कुछ दिनों से इधर घर से बाहर हूँ। हालांकि परदेस में ये अपने परिवार का घर ही है मगर फिर भी बात अपने आशियें की कुछ और होती है। दिनचर्या में बदलाव आ जाता है और रूटीन की गतिविधियाँ थोड़ी अनियमित हो जाती हैं। कल काफी दिन के बाद NDTV इंडिया पर रविश की रिपोर्ट देखने का मौका मिला। रविश का उन दिनों से फैन रहा हूँ जब उनका साप्ताहिक रिपोर्ट आया करता था। सीधे गाँव से, गली-मुहल्लों से। उनकी शैली में पुरविया टोन उनके नजदीक ले जाती थी। स्टूडियो के चहारदीवारी में उनकी रिपोर्टों की उड़ान पिंज़रे में बंद महसूस होती थी। कल वाली रिपोर्ट फिर से एक गाँव से आई थी।
फरीदाबाद का अटाली गाँव। आदर्श गाँव अटाली। आदर्श लिखना जरूरी है। ये याद रखने के लिए और फिर ये समझने के लिए कि हमारे देश में अगर कोई गाँव आदर्श कहलाता है तो उसकी भूमिका क्या होनी चाहिए और क्या होती है।
पहले ही लिख चुका हूँ कि कुछ दिनों से घर से बाहर हूँ इसलिए ताज़ा ख़बरों के मामले में थोड़ा अनभिज्ञ भी हूँ। इस आदर्श गाँव में कुछ दिनों पहले, 25 तारीख को, एक दुःखद घटना घटी। एक साम्प्रदायिक हिंसा। हिन्दुओं के एक गुट ने गाँव के मुसलमानों के ऊपर हमला कर दिया। विवाद एक मस्जिद बनाने को लेकर था। कोर्ट के आदेश के हिसाब से ज़मीन मुसलमानों की थी और मस्जिद बनाने में कोई आपत्ति नहीं थी। गाँव के हिन्दुओं को, मगर, कठिनाई थी मस्जिद के बनने से। क्यूंकि मस्जिद के ठीक सामने माँ का मंदिर था।
ऊपरी तौर से स्थिति और हालात दोनों वही पुराने दंगों वाले थे। वैसा ही कुछ यहाँ भी हुआ। पहले हिंसा, मारपीट, आगजनी फिर पलायन और शरण और फिर वोटों का राजनीतिक खेल। मैं इस सब के अंदर नहीं घुसना चाहता। उस प्रोग्राम में बड़ी बखूबी से दोनों पक्षों की बात साफ़-साफ़ दिखाई गयी है। बिना किसी पक्षपात के। मैं बात बस इन झंझटों के बीच में टूट जाने वाले इंसानी जज़्बातों की करना चाहता हूँ। गाँव का हरेक आदमी ये मानता है कि पहले हालात 'आदर्श' थे। कोई सांप्रदायिक भेदभाव की स्थिति पहले नहीं थी। सब मिलकर साथ में रहते थे। एक दूसरे के त्योहारों में शरीक होते थे। शादी-व्याह में न्योते चलते थे। एक बड़े परिवार के भाइयों की तरह उनलोगों का आचरण था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया। या अगर इसके पीछे छिपे बड़े तस्वीर को देखें तो फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है। हर उस मामले में जहां लोग ये आपसी सौहार्द छोड़कर भिड़ जाते हैं। धर्म के नाम पर, जात के नाम पर।
अपने कॉलेज के दिनों में जतियारी करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। कॉलेज के दोस्तों के साथ सम्बन्ध शायद आज उतने अच्छे नहीं है इसका एक कारण यह भी हो सकता है। जातिवाद और धर्मवाद का पक्षधर मैं आज भी हूँ। हर एक शख्श की एक पहचान होती है। ये जाति-धर्म इत्यादि उसी पहचान का एक हिस्सा है। आप अपने चेहरे से मुक्ति नहीं पा सकते, वैसे ही आप जात-धर्म से भी अलग नहीं हो सकते। पर जरुरत है इनको ढंग से समझने की। कोई जात या कोई धर्म सर्वोत्तम नहीं होता। कोई जात-धर्म दूसरी मान्यता रखने वालों को बुरा नहीं कहता। ये दुर्भावनाएं समाज में समय के साथ आती चली गयी हैं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए धर्म-गुरु लोगों को भड़काते गए हैं और हम अंध-भक्तों की तरह भड़कते गए हैं। अंतिम नतीजा ऐसा निकलता है जहाँ हर धर्म शिक्षा तो शांति और सद्भाव की देता है मगर लोगों के मनों में द्वेष के सिवा और कुछ नहीं रहता।
ब्लॉग के साथ लिंक यहाँ शेयर कर रहा हूँ। उसी प्रोग्राम की। देखना चाहते हैं तो पूरा वीडियो देखिये। बहुत ही उम्दा रिपोर्ट है। मगर मैं जो कहना चाह रहा हूँ वो देखना चाहते हैं तो सीधे जाइये 36वें मिनट पर। गाँव की एक चौपाल पर लोग बैठे बातें कर रहे हैं। क्या हुआ और अब क्या करना है। जो हुआ उसके लिए दुःख सबको है। भाईचारे से मामले को सलटाने की बात भी सब कर रहे हैं। बुजुर्ग थोड़े नरम हैं। झुककर माफ़ी मांग लेने और सब कुछ पहले जैसा कर लेने की बात भी कह रहे हैं। एक नौजवान, हालांकि, थोड़ा गुस्से में नज़र आता है। गर्म खून। 'हर बार हम ही क्यों झुके' वाला। बातचीत का अंत होता है जब वही बुजुर्ग इस नौजवान को चुप करता है कि तुम तो बाहर से आये हो तुम क्या जानो कि गाँव की स्थिति क्या है और यहाँ क्या क्या हुआ।
इस एक बात से कितनी तस्वीर साफ़ हो जाती है। समाज का पूरा आइना बनकर ये बात सामने आती है। ऐसी हिंसाओं का कारण वो समाज खुद नहीं होता। हम अक्सर ऐसे बाहरी लोगों के बहकावे में आकर जोश खोते हैं। ऐसे लोगों के जिनका हमारी तकलीफों के साथ कोई सीधा सरोकार नहीं है। जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता हमारी हालात से। जो हमें उन्हीं अँधेरी गलियों में छोड़कर फिर बाहर निकल जायेंगे अपनी शहर की जगमगाती दुनिया में। अपना उल्लू सीधा करेंगे एक पूरे गाँव को उल्लू बनाकर।
इसीलिए कहता हूँ, दोष जात-धर्म को मानने वालों का नहीं है। दोष उनका है जो इनके नाम पर समाज को भड़काने का काम करते हैं। शांति और सद्भाव के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो रोष और द्वेष के उस चश्मे को उतार फेंकिए जो आपको इंसानों को इंसान की तरह देखने से रोकता है। अपनाइये उस महान सोच को जिसमें कहा गया है, वसुधैव कुटुम्बकम।
फरीदाबाद का अटाली गाँव। आदर्श गाँव अटाली। आदर्श लिखना जरूरी है। ये याद रखने के लिए और फिर ये समझने के लिए कि हमारे देश में अगर कोई गाँव आदर्श कहलाता है तो उसकी भूमिका क्या होनी चाहिए और क्या होती है।
पहले ही लिख चुका हूँ कि कुछ दिनों से घर से बाहर हूँ इसलिए ताज़ा ख़बरों के मामले में थोड़ा अनभिज्ञ भी हूँ। इस आदर्श गाँव में कुछ दिनों पहले, 25 तारीख को, एक दुःखद घटना घटी। एक साम्प्रदायिक हिंसा। हिन्दुओं के एक गुट ने गाँव के मुसलमानों के ऊपर हमला कर दिया। विवाद एक मस्जिद बनाने को लेकर था। कोर्ट के आदेश के हिसाब से ज़मीन मुसलमानों की थी और मस्जिद बनाने में कोई आपत्ति नहीं थी। गाँव के हिन्दुओं को, मगर, कठिनाई थी मस्जिद के बनने से। क्यूंकि मस्जिद के ठीक सामने माँ का मंदिर था।
ऊपरी तौर से स्थिति और हालात दोनों वही पुराने दंगों वाले थे। वैसा ही कुछ यहाँ भी हुआ। पहले हिंसा, मारपीट, आगजनी फिर पलायन और शरण और फिर वोटों का राजनीतिक खेल। मैं इस सब के अंदर नहीं घुसना चाहता। उस प्रोग्राम में बड़ी बखूबी से दोनों पक्षों की बात साफ़-साफ़ दिखाई गयी है। बिना किसी पक्षपात के। मैं बात बस इन झंझटों के बीच में टूट जाने वाले इंसानी जज़्बातों की करना चाहता हूँ। गाँव का हरेक आदमी ये मानता है कि पहले हालात 'आदर्श' थे। कोई सांप्रदायिक भेदभाव की स्थिति पहले नहीं थी। सब मिलकर साथ में रहते थे। एक दूसरे के त्योहारों में शरीक होते थे। शादी-व्याह में न्योते चलते थे। एक बड़े परिवार के भाइयों की तरह उनलोगों का आचरण था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया। या अगर इसके पीछे छिपे बड़े तस्वीर को देखें तो फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है। हर उस मामले में जहां लोग ये आपसी सौहार्द छोड़कर भिड़ जाते हैं। धर्म के नाम पर, जात के नाम पर।
अपने कॉलेज के दिनों में जतियारी करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। कॉलेज के दोस्तों के साथ सम्बन्ध शायद आज उतने अच्छे नहीं है इसका एक कारण यह भी हो सकता है। जातिवाद और धर्मवाद का पक्षधर मैं आज भी हूँ। हर एक शख्श की एक पहचान होती है। ये जाति-धर्म इत्यादि उसी पहचान का एक हिस्सा है। आप अपने चेहरे से मुक्ति नहीं पा सकते, वैसे ही आप जात-धर्म से भी अलग नहीं हो सकते। पर जरुरत है इनको ढंग से समझने की। कोई जात या कोई धर्म सर्वोत्तम नहीं होता। कोई जात-धर्म दूसरी मान्यता रखने वालों को बुरा नहीं कहता। ये दुर्भावनाएं समाज में समय के साथ आती चली गयी हैं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए धर्म-गुरु लोगों को भड़काते गए हैं और हम अंध-भक्तों की तरह भड़कते गए हैं। अंतिम नतीजा ऐसा निकलता है जहाँ हर धर्म शिक्षा तो शांति और सद्भाव की देता है मगर लोगों के मनों में द्वेष के सिवा और कुछ नहीं रहता।
ब्लॉग के साथ लिंक यहाँ शेयर कर रहा हूँ। उसी प्रोग्राम की। देखना चाहते हैं तो पूरा वीडियो देखिये। बहुत ही उम्दा रिपोर्ट है। मगर मैं जो कहना चाह रहा हूँ वो देखना चाहते हैं तो सीधे जाइये 36वें मिनट पर। गाँव की एक चौपाल पर लोग बैठे बातें कर रहे हैं। क्या हुआ और अब क्या करना है। जो हुआ उसके लिए दुःख सबको है। भाईचारे से मामले को सलटाने की बात भी सब कर रहे हैं। बुजुर्ग थोड़े नरम हैं। झुककर माफ़ी मांग लेने और सब कुछ पहले जैसा कर लेने की बात भी कह रहे हैं। एक नौजवान, हालांकि, थोड़ा गुस्से में नज़र आता है। गर्म खून। 'हर बार हम ही क्यों झुके' वाला। बातचीत का अंत होता है जब वही बुजुर्ग इस नौजवान को चुप करता है कि तुम तो बाहर से आये हो तुम क्या जानो कि गाँव की स्थिति क्या है और यहाँ क्या क्या हुआ।
इस एक बात से कितनी तस्वीर साफ़ हो जाती है। समाज का पूरा आइना बनकर ये बात सामने आती है। ऐसी हिंसाओं का कारण वो समाज खुद नहीं होता। हम अक्सर ऐसे बाहरी लोगों के बहकावे में आकर जोश खोते हैं। ऐसे लोगों के जिनका हमारी तकलीफों के साथ कोई सीधा सरोकार नहीं है। जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता हमारी हालात से। जो हमें उन्हीं अँधेरी गलियों में छोड़कर फिर बाहर निकल जायेंगे अपनी शहर की जगमगाती दुनिया में। अपना उल्लू सीधा करेंगे एक पूरे गाँव को उल्लू बनाकर।
इसीलिए कहता हूँ, दोष जात-धर्म को मानने वालों का नहीं है। दोष उनका है जो इनके नाम पर समाज को भड़काने का काम करते हैं। शांति और सद्भाव के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो रोष और द्वेष के उस चश्मे को उतार फेंकिए जो आपको इंसानों को इंसान की तरह देखने से रोकता है। अपनाइये उस महान सोच को जिसमें कहा गया है, वसुधैव कुटुम्बकम।
No comments:
Post a Comment