Wednesday, January 29, 2014

डेढ़ इश्क़िया


तकरीबन चार साल बीत गए हैं। इसी ब्लॉग में एक पोस्ट लिखा था फ़िल्म इश्क़िया के बारे में और फ़िल्म देखने के बाद याद आये अपने कॉलेज के शुरूआती दिनों के बारे में। फ़िल्म में खुल कर देशी पुरबिया गालियों के प्रयोग से लेकर सूती साड़ी में लिपटी विद्या बालन का गज़ब का सेक्सी दिखने तक ने बड़ा ही प्रभावित किया था। कुछ सालों बाद जब फ़िल्म के सीक्वल बनने की बात सामने आयी तब से ही इस नयी फ़िल्म को देखने की बड़ी तमन्ना दिल में थी। काफी इंतज़ार के बाद जब डेढ़ इश्क़िया रिलीज हुई तो सिनेमा हॉल में जाकर इस फ़िल्म को देखने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया।

फ़िल्म की कहानी पिछली फ़िल्म की तरह ही उत्तर प्रदेश में आधारित है। फ़िल्म की शुरुआत फिर से उसी कब्रिस्तान से होती हैं जहां से पिछली फ़िल्म की शुरुआत होती है। खालू जान और बब्बन एक बार फिर अपने सरदार मुश्ताक़ के कब्जे में हैं और बब्बन अपनी आखिरी ख्वाहिश में फिर से वही लतीफा सुनाता है। वही दो साधू तोते और गालियां बकने वाली तोती की कहानी। इस बार कहानी एक पायदान आगे तक पहुँचती है मगर फिर भी जाते जाते फ़िल्म की आने वाली कहानी के बारे में इशारा करती हुई ही जाती है। दर्शक समझ चुका होता है कि फिर से इन दोनों की ज़िन्दगी में कोई औरत तूफ़ान लाने वाली है। तूफ़ान की शुरुआत होती है वहीँ कब्रिस्तान में जहां मुश्ताक़ के चंगुल से दोनों उसकी ही गाड़ी में फरार हो जाते हैं और शुरू होता है भागम-भाग और चोरी-छिपे के खेले के बीच एक नया सस्पेंस।

पिछली फ़िल्म का गोरखपुर का बैकड्रॉप इस बार उठकर पहुँचता है नवाबों कि नगरी लखनऊ के पास एक छोटे से कसबे महमूदाबाद में। इसके साथ ही पुरबिया की खालिस क्रुडनेस इस बार बदल जाती है नवाबों की अदबियत में। बेग़म पारा के सालाना जलसे में उनका दिल जीतने की तमन्ना लिए हुए आये नवाबों में एक खालू जान भी शिरकत करते हैं। पहली फ़िल्म में खुले आम गालियां बकने वाला खालू इस बार शायरी करता हुआ नज़र आता है। बेग़म पारा की खूबसूरती में फ़िदा हुआ खालू बब्बन के साथ एक शाजिश में धँसता चला जाता है। पहली फ़िल्म की तरह ही इश्क़ करने की फितरत में इस बार फिर बेमतलब दूसरों के फटे में टांग अड़ाते हुए दोनों नयी नयी मुसीबत में फंसते चले जाते हैं।

सीक्वल होने के कारण सस्पेंस थोड़ा कमजोर होता लगता है और कहानी का पूर्वाभाष काफी हद तक हो जाता है। इसके बावजूद डेढ़ इश्क़िया पहली फ़िल्म की तरह ही प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहती है। विशाल भरद्वाज की चिर-परिचित शैली में बनी यह noir-comedy फ़िल्म भी रंग जमाती हुई अपनी छाप छोड़ती है। संगीत और गाने हालांकि पिछली फ़िल्म से काफी कमजोर हैं और कहीं से भी गुलज़ार-विशाल भरद्वाज की जोड़ी के नाम के साथ न्याय नहीं करते। फिर भी सब मिलाकर पिछले काफी दिनों के बाद एक ऐसी फ़िल्म देखने का मौका मिला जिसे देखकर काफी अच्छा लगा। अब तो बस डेढ़ के बाद ढाई इश्क़िया के इंतज़ार में.… 

Saturday, January 11, 2014

"नानी तुम सच में चली गयी?"

शाम के लगभग पौने सात-सात बजे होंगे। दिन भर किसी सेमिनार से थका-हारा हॉस्टल के अपने कमरे में घुसा ही था। मोबाइल को चार्ज में लगा कर पलटा ही था कि उसी मोबाइल की रिंग बज उठी। पापा का फ़ोन था। शाम के उस समय में उनका फ़ोन आना थोड़ा अटपटा लगा था। फ़ोन उठाया और पापा के हेल्लो बोलने के अंदाज़ ने ही मन में थोड़ी बेचैनी पैदा कर दी थी। फ़ोन पर आने वाली आवाज़ में एक अजीब तरीके की मनहूसियत का अहसास हो रहा था। माहौल के ग़मज़दा होने का बोध बिना कुछ बोले ही हो रहा था। कुछ अटपटी अनहोनी की आशंका ने अभी मन में घर करना शुरू किया ही था कि पापा की आवाज़ आयी। 'नानी नहीं रहीं'। इसके आगे न पापा ने कुछ कहा और न मैंने ही कुछ और सुनने की कोशिश की। फ़ोन रख दिया।

एक दिन पहले फ़ोन पर मम्मी से बात हुई थी। नानी की तबियत पहले से ठीक हुई है, मम्मी ने बताया था। थोड़ी परेशान थी। बोल रही थी कि नानी अब ज्यादा दिन बचेगी नहीं। बेचैन थी, बोली एक बार जाकर मिलने का मन कर रहा है।  जल्दी ही जाने का प्रोग्राम बन रहा था। पापा के इस फ़ोन से अचानक एक दिन पहले की ये बातें याद आयी। कहते हैं कई बार यूँही कह दी गयी बात भी भगवान सुन लेता है और बात सच हो जाती है। अगले ही पल मन से एक धिक्कार भगवान के नाम की निकली। तुझे सुनना ही था तो ये बात। फिर याद आया कि इस खबर से मम्मी की क्या हालत हो रही होगी, और मैंने पापा से पूछा भी नहीं। तुरंत पापा को फ़ोन किया और बोल दिया कि मैं आ रहा हूँ। सोचा अभी स्टेशन चला जाउंगा तो किसी न किसी ट्रेन से सुबह तक पहुँच जाऊँगा। 

एक घंटे बाद ट्रेन में बैठा था। बिना रिजर्वेशन के। टीटी को कुछ पैसे दिए और एक सीट मिल गयी। रात भर का समय यूँही बैठे-बैठे कट गया। सोच रहा था कि नानी से तो कभी भी इतनी नजदीकी नहीं थी, फिर भी इतनी बेचैनी कैसे। फिर लगा जिनसे खून का रिश्ता होता है उनसे नजदीकी उनकी गोद में खेलकर या बैठ कर उनके साथ बातें करने से नहीं होती। खून का रिश्ता आखिर खून का ही होता है। कोसों दूर सात समंदर पार रहने वाला इंसान भी हमेशा अपनी बगल में ही महसूस होता है। कुछ ऐसा ही रिश्ता मेरा नानी के साथ था। 

शायद ही हमारे देश में कोई ऐसा बचपन होगा जो बिना नानी की कहानियों के बीता होगा। मेरा बचपन कुछ ऐसा ही था। बचपन में कहानियाँ तो कई सुनी, मगर नानी से एक भी नहीं। कहानियाँ नाना जी ही सुनाते थे और इसलिए घनिष्ठता उनसे ही अधिक थी। नाना जी के रहने से नानी के वहाँ नहीं होने की कोई कमी नहीं खलती थी। फिर क्यूँ आज नाना जी के रहते हुए नानी के चले जाने से इतनी बेचैनी हो रही है। आखिर समय पर खाने-पीने का पूछने के अलावा नानी से कभी और बात भी नहीं किया। फिर भी ट्रेन में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि कल जब बथुआ पहुँचूँगा तो अपने कोठरी के चौखट पर बैठी, इंतज़ार करती हुई नानी वहाँ नहीं होगी। कैसा लगेगा वो खाली चौखट!

सुबह जब बथुआ पहुँचा तो नानी वहीँ थी। अपने उसी कोठरी के चौखट के पास। बैठी नहीं थी, लेटी हुई थी। आँखें बंद, मानो गहरी नींद में सोती हुई। मम्मी वहीँ पास में बैठी रो रही थी। आँखों ने सबसे पहले नाना जी को ढूँढा था। बाहर कुर्सी पर बैठे रो-रोकर बुरा हाल हो रखा था। आधी सदी से ज्यादा वक़्त जिसके साथ बिताया था वो उन्हें छोड़कर चली गयी थी। आँखों से निरंतर आंसू मेरे भी निकल रहे थे। नानी के चले जाने का ग़म ज्यादा था या नाना जी की बची हुई ज़िन्दगी के खालीपन की तकलीफ ज्यादा थी, यह बात आज भी समझ नहीं आयी।

अर्थी को कांधा देकर श्मशान तक पहुँचाना और फिर उसे चिता पर रख कर आग लगा देना बड़ा अज़ीब लग रहा था। जब बांस काटकर उसका बल्ला बनाकर बचपन में खेलता था तो यही नानी मारे चिंता के न जाने कितनी बार टोकती थी कि ध्यान से कहीं हाथ न कट जाये। आज उनको ही कटे हुए बांस की बनी अर्थी पर लिटा दिया। आग की लपटों में देखकर ऐसा लग रहा था कि मेरा कोई हिस्सा जल रहा हो। दुनिया की भी क्या अजीब रीत है! जिस बेटे को माँ ज़िन्दगी भर हर तरह के तकलीफों से दूर रखती है, जिसके लिए सारा दुःख-दर्द अपने ऊपर ले लेती है उसी बेटे के लिए सबसे बड़ा पुण्य का काम उस माँ को आग देना होता है। फूट-फूट कर रोते हुए नानी को आग देते हुए मामू का वो चेहरा आज भी भुलाये नहीं भूलता। उनके मन में क्या चल रहा होगा। अपनी माँ को आग की लपटों में डाल देने की शक्ति उनमें कहाँ से आयी होगी। अपनी माँ को जलते हुए देखकर उनका खुद का कितना बड़ा हिस्सा जल कर ख़ाक़ हो गया होगा।

किसी के चले जाने से दुनिया रुक नहीं जाती। कुछ समय के लिए जीवन अधूरा जरुर लगता है मगर ख़त्म नहीं होता। ऐसी ही बातें ऐसे समय में अपने आप का ढांढस बढ़ाने के काम आती हैं, अपने आप को साहस देती हैं। नानी जा चुकी थी। राख बनकर वहीँ श्मशान की मिट्टी में मिल चुकी थी। पूरी ज़िंदगी जितना उनके साथ बिना बात नहीं किये हुए बिता दिया, उसकी भरपाई करने की इच्छा अब उनके जाने के तीन-साढ़े तीन महीने बाद भी होती रहती है। हर वक़्त जब भी नानी का चेहरा आँखों के सामने आता है, कई सवाल मन में उठने लगते हैं। अंतिम सवाल हमेशा एक ही होता है, "नानी तुम सच में चली गयी?"     
         

Thursday, January 09, 2014

कन्फेशन!

उफ्फ़! फिर वही कन्फेशन। एक पूरा साल बीत गया। कभी अंदाजा ही नहीं लगा। इतने दिन बीत गए इधर आये हुए। ऐसा कुछ भी नहीं कि 13 अंक से कोई नफरत हो या वैसा कुछ अंधविश्वास कि 2013 में कुछ काम ही न करूँ। वक़्त के लहरों में न जाने कब पूरा एक साल बह निकला, इसका अहसास ही कभी नहीं हो सका। पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग की याद आ रही थी और आज जब इस ओर आना हुआ तब जाकर पता चला कि यहाँ कभी अच्छा-ख़ासा समय बिताने वाला मैं पिछले पूरे साल में कभी आया ही नहीं।

हर बार जब भी इस तरह का एक बड़ा अंतराल आया है तो कहीं न कहीं मन में सवाल उठते हैं इस ब्लॉग की जरुरत को लेकर। आत्मचिंतन करने को मन विवश हो उठता है और सबसे बड़ा सवाल इस ब्लॉग के पूरे अस्तित्व को लेकर ही उठ खड़ा होता है। आखिर वह कौन सी जरुरत थी या ऐसा क्या शौख था कि इस ब्लॉग पर मैं कभी इतना समय बिताया करता था। और अब मेरी ज़िन्दगी में ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं कि न अब वो जरुरत रही और न ही वो शौख।

हालांकि, क्रिएटिविटी हमेशा से अकेलेपन की नाजायज़ औलाद की तरह रही है। इस ब्लॉग पर मेरी क्रिएटिविटी, मगर, सबसे ज्यादा उन दिनों में ही रही जब मैं घर में रहता था, कॉलेज में पढाई कर रहा था और दोस्ती और रिश्तेदारी अपने चरम पर थी। आज अकेला हॉस्टल में रहता हूँ। दोस्ती सीमित है और रिश्तेदारी एसटीडी फ़ोन कॉल्स पर निर्भर रह गयी है। फिर भी कभी ब्लॉग्स का ख्याल मन में नहीं आया, ये थोड़ा अचंभित करने जैसा लगता है।

ब्लॉग नहीं लिखने का कारण हमेशा एक ही बहाने पर थोपता रहा हूँ। लिखने को कुछ था ही नहीं। इस बार ये बात हज़म होने वाली नहीं लगती। एक आदमी की ज़िन्दगी में पूरे एक साल से भी ज्यादा के समय में कुछ महत्त्वपूर्ण हुआ ही नहीं हो, ये कहीं से नहीं पचता। व्यक्तिगत ज़िन्दगी से लेकर पारिवारिक और सांसारिक ज़िन्दगी में कई बदलाव पिछले पूरे साल ने देखे। 6 साल पुराने प्यार की शादी ठीक होने से लेकर साल के अंत में शादी होने तक की पूरी यात्रा ही ब्लॉग पर बार बार आने के लिए काफी थी। परिवार की कुछ दुःखद घटनाओं का दर्द भी यहाँ बांटा जा सकता था, मगर नहीं।

वक़्त नहीं मिला का बहाना भी नहीं चल सकता इस बार। जितना वक़्त इंटरनेट की गोद में इस पूरे साल में बीता है उतना शायद ही कभी और बीता होगा। बैठे बैठे Youtube पर न जाने कितने विडियो देख डाले। फेसबुक पर इतना समय बिताया कि अब ऊब सी हो गयी है और दिन में कभी कभार कुछ पलों के लिए ही उधर जाता हूँ और बंद कर देता हूँ। शायद उसी ऊबाई का नतीजा है कि फिर से ब्लॉग की तरफ आने का मन किया।

देश दुनिया की ख़बरें पिछले साल ऐसी रही जिसने सोचने को मजबूर किया। अन्ना के आंदोलन से आप के अस्तित्व में आने तक और फिर उसी आप की ऐतिहासिक जीत ने मन में कई सवाल खड़े किये। उन सवालों या उनसे जुड़ी स्थितियों पर अपने नजरिये के साथ कई बार ब्लॉग पर आया जा सकता था, लेकिन नहीं।

इसके पहले भी कई बार इस ब्लॉग के साथ मैंने बेवफाई की है। हर बार वादे के साथ लौटा हूँ कि ये एक नई शुरुआत है। हर बार उम्मीद रही है कि आगे ऐसा मौका नहीं आने दूंगा। उम्मीद इस बार भी है मगर वादा इस बार नहीं करूंगा। कहीं न कहीं वादाखिलाफी के डर से ज्यादा भरोसा अपने आलसीपने पर है जो शायद फिर से मुझे मेरे ब्लॉग से दूर ले जाये। इसी डर और भरोसे की ज़ंग के बीच उम्मीद करता हूँ इस ब्लॉग पर क्रिएटिविटी ज़िंदा रहे.…