तकरीबन चार साल बीत गए हैं। इसी ब्लॉग में एक पोस्ट लिखा था फ़िल्म इश्क़िया के बारे में और फ़िल्म देखने के बाद याद आये अपने कॉलेज के शुरूआती दिनों के बारे में। फ़िल्म में खुल कर देशी पुरबिया गालियों के प्रयोग से लेकर सूती साड़ी में लिपटी विद्या बालन का गज़ब का सेक्सी दिखने तक ने बड़ा ही प्रभावित किया था। कुछ सालों बाद जब फ़िल्म के सीक्वल बनने की बात सामने आयी तब से ही इस नयी फ़िल्म को देखने की बड़ी तमन्ना दिल में थी। काफी इंतज़ार के बाद जब डेढ़ इश्क़िया रिलीज हुई तो सिनेमा हॉल में जाकर इस फ़िल्म को देखने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया।
फ़िल्म की कहानी पिछली फ़िल्म की तरह ही उत्तर प्रदेश में आधारित है। फ़िल्म की शुरुआत फिर से उसी कब्रिस्तान से होती हैं जहां से पिछली फ़िल्म की शुरुआत होती है। खालू जान और बब्बन एक बार फिर अपने सरदार मुश्ताक़ के कब्जे में हैं और बब्बन अपनी आखिरी ख्वाहिश में फिर से वही लतीफा सुनाता है। वही दो साधू तोते और गालियां बकने वाली तोती की कहानी। इस बार कहानी एक पायदान आगे तक पहुँचती है मगर फिर भी जाते जाते फ़िल्म की आने वाली कहानी के बारे में इशारा करती हुई ही जाती है। दर्शक समझ चुका होता है कि फिर से इन दोनों की ज़िन्दगी में कोई औरत तूफ़ान लाने वाली है। तूफ़ान की शुरुआत होती है वहीँ कब्रिस्तान में जहां मुश्ताक़ के चंगुल से दोनों उसकी ही गाड़ी में फरार हो जाते हैं और शुरू होता है भागम-भाग और चोरी-छिपे के खेले के बीच एक नया सस्पेंस।
पिछली फ़िल्म का गोरखपुर का बैकड्रॉप इस बार उठकर पहुँचता है नवाबों कि नगरी लखनऊ के पास एक छोटे से कसबे महमूदाबाद में। इसके साथ ही पुरबिया की खालिस क्रुडनेस इस बार बदल जाती है नवाबों की अदबियत में। बेग़म पारा के सालाना जलसे में उनका दिल जीतने की तमन्ना लिए हुए आये नवाबों में एक खालू जान भी शिरकत करते हैं। पहली फ़िल्म में खुले आम गालियां बकने वाला खालू इस बार शायरी करता हुआ नज़र आता है। बेग़म पारा की खूबसूरती में फ़िदा हुआ खालू बब्बन के साथ एक शाजिश में धँसता चला जाता है। पहली फ़िल्म की तरह ही इश्क़ करने की फितरत में इस बार फिर बेमतलब दूसरों के फटे में टांग अड़ाते हुए दोनों नयी नयी मुसीबत में फंसते चले जाते हैं।
सीक्वल होने के कारण सस्पेंस थोड़ा कमजोर होता लगता है और कहानी का पूर्वाभाष काफी हद तक हो जाता है। इसके बावजूद डेढ़ इश्क़िया पहली फ़िल्म की तरह ही प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहती है। विशाल भरद्वाज की चिर-परिचित शैली में बनी यह noir-comedy फ़िल्म भी रंग जमाती हुई अपनी छाप छोड़ती है। संगीत और गाने हालांकि पिछली फ़िल्म से काफी कमजोर हैं और कहीं से भी गुलज़ार-विशाल भरद्वाज की जोड़ी के नाम के साथ न्याय नहीं करते। फिर भी सब मिलाकर पिछले काफी दिनों के बाद एक ऐसी फ़िल्म देखने का मौका मिला जिसे देखकर काफी अच्छा लगा। अब तो बस डेढ़ के बाद ढाई इश्क़िया के इंतज़ार में.…