Wednesday, February 17, 2010

गालियों की हमारी यात्रा!

कल रात इश्किया फिल्म देखा। बड़ा अच्छा लगा। गोरखपुर में आधारित यह फिल्म हर तरह से पूर्वांचल की खुशबू को अपने साथ लेकर आई है। हर डायलोग में अपनेपन की झलक आ रही थी। ग्रामीण परिवेश में ही फिल्म के ज्यादातर सीन फिल्माए गए हैं। दो बाते फिल्म की बड़ी पसंद आई। एक तो बात बात पर गालियों का प्रयोग मुझे अपनी जिंदगी में पीछे जाकर कुछ मीठी यादों को जीने का बहाना दे गया। और दूसरी बात जो अच्छी लगी वो थीं विद्या बालन। साला कौनो लईकी सूती सारियो में अईसन माल लग सकत है, अंदाजा नइखे था। का लगी है बे विद्या बालन इ सनीमा में! साला हम तो फिर से फ़िदा हो गए!
फिल्मों के बारे में इस ब्लॉग पर पहले कई पोस्ट लिख चुका हूँ। इस फिल्म पर भी कुछ लिखने की सोच रहा हूँ, मगर बाद में कभी। अपनी मीठी यादों, जिनका ज़िक्र पहले कर चुका हूँ, के बारे में इस पोस्ट पर कुछ लिखने जा रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ कि ये पेशकश पसंद आएगी।
इस फिल्म में कई जगह गाली के रूप में सल्फेट शब्द का प्रयोग हुआ है। यह शब्द सुनते ही 8वीं या 9वीं क्लास याद आ गयी। केमिस्ट्री की क्लास में हाईड्रोजन सल्फेट, कैल्सियम सल्फेट, सोडियम सल्फेट इत्यादि के बारे में पढाई होती थी। किसी होनहार साथी ने कहीं से 'चुतिया' नामक एक गाली को यूँही इनसे मेल खिला कर 'चुतियम सल्फेट' का नाम दे दिया था। ये उसके दिमाग की उपज थी या कहीं से उसने उठाया था, इसके बारे में हमारे पास कोई जानकारी नहीं थी। बस इतना था कि हमें ये उपज काफी पसंद आई थी। हालांकि, बदमाशियां हम भी कम नहीं किया करते थे मगर मार-पीट और गाली-गलौज वाली बदमाशियों से हमें परहेज ही था। इनके प्रति उतनी उदारता तब तक नहीं आ पाई थी हमारे पास। फिर भी सुनने में चूँकि चुतियम सल्फेट काफी अच्छा लगा था, इस्तेमाल न करने के बावजूद ये याद रह गया। फिल्म में भी सल्फेट का इस्तेमाल इसी रूप में किया गया है। जहां ज्यादातर किरदारों ने सिर्फ सल्फेट से काम चलाया है वहीँ एक जगह इसका विस्तारीकरण भी किया गया है। आज ही मालूम हुआ कि 8वीं में जो तथाकथित आविष्कार हमारे मित्र ने किया था वो काफी प्रचलित है। गालियों के प्रति अपनी जिंदगी में आये बदलावों को ही आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
बिहार में भागलपुर जिले से मूलरूप से आता हूँ। जहाँ बिहार में मिथिला-क्षेत्र वाले अपनी मीठी जुबान के लिए जाने जाते हैं वहीँ हम भागलपुर के अंग-प्रदेश वाले अपनी लठमार लंठ बोली के लिए मशहूर हैं। इस क्षेत्र में लोगों का मुंह किसी की बड़ाई के बारे में भी खुलता है तो उसमे एकाध गाली जरूर होती है। अब एक उदाहरण दे ही देता हूँ। साढ़े चार साल पहले जब मैं मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ तो गाँव के एक चाचा ने साथ बैठे अपने मित्र को ये खबर कुछ इस तरह सुनाई, "जानै छै रे, रंजन दा के बेटा मेडिकल में कम्पिट करी गेलै। बेटीचोदा बड्डी तेज छै।" इससे अंदाज लग ही गया होगा हमारे क्षेत्र की बोली के बारे में। इस क्षेत्र से आने के बावजूद भी, चूँकि बचपन से ही शहर में ही रहा हूँ, गालियों के प्रति कोई खास रुझान नहीं आ सका। 4थी- 5वीं तक तो गालियाँ बिलकुल भी नहीं बोलता था। राह चलते कई बार कई गालियाँ सुना, मगर इन्हें संस्कारहीनता की निशानी समझकर कभी कोई गौर नहीं किया। हालत ये थी कि 'साला' छोड़ कर कोई गाली आती भी नहीं थी। धीरे धीरे बड़े होते गए। पढ़ाई के प्रति कभी बहुत ज्यादा सीरियस नहीं था मगर हमेशा क्लास में अच्छा रिजल्ट आने के कारण पहचान पढ़ने-लिखने वाले लड़कों में ही होती थी। इसलिए कभी वैसे लोगों से ज्यादा निकटता भी नहीं हो पाई जहाँ से गालियाँ सीख पाते। वो लोग भी बच्चा समझ कर मेरे सामने परहेज ही करते थे। परिणाम ये हुआ कि मेट्रिक पास करते करते भी अपनी डिक्शनरी में गालियों के कॉलम में 10-12 गाली ही आ सके थे, हालांकि इस्तेमाल करने की हिम्मत एक-दो छोटी वाली की ही होती थी।
मेट्रिक के बाद, 11वीं में अपने 3 इडियट्स की तिकड़ी के बारे में पहले भी बता चूका हूँ। हम तीनों गालियों के मामले में बिलकुल अलग थे। जहा एक भाई साहब का मुंह खुलता था कि 2-4 गाली बरस पड़ते थे वही दुसरे ने कसम ले रखा था कि कभी किसी को कोई गाली नहीं बकेगा। मेरी स्थिति इन दोनों के बीच में थी। अपने क्षेत्र की रंगत धीरे-धीरे चढ़ रही थी और गालियों के प्रति अपना रुझान बन चुका था। गालियाँ बकने में कोई परहेज नहीं था मगर गालियाँ अपने पास थी ही नहीं। अपने मित्र को ही अपना गुरु बनाया और काफी सारी गालियाँ उससे सीख ली। एक सच्चे गुरु की तरह वो भी मुझे गालियों को उनके मतलब और प्रयोग के साथ समझाता गया और मैं भी भले शिष्य की तरह सब कुछ ग्रहण करता गया। इस सब के साथ उसने मुझे गालियों के परस्पर स्तर को भी समझाया कि ये छोटा, इससे बड़ा ये और फिर ये। कई सारी गालियाँ अपने डिक्शनरी में जुड गयीं मगर फिर भी उतनी उदारता से सब का इस्तेमाल नहीं कर पाता था। माँ-बहन कि गालियाँ इनमे सबसे प्रमुख थीं। इनका इस्तेमाल करने की इजाज़त मैं कभी अपने आप को दे ही नहीं पाया। बेटी की गाली फिर भी हमलोग इस्तेमाल कर लिया करते थे। इसके लिए बाजाब्ता विवेचना भी हुई थी क्लास में। चूँकि अभी तक किसी को बेटी नहीं है और न ही निकट भविष्य में होने की संभावना है, ये सोच कर अंत में निर्णय लिया गया था कि इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। तो इस तरह मात्रा में सबसे बड़ी गाली अपने पास बेटी की ही थी उस वक्त।
12वीं के बाद मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिल गया। रैगिंग शुरू हुई। इसके बारे में कोई जानकारी अपने पास नहीं थी। कई सारी मजेदार चीजें अपने साथ रैगिंग के नाम पर हुई। एक बार सीनियर ने बुलाया था अपने होस्टल में। हम भी तीन की संख्या में पहुच गए थे। गाल पर एक मच्छर ने काट लिया था उस दिन। दाग देखकर एक बॉस ने पुछा, "मच्छर काट लिया है?" "जी!", मेरा उत्तर था। उसने फिर पुछा, "मारा उसको?" "जी नहीं, उड़ गया था तब तक", मैंने फिर जवाब दिया। "उड़ गया तो क्या किया गलियाया उसको?", उसने फिर पुछा। मैंने 'ना' में अपना सर हिला दिया। उसने तुरंत अपना टोन बढ़ाकर कहा, "साला, मच्छर खून पी के भी चला गया और तुम कुछ करबो नहीं किया रे। कैसा आदमी है रे। चलो अभी उसको 50 गो गाली बको।" दिमाग तो चकरा गया मगर हिम्मत करके हमने गालियाँ बकना शुरू किया और संख्या पुराने के लिए उस बेचारे मच्छर की माँ-बहन सब एक कर के रख दिया। फिर क्या था, आये दिन बॉस लोग किसी-किसी को गाली दिलवाने लगते थे। "कुत्ता बड़ी भौंक रहा है गलीयाओ उसको", "चीनी में चीटी घुस गयी है, गाली बको" और न जाने कितने जीव-जंतु को हमसे गाली बकवाई गयी। हद तो तब हो गयी जब एक दिन बॉस का पंखा काम नहीं कर रहा था। उस दिन तो उस पंखे की भी माँ-बहन एक हो गयी।
रैगिंग में इस तरह से धक् खुलने का ही नतीजा आज दिखता है कि अब हमारी भी जबान जब भी चलती है तो मुंह से गालियाँ ही निकलती हैं। पहले तो लड़कियों के सामने कुछ परहेज करते थे मगर अब तो वहाँ भी धड़ल्ले से गालियाँ चलती हैं। हालत कुछ ऐसी हो गयी कि घर में सभ्यता बनाये रखने के लिए गालियों का इस्तेमाल न हो, इसके लिए घर में चुप रहना ही बेहतर समझ लिया। ज्यादा कुछ बोलता ही नहीं था घर में। माँ को शक हो गया कि कहीं कोई नशा-वशा तो नहीं करता जो इतना गुमसुम रहने लगा है। खैर फिलहाल सब ठीक हो गया है। माँ को यकीन हो गया है कि कोई बुरी आदत नहीं लगी है मुझे और घर वाले ये भी जान गए हैं कि अपने क्षेत्र की रंगत पूरी तरह से चढ़ चुकी है अपने ऊपर। और रही मेरी बात तो हम भी अब सर उठा के सीना तान के कहते हैं कि हम भागलपुरिया हैं जहा "चुत्तर धोने से पहले गालियाँ देना सिखाया जाता है बच्चों को".......... :)

4 comments:

werewolf said...

bhak :P

Rahul said...

Mummy ko shak ho gaya ..... [:P] !!!
he he he

मनोज कुमार said...

दिलचस्प संस्मरणात्मक विवरण

Anonymous said...

You have to express more your opinion to attract more readers, because just a video or plain text without any personal approach is not that valuable. But it is just form my point of view