राष्ट्रमंडल खेलों के शुरू होने में सिर्फ 5 दिन बाकी रह गए हैं. पिछले कुछ दिन इन खेलों को लेकर काफी असमंजस बना रहा. दिल्ली सरकार, भारतीय ओलम्पिक संघ और पूरी आयोजन समिति ने मिलकर देश का काफी बेड़ा गर्क किया. मीडिया की माने तो देश की काफी खिल्ली उडी विदेशों में. जिन खेलों के द्वारा "Brand India" को बाहर दुनिया में स्थापित करने की बात की जा रही थी उन्ही खेलों की तय्यारी ने इसी "Brand India" के नाम पर एक धब्बा लगाया. मीडिया की माने तो हर भारतीय के ऊपर इन खेलों की तय्यारियों ने एक जोरदार तमाचा मारा है. मगर क्या सच में ऐसा बहुत कुछ हुआ है? कुछ तो हुआ है मगर जहां बात बहुत कुछ की आती है वहाँ दिल थोडा रूककर सोचने को चाहता है और फिर कई विचार मन में आने लगते हैं.
भारत को इन खेलों की मेजबानी लगभग 8 साल पहले मिली थी. वादा किया गया था एक अद्वितीय अनुभव का जो सभी को हमेशा याद रहेगा. एक कल्पना की गयी थी अद्भुत खेलों की जो पहले कभी नहीं हुआ था और हर दिशा में अप्रतिम ही था. आज 8 साल बाद उन सपनों के साकार होने का जब समय आया है तो हम जरूर अपनी कल्पनाओं से पीछे छुट गए हैं मगर जो हमने किया है वो क्या किसी सपने से कम है.
चाहे कोई कुछ भी कह ले, भारत आज भी एक विकासशील देश ही है. पिछले ८ सालों में न जाने भारत ने क्या क्या देखा और झेला है. जब दुनिया मंदी के दौड़ से गुजर रही थी वही भारत एक मजबूत अर्थ-व्यवस्था के रूप में उभर रहा था. इसके लिए महंगाई के रूप में एक बड़ी कीमत भारतीयों ने चुकाई है. पिछले ८ सालों में न जाने कितनी बार आतंकियों और नक्सलियों ने हमारे सीनों को छलनी किया है मगर भारत आज भी दृढ विश्वास के साथ सबों का स्वागत कर रहा है. सूखे और बाढ़ से लड़ता हुआ भारत अपने वादों को पूरा करने के लिए आज भी तत्पर है.
ज़रा सोचिये, ऐसी स्थिति में हमने अपने देश को क्या दिया है सिवाय आलोचना, नाउम्मीदी और कभी-कभी तो गालियों के. ये हम हैं, हम भारतीय. हर बात पर जो हमें पसंद नहीं हो उसका ठीकड़ा सरकार के ऊपर फोड़ना हमारा शौक है. अपने देश में मौजूद भ्रष्टाचारी को इस कदर गरियाते हैं जैसे एक हमारा ही देश भ्रष्ट हो. इस लिंक को देखिये. जहां हमारा देश भारत ऐसे देशों में 35 नंबर पर है वहीँ हम सब का 'गौरव और सपना' अमेरिका दुसरे नंबर पर है. हर बात पर हमारा हाय तौबा मचाना कि भारत कभी नहीं सुधर सकता, हमारी आदत बन चुकी है मगर हम कभी इतना नहीं सोचते कि हम कितना सुधर गए हैं.
चलिए मानता हूँ तय्यारियों में जो देरी हुई वो नहीं होनी चाहिए थे. मानता हूँ कि जो पुल टूट गया वो नहीं होना चाहिए था या जो छत गिरी वो भी नहीं होना चाहिए था, या खेल गाँव में जो गन्दगी फैली हुई थी हो नहीं होनी चाहिए थी मगर इस सब को देख के हमने क्या किया. गालियाँ दी. किसे? उनको जिन्होंने हमारे सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया था. जरूर उन्होंने हमारे इस सपनों में सेंध लगाकर अपनी निजी सपनों की दुनिया बनायीं मगर क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता कि हम उनका सहयोग करें. उन्हें वो प्रोत्साहन दें जिसकी उन्हें जरूरत है. कुछ दिन पहले ही फेसबुक पर एक फोटो अल्बम लोड की गयी जिसमे 52 तस्वीरें थी जिन्हें कभी किसी ने प्रकाशित नहीं किया, क्यूंकि उनमे TRP नहीं थी. उनमें खेल गाँव की अद्भुत सुन्दरता को दिखलाया गया है, मगर हमने उन्हें देखने की कोई जहमत नहीं उठाई, हमें तो बस टोपिक चाहिए, सरकार और देश को गाली देने का.
हमें बुरा लगा कि पश्चिमी मीडिया ने हमारे खेल-गाँव की वो ही तस्वीरें अपने मुल्क में छापी जिसमे भूखे-नंगे लोग इस सपने की दुनिया को बनाने के लिए मजदूरी कर रहे थे मगर हमने कभी ये नहीं सोचा कि ये तस्वीरें उनके पास गयी कैसे. अपने घर में ही सेंध लगाने की हमारी आदत पुरानी है. मीडिया को जब खेल गाँव का हिस्सा दिखाया जा रहा था तो उन्हें वो 60 % भाग कभी नहीं दिखे जो सच में विश्व-स्तरीय थे मगर बाकी के 40 % में हमेशा उन्हें दिलचस्पी रही. बुराइयों को दिखाइए मगर, अच्छाइयों को छुपाना कहाँ तक जायज़ है.
दुनिया में कभी भी किसी भी खेल में जो न हुआ वो भारत में इस राष्ट्रमंडल खेलों में करने की योजना थी. एक महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की गयी थी. आज तक कभी कोई खेल गाँव "5 star" नहीं बना था, हमने वो सपना देखा और कोशिश भी की. कुछ हिस्से बने भी शानदार मगर समय पर काम ख़त्म करने की कवायद ने बाकी हिस्सों को वैसा नहीं बनने दिया. आज जब हम अपने खेल गाँव को देख रहे हैं तो तुलना उससे की जा रही है जो कभी किसी ने देखा ही नहीं. हाँ, "5 star" खेल गाँव नहीं बन सका मगर जो बना वो कही से विश्वस्तरीय नहीं हो ऐसा नहीं है. भारत पर हमें विश्वास रखना होगा. भौतिक सुख देना हमारी पहचान नहीं, हम जाने जाते हैं रिश्तों को निभाने के लिए. "Hi", "Hello" और गाल को चूम कर स्वागत करना हमें नहीं आता, हम दिल के अन्दर से "नमस्ते" बोल कर सत्कार करते हैं. जो हम हैं, वो हमें दिखना भी चाहिए. झूठी शान ज्यादा दिनों तक नहीं रहती. मुश्किलें कहाँ नहीं आती. मुश्किलों से निकलकर एक शानदार आयोजन करके ही हमें दुनिया को दिखलाना है कि हम सिर्फ 'संपेड़ों की धरती' ही नहीं 'सोने की चिड़िया' भी हैं!
कुछ तस्वीरें भी लगा रहा हूँ, एक शर्म और एक गर्व, फैसला आपको लेना है आप किसके साथ हैं!!!
8 comments:
nice
आपने बिलकुल सही कहा..... हमारे घर का रोना हम दुसरो के सामने रो रहे हैं और दुसरे हमारे रोने पर हंस रहे हैं और उनके हंसने पर पर हम खुश हो रहे हैं.
ज़रा यहाँ भी नज़र घुमाएं!
राष्ट्रमंडल खेल
जब रचनात्मक आलोचना की बिलकुल कमी हो गयी हो तो ऐसे में कुछ इस तरह की बातें रेगिस्तान में बारिश की पहली फुहार जैसे प्रतीत होती हैं. इसी सन्दर्भ में मुझे शिवमंगल सिंह सुमन जी की एक रचना याद आयी (दुःख है की शब्दों को इन्टरनेट से ढूँढना पड़ा)....
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।
अंत में, यह उत्साह आप बनाये रखो....भारतियों को अपने भारतीय होने का अहसास दिलाने के लिए ये जरुरी है......
good hai ji
शाह नवाज़ जी,
धन्यवाद आपकी सराहना के लिए. आपकी कविता के लिए मेरी पोस्ट अगर थोड़ी सी भी प्रेरणा का स्रोत रही तो यह मेरी लिए ख़ुशी की बात है. धन्यवाद एक बार फिर.
@अभय:
धन्यवाद और ख़ुशी इस बात की कि आपको मेरी पोस्ट पसंद आई. मेरी पोस्ट को अगर चाँद वाक्यों में समेटने के कोशिश की जाय तो निश्चय ही, शिवमंगल सिंह सुमन जी की इन पंक्तियों से बढ़िया कुछ नहीं मिल सकता. धन्यवाद एक बार फिर.
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