Tuesday, October 23, 2012

एक और मौत, फिर वही बेचैनी और फिर वही दौड़ती भागती ज़िन्दगी

शाम के साढ़े चार बजे थे। सुबह वार्ड की थकान को मिटाने वो आराम से अपने कमरे में सो रहा था। दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ चल रही थी। वार्ड में ज्यादा पेशेंट थे नहीं। पिछले हफ्ते जिनका ओपरेशन हुआ था वही 3-4 बचे थे बस। एक को छोड़कर सब स्टेबल हो गए थे। एक की हालत थोड़ी गंभीर बनी हुई थी, बेड नंबर 61। उसी के चक्कर में सुबह से 3-4 दफे वार्ड के चक्कर लगाने पड़े थे। उसी की थकान थी जो अमूमन दिन में कभी न सोने वाला वो आज सो रहा था। तभी वार्ड से फ़ोन आया। सिस्टर ने इन्फॉर्म किया था, 61 नंबर की हालत बहुत ख़राब थी। जितनी जल्दी हो सका वो वार्ड में था। 61 नंबर अपनी आखिरी सांस ले चुका था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था। आज सुबह हालत गंभीर थी मगर फिर भी बातें कर रहा था। खराब होने की उम्मीद थी मगर इतनी जल्दी हो जायेगा इसका अहसास नहीं था। दुबारा ओपरेशन करने के बारे में अभी सोचना शुरू ही तो किया था। मौत को भी न जाने कौन सी हड़बड़ी थी, शायद शाम में महा-अष्टमी के मेले में पंडालों में घुमने जाना था उसे।

मौत की फोर्मलिटी पूरी करके वो वापस अपने कमरे में आ चुका था। दुखी, अकेला और एक हद तक सन्न। जब से इस पेशे में आया है, कई मौतें देख चुका है। कोई नयी बात नहीं थी। फिर भी एक अजीब किस्म की बेचैनी थी। शायद उसकी मौत का जिम्मेदार एक हद तक अपने आप को मान रहा था। शायद वो उसे बचा सकता था। मगर कैसे। दिल था जो कह रहा था कि ये संभव था, दिमाग जानता था ऐसी मौतों को टाला नहीं जा सकता। लाख पन्ने पढने के बाद भी कभी कभी दिल दिमाग पर इस कदर हावी हो जाता है कि दिमाग की सोचने की शक्ति जाती सी लगती है। ये ऐसा ही एक समय था, जब दिल दिमाग पर हावी हुआ जा रहा था।

कमरे में बैठा वो उस दिन को याद कर रहा था जिस दिन वो पेशेंट वार्ड में एडमिट हुआ था। एक गोरा-चिट्टा भरा-पूरा अच्छे घर का दिखने वाला 46 साल का आदमी। उसने खुद बताया था, "डाक्टर बाबु! पेट में कैंसर है। शरीर में खून भी ख़त्म हो गया है। बिना खून के ओपरेशन कैसे होगा। ऊपर से हार्ट का भी रोग है। ज़िन्दगी बर्बाद हो गया है। खाली अस्पताल और डाक्टर लोग का चक्कर। एकदम परेशान हो गए हैं।" होठों के किनारों में एक मुस्कराहट आ गयी थी। शरीर में खून ख़त्म हो गया है की बात से। मैंने कहा था, "खून नहीं रहता शरीर में तो जिंदा थोड़े रहते। कुछ नहीं होगा, खून चढ़ेगा, ओपरेशन होगा, ठीक हो जाईयेगा एकदम। चिंता नहीं करिए।"

वही चेहरा बार बार उसकी आँखों के सामने आ रहा था। आँखें बंद करता तो बेड के किनारे नीचे  बैठकर चीत्कार करती पेशेंट की पत्नी याद आती। दिन भर भूखा-प्यासा खून के इंतज़ाम के लिए दौड़ता उस पेशेंट का बेटा याद आता जो अपने बाप की मौत की खबर सुनते वही वार्ड में ही बेहोश हो गया। वो सारी आँखें उसे अपनी ओर उठती और सवाल करती दिखती थी। विचलित करती, उसे परेशान करती। उसका दिल उन सभी आँखों का गुनाहगार उसे ठहरा रहा था। एक बेचैनी उसके मन में घर कर रही थी। तकरीबन आठ बज गए थे। बाहर महा-अष्टमी के मेले की धूम शुरू हो चुकी थी। चारों ओर से लाउड-स्पीकर की आवाज़े कानों में आ रही थी। घुमने जाने का प्रोग्राम उसका भी था, दोस्तों के साथ, मगर दिल इजाज़त नहीं दे रहा था।

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रात के दो बज चुके थे। थका-हारा वो अपने कमरे में आ चुका था। बंगाल में आया और दुर्गा पूजा का मजा नहीं लिया तो क्या किया। यही बोलकर उसके दोस्त उसे उठाकर घूमने ले गए थे। माँ के पंडाल, पंडालों की भीड़ और भीड़ में बंगालन सुंदरियां। जब कॉलेज के दोस्त साथ होते हैं तो सुंदरियां अजेंडे में सबसे ऊपर होती है। हमारे अजेंडे में वो सबसे ऊपर नहीं थी, क्यूंकि उन्हें छोड़कर अजेंडे में कोई था ही नहीं। थोड़ी मस्ती हुई, घूमकर सब वापस आये। दिल शांत हो चुका था। दिमाग ने एक बार फिर दिल के ऊपर जीत हासिल की थी। मन मान चुका था कि कई बार सब कुछ करने के बाद भी मौत को टालना अपने हाथ में नहीं होता। मौत सबसे ऊपर है, सबसे ताक़तवर। ये एक जीवन-चक्र है, हमारी ज़िन्दगी का। रोज़ नए पेशेंट आयेंगे। मीठी-मीठी बाते होंगी, इलाज़ होगा। कई ठीक हो जायेंगे, कई मौत के साथ अपनी जंग हार जायेंगे। कुछ को मौत जंग लड़ने का मौका भी नहीं देगी, यूँही साथ लेकर चली जाएगी। जैसे उसे ले गयी थी, बेड नंबर 61 को।


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आज वार्ड से लौटकर जब ये ब्लॉग लिखने बैठा हूँ तो सोच रहा हूँ, मौत कितनी कमीनी होती है। कभी भी किसी को भी अपने साथ उठाकर ले जाती है, और हम कुछ कर नहीं पाते। थोडा उदास होते हैं, कभी कभी थोड़ी बेचैनी भी होती है, मगर कितनी देर। इस पेशे में हूँ तो शायद ज्यादा देर उदास होने या बेचैन होने की इजाज़त भी नहीं है। मगर क्या इस पेशे का नाम लेकर इंसानियत से दूर हुए अपने अहसासों को सही ठहराना खुद सही है। एक ऐसा पेशा खुद चुना है जिसमे ज़िन्दगी और मौत की ये लड़ाई हर रोज़ चलती मिलेगी और उसमे रेफरी के अपने किरदार को हमेशा निभाना पड़ेगा। युद्ध शुरू होने के पहले की अर्जुन की दुविधा कही न कही हमारे पेशे में भी घर करती मिलती ही है। फर्क सिर्फ इतना रह जाता है कि अर्जुन को खुद बाण चलाने थे और वो भी अपने भाइयों पर। हमें बाण नहीं चलाना होता। हमें जिनकी चिंता होती है वो हमारे अपने भी नहीं होते। मगर फिर भी। एक पेशेंट के लिए भगवान के बाद का दर्जा हमें दिया जाता है। जिसकी तकदीर में वो मौत लिख देता है, उसे भी हमारे पास भेजता है। शायद हमें ये याद दिलाने कि हम भगवान नहीं, उसके बाद दुसरे नंबर पर ही हैं।    

Wednesday, October 17, 2012

फिर से लिखेगा वो!!!

कमरे में वो अकेला बैठा हुआ था। न जाने कितनी देर से। बाहर धीरे धीरे अँधेरे ने घर कर लिया था और उसे इसका अंदाजा तक न लग सका। कानों में इयरफोन लगाए लैपटॉप के आगे बैठा गाने सुन रहा था, गुलाल फिल्म के। गीत के भयानक बोलों में खोया था या किसी और उलझन में, पता नहीं। बस समय का अंदाजा नहीं लग रहा था उसे। यूँही बैठा लैपटॉप खोले अपने ही ब्लॉग के पुराने पोस्ट्स पढ़ रहा था। वहीँ बिस्तर पर बगल में वो नोवेल भी रखी थी जिसे उसने लगभग 3-4 महीने पहले पढना शुरू किया था मगर चंद पन्नों के आगे कुछ भी नहीं पढ़ पाया। कुछ सोच रहा था। शायद खुद को उलाहने भी दे रहा था।

वो भी क्या समय था। लैपटॉप पर बैठा ब्लॉग खोलता और शब्द यूँही निकलने लग जाते। कभी अपनी मनःस्थिति के बारे में तो कभी आस-पास की गतिविधिओं के बारे में। कुछ भी। बस लिखता रहता था। 2 साल हो गए। ढंग से कुछ भी नहीं लिखा था उसने। ब्लॉग मर सा गया था उसका। और शायद उस मरे हुए ब्लॉग के सामने बैठा उसी के शोक में डूबा हुआ था। कई बार समय की कमी का बहाना बनाया, कई बार प्रायोरिटी लिस्ट में ब्लॉग के काफी नीचे होने का हवाला भी दिया। बहानों की कभी कोई कमी नहीं रही। बहाने कोई भी हो, परिणाम एक ही था। एक ही तो भली आदत थी उसकी, उसने उसे भी आसानी से जाने दिया था। शायद उस आदत की ही यादों में कहीं खोया हुआ था।

ज़िन्दगी चलते चलते काफी आगे निकल गयी थी। ज़िन्दगी के साथ चलता तो साथी छूट जाते थे और साथ निभाता था तो ज़िन्दगी भागती चली जाती थी। अजीब उधेड़बुन में फंसा हुआ था। न घर का न घाट का। ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने उसे कही अलग अकेला लाकर खड़ा कर दिया था। जिसके सहारे ज़िन्दगी जीने के सपने देखे थे उसने, वो तो कहीं पीछे ही छूट गयी थी। बहुत पीछे। पीछे मुड़कर उसे पुकारता तो भी वो सुन नहीं पाती। समय ने एक ऐसी खाई खड़ी कर दी थी जिसे पाटना तो दूर, गहराई को बढ़ने से भी वो रोक नहीं पा रहा था। वही तो एक सहारा था जो उसकी हर आदत का आधार थी। जब आधार ही खो दिया था उसने तो आदतें कहाँ बचतीं।

पहले जब प्यार की बातें होती थी तो खुश रहता था। खुश रहता था तो यूँही सबकुछ अच्छा लगता था। अकेला बैठना भी तब अच्छा लगता था। कुछ करने का जी करता था। कुछ भी करता था। अक्सर लिखता था। जब तकरार होती थी, तब भी लिखता था। कभी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए, कभी मन की भड़ास निकालने के लिए। अक्सर लिखता था। आज न प्यार होता है, न ही तकरार। न खुश ही रहता है, न दुखी ही होता है। Indifferent सा हो गया है। अपनी तरफ, अपनी ज़िन्दगी की तरफ, अपने उस सहारे की तरफ। आदतें छूट गयी हैं।

दिल ही नहीं करता कुछ भी करने का। कहीं भी मन नहीं लगता। बस अकेला बैठा रहता है कमरे में। यूँही। खिड़की के बाहर अँधेरे को गिरता देखता रहता है। उस अँधेरे को जिसने उसके अन्दर घर कर लिया है। रातें उसे अपनी अपनी सी लगने लगी हैं। शायद रात के अँधेरे में वो अपने मन के अँधेरे को देखता है। सुबह होने की कोई चाहत नहीं बची है अब उसके मन में। अँधेरे की ऐसी आदत लगी है कि शायद सूरज की रौशनी अब उसकी आँखों को चौंधियाने के अलावा कुछ भी नहीं करती। आँखें बंद हो जाती है रौशनी में या कि वो खुदबखुद कर लेता है, पता नहीं। पर जो भी हो, बंद आँखों से वो रौशनी उसके अन्दर के अन्धकार को ख़त्म नहीं कर पाती। ख़त्म नहीं कर पाती या वो उसे ख़त्म करने देना नहीं चाहता, पता नहीं। शायद उसे उस पुरानी रौशनी का ही इंतज़ार है जिसने उसकी ज़िन्दगी को रौशन रखा था। इंतज़ार है उसे उसी रौशनी का। आएगी वो एक दिन उसके पास, उसके मन के अंधेरों में और ख़त्म होगा वो अँधेरा। फिर से रौशन होगी उसकी ज़िन्दगी, फिर से खुश होगा वो प्यार की बातों से। फिर से दुखी होगा तकरारों से। फिर से ज़िन्दगी जीना शुरू करेगा वो। फिर से लिखेगा वो!!!