कुछ महीने पहले की बात है। ट्विटर के बाज़ार पर दो भारतीय फिल्मों का किस्सा गर्म था। मराठी फिल्म कोर्ट और हिंदी फिल्म मसान। कोर्ट पहले ही रिलीज़ हो गयी थी मगर देखने का मौका नहीं मिला हालांकि चाहत देखने की काफी थी। मसान ने कान फिल्म महोत्सव में अच्छा धमाका किया था। इंतज़ार इसके रिलीज़ की तब से ही थी। इतना कुछ इसके बारे में सुना था कि कभी ट्रेलर देखने का मन ही नहीं हुआ, सीधे फिल्म देखने की ही इच्छा हुई थी। अंततः फिल्म देखने का मौका कल मिल ही गया। वरुण ग्रोवर की लिखी इस फिल्म का निर्देशन किया है नीरज घेवान ने।
फिल्म की शुरुआत होती है बनारस के एक छोटे से कमरे से। देवी (ऋचा चड्डा) अपने घर में खिड़की-दरवाजे बंद करके कानों में ईयर-फ़ोन लगाये पॉर्न देख रही है और फिर उठकर बाहर निकलती है। एक लड़के के साथ शहर के एक होटल में जाती है। "जिज्ञासा मिटाने"। उसी समय होटल में पुलिस छापा मारती है और उन्हें आपत्तिजनक स्थिति में पकड़ लेती है। लड़का बदनामी के डर से वहीँ हाथ की नसों को काटकर आत्महत्या कर लेता है। लड़की की उसी हालत में पुलिस इंस्पेक्टर एमएमएस बना लेता है। फिल्म की आगे की टोन और कथानक यहीं तय हो जाते हैं।
एक दूसरी कहानी में बनारस के श्मशान घाट पर मुर्दों को जलाने का काम करने वाले डोम समुदाय का एक लड़का दीपक (विक्की कौशल) एक ऊँचे जाति के लड़की शालू (श्वेता त्रिपाठी) को पसंद करता है। फेसबुक के माध्यम से दोस्ती होती है। दोस्ती प्यार में बदल जाती है। दीपक सिविल इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। बाप-दादा के श्मशान वाले धंधे से उसे बाहर निकलना है, नौकरी करनी है। शालू ग़ज़लों की शौक़ीन है। नीदा फ़ाज़ली और दुष्यंत कुमार को सुनती है। दीपक ग़ज़ल से कोसों दूर हैं। सुनना तो दूर, इन्हे समझने में भी उसे दिक्कत होती है। घंटों की टेलीफोन की बातों में शालू उसे शायरी सुनाती रहती है। बिना समझे दीपक सब सुनता रहता है। निर्दोष भाव से वो स्वीकार भी करता है कि उसे शायरी का श भी समझ नहीं आता। उसकी सच्चाई इस प्यार को नयी ऊंचाइयों तक ले जाती है।
दीपक शालू को चूमता है और फिर सफाई देता है, "तुम घर में सबसे छोटी हो न इसलिए प्यार आ गया।" छोटी जात के लड़के का ऊँची जात की लड़की से यह प्यार निष्पाप तरीके से परवान चढ़ता है। दर्शक जात-पात की बंदिशों को भूलकर इस निर्दोष प्यार के मजे लेते हैं तभी दीपक का दोस्त कहता है, "ऊँचे कास्ट की हैं, भाई ज्यादा सेंटीआईएगा नहीं।" आप इस अद्भुत प्यार को एक दर्दनाक अंत की तरफ बढ़ते हुए महसूस करते हैं। दीपक शालू के सामने अपना सच कह देता है। शालू अपने परिवार के साथ बद्रीनाथ की यात्रा पर जाती है। रास्ते में एक ढाबे पर वो रुकते हैं। ढाबा उनके जात के लोगों का ही है। शालू के माता-पिता जात के इस पुट के साथ खाने की बड़ाई करते हैं और तभी शालू यह निर्णय करती है कि वो जात-पात के इन बंदिशों को तोड़कर दीपक के साथ भागने को भी तैयार है। अगले ही सीन में दीपक घाट पर मुर्दों को जला रहा होता है। कोई बस पलट गयी थी इसलिए घाट पर काफी भीड़ है। उन्हीं मुर्दों में एक शालू भी है। दर्शक दहल से जाते हैं। दर्दनाक अंत का इंतज़ार सबको था मगर ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। दीपक टूट जाता है। और फिर शालू की यादों को दिल में संजोये बनारस छोड़ देता है।
उधर देवी की ज़िन्दगी श्मशान की तरह आगे बढ़ रही है। उसका प्यार मर चुका है और जिसके मौत का कारण उसे ही माना जा रहा है। उसके एमएमएस को यूट्यूब पर डालने की धमकी देकर वो इंस्पेक्टर देवी के बाप से पैसे ऐंठता है। घाट पर पूजा-पाठ की सामग्री बेचने वाला वो बूढ़ा बाप (संजय मिश्रा) संस्कृत का विद्वान है। कभी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था, आज मुसीबत में घिरा एक गरीब बाप है। कहीं-कहीं से वो पैसों का बंदोबस्त करता है। दूकान पर काम करने वाले एक छोटे बच्चे झोंटा को डुबकी लगा कर पैसे निकालने के खेल में शामिल कराकर किसी तरह से कुछ पैसे कमाता है और उस इंस्पेक्टर का मुंह बंद करता है। देवी इस ज़लालत से दूर निकलना चाहती है। रेलवे में अस्थायी नौकरी करके कुछ पैसे कमाती है और बाप की मदद करती है। उसके बाद बनारस छोड़कर बाहर चली जाती है। अपनी ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी से दूर।
कहानी कहाँ शुरू होती है और कहाँ ख़त्म कुछ पता नहीं चलता। किरदारों के जीवन के एक हिस्से को उठाकर कथाकार ने फिल्म में पेश कर दिया है। हर किरदार की एक पहले की कहानी है और एक बाद की। उन कहानियों का इस कहानी पर यदा-कदा ही असर होता दिखता है। मुख्य किरदारों के अलावा कुछ और सहायक किरदार हैं जो फिल्म को आगे ले जाने और अपनी बात कहने में मदद करते हैं। देवी के साथ काम करने वाला रेलवे का एक कर्मचारी (पंकज त्रिपाठी) वैसा ही एक किरदार है। उससे पूछे जाने पर कि वो अकेला रहता है, वो कहता है, "जी नहीं, मैं अपने पिताजी के साथ रहता हूँ, पिताजी अकेले रहते हैं।"
विक्की कौशल की अदाकारी फिल्म में जान डाल देती है। श्वेता त्रिपाठी की मासूमियत को उनकी अदायगी नए आयाम देती है। संजय मिश्रा और पंकज त्रिपाठी सहायक किरदारों में जंचते हैं। ऋचा चड्डा अपने किरदार के साथ पूरा इन्साफ करती नज़र आती हैं हालांकि उनके किरदार में रंगों की कमी उनकी अदाकारी को भी कहीं कहीं नीरस बना देती है। बनारस का शहर फिल्म में एक अभिन्न किरदार के रूप में बाहर आता है। गंगा के घाटों की खूबसूरती, दुर्गा-पूजा में दुल्हन सी सजी शहर की सड़कें या फिर अनंत ज्योति की तरह श्मशान घाट पर जलती हुई चिताएं। सब अपनी अपनी कहानी बताते हैं।
श्मशान के कुछ दृश्य सीधे दिलों पर वार करते हैं। अपने बेटे की चिता को आग देने वाले बाप से डोम-राज कहता है पांच बार बांस के बल्ले से शव के सर को मारकर फोड़ो तब तो मिलेगी आत्मा को मुक्ति। श्मशान की यात्रा कभी सुखद नहीं होती। अपने प्रिय को आग की लपटों में स्वाहा कर देना बड़ा दुःखदायी होता है। कई तरह के विचार मन में आते हैं। जो वहीँ रहकर अपनी रोजी-रोटी ही इस काम से निकालता है उसकी मनःदशा कभी समझने की कोशिश नहीं की थी। फिल्म में उन डोम के ज़िन्दगी को भी बखूबी दर्शाया है। शायद मुर्दों को जलाते रहने के दुःख को वो शराब के अपने नशे से मिटाते रहने की कोशिश करते हैं। तभी तो अंत में एक डोम पिता अपने बेटे को इस काम से दूर निकल कर पढ़ लिख कर नौकरी करने की सलाह देता है।
फिल्म जातिवाद पर भी चोट करती हुई आगे बढ़ती है। देवी का बाप उस इंस्पेक्टर से अपनी ही बिरादरी के होने की दुहाई देता है जिसका कोई असर नहीं पड़ता। सब अपनी फायदे की सोचते हैं। जात की सोचकर कोई नुकसान क्यों उठाये। उसी तरह शालू भी दीपक के साथ ज़िन्दगी बिताने का निर्णय तभी करती है जब उसके माँ-बाप एक ढाबे के खाने की बड़ाई करते हैं क्यूंकि वो उनके बिरादरी के लोगों का ही ढाबा है। फिल्म कई सारी बात पौने दो घंटे में कह देती है।
कैमरामैन ने बनारस की जिस नब्ज़ को पकड़ा है वो शहर के कई रूपों को सामने ले आता है। जलती हुई चिताओं और उससे उठता हुआ धुआं मन में चोट पैदा करता है वहीँ दुर्गा-पूजा में सजे शहर के ऊपर उड़ते हुए वो दो लाल गुब्बारे उस आशा के प्रतीक बनकर ऊपर उठते चले जाते हैं जिनमें आप सोचते हैं यहां सब कुछ बुरा ही नहीं होता। आपको पता है कि वो गुब्बारे ऊपर जाकर फूटने ही वाले हैं मगर फिर भी वो आस नहीं मिटती। यह सीन फिल्म का सबसे प्यारा सीन बनकर सामने आता है। जिस प्यार का इज़हार यह सीन करता है उसी की तरह यह भी अपने अंदर सारे जहां की मासूमियत दबाये रहता है। बनारस, जहाँ सब मरने के बाद मुक्ति के लिए आते हैं, वहीँ वहां के किरदारों को जीवन में अपने दुखों से मुक्ति नहीं मिलती। सब बनारस के मसान में आते हैं मुक्ति पाने मगर देवी और दीपक आगे बढ़ जाते हैं उस मसान की तलाश में जहां उन्हें मुक्ति मिले, दुःखों से, अपनी यादों से।