कमरे में अकेला,
पलंग पर करवटें बदलता,
घड़ी की टिक-टिक सुनता,
कोसता उस आवाज़ को
जो याद दिला रही थी उसे
बीते हुए वो दिन, वो पल,
वो सब कुछ।
वो चेहरा, वो मुस्कराहट,
बड़ी सी मुस्कुराती आँखें
शरारत से लबालब,
होठों के नीचे वो काला तिल,
तिल पर टिपटिपाती उंगलियाँ,
वो छोटी छोटी प्यारी उंगलियाँ,
उन्हें अपने हाथों में लेना
अपनी उँगलियों में उन्हें समाना
जैसे अपनी रूह में समाना उसे,
वो सब कुछ।
घड़ी की वही टिक-टिक
याद दिला रही थी उसे,
आज का उसका अकेलापन
दिल का उसका वही खालीपन।
कोशिश करता था वो
उस खालीपन को भरने का
उन्ही यादों के सहारे
उन हर खूबसूरत पलों के सहारे
जो साथ बिताया था उन्होंने,
लड़ते, झगड़ते, हँसते, खेलते,
साथ में।
कितने प्यारे थे वो दिन,
न जाने कहाँ चले गए।
आज सब धुंधला था,
वो चेहरा भी, वो मुस्कराहट भी,
वो आँखें भी, शरारत की जगह
अब आंसुओं से लबालब,
छोटी छोटी वो उंगलियाँ
तड़पती अपने आप को समाने।
वो सब कुछ।
सब कुछ धुंधला था,
आँखों में नमी थी
या सामने धुंध था,
जो भी हो,
एक उम्मीद थी,
नमी हटेगी कभी
धुंध छंटेगा कभी।
वो चेहरा, व मुस्कराहट
सब साफ़ दिखेंगे कभी,
फिर से घड़ी की सुइयां
लायेंगी वापस वही समय,
वहीँ, जहाँ शुरू हुआ था सब कुछ।
हाँ, वो सब कुछ!