इधर राष्ट्रमंडल खेलों के साथ-साथ देश में अगर किसी चीज़ ने सुर्खियाँ बटोरी है तो वो अयोध्या है. बहुचर्चित अयोध्या मामले में पिछले 60 साल पुराने केस का निर्णय न्यायालय में आज दिन के 3 .30 बजे आने वाला है. 24 तारीख को ही आने वाला ये निर्णय सर्वोच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के बाद लंबित होकर अंततः आज आने वाला है. एक बार फिर वो सारी तय्यरियाँ की जा रही हैं जो सब 24 तारीख को आने वाले उस तथाकथित तूफ़ान के लिए की गयीं थी. हालांकि इस निर्णय का कोई व्यापक असर नहीं होने वाला क्यूंकि मामले का सर्वोच्च नयायालय में जाना तय है मगर फिर भी, किसी अनहोनी घटना से पूर्णतया इनकार नहीं किया जा सकता और इसीलिए, असाधारण सुरक्षा इन्तजाम किये जा रहे हैं.
इस अयोध्या मामले ने कहीं न कहीं मुझे भी ख़ासा प्रभावित किया है. जब इसके दोनों संभव फैसलों के बारे में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि फैसला जिसके भी पक्ष में जाए हार तो भारत की ही होनी है. अगर फैसला वहां पर मंदिर बनाने का आता है तो सवाल भारत की साम्प्रदायिकता पर उठेंगे कि अपने आप को सेकुलर कहने वाले हिंदुस्तान में इतना बड़ा फैसला हिन्दुओं के पक्ष में कर दिया गया. अगर फैसला मस्जिद बनाने का आता है तो फिर सवाल भारतीय राजनीति पर उठेंगे कि मुस्लिम वोट बैंक को बचाने के लिए ये फैसला उनके पक्ष में कर दिया गया. कुछ भी हो, भारतीय न्याय व्यवस्था शायद इससे पहले इस तरह के सवालों से कभी नहीं घिरी थी. न्यायपालिका पर सवाल उठना अब अपरिहार्य हो चला है.
फैसला कुछ भी आये, फर्क तो हम सब पर जरूर पड़ेगा, ज्यादा नहीं तो थोडा ही सही. आने वाले इस निर्णय और उसके परिणाम की कल्पना करता हूँ और, झूठ नहीं कहूँगा, मन एक बार सिहर जरूर जाता है. डर लग जाता है कि कहीं बम्बई और गुजरात की पुनरावृत्ति न हो जाए. इस डर के साथ जब पूरे मामले को खंगालना शुरू करता हूँ तो यही सवाल मन में बार बार दस्तक देते हैं. आखिर ये अयोध्या क्या है? क्या है इसका मतलब मेरी पीढ़ी के लिए? पूरे अयोध्या काण्ड में मेरी पीढ़ी खुद को कहाँ देखती है?
1947 में भारत के साथ भारत में एक अजीब सी आग ने जन्म लिया था. बंटवारे की उस आग में अपनी आज़ादी को भूल कर न जाने कितने मतवाले हिंदवासी रातों रात 'हिन्दू' और 'मुस्लिम' बन गए थे. एक ऐसी ज्वाला भड़की थी जिसकी लपटों ने हिन्दू-मुस्लिम दंगों की शक्ल लेकर न जाने कितनी जानें ली थी. न जाने कितनी जिंदगियां बर्बाद हुई थी, न जाने कितने परिवार उजड़े थे. उस आग की गर्मी में झुलसता हुआ भारत, फिर भी, अपनी आज़ादी को पाकर आगे बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध था. समय के साथ भारत जवान होता गया. नयी पीढ़ियों ने पुरानी पीढ़ी का स्थान लेना शुरू किया. बंटवारे के दंश को झेलने वाली उस पीढ़ी के साथ हिन्दू-मुस्लिम की वो आग भी धीरे धीरे मद्धिम पड़ गयी. अगर दिसंबर '92 न हुआ होता तो शायद मेरी पीढ़ी तक आते आते कोई कभी धर्म की बंदिशों को अपने विकास के रास्ते में रोड़ा नही बनने देता. मगर दिसंबर '92 हुआ और हम सब जानते हैं कि फिर क्या क्या हुआ. राम के नाम पर न जाने क्या क्या घिनौने खेल खेले गए पूरे देश में. जब यह सब हुआ था तब सिर्फ 5 साल का था. सच पूछिए तो ख़ुशी होती है कि सिर्फ 5 साल का ही था, कम से कम मैंने जो भी जाना वो सिर्फ अखबारों में पढ़ा या टीवी पर देखा. उस समय की कोई भी याद मेरे ज़हन में नहीं है. और इस बात के लिए शुक्रगुजार हूँ अपनी उम्र का कि मुझे कुछ नही याद. मेरे लिए तो अयोध्या का सिर्फ एक ही मतलब बनता है. उस बुझती हुई आग की लपटों को फूँक मार कर फिर जिंदा कर देना जो आग बंटवारे के वक़्त सब के सीनों में लगी थी.
राम के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद् ने जिस तरह का काम किया है शायद उसी का कारण है कि हिन्दू होने के बावजूद दिल से कभी इन दोनों से नहीं जुड़ पाया हूँ. हम उस देश में रहते हैं जहां 'जय राम जी की' का इस्तमाल अभिवादन के लिए आता है. हिन्दू हो या मुस्लमान, हर कोई इसे नमस्ते या सलाम के रूप में इस्तेमाल करता है. इसी 'जय राम जी की' उद्घोष के साथ जिस तरह पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगों की नींव रखी गयी उससे आज मन में इन शब्दों के लिए भी भिनक पैदा हो गयी है. जिस 'राम-राज' को लाने की बात RSS और VHP करते हैं, वही 'राम-राज' कब 'राम-राजनीति' बन गया, कभी पता ही नहीं चला. अपने राज दरबार में सीता, लक्ष्मण और हनुमान संग बैठे मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की तस्वीर कब धनुष उठाये प्रचंड राम में बदल गयी इसका कोई अंदाजा ही नहीं लग सका. कार-सेवा के नाम पर जो कलंक राम की नगरी अयोध्या पर चढ़ गया उस कलंक से छुटकारा पाने की कोई स्थिति मुझे तो नज़र नहीं आती. अपने राजनीतिक फायदे के लिए सभी पार्टियों ने मिलकर जो कुछ किया वो दिल को दुखा देने के लिए काफी है.
अयोध्या की उस ज़मीन का विवाद सदियों पुराना है. न्यायालय तक यह विवाद 60 साल पहले पंहुचा, जब मैं क्या मेरे पिताजी ने भी जन्म नहीं लिया था. इतने समय से जिस निर्णय का इंतज़ार हो उसके लिए उत्सुकता तो मन में रहेगी ही. पता नहीं क्या निर्णय आने वाला है. यथार्थ से दूर देखें तो जी चाहता है कि उस ज़मीन पर ऐसा कुछ बने जो समाज के लिए एक प्रतीक हो, एक उपहार हो. कोई स्कूल बन जाए, कोई अस्पताल बन जाए या कुछ भी. मगर क्या अपने फायदे के लिए मस्जिद तक को गिरा देने वाले इतने से शांत हो जायेंगे. फिर विवाद उठेगा कि अस्पताल का नाम श्री राम अस्पताल रखा जाए या बाबरी हॉस्पिटल. काम करने वाले हिन्दू हों या मुसलमान और न जाने क्या क्या. जब तक फायदा उठाने वाले ये राजनीतिक दल मौजूद रहेंगे तब तक इस विवाद का कोई हल संभव नहीं है. या यूँ कहें कि जब तक इन राजनीतिक दलों के बहकावे में आने के लिए हम तैयार रहेंगे तब तक इसका कोई हल नहीं.
अज दिन में क्या निर्णय आने वाला है इसे भविष्य के गर्भ में ही छुपा छोड़ देते हैं मगर फिर भी, दिल सोचने को मजबूर हो ही जाता है कि उसके बाद क्या होगा. इस बार कहाँ कहाँ दंगे भड़केंगे और कितने लोग बेमौत मारे जायेंगे. एक मन करता है कि कभी ये फैसला आता ही नहीं तो कितना अच्छा होता. मगर काल्पनिक दुनिया से निकल कर हकीकत को देखता हूँ तो लगता है कि ये एक ऐसा तूफ़ान है जो आज नहीं तो कल भारत को झेलना ही है. कभी न कभी तो ये निर्णय आएगा ही. कई लोग आपसी सुलह की वकालत कर रहे हैं. अगर किसी सूरत में ये संभव हो तो सच में स्वागत है इसका मगर फिर, जब बात यथार्थ की आती है तो सब कुछ खोखला ढकोसला लगने लगता है. जिस सुलह की गुंजाईश पिछले 60 सालों में नहीं बन पायी वो अब क्या बनेगी. हाँ इतना जरूर सोचता हूँ कि ये जो आपसी सुलह की वकालत कर रहे हैं, ये यदि इतने जागरूक और परिपक्व हैं तो फिर निर्णय के बाद किसी अनहोनी की बात ही कहाँ उठती है. यही तो वो लोग हैं जिनसे हमें डर है कि न जाने अपने फायदे के लिए निर्णय के बाद क्या क्या गुल खिलाएंगे.
हिन्दू हूँ और इसलिए ये नहीं कहूँगा कि निर्णय में मंदिर बनाने की बात यदि आती है तो मन में ख़ुशी नहीं होगी. खुश जरूर होऊंगा ऐसी सूरत में. मगर, यदि ये राम मंदिर खून से सने पत्थरों की नींव पर बनायीं जाती है तो मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ. निर्णय में जो कुछ भी हो, बस इतना चाहता हूँ कि देश को '93 की बम्बई और '02 का गुजरात फिर न देखना पड़े.
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