इधर फिर से कई दिनों से कोई पोस्ट अपने ब्लॉग पर नहीं लिख पाया। व्यस्तता के साथ-साथ उदासीनता भी एक कारण रही ब्लॉग पर न आने की। सच कहूं तो कोई ऐसा वाकया भी नहीं मिला जो मुझे कुछ सोचने और लिखने के प्रति मजबूर कर सके। डाक्टर बने हुए एक महीने पूरे हुए और इन एक महीने में, हालांकि, एकाध बात आपसे बाटने लायक हुई मगर समय की कमी यहाँ बजी मार ले गयी। खैर, आज समय निकला है तो कुछ बाँट रहा हूँ आप सब से। अभी समाचार चैनलों में कसाब की सजा के बारे में कई बातें बतलाई जा रही है। अभी परसों ही विशेष अदालत ने अजमल कसाब को मुंबई हमलों का दोषी करार दिया। क्या सजा मिलने वाली है इसका पूरे देश को बेसब्री से इंतज़ार है। मुझे भी हैं। जानना चाहता हूँ कि जिसने मेरी आत्मा को घायल किया था उसे हमारी न्याय-प्रणाली कितनी सजा देती है।
जब से पैदा हुआ हूँ, भारत में कई आतंकी हमले देख चुका हूँ। '93 मुंबई हमलों की याद नहीं मुझे, तब सिर्फ 6 साल का था। धुंधली सी कोई तस्वीर भी नहीं मन में उस हमले की दिल में। मगर उसके बाद कई हमले देखे। दिल्ली के बाजारों में हुए हमले हों या मुंबई के लोकल ट्रेन में हुए, जयपुर की गलियाँ दहली हों या अजमेर का पाक शहर, घायल हर बार पूरा हिन्दुस्तान हुआ, चोट हम सब की आत्मा पर सीधी जा के लगी। ऐसे ही कई हमले हुए जो शायद याद भी नहीं अभी। हफ्ते-दो-हफ्ते तक एक गुस्सा मन में रहा मगर जो निकला तो निकला ही रह गया। हालत ऐसी हो चुकी थी कि इतनी बार मन घायल हो चुका था और इतनी चोट लग चुकी थी कि एक नए हमले की खबर से कोई ख़ास असर नहीं पड़ता था। दिल्ली, जयपुर में हुआ हमला याद है मगर ज्यादा बाते नहीं। कई हमले तो बिलकुल नहीं याद। इन सब के बावजूद भी 26/11 आज भी अच्छी तरह याद है। एक-एक वाकया, एक-एक दृश्य हुबहू आँखों में हैं।
कुछ तो अलग बात थी उस हमले में। छुप कर वार करने वालों इन आतंकियों में अचानक इतनी हिम्मत आ गयी की खुले-आम, सरे-शाम मौत का एक तांडव उन्होंने मुंबई में खेल लिया। मुझे मुंबई हमला सिर्फ इसलिए नहीं याद कि इस बार चंद दहशतगर्दों ने सीना तान कर आमने सामने की लड़ाई छेड़ी थी हमारे साथ मगर इसलिए भी कि इस बार अपने लोगों को मरते हुए अपनी आँखों से TV पर देखा था हम सबने। शहीद करकरे को जैकेट और हेलमेट पहनते सीधा देखा था हमने। उन्हें पिस्टल लेकर समर-क्षेत्र में उतरते पूरा राष्ट्र देख रहा था। मैं भी अपने घर में TV से चिपका बैठा था। करकरे साहब की मौत की खबर से मन दहल उठा था। अपने किसी अतिप्रिय, अति-परिचित को खोने जैसा दुःख हुआ था उस रात। हमले के 3 साल पहले मुंबई गया था। गेटवे-ऑफ़-इंडिया के सामने खड़े होकर लाखों लोगों की तरह ताज को मैंने भी निहारा था। जब उसी ताज के गुम्बद को जलता हुआ देखा तो लगा जैसे किसी ने मेरे तन-बदन में आग लगा दी हो। ये हमला कोई साधारण हमला नहीं था, सीधे-सीधे करोड़ों हिन्दुस्तानियों की आत्मा को छलनी किया था इस हमले ने। भारत की आत्मा पर हमला था ये हमला।
आज जब कसाब को दोषी करार दिया गया है तो एक ख़ुशी भी है और एक गुस्सा भी। कसाब हमसब का मुजरिम है, सजा तो मिलनी ही चाहिए। मगर क्या इस सजा के लिए हमें इतना वक़्त लेना चाहिए था। इन डेढ़ सालों में, भारत में राष्ट्रपति के बाद सबसे ज्यादा सुरक्षित यदि कोई व्यक्ति था तो वो कसाब था। क्या इस तरह का व्यवहार उचित था? करोड़ों हिन्दुस्तानियों के उस मुजरिम के लिए क्या किसी सुनवाई की जरुरत भी थी?
आज जब सजा का एलान नहीं हुआ है अभी तक, कई बहस हो रहे हैं कि फांसी देनी चाहिए या नहीं। मैं कसाब के लिए किसी भी तरह की रहम की कोई उम्मीद नहीं रखता और मेरे हिसाब से किसी को भी नहीं रखनी चाहिए। वो हमारा मुजरिम है, उसे सजा भी वही मिलने चाहिए जो हम चाहें। सिर्फ फांसी से काम नहीं चलने वाला। हमें इस तरह खून के आंसू रुलाने वाले के लिए इतनी आसान मौत हमें मंजूर नहीं। न्याय-प्रणाली पर पूरा भरोसा है मुझे पर इस बार हमें उसकी जरूरत नहीं। फांसी की आसान मौत का उसके जुर्म के सामने कोई मोल नहीं। अगर सौ बार फांसी लगायी जाए तो भी शायद उसकी सजा कम ही रहेगी। एक अर्जी करता हूँ, छोड़ दीजिये कसाब को। घुमने दीजिये कसाब को मुंबई की गलियों में। दे दीजिये हमें आज़ादी अपनी ओर से उसे सजा देने की। हम जान नहीं लेंगे उसकी। हर एक भारतीय के पास ले जाइये उसे और देने दीजिये उसे उसकी सजा। उसके बाद जो करना है करिए उस कसाब के साथ। जेल में सड़ाना चाहते हैं सड़ाइए उसे, फांसी चढ़ाना चाहते हैं, चढ़ाइए उसे, मगर पहले हम हिन्दुस्तानियों को अपना हिसाब चुकता कर लेने दीजिये। कसाब हमारी न्याय-प्रणाली का मुजरिम नहीं वो हिन्दुस्तान का मुजरिम है और उसे सजा भी हिन्दुस्तान ही देगा, उसे सजा हम देंगे और कोई नहीं!!!
1 comment:
lekin wo hindustaan hai kahan....uski talash kar raha hun arse se aapko pata ho to jarur bataiye...
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