। बी. आर. चोपड़ा की वक़्त को कोई फिल्म-प्रेमी कैसे भुला सकता है। लाला केदारनाथ के उस हँसते गाते परिवार को पल भर में एक भूकम्प तहस-नहस कर देता है। अंत में फिर सब मिल जाते हैं। अगर नहीं मिलते तो शायद भूकम्प की उस तबाही की तरफ ध्यान जाता। तब शायद ये रोमांच नहीं डर पैदा करता।
बचपन जाते जाते कई चीजें देती चली जाती है। डर उनमें से एक है। बच्चा कभी नहीं डरता मगर जैसे जैसे बड़ा होता है, यथार्थ की तस्वीरें उसके अंदर डर पैदा करती चली जाती हैं। भूकम्प की खबरें अखबारों में पढ़कर मन में डर ने पैठ बनाने की शुरुआत की। इस तरह के अनर्थक अनिष्टों से अपनों को खो देने का डर मन में बैठने लगता है। आज तक अपने मन के एक विशेष डर के बारे में किसी को नहीं बताया है। मगर यह डर हमेशा मेरे साथ रहता है। जन्म इसका भी किसी सिनेमा से ही हुआ था। ठीक कौन सा सिनेमा, नाम नहीं याद अब। शायद कटी पतंग रहा होगा। रेलगाड़ी अचानक रात में दुर्घटना का शिकार हो जाती है जब एक पुल टूट जाता है। ऊपर से नदी में गिरते हुए रेलगाड़ी के डिब्बे और उसमें अपने माँ-बाप को खो देने वाला एक नवजात। न जाने इस सीन ने कब मन के अंदर घर कर लिया था। तब से अपनों को इस तरह से खोने का एक डर हमेशा दिल के किसी कोने में रहता है। समय-समय पर ऐसी आपदाओं को देखकर ये डर फिर बाहर निकलता है और दिल दहला देता है।
परीक्षा के कारण दिनचर्या पूरी उलटी हो रखी है। रात भर पढाई और फिर सुबह में सोना। कल भी ऐसे ही सो रहा था। करीब साढ़े ग्यारह बजे होंगे, आँख यूँही खुली। नींद पूरी न होने के कारण और थोड़ी देर सोने के लिए चला गया। तभी कुछ हिलता हुआ महसूस हुआ। सब डोल रहा था। अहसास हुआ कि धरती डोल रही है, ये भूकम्प है। सच बताता हूँ, एडवेंचर का नामोनिशान नहीं था। हॉस्टल के कमरे से बाहर निकला। सब भाग रहे थे। भेड़ चाल में मैं भी भागा। धरती तब तक डोल रही थी। खैर, विपदा टली। थोड़ी देर में वापस कमरे में आया। व्हाट्सएप्प पर परिवार वाले सब झटकों की बात कर रहे थे। सब ठीक थे। किसी को कुछ नहीं हुआ था। हालांकि, फ़ोन पर बात नहीं हो पा रही थी मगर, व्हाट्सएप्प के जरिये सबकी खबर मिल रही थी।
धीरे धीरे ट्विटर पर खबरें आनी शुरू हुई। जिस मंजर ने ऐसा हिलाया था वह काल नेपाल के ऊपर टूटा था। पहले 400, फिर 688, 856, 1000 और रात होते होते मरने वालों की संख्या 1500 पार बताई जाने लगी। तस्वीरें सामने आने लगी और इस भयावह मंजर को महसूस करने लगा। वही अपनों से बिछड़ने का डर आज कितनों के लिए हकीकत बन गया होगा। गिनती बढ़ती ही चली जा रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि इस गिनती के लिए भगवान को दोष दूँ या इस गिनती में मुझे और मेरे परिवार वालों को शामिल नहीं करने के लिए उसका शुक्रिया अदा करूँ। दुविधा में था। बड़े भाई से बात हो रही थी। किसी बात पर उसने बताया कि नास्तिकवाद की शुरुआत ऐसे ही एक भयंकर भूकम्प से हुई थी। लिस्बन में आई उस तबाही के बाद पहली बार भगवान के अस्तित्व और इंसान के प्रति उसके दायित्व पर सवाल किये गए थे।
सच में, ऐसी आपदाएं जीने के एक नए तरीके को जन्म देती हैं। ज़िन्दगी के उस एकमात्र फ़लसफ़े को और मजबूत करती है जिसमें कहा गया है कि ज़िन्दगी की केवल एक सच्चाई है और वह है मौत। भूकम्प के केंद्र से काफी नजदीक सीतामढ़ी में मामाजी रहते हैं। फ़ोन से बात नहीं हो पा रही थी। डर सा था मन में। माँ से बात हुई तो उन्होंने बताया कि उनकी बात हुई है, सब ठीक हैं। फिर मेरी भी बात हुई। मामी कह रही थी कि मौत को नजदीक से देखा उनलोगों ने। सच में शायद जब मौत का तांडव होता है तो धरती ऐसे ही डोलती है। सब कुछ ठीक है जानकर मन अंत में थोड़ा हल्का हुआ, मगर नेपाल पर आई इस त्रासदी ने फिर से वक़्त के उस गीत की तरफ दुबारा लौटा दिया। वक़्त के आगे किसी की नहीं चलती। वक़्त का हर शह पर राज!
कल जहाँ बसती थी खुशियाँ, आज है मातम वहाँ,
वक़्त लाया था बहारें, वक़्त लाया है खिजां।
वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज,
वक़्त की हर शह ग़ुलाम, वक़्त का हर शह पर राज!
भगवान की कृपा ही थी कि बचपन पूरा भूकम्प के अनुभव के बगैर बीता। इसके बारे में जितना जाना या समझा वो या तो भूगोल की किताबों से जाना या फिर हिंदी सिनेमा से अपने प्यार के कारण जाना। पापा बताते थे कि मेरे जन्म के बाद एक बार झटके उन्होंने महसूस किये थे। मुझे होश नहीं था। मेरी उम्र कुछ महीने रही होगी उस समय। किताबों में पढ़कर या सिनेमा में देखकर भूकम्प के रोमांच को कभी महसूस नहीं कर पाने पर खुद को कोसता था। जी हाँ, रोमांच। वही रोमांच, जिसे आज की हिंदी में एडवेंचर कहते हैं। लगता था कि कोई एडवेंचर ही होगा। इसके साथ जुड़े हुए तबाही की तरफ सोचने की कभी कोशिश नहीं की थी। बी. आर. चोपड़ा की वक़्त को कोई फिल्म-प्रेमी कैसे भुला सकता है। लाला केदारनाथ के उस हँसते गाते परिवार को पल भर में एक भूकम्प तहस-नहस कर देता है। अंत में फिर सब मिल जाते हैं। अगर नहीं मिलते तो शायद भूकम्प की उस तबाही की तरफ ध्यान जाता। तब शायद ये रोमांच नहीं डर पैदा करता।
बचपन जाते जाते कई चीजें देती चली जाती है। डर उनमें से एक है। बच्चा कभी नहीं डरता मगर जैसे जैसे बड़ा होता है, यथार्थ की तस्वीरें उसके अंदर डर पैदा करती चली जाती हैं। भूकम्प की खबरें अखबारों में पढ़कर मन में डर ने पैठ बनाने की शुरुआत की। इस तरह के अनर्थक अनिष्टों से अपनों को खो देने का डर मन में बैठने लगता है। आज तक अपने मन के एक विशेष डर के बारे में किसी को नहीं बताया है। मगर यह डर हमेशा मेरे साथ रहता है। जन्म इसका भी किसी सिनेमा से ही हुआ था। ठीक कौन सा सिनेमा, नाम नहीं याद अब। शायद कटी पतंग रहा होगा। रेलगाड़ी अचानक रात में दुर्घटना का शिकार हो जाती है जब एक पुल टूट जाता है। ऊपर से नदी में गिरते हुए रेलगाड़ी के डिब्बे और उसमें अपने माँ-बाप को खो देने वाला एक नवजात। न जाने इस सीन ने कब मन के अंदर घर कर लिया था। तब से अपनों को इस तरह से खोने का एक डर हमेशा दिल के किसी कोने में रहता है। समय-समय पर ऐसी आपदाओं को देखकर ये डर फिर बाहर निकलता है और दिल दहला देता है।
परीक्षा के कारण दिनचर्या पूरी उलटी हो रखी है। रात भर पढाई और फिर सुबह में सोना। कल भी ऐसे ही सो रहा था। करीब साढ़े ग्यारह बजे होंगे, आँख यूँही खुली। नींद पूरी न होने के कारण और थोड़ी देर सोने के लिए चला गया। तभी कुछ हिलता हुआ महसूस हुआ। सब डोल रहा था। अहसास हुआ कि धरती डोल रही है, ये भूकम्प है। सच बताता हूँ, एडवेंचर का नामोनिशान नहीं था। हॉस्टल के कमरे से बाहर निकला। सब भाग रहे थे। भेड़ चाल में मैं भी भागा। धरती तब तक डोल रही थी। खैर, विपदा टली। थोड़ी देर में वापस कमरे में आया। व्हाट्सएप्प पर परिवार वाले सब झटकों की बात कर रहे थे। सब ठीक थे। किसी को कुछ नहीं हुआ था। हालांकि, फ़ोन पर बात नहीं हो पा रही थी मगर, व्हाट्सएप्प के जरिये सबकी खबर मिल रही थी।
धीरे धीरे ट्विटर पर खबरें आनी शुरू हुई। जिस मंजर ने ऐसा हिलाया था वह काल नेपाल के ऊपर टूटा था। पहले 400, फिर 688, 856, 1000 और रात होते होते मरने वालों की संख्या 1500 पार बताई जाने लगी। तस्वीरें सामने आने लगी और इस भयावह मंजर को महसूस करने लगा। वही अपनों से बिछड़ने का डर आज कितनों के लिए हकीकत बन गया होगा। गिनती बढ़ती ही चली जा रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि इस गिनती के लिए भगवान को दोष दूँ या इस गिनती में मुझे और मेरे परिवार वालों को शामिल नहीं करने के लिए उसका शुक्रिया अदा करूँ। दुविधा में था। बड़े भाई से बात हो रही थी। किसी बात पर उसने बताया कि नास्तिकवाद की शुरुआत ऐसे ही एक भयंकर भूकम्प से हुई थी। लिस्बन में आई उस तबाही के बाद पहली बार भगवान के अस्तित्व और इंसान के प्रति उसके दायित्व पर सवाल किये गए थे।
सच में, ऐसी आपदाएं जीने के एक नए तरीके को जन्म देती हैं। ज़िन्दगी के उस एकमात्र फ़लसफ़े को और मजबूत करती है जिसमें कहा गया है कि ज़िन्दगी की केवल एक सच्चाई है और वह है मौत। भूकम्प के केंद्र से काफी नजदीक सीतामढ़ी में मामाजी रहते हैं। फ़ोन से बात नहीं हो पा रही थी। डर सा था मन में। माँ से बात हुई तो उन्होंने बताया कि उनकी बात हुई है, सब ठीक हैं। फिर मेरी भी बात हुई। मामी कह रही थी कि मौत को नजदीक से देखा उनलोगों ने। सच में शायद जब मौत का तांडव होता है तो धरती ऐसे ही डोलती है। सब कुछ ठीक है जानकर मन अंत में थोड़ा हल्का हुआ, मगर नेपाल पर आई इस त्रासदी ने फिर से वक़्त के उस गीत की तरफ दुबारा लौटा दिया। वक़्त के आगे किसी की नहीं चलती। वक़्त का हर शह पर राज!
कल जहाँ बसती थी खुशियाँ, आज है मातम वहाँ,
वक़्त लाया था बहारें, वक़्त लाया है खिजां।
वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज,
वक़्त की हर शह ग़ुलाम, वक़्त का हर शह पर राज!
No comments:
Post a Comment