इधर कई दिनों के बाद हिंदी में कुछ पढ़ने को मिला। टेक्नोलॉजी के इस युग में सब कुछ सॉफ्ट होता चला जा रहा है। उपन्यासों को कांख के अंदर दबा कर चलने वाले भी अब सोफ्टकॉपी रखते हैं टेबलेट में। अंग्रेजी की कई किताब पहले से सॉफ्ट फॉर्म में मिलती थी। हिंदी पढ़ने वालों के लिए ज्यादा विकल्प नहीं रहते थे। अभी कुछ दिनों पहले कुछ हिंदी उपन्यासों की सॉफ्ट कॉपी मिली। हिंदी पढ़ना हो, बिहार से ताल्लुक रखते हों और घरेलु कहानियों का शौख हो तो फिर बाबा नागार्जुन से ऊपर और कुछ नहीं। कुछ साल पहले बलचनमा पढ़ने का मौका मिला था। हर शब्द में अपनेपन का अहसास होता था। समाजवाद से लेकर राष्ट्रवाद तक सबकुछ था। उत्तर बिहार की उस कहानी में बहुत कुछ अपना अपना सा लगा। दुबारा जब फिर से नागार्जुन को पढ़ने का मौका मिला तो हाथ से जाने नहीं दिया। इस बार बारी थी 'बाबा बटेसरनाथ' की।
बरगद के एक बूढ़े पेड़ की नज़रों से एक गाँव की कहानी। 4 पीढ़ियों में फैली हुई। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत के शुरूआती दिनों में बदलते पृष्ठभूमि की एक अति-साधारण सी ये कहानी ज़मींदारों का शोषण और फिर उठती हुई ज़मींदारी के बीच किसान और दबे हुए वर्ग के लोगों की आंदोलन की एक ऐसी तस्वीर बयां करती है जिसमे उस समय के बिहार को जानने और समझने का बड़ा आसान सा मौका मिलता है। यथार्थ से जुड़े नागार्जुन के हर शब्द अपने आप में एक कहानी की तरह उभर कर आते हैं। पुरबिया भाषा के प्रयोग से हर प्रसंग अपना सा लगता है। मानो मेरे गाँव की ही कहानी हो। शब्दों के जाल से रिश्ते की गर्माहट को कुछ इस तरह से पेश करते हैं जैसे सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो।
बूढ़ा बरगद का एक पेड़ अपने लगाने वाले के पोते को अपना पोता समझ कर कुछ इस तरह प्यार करता है जैसे वो उसका खुद का पोता हो। और पढ़ने वालों के सामने एक ऐसी तस्वीर बनती है जहां उसे उस किरदार में अपनी छवि नज़र आती है।
कहानी आगे बढ़ती है। किसान ज़मींदारों से बरगद की ज़मीन बचाने में सफल होते हैं। बाबा बटेसरनाथ जैकिसुन के पास फिर से आते हैं और अपनी उम्र पूरी हो जाने और अपने अंत की बात करते हैं। साथ ही एक नए बरगद के पेड़ उसी जगह लगाने की बात करते हैं। एक नया बरगद का पेड़, एक नया युग। एक बदला हुआ समाज, एक बदला हुआ भारत। स्वाधीन, शांत और प्रगतिशील।
बरगद के एक बूढ़े पेड़ की नज़रों से एक गाँव की कहानी। 4 पीढ़ियों में फैली हुई। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत के शुरूआती दिनों में बदलते पृष्ठभूमि की एक अति-साधारण सी ये कहानी ज़मींदारों का शोषण और फिर उठती हुई ज़मींदारी के बीच किसान और दबे हुए वर्ग के लोगों की आंदोलन की एक ऐसी तस्वीर बयां करती है जिसमे उस समय के बिहार को जानने और समझने का बड़ा आसान सा मौका मिलता है। यथार्थ से जुड़े नागार्जुन के हर शब्द अपने आप में एक कहानी की तरह उभर कर आते हैं। पुरबिया भाषा के प्रयोग से हर प्रसंग अपना सा लगता है। मानो मेरे गाँव की ही कहानी हो। शब्दों के जाल से रिश्ते की गर्माहट को कुछ इस तरह से पेश करते हैं जैसे सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो।
बूढ़ा बरगद का एक पेड़ अपने लगाने वाले के पोते को अपना पोता समझ कर कुछ इस तरह प्यार करता है जैसे वो उसका खुद का पोता हो। और पढ़ने वालों के सामने एक ऐसी तस्वीर बनती है जहां उसे उस किरदार में अपनी छवि नज़र आती है।
"अब इस अद्भुत मनुष्य ने सिर ऊपर उठाया और थोड़ी देर तक तन्मय दृष्टियों से पूर्ण चन्द्र की ओर देखता रहा- देखता रहा और देखता रहा देखता ही रह गया कुछ काल तक।इसी बरगद की ज़मीन पर गाँव के जमींदारों की नज़र रहती है। कई हथकंडे अपनाये जाते हैं ज़मीन पर दखल बनाने के लिए। किसान वर्ग विरोध करता है। स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरित होकर ये नवयुवक किसान अपने पिता समान इस बरगद की रक्षा के लिए आगे आते हैं। कहानी बरगद के आँखों से फ्लैशबैक में जाती है और बरगद के ज़मीन पर आने से लेकर उसके अलग अलग रूपों का वर्णन करती हुई आगे बढ़ती है। हर प्रसंग में रीतियों-कुरीतियों पर कटाक्ष करती हुई पाठक को सोचने पर मजबूर करती है। आधी शताब्दी पुरानी कहानी आज भी प्रासंगिक लगती है। समाज की वो कुरीतियाँ जिनका बखान नागार्जुन करते हैं वो कहीं न कहीं हमारी ज़िन्दगी का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। मन सोचने को मजबूर हो जाता है। इक्कीसवी शताब्दी के पंद्रह साल हो गए, हम आज भी वहीं हैं। क्या कभी आगे बढ़ पाएंगे। क्या हमें छुटकारा मिलेगा कभी हमारी खुद की बुराइयों से। आशावाद और निराशावाद के बीच यथार्थवाद का क्या होगा पता नहीं।
फिर महापुरुष ने चारों दिशाओं और आठों कोनों की ओर अपनी निगाहें घुमाईं। इसमें भी कुछ वक़्त बीता।
फिर वह झुका।
झुककर पालथी मार ली और जैकिसुन का माथा सूंघने लगा। उसी गहराई से, जिस गहराई से बरसात की पहली फुहारों के बाद जंगली हाथी धरती को सूंघता है।
सूंघता रहा, बार बार सूंघता रहा-नथने फड़क रहे हो, तृप्ति नहीं हो रही हो मानो।
और तब बाबा बटेश्वर जैकिसुन के कपार और छाती पर हाथ फेरने लगे।
जैकिसुन ने करवट बदल ली। उसका एक हाथ बूढ़े के पैर की उँगलियों को छू रहा था। नींद उसकी और भी गाढ़ी हो आई। "
कहानी आगे बढ़ती है। किसान ज़मींदारों से बरगद की ज़मीन बचाने में सफल होते हैं। बाबा बटेसरनाथ जैकिसुन के पास फिर से आते हैं और अपनी उम्र पूरी हो जाने और अपने अंत की बात करते हैं। साथ ही एक नए बरगद के पेड़ उसी जगह लगाने की बात करते हैं। एक नया बरगद का पेड़, एक नया युग। एक बदला हुआ समाज, एक बदला हुआ भारत। स्वाधीन, शांत और प्रगतिशील।
"श्रावण की पूर्णिमा थी आज ।रंग–बिरंगी राखियों से पुरुषों की कलाइयाँ शोभित थीं ।रजबाँध पर उसी जगह बरगद का नया पौधा लहरा रहा था । दतुअन–सा पतला सादा तना—दो पत्ते थे हलकी हरियाली में डूबे हुए, फुनगी पर एक टूसा था–दीप की लौ की तरह दमकता हुआ ।प्रकृति नए सिरे से मानवता को नवजीवन का संदेश दे रही थी ।आसपास चारों ओर सावनी समाँ छाई हुई थी ।समय पर वर्षा हुई थी, सो, धान के पौधे झूम–झूमकर बच्चा बरगद को अभिनंदित कर रहे थे ।सभी के चेहरे से उल्लास टपक रहा था ।हाजी करीमबक्स की कलाई में भी किसी ने राखी बाँध दी थी । वह गुनगुना रहे थे :“सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा!हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलिस्ताँ हमारा!”दयानाथ कुछ बोल नहीं रहे थे, पोते को उँगली पकड़ाए टहल रहे थे । लछमनसिंह, सुतरी झा, सरजुग आदि कई आदमी पौधे की हिफाजत के लिए कैलियों से बाड़ बुन रहे थे । बना–बनाया गोल बाड़ रोपने का उत्सव समाप्त हो चुकने पर पौधे के गिर्द डाल देनी थी ।जीवनाथ और जैकिसुन अलग कुछ बातें कर रहे थे ।पास ही ताजे–कटे बाँस की हरी लंबी ध्वजा के सहारे एक श्वेत पताका फहरा रही थी । उस पर सिंदूरी अक्षरों में तीन शब्द अंकित थे ।स्वाधीनता!शांति!प्रगति!"