Friday, June 25, 2010

माँ ऐसी ही होती है, थोड़ी सी सीधी, थोड़ी अजीब होती है

ये कविता यूँही बैठे-बैठे कल रात माँ को सोच कर लिख दिया। लिखने के बाद हिम्मत नहीं हुई इसे पोस्ट करने की। समझ नहीं आ रहा था कि कैसा लिख पाया हूँ। कवियों के बारे में सुनता हूँ कि कोई उनकी कविता सुनने वाला नहीं मिलता, पर मेरे साथ बात कुछ अलग थी। किसी को सुनाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अंततः, मैंने अपनी 'उन्हें' सुनाने का निर्णय लिया। डर तो था कि पता नही मेरी कविता सुनकर कही भाग न जाए पर अपने प्यार पर भरोसा रखकर रिस्क ले ही लिया। सुनकर वो कुछ भी नहीं बोली, मैं डर गया था। लगा जैसे अपने प्यार पर मेरा भरोसा गलत था, तभी फ़ोन पर उधर से आवाज आई, 'सुनो ना! कविता के नीचे मेरा नाम लिख देना', और साथ में एक ठहाका भी आया। नाम तो नहीं लिख रहा हूँ पर गुजारिश करता हूँ कि आप उसके नाम से ही पढ़ें इस कविता को! हा हा हा!


माँ! मैं बाहर जा रहा हूँ,
कहाँ जा रहा है?
दोस्तों के साथ जा रहा हूँ,
कुछ काम है या यूँही?
बस ऐसे ही घुमने फिरने,
आने में तो देर ही होगी तुझे,
इंतज़ार तो नहीं ही करना होगा मुझे,
खाना तो बाहर ही हो जायेगा
कोई बात नहीं चूल्हा आज फिर नहीं जल पायेगा,
खाने की मेज़ आज फिर नहीं सज पाएगी,
आज फिर तेरी माँ यूँही कुछ भी खा के सो जाएगी।

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आ गया तू, बड़ी देर कर दी,
दोस्तों के साथ हो गयी मस्ती?
हाँ माँ थोड़ी देर हो गयी,
उम्मीद से ज्यादा दोस्तों से मुलाक़ात हो गयी।
जानती है माँ, बड़े पुराने यार थे वहां,
लौट आया हमारे बचपन का वो सारा जहां।
ज़रा इधर आ तो, नशा तो नहीं किया न,
सिगरेट, शराब तो नहीं पी, गुठका तो नहीं खाया न?
माँ तू भी न, देख ले कुछ नहीं किया मैंने
विश्वास रख, इतनी जल्दी तेरी दिखलाई राह से नहीं भटकूँगा
तुझसे लडूंगा, जिरह करूँगा, मगर तेरा विश्वास नहीं तोडूंगा।

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क्यूँ रे आज दिन में खाना खाने नहीं आया,
फिर कहीं से कुछ ऐरा गैरा खा आया?
कल ही तो पेट खराब हुआ था, मानता क्यूँ नहीं,
बाहरी चीज़ें खराब होती हैं जानता क्यूँ नहीं।
माँ, तू फिर शुरू हो गयी, भूख लगी है कुछ खाना तो दे
अरे फिल्म देखने गया था, कुछ बोलने का मौका तो दे।
किसके साथ गया था?
दोस्तों के साथ।
लड़कों के साथ या लड़कियों के?
माँ, मेरा खाना नहीं पच सकता बिना तेरी झिडकियों के!
क्यूँ लड़कियों के साथ कभी नहीं जाता?
क्या सोचता है मुझे कुछ समझ नहीं आता?
कल ही तेरी जेब में ये कान की बाली मिली है,
मुझे नहीं पता चलेगा, क्या सोचता है माँ इतनी भोली है?
अरे माँ हूँ तेरी, तेरी सांस तक की गिनती जानती हूँ,
तेरी हर एक हरक़त को पहचानती हूँ,
क्या छुपाता है मुझसे,
क्यूँ कुछ कह नहीं पता है मुझसे
बता न, बता न।
खैर न बता न सही
सोच लेना, कहीं पापा बुरा मान जाएँ नहीं।
आगे पीछे की सोच लेना,
घर में लड़की लाने के पहले, थोड़ी हमारे बारे में भी सोच लेना।
बड़ा हो गया है तू,
सोच सकता है तू,
हमारी इज्ज़त की न सही, लड़की के इज्ज़त की सोच लेना।
माँ! खाना खा लूं???
थोडा रुकेगी तो एकाध सांस ले लूं!

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क्या हुआ माँ, गुस्से में लग रही है,
क्या हुआ दिसम्बर की सर्दी में क्यूँ तप रही है?
अरे कुछ नहीं, यूँही पड़ोसन से अनबन हो गयी
तुझे लेके उससे बकझक हो गयी।
वो बोल रही थी कि दोस्तों के साथ हुल्लड़बाजी कर रहा था तू,
और एक दिन सिगरेट पीकर धुंआ उड़ा रहा था तू।
एक दिन किसी लड़की के साथ भी देखा था तुझे,
जाने क्या क्या बता रही थी मुझे।
मुझसे रहा नहीं गया,
सारा गुस्सा वहीँ निकल गया।
तू भी न माँ, बड़ी अजीब है,
समझ में नहीं आता तू क्या चीज है।
रोज़ देर से आने पर पता नहीं मुझे क्या क्या सुनाती है
और जब दूसरा ये बातें करता है तो भड़क जाती है।
तू भी न माँ, बड़ी अजीब है,
समझ नहीं आता तू क्या चीज़ है।
माँ हूँ न रे, ऐसी ही हूँ,
तो क्या हुआ थोड़ी अजीब हूँ,
मैं कुछ भी कहूं अपने पूत को
कोई क्यूँ कपूत कहेगा मेरे सपूत को?
माँ ऐसी ही होती है,
थोड़ी सी सीधी, थोड़ी अजीब होती है

Wednesday, June 23, 2010

'रावण' का रामायण 'राजनीति' के महाभारत से क्यूँ हार गया?

इधर फिल्म जगत में काफी हलचल रही। पहले प्रकाश झा की 'राजनीति' प्रदर्शित हुई तो पीछे-पीछे मणिरत्नम 'रावण' लेकर आ गए। राजनीति तो देख चुका हूँ और रावण के बारे में पढ़कर अब उसे देखने की कोई लालसा नहीं रह गयी है। राजनीति के बारे में अपने विचारों को अपने ब्लॉग पर लिखा भी है दोनों फिल्मों में एक समानता जरूर है। जहां 'राजनीति' महाभारत के कलयुगी संस्करण को पेश करता है वहीँ 'रावण' रामायण पर आधारित बताया जा रहा है। हालांकि न सुदर्शन चक्र धारण किये कृष्ण हैं न शिव-धनुष तोड़ते हुए राम ही हैं, इसलिए हो सकता है कि धर्म का पाखण्ड की हद तक अनुसरण करने वालों को शायद इन फिल्मों में इन कथाओं का अक्स नज़र न आये मगर फिर भी हमारे फिल्म-इंडस्ट्री के दो प्रख्यात फिल्मकारों ने जिस तरह से अपनी फिल्मों को हमारे पौराणिक कथाओं पर आधारित किया है उसका स्वागत हमें जरूर करना चाहिए।
खैर, दोनों फ़िल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं और 'राजनीति' को सुपरहिट और 'रावण' को फ्लॉप का दर्ज़ा भी दिया जा चुका है। तो ऐसा क्यूँ हो गया कि रामायण आज महाभारत से मात खा गया। इसका कारण इन दोनों फिल्मों की गुणवत्ता हो सकती है। हो सकता है कि रावण सच में बहुत ख़राब फिल्म हो मगर एक पहलु इसका हमारी कलयुगी मानसिकता भी हो सकती है। ऐसी मानसिकता जिससे आज कलयुग में हमें रामायण से ज्यादा अच्छा महाभारत लगने लगता है। अपने हिन्दू आध्यात्म की तरफ थोडा ध्यान से देखेंगे तो पायेंगे कि महाभारत का द्वापर युग, रामायण के त्रेता युग के मुकाबले हमारे कलयुग से ज्यादा नजदीक है।
ज्यादा माथापच्ची करने की जरुरत नहीं है। हिन्दू ग्रंथों में चार युग का वर्णन किया गया है। सृष्टि की शुरुआत सतयुग से होती है। ऐसा युग जिसमे कोई दानव नहीं है। भगवान् हैं जो इस सृष्टि की रचना कर रहे हैं और उन्हें बाधाएं पहुचाने वाले नगण्य हैं। सतयुग के बाद त्रेता युग आता है, राम और रावण का युग। इस युग में भगवान् हैं और साथ में दानव भी हैं। ये ऐसे दानव हैं जो भगवान् की आराधना करते हैं और उनसे आशीर्वाद पाकर अकूत शक्ति के मालिक बनते हैं। हालांकि उनका अंत उनके बढ़ते हुए घमंड के कारण अपरिहार्य हो जाता है और भगवान् को स्वयं राम का रूप लेकर आना पड़ता है। त्रेता युग के बाद द्वापर युग आता है, श्रीकृष्ण का युग, पांडवों और कौरवों का युग। ये एक ऐसा युग था जहां भगवान् की अराधना करने वाले दानवों कि जगह भगवान् को न मानने वाले अधर्मियों ने ले ली थी। सच और धर्म के साथ रहने वाले पांच पांडवों के खिलाफ सौ कौरव दानव का रूप लेकर खड़े थे। एक ऐसा युग था जहाँ भाई को भाई नहीं समझा जाता था, मामा अपने भांजे की दुर्गति का कारण बनता था, कुल मिलाकर रिश्तों की परिभाषा ख़त्म हो रही थी।
इसी राह पर आगे चलते हैं। द्वापर युग के बाद हमारा अपना कलयुग आ गया। जहां द्वापर युग में फिर भी भगवान् का अस्तित्व था वहीँ कलयुग में भगवान् ने आने से ही इनकार कर दिया। जहां पांच पांडवों के खिलाफ सिर्फ 100 कौरव थे वहीँ आज कौरवों की तुलना में पांडव नगण्य हैं। ये तो बदलती हुई परंपरा है जिसे कलयुग ने निभाया है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश के त्रिदेव की जगह अगले युग में जहां मर्यादा-पुरुषोत्तम राम लेते हैं वहीँ उन्हें अपनी जगह द्वापर युग में रास-रसईया श्रीकृष्ण के लिए छोड़नी पड़ती है। अब रणछोड़ श्रीकृष्ण किसके लिए अपनी जगह छोड़ते, श्री राम के चरित्र में थोड़ी गिरावट आई तो भी वो कृष्ण बनकर भगवान् कहलाने के लायक रहे मगर श्री कृष्ण के चरित्र में थोड़ी सी भी गिरावट क्या भगवान् कहलाने के लायक रह पाती। कलयुग ने क्या बिगाड़ा है किसी का। चलती हुई परंपरा को उसने भी ढोया है और तो कुछ नहीं किया उसने। फिर क्यूँ आज जब किसी की बेटी अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है तो ज़माना कलयुग को दोषी बनाकर कहता है, "क्या कर सकते हैं, कलयुग आ गया है।"
अपने सामाजिक मूल्यों में आई इन गिरावट का ही तो असर नहीं कि आज हमें चार भाइयों के प्यार को दर्शाने वाला रामायण, भाइयों के मारकाट को दर्शाने वाले महाभारत से नीचा नजर आता है। महा-विद्वान् रावण आज मुर्ख दुर्योधन के सामने बौना नजर आता है, कहीं ये भी कलयुग का ही तो असर नहीं। खैर जो भी है, सच में कुछ भी किया नहीं जा सकता। कलयुग है क्यूँकि हम ऐसे हैं। कलयुग ऐसा इसलिए है क्यूँकि हमारे मन काले हैं। परम्पराओं को दोषी ठहरा कर हम कुछ नहीं कर सकते। अपने आप को बदलना होगा, अपनी सोच को बदलना होगा। बदल कर देखिये, कलयुग में भी सतयुग का आनंद मिलेगा!!!

Tuesday, June 22, 2010

एक बार फ़िर...........

इन दिनों बिना किसी कारण के ही ब्लॉग से दूर रहा हूँ। अगर किसी चीज़ को कारण बताऊंगा ब्लॉग न लिख पाने के लिए तो ये सिर्फ अपने आलस्य को एक नाम देने जैसा रहेगा। भला होगा कि अपने आलस्य को आलस्य ही रहने दूं ओर इसी कड़ी को आगे बढाता हुआ अपने ही एक पुराने पोस्ट को दुबारा प्रकाशित कर रहा हूँ। तकरीबन दो साल पहले अपनी ब्लॉग्गिंग यात्रा की शुरुआत में ही ये लघु कथा मैंने लिखा था। तब हिंदी ब्लॉग की दुनिया से अनजान था। आज जब हिंदी ब्लॉग की अपनी एक अलग दुनिया बन चुकी है तो उस लघु कथा को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।



कमरे के रोशनदान से डूबते हुए सूरज की आखिरी किरणें अन्दर रही थी. दिवार से लगी आराम कुर्सी पर बैठी अवंतिका कुछ सोच रही थी. 27-28 साल की अकेली लड़की इस छोटे से कस्बे के इस कमरे को किराये में लेकर रहती थी. यहाँ उसका कोई था. बचपन से ही वो अनाथ अकेली ही रही थी. अब तो जिंदगी में अकेले रहने की आदत हो गई थी. यहाँ भी उसे अपना कहने वाला कोई नही था. किसी से भी उसकी कभी कोई बात नही हुई थी. मानो वो किसी से बात करना ही नही चाहती थी. ऐसे ही सबसे अलग रहकर वो अपनी जिंदगी गुजार रही थी. वैसे भी मिलिटरी कैंट के अलावा इस कस्बे में और था ही क्या.सुबह उठकर मील दूर अखबार के एक दफ्तर में typist की नौकरी करने जाती थी. दिन भर काम करके शाम को वो वापस आती थी.

रोज़ की तरह वो आज भी उसी सब्जी मंडी वाले रस्ते से होकर लौट रही थी. वो सब्जी खरीदने के लिए वहीँ ठहर गई. “ये परवल कैसे दिए?”,सब्जी वाली से उसने पूछा. “16 रुपये किलो मालकिन”. १ पाव परवल तौलने के लिए कहकर अवंतिका की नज़रें यूँही इधर उधर दौड़ने लगी. थोरी दूर सड़क के उस पार बस स्टाप पर उसकी नज़र जैसे ठहर गई मानो किसी चेहरे को पहचानना चाह रही हो. तभी सड़क से मिलिटरी की गाड़ियों का एक काफिला गुजरने लगा. गाड़ियों की बिच से उसकी नज़रें उसी चेहरे को देखने की कोशिश कर रही थी. तभी सब्जी वाली की आवाज़ उसके कानों में पहुची, “हाँ मालकिन ये लो अपने १ पाव परवल.” उसे उसके पैसे देकर अवंतिका आगे बढ़ी. अभी भी उसकी नज़रें उसी चेहरे को खोज रही थी. काफिले के ख़त्म होने के बाद फ़िर वो उस चेहरे को नही देख पाई. मगर उस चेहरे की पल भर की झलक ने ही उसे उसकी यादों की तरफ़ जाने को मजबूर कर दिया. तेज़ क़दमों के साथ वो अपने कमरे में वापस आ गई.

धीरे-धीरे अँधेरा होने चला था, शाम ढल रही थी, सूरज डूब रहा था और चांदनी अपनी चादर से इन वादियों को ढक रही थी. अवंतिका जैसे अपनी कुर्सी में बैठी कहीं खो सी गई थी. वहीँ पर बैठी बैठी वो ८-१० साल पहले मसूरी के अपने कॉलेज के दिनों को याद करने लगी. इंग्लिश के प्रोफ़ेसर क्लास में बैठे विद्यार्थियों पर shakespere की कोई छाप छोड़ने की कोशिश कर रहे थे . बाहर काफ़ी मूसलाधार बारिश हो रही थी. अवंतिका हर रोज़ की तरह उस दिन भी अकेली ही खिड़की के बगल वाली बेंच पर बैठी थी. वहां भी उसका कोई दोस्त न था. बारिश के फुहारे हवा के ठण्ड झोकों के साथ रह-रह कर उसके पास आकर उसके मन को अपने साथ बाहर ले जाने का प्रयास कर रहे थे. Shakespere के शब्दों और प्रकृति की पुकार के बिच एक अनोखा द्वंद्व अवंतिका की आंखों के सामने चल रहा था. क्लास में बैठ कर प्रोफ़ेसर की बातों की तरफ़ अपने आप को एकाग्र करने की उसकी हर कोशिश नाकाम हो रही थी.

तभी बाहर से बारिश की पानी में भींगता हुआ एक हट्टा-कट्टा गबरू जवान क्लास के अन्दर आया और आकर अवंतिका के सीट के बगल में बैठ गया. अवंतिका के लिए एक नया अनुभव था क्यूंकि उसके साथ आजतक कॉलेज में कभी कोई नही बैठा था. वो हमेशा अकेली ही बैठा करती थी. उसे कभी किसी से दोस्ती ही नही हुई थी शायद इसीलिए कोई उसके साथ नही बैठा करता था. उसे उस दिन बार ही आश्चर्य हुआ. अब बारिश की फुहार और shakespere के शब्द दोनों उसके पास अपनी कोई छाप छोड़ने में नाकाम हो रहे थे. उसका सारा ध्यान उस अजनबी पर चला गया था जो अचानक हवा के झोंके की तरह आकर उसके बगल में बैठ गया था. न चाहते हुए भी उसकी नज़रें उसे एकबार अच्छे से देखने को बेताब हो रही थी. अवंतिका का ध्यान अपने क्लास के लड़के-लड़कियों की तरफ़ कभी नही गया था मगर आज एक अजनबी के आने से अचानक न जाने उसे क्या हो गया था. उसे ख़ुद भी ये सब कुछ अटपटा लग रहा था. क्यों एक अजनबी की तरफ़ वो ऐसे बहकी जा रही थी. क्या था उस अजनबी में जो उसे अपनी और खींचे जा रहा था. उसकी समझ में कुछ भी नही आ रहा था.

क्लास ख़त्म होने के बाद उस नए लड़के का परिचय पूरे क्लास के साथ हुआ. उसका नाम आकाश था. वो मसूरी के पास ही किसी गाँव का रहने वाला था और कॉलेज में admission अभी कुछ दिन पहले ही हुआ था. वो कॉलेज में नया था. उसके बाद से हर रोज़ अवंतिका की आँखें क्लास में उसे ही खोजा करती थी. जब तक वो आ नही जाता था तब तक उसे चैन नही आता था. वो आता और आकर अवंतिका की साथ वाली सीट पर बैठा करता था. अवंतिका उस से बात करने के लिए बेकरार रहती थी मगर कभी उसे हिम्मत नही हुई. और सभी लड़कों से आकाश की बात होती थी. अवंतिका उन बातों को बरे ध्यान से चुपके-चुपके सुना करती थी. उसी से उसे पता चला था की वो एक गरीब अकेली बीमार माँ का अकेला लड़का था. हर हफ्ते आकाश को अपनी बीमार माँ के पास अपने गाँव जाना पड़ता था. बाकी दिन वो कॉलेज के हॉस्टल में ही रहता था. पढ़ने में काफ़ी अच्छा था और मिलिटरी में जाना चाहता था.

कई दिन बीत गए थे. आकाश यूँही अवंतिका के साथ वाली सीट पर बैठा करता था. कभी उन दोनों की बात नही हुई थी मगर अवंतिका उस से बात करना जरुर चाहती थी. एक दिन अचानक आकाश ने ही उस से बात की. शायद वो भी उस से बात करना चाहता था. उस दिन अवंतिका की बेकरारी थोड़ी कम हुई. धीरे धीरे उन दोनों के बिच अच्छे से बातें होने लगी थी. अवंतिका के मन में बातों का सैलाब उमरता रहता था मगर वो इसे बाहर निकलने से हमेशा डरती रहती थी. उसकी बेचैनी उसकी सबसे बरी दुश्मन बन चुकी थी. अपनी दबी हुई सारी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए जहाँ एक और वो बेताब थी वहीँ दूसरी और हिम्मत जुटाने में वो हमेशा नाकाम ही रहती थी. उसकी नाकामी उसे खाए जा रही थी.

समय बीतने के साथ सब कुछ बदलता जा रहा था. आकाश की अब क्लास में सब लोगों से अच्छी दोस्ती हो चुकी थी. वो पूरी तरह से इस नए माहौल में घुल-मिल सा गया था. अवंतिका से भी उसकी बातें हुआ करती थी. अगर कुछ नही बदला था तो वो था आकाश का अवंतिका के साथ बैठना और फ़िर भी अवंतिका की अपने दिल की सारी बातें कह न पाने की नाकामी. शायद अवंतिका ने ही अपने आप को रोके रखा था. एक अनजाने डर ने उसके मन में घर कर लिया था. वो ख़ुद ही आकाश के दिल में रहना चाहती थी मगर कुछ था जो उसे अपनी इस भावना को व्यक्त करने से रोक रहा था. दोनों काफ़ी समय एक दूसरे के साथ बैठते थे, बातें करते थे. दोनों का काफी समय साथ में गुजरा करता था. इन सब के बावजूद अवंतिका कभी भी खुल कर आकाश से बातें नही कर पाती थी. उसका दिल पूरी तरह से आकाश का हो चुका था. उसे ऐसा लगने लगा था की आकाश भी शायद उसे पसंद करता था मगर उसी की तरह ही उसे भी हिम्मत नही होती थी कुछ कहने की. ये अवंतिका का सिर्फ़ ख्याल था या फ़िर आकाश की एक सच्चाई वो तो सिर्फ़ आकाश ही जानता था मगर इसने अवंतिका को प्यार के रिश्ते के बरे में कुछ सोचने को मजबूर कर दिया था.

अवंतिका ऐसे किसी रिश्ते के पूरे होने या उसके अंजाम तक पहुचने के बरे में चिंतित रहती थी. क्या ये सही है? क्या इसका अंजाम सही होगा? कहीं उसे बाद में पछताना न पड़े? इन सब सवालों ने अवंतिका के कदमो को बाँध सा दिया था. न चाहते हुए भी उसने आकाश से अपनी दूरी बढ़ाने का निर्णय कर लिया. मगर क्या ये आसान था? साल भर की अपनी दोस्ती जो शायद दोस्ती से कुछ ज्यादा हो चुकी थी, उसे यूँ पल भर में छोड़ देना, ख़त्म कर देना क्या किसी के लिए इतना आसान हो सकता था? उसने ज्यादा कुछ नही सोचते हुए निर्णय लिया की वो आकाश के साथ रहने के बावजूद भी उसके बारे में अपने दिल में कोई ख़याल नही लाने की कोशिश करेगी. कामयाबी का उसे कोई विश्वास नही था मगर कोशिश करने की एक मजबूरी जरुर थी.

दोनों के साथ रहते लगभग साल भर बीत चुके थे. उसने अपने निर्णय को पूरी तरह से अबतक निभाया था मगर आकाश के साथ उसकी नजदीकी दिनोदिन भरती ही जा रही थी और साथ में आकाश के लिए उसकी कमजोरी भी. उसे अब अपने आप को रोके पाना मुश्किल होता जा रहा था. कई रातें उसने यूँही जगे हुए गुजार दी थी अपने मन में चलते हुए द्वंद्व के कारण. उसका दिल हमेशा उसके दिमाग की सोच को धोका देना चाह रहा था. वो आकाश को सब कुछ बता देना चाहती थी मगर उसके शब्द हर बार होठों तक आकर रुक जाते थे. शायद उसकी जबान पर अभी भी उसके दिमाग का दिल की तुलना में जायदा जोर चल रहा था. आकाश ने भी कभी उस से ये बातें नही की थी. अवंतिका को ये डर भी था की कहीं उसके सब कुछ बोल देने से कहीं आकाश उस से दूर न चला जाए. कभी यह भी सोचती थी की न ही बोल कर कौन सा आकाश उसके पास है.

अभिव्यक्ति के इस तूफ़ान में अवंतिका कहीं खोयी सी जा रही थी. आकाश से उसकी एक पल की जुदाई भी अब उसकी जान निकल देने के लिए काफी हो चुकी थी. वो हमेशा अपने-आप को आकाश के सामने रखना चाहती थी. हमेशा उसकी आँखें आकाश को देखने के लिए ही बेताब रहती थी.

आजकल आकाश न जाने क्यूँ रोज़ क्लास नही आया करता था. अवंतिका की आँखें अक्सर तरसती ही रह जाती थी आकाश की एक झलक तक देंखने को. बहुत हिम्मत करके एक दिन अवंतिका ने आकाश से इसका कारण पूछा. पता चला की उसकी माँ की तबियत थोड़ी बिगड़ गई थी. अवंतिका के मन में चल रहे द्वंद्व में उसके दिल ने उसके दिमाग पर जीत हासिल कर ही लिया था. उसने आकाश को अपने दिल की बात बताने का निर्णय कर लिया था. बहुत हिम्मत करके अवंतिका ने आकाश को बताया की वो उस से कुछ कहना चाहती थी. आकाश ने इस बात की तरफ़ कोई ख़ास तवज्जो नही दी. शायद उसकी माँ की तबियत के बारे में उसके चींते के सामने उसने अवंतिका की इस बात को कोई ख़ास वजन नही दिया था. लंबे चले उस द्वंद्व के बाद जुटाए हुए अवंतिका के हिम्मत को आकाश की इस बेरुखी ने एकदम ही पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया. अब तो अवंतिका के लिए कुछ भी कहना मुश्किल हो रहा था. उसके मन में रोज़ एक नया तूफ़ान उठ खड़ा होता था मगर आकाश की बेरुखी को देखकर वो ख़ुद इस तूफ़ान को दबा देती थी. अब तो इस तूफ़ान को दबाना भी उसके लिए भारी पड़ता जा रहा था.

एक रात पढ़ते पढ़ते अचानक ही उसने निर्णय लिया की आकश की बेरुखी के बावजूद भी अब वो नही रुकेगी. उसका डर उसकी बेचैनी के सामने बौना बन चुका था. उसके प्यार के सामने आकाश की बेरुखी का कोई स्थान नही रह गया था. उसे पूरा यकीं था की आकाश भी उसे चाहता था. शायद ये उसकी चाहत थी की आकाश भी उसे चाहे जो उसके यकीन के रूप में बाहर आ रही थी. उसने चिट्ठी लिख कर आकाश को सब कुछ बताने का निर्णय कर लिया. चिट्ठी लिखने के लिए अवंतिका ने अपने notepad के पीछे से एक कागज़ फाड़ा. उसके बाद वाले पन्ने में कुछ लिखा हुआ था. इतनी दिन साथ में रहने के कारण उसे पहचानने में कोई दिक्कत न हुई की वो लिखावट किसी और की नही पर आकाश की ही थी. उसने उसे पढ़ने में कोई देर नही की. उसके चेहरे से पसीने निकलने लगे थे. आंखों से आंसू एक या दो बूँद धीरे से बाहर आने का रास्ता देख रहे थे. उसे विश्वास नही हो रहा था की आकाश ने ये सब कुछ लिखा है. उसे पता नही चल पा रहा था की आकाश ने ये सब कब लिख दिया. कुछ महीने पहले आकाश ने उसकी कॉपी ली थी कुछ नोट्स उतारने के लिए. शायद तभी उसने ये सब कुछ लिख दिया था. ये सब कुछ पढ़कर वो बेचैन हो चुकी थे. खुश तो वो होना चाहती थे उस सब से जो उस चिट्ठी में लिखा था पर अपने ऊपर उसे गुस्सा आ रहा था. उस चिट्ठी में वो सब कुछ लिखा था जो वो अपनी चिट्ठी में लिखना चाह रही थे. ये चिट्ठी आकाश ने उस वक्त लिखी थी जब अवंतिका के मन में उन दोनों के रिश्ते को लेकर एक अनजाना सा डर, एक अजीब से द्वंद्व ने घर कर लिया था और फलस्वरूप वो आकाश से दूर जा रही थे.

अवंतिका के सामने सब कुछ पानी की तरह साफ़ हो गया था. आकाश की बेरुखी उसकी अपनी न थी शायद वो अवंतिका की अपनी बेरुखी का ही परिणाम थी. अवंतिका अपने आप को ख़ुद अपना और आकाश का भी दोषी मान रही थी. उसने निश्चय कर लिया की वो अगले दिन सुबह ही कॉलेज में जाकर आकाश से सब कुछ बोल देगी. रात भर उसने करवट बदलने और सोचने में ही बिता दिए. रात भर शब्दों के साथ एक अजीब सी लड़ाई उसके मन में चल रही थी. वो समझ नही पा रही थी की आकाश के सामने वो कैसे अपनी बात रखेगी. कुछ भी हो उसने निर्णय कर लिया था की कल उन दोनों के बिच सब कुछ साफ़ हो जाएगा.

अगले सुबह इसी उद्देश्य के साथ अवंतिका कॉलेज पहुची. एक अनदेखी सी चमक उसके चेहरे पर थी उस दिन. आज जिंदगी में पहली बार उसका उतना समय आईने के सामने गुजरा था. आईने में वो अपने आप को आकाश की नज़रों में देखना चाह रही थी. पहली बार आज उसने सजने सवरने का काम किया था. सब कुछ आकाश के लिए. वो इतने दिनों से उसी की तो हो कर रह गई थी. आज तक जो दोस्ती या जो सम्मान आकाश ने उसे दिया था, वो उसके लिए पूर्ण रूप से एक नया अनुभव था. आकाश के पास जाने को उस से हर बात कह देने को वो बेताब हुई जा रही थी. क्लास में बैठी तो थी पर पढ़ाई पर उसका कोई ध्यान नही जा रहा था. हर पल उसकी नज़रें दरवाज़े की तरफ़ ही लगी थी. गलियारे में होने वाले हर क़दमों की आहट से उसे आकाश के आने का ही आभाष होता था मगर हर बार उसका दिल छोटा पर जाता था. इतना अकेलापन उसे जिंदगी में कभी महसूस नही हुआ था. शुरू से ही जिस सीट पर वो अकेली बौठा करती थी, उसी सीट पर अकेले बैठना उसे बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था. हर पल उसका दिल भगवान से दुआ कर रहा था की आज कम से कम आज आकाश उसे मिल जाए. दिन बीत गया, कॉलेज का समय ख़त्म हो गया, आकाश नही आया. अवंतिका पलके बिछाए यूँही बैठी रह गई. अभी भी उसे लग रहा था की शायद आकाश उस से मिलने आ जाए. शाम हो गई, सब जा चुके थे. अवंतिका अभी भी आकाश का वही इन्तज़ार कर रही थी जहाँ वो दोनों अक्सर साथ समय बिताया करते थे. आकाश वहाँ भी नही आया. अवंतिका उस दिन के लिए हार मान चुकी थी.

हर सुबह अवंतिका इस उम्मीद के साथ कॉलेज जाती थी की शायद आकाश आज उसे मिल जाए. वो फिर कभी नही आया. कुछ रोज़ के बाद नोटिस बोर्ड पर एक नोटिस लगा था जिसमे आकाश के कॉलेज छोड़ के जाने के बारे में लिखा हुआ था. उस दिन अवंतिका की रही सही उम्मीद भी ख़त्म हो गई. उसने इस सब के लिए अपने आप को ही दोषी माना. उसने कभी अपने आप को न माफ़ करने का निश्चय कर लिया था. फिर कभी उसे आकाश क बारे में कोई ख़बर न मिली सिवाय इसके की उसकी माँ चल बसी थी. अवंतिका आकाश के अकेलेपन के लिए अपने आप को दोषी मान रही थी. उसे लग रहा था की आकाश को वैसे बुरे समय में जरुर एक साथी की जरुरत होती जो शायद वो ही थी. मगर…………………………………………………………..


तभी अचानक दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. खोल के देखा तो मकान मालिक का पोता आया था. उसने कमरे की बत्ती जला देने को कहा और उसे उसकी कोई चिट्ठी, जो डाकिये ने दिन में दिया था, देकर चला गया. सूरज डूब चुका था, चांदनी अपनी चादर बिछा चुकी थी, रात ने अपने पांव पसार लिए थे. सड़क पर streetlamps जल रहे थे और अवंतिका उन्हें ही देखती-देखती सोच रही थी. एक वो दिन था जब उसने अपने आप को आकाश से दूर कर लेने का फ़ैसला कर लिया था और उसका परिणाम वो अपने प्यार को खो कर भुगत रही थी. एक आज का दिन था जब फ़िर से उसे आकाश दिखा था और फ़िर से वो दूर ही रह गई थी. एक वो दिन था जब उसने उसके पास जाने का निर्णय लिया था मगर तब तक देर हो चुकी थी. एक आज का दिन था जब फ़िर से उसके पास जाने के पहले ही वो जा चुका था.एक वो दिन था जब उसने अपने प्यार को खोया था, एक आज का दिन था जब फ़िर से उसने अपने उसी प्यार को खोया.

एक बार फ़िर ...............................................................................................………………………………

Friday, June 11, 2010

एंडरसन के लिए इतना हंगामा क्यूँ, क्या किया था उसने?

कुछ दिनों से भोपाल गैस काण्ड, इसपर हुआ कोर्ट का फैसला एवं एंडरसन बहुत ज्यादा चर्चे में है। हो भी क्यूँ नहीं, आखिर हमारी न्यायपालिका ने एक अद्भुत फैसला जो सुनाया है इस मामले में। 15,000 मौत और लाखों की संख्या में पीड़ित, और फैसला आता है 2 साल की कैद का और 5 मिनट के बाद ही सजा पाए लोग रिहा कर दिए जाते हैं जमानत पर। ये अद्भुत नहीं तो और क्या है। फैसला आया और बड़ी गरमा-गर्मी हुई इस फैसले पर। हर किसी ने माना कि फैसला नाकाफी है मगर किसी के हाथ में करने के लिए कुछ भी नहीं। सिवाय निंदा करने के कोई भी, सरकारी या गैर-सरकारी, कुछ भी नहीं कर सका। कई बार की तरह इस बार भी न्यायपालिका पर कई सवाल उठाये गए। कुछ जरूरी कदम उठाने की बात हर कोई कर रहा है। हम भी उम्मीद में टिके हैं कि कभी कुछ होगा। उम्मीद के अलावा हमारे पास और कुछ नहीं। चलिए कोई बात नहीं। हम इंतज़ार करेंगे कि कुछ कदम उठाये जाएँ।
न्यायपालिका पर बहस अभी ख़त्म भी नहीं हुई थी तब तक एंडरसन मामला तूल पकड़ गया। एंडरसन यूनियन कार्बाइड का CEO था जब ये घटना घटित हुई थी। कई बातें सामने आ रही हैं। एंडरसन का गिरफ्तार होना, गिरफ्तार होने के बाद सरकारी मेहमान के रूप में देश से भाग जाना और फिर अमरीका का उसके प्रत्यर्पण के लिए इनकार कर देना, इन सब के बारे में कई बातें उठ रही हैं। तत्कालीन कांग्रेस की राज्य सरकार एवं मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह पर फिर से सवाल उठ रहे हैं। नाम राजीव गाँधी का भी आ रहा है जो उस वक़्त प्रधानमंत्री हुआ करते थे। मुद्दा-विहीन विपक्ष को एक मुद्दा मिल गया सरकार पर आरोप लगाने का। संसद का मानसून सत्र कुछ दिनों में शुरू होगा और ऐन मौके पर हमारे नेताओं को एक मौका मिल गया जनता के पैसे को बर्बाद करने का। पूरी तय्यारी हो चुकी है संसद के काम को ठप करने के लिए।
इतना शोर, इतनी बहस और ये सब किसके लिए? उस एंडरसन के लिए जो इस त्रासदी के एक दिन बाद ही उस जगह पर गया था जहां तब भी जहरीली गैस अपना अस्तित्व बनाये हुई थी। '84 में मैं पैदा नहीं हुआ था। जितना भी इसके बारे में जनता हूँ वो सब सिर्फ सुना या पढ़ा है। सभी माध्यम से एक बात ही पता चलती है कि जो भी हुआ वह एक त्रासदी थी भोपाल के लोगों के लिए। एक हादसा था जिसका दोष किसी एक पर डाल देना शायद सही नहीं था। न कोई मानवीय भूल थी, न ही किसी की सोची समझी साजिश थी ऐसा करने की। एक दुर्घटना थी जो उस रात काल के रूप में भोपाल के लोगों के ऊपर घटित हो गयी। गुजरात का भूकंप हो, उडीसा का चक्रवात हो या फिर सुनामी का कहर, प्रकृति के खेले इन खेलों की तरह भोपाल काण्ड पर भी तो किसी का जोर नहीं था। एंडरसन को इन सब का जिम्मेदार आखिर क्यूँ बनाया जाए?
क्या किया था एंडरसन ने। भारत को एक बड़ा बाज़ार समझ कर यूनियन कार्बाइड ने अपनी फैक्ट्री भोपाल में स्थापित की। एक व्यवसायी होने के नाते पहला उद्देश्य एंडरसन का यहाँ से पैसे बनाना था। पैसे बनाने के लिए उसने कोई गलत रास्ता तो नहीं अख्तियार किया था। वो फैक्ट्री हमारे देश में स्थापित कानून के हिसाब से कहीं से भी गड़बड़ नहीं थी। सुरक्षा के जितने मापक हमारे देश के कानून के द्वारा अपेक्षित हैं उन सबों को इस फैक्ट्री ने पूरा किया होगा तभी इसके संचालन की अनुमति सरकार ने दी होगी। अगर बिना अपेक्षाओं को पूरा किये हुए इसका संचालन हुआ था तो गलती कहाँ से एंडरसन की होती है, ऐसी स्थिति में दोषी सरकार को बनाना चाहिए। खैर क्या हुआ, क्या नहीं हुआ इस बात की जानकारी मुझे नहीं मगर इतना जरूर जानता हूँ कि ऐसी घटना के लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
एंडरसन की गलती क्या अमरीका के द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने से ज्यादा बड़ी है? शोध से ये साबित हो चुका है कि Methyl Isocyanide का जीवन पर कोई दूरगामी प्रभाव नहीं होता है। जितना दुष्प्रभाव होना था वो उस एक रात में ही हो गया मगर जो अमरीका ने हिरोशिमा और नागासाकी के लोगों के साथ किया है उसका कोई लेखा-जोखा हमारे पास न है, न होने की कोई संभावना है। लाखों की संख्या में एक ही क्षण में मौत, उससे भी ज्यादा लोगों पर रेडिएशन का तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव क्या भोपाल के लोगों पर हुई त्रासदी से छोटा है। आज भी जापान में बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं, लोगों में कैंसर की संभावना आज भी ज्यादा बनी हुई है। इन सब के बावजूद आज अमरीका दुनिया पर अपना वर्चस्व बनाये हुए है।
हमारे यहाँ शोर मचा हुआ है कि एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए जरूरी कदम नहीं उठाये गए। अगर उठाये जाते तो क्या अमरीका एंडरसन को इतनी आसानी से हमारे पास आ जाने देता। हम उस अमरीका से ऐसा कैसे उम्मीद कर सकते हैं जिसने लाखों लोगो को मौत की नींद सुला कर और कई करोड़ को आजीवन कष्ट देकर खुशियाँ मनाई थी। एंडरसन को हम किस बात की सजा देंगे। उसने हमारे यहाँ आकर अपने लिए पैसा बनाया और हमारे लोगों को नौकरी देकर दो जून की रोटी दी, इसलिए, या फिर इसलिए कि वो हादसे के अगले दिन ही जहरीली गैस के बादल से ढके भोपाल आता है स्थिति का जायजा लेने।
गलती की तह पर गए बिना ही हम कितना भी शोर मचा लें कुछ नहीं होने वाला। एक हादसा जिस पर किसी का जोर नहीं था उसके लिए हमें किसी को सजा नहीं देनी चाहिए, बस सीख लेना चाहिए ताकि आगे ऐसा कुछ न हो।

Sunday, June 06, 2010

'राजनीति', कलयुगी महाभारत का खूनी खेल!!!


शुक्रवार को राजनीति फिल्म देखने गया था। काफी महीने हो गए थे कोई हिंदी फिल्म देखे हॉल में, इसलिए एक हफ्ते पहले काइट्स देखने की भी लालसा थी मगर एडवांस बुकिंग के चक्कर में टिकट नहीं मिल सका और जब समीक्षाओं को पढ़ा तो फिर देखने की हिम्मत नहीं हुई। भला मनाया एडवांस बुकिंग का जिसके कारण टिकट नहीं मिल सकी और पैसे बर्बाद होने से बच गए। राजनीति के प्रोमो देखकर फिल्म के प्रति जिज्ञासा बढती ही जा रही थी और इसलिए इस बार समीक्षा पढने का खतरा नहीं उठाना चाहा और एडवांस बुकिंग के पैसे बचाने के एहसान का बदला इस बार एडवांस में टिकट कटा कर चुका लिया।
प्रोमो देखकर और प्रकाश झा का नाम जुड़ा होने के कारण फिल्म के बारे में एक पूर्वानुमान बन गया था कि शायद गाँधी परिवार की कहानी बिहारी पृष्ठभूमि में दिखाई जायेगी। पूर्वानुमान पूर्णतया गलत साबित हुई। गाँधी परिवार से कोई सरोकार नहीं निकला इस फिल्म में। फिल्म देखकर लगा जैसे महाभारत की कहानी को कलयुगी चूल्हे पर 'The Godfather' का तड़का लगाकर 'सरकार' और 'सरकार राज' की चासनी में पड़ोस दिया गया हो। एक खिचड़ी पका दी गयी है जिसमे महाभारत के किरदारों को 'Godfather' की निर्ममता और क्रूरता प्रदान कर दी गयी है।
प्रथमार्ध का भीष्म पितामह (नाना पाटेकर) उत्तरार्ध का कृष्ण बन जाता है। ध्रितराष्ट्र अँधा नहीं अपाहिज बन जाता है, पांडू दुर्योधन (मनोज वाजपयी) को गद्दी से दूर रखने का हर संभव प्रयास करता है, युधिष्ठीर (अर्जुन रामपाल) धर्मराज नहीं रह जाता है मगर कलयुगी धर्मों का भरी भांति पालन करता है। कुंती अर्जुन (रणबीर कपूर) की जान की रक्षा के लिए कर्ण (अजय देवगन) के पास जाती है मगर माँ की ममता कहीं छोड़ देती है, साथ लेकर जाती है सिर्फ राजनीति। कर्ण रश्मिरथी वाला कर्ण नहीं है, दुर्योधन के सभी दुष्कर्मों का संयोजक है कर्ण, और जब मौका दुर्योधन की जान बचाने का आता है तो उसके कदम फिसल जाते हैं। अर्जुन के प्रति अचानक संवेदनाएं जाग जाती हैं। दुर्योधन मारा जाता है और कृष्ण के उकसाने पर कर्ण का भी वध अर्जुन कर देता है। पूरे खूनी खेल में युधिष्ठीर भी नहीं बचता, गद्दी अंततः द्रौपदी के हाथ में आती है। जिस गद्दी के लिए पूरा खूनी खेल होता है वो किसी खिलाडी को नहीं मिलता। सहानुभूति की सीढ़ी चढ़ती हुई द्रौपदी सीधे गद्दी तक पहुच जाती है।
राजनीति को विचारधाराओं की स्वच्छ लड़ाई समझने वालों के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं। नीतियां कहीं दिखती नहीं, रह जाता है सिर्फ राज, रह जाती है राज करने के लिए न ख़त्म होने वाली रंजिश, और रह जाते हैं राज करने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले खूनी खिलाड़ी। पारिवारिक रंजिश में राजनीतिक विचारधाराएँ को निर्देशक कहीं मिला नहीं पाता। शायद आज की राजनीति का सही चित्रांकन किया गया है। 30 साल पहले भाष्कर सान्याल (नसीरुद्दीन शाह) द्वारा पूंजीवाद के खिलाफ चलाया गया साम्यवादी आन्दोलन कई मायनों में यथार्थ के करीब लगा। पूरी फिल्म में एक वही समय लगा जब राजनीति विचारों के बूते पर लड़ी जा रही थी। बाकी पूरी फिल्म में आज की भारतीय राजनीति की तरह कोई विचारधारा नहीं, कोई मुद्दा नहीं बस निरंतर लड़ाई चल रही है। परमाणु मुद्दे पर BJP के विचार कांग्रेस से इतर नहीं मगर फिर भी लेफ्ट के अविश्वाश प्रस्ताव का समर्थन करता है। विचारों को ताक पे रखकर कुर्सी के लिए कुछ भी करने को तैयार है विपक्ष। संसद के गरिमा की चिंता किये बगैर नोटों की गड्डियां दिखाता है विपक्ष। फिल्म में जो खूनी खेल दिखाया गया है वैसा तो नहीं मगर एक खूनी खेल हमारे देश की राजनीति में हमें देखने को मिलता है जहां हर रोज़ खून होता है हमारे विश्वास का, जहां हर रोज़ हनन होता है हमारी सोच का। सच कहूं तो फिल्म का खूनी खेल ही ज्यादा अच्छा लगता है, कम से कम, जनता के साथ तो कोई खेल नहीं होता वहाँ। फिल्म में विचारों की कोई लड़ाई नहीं और शायद यही कारण है कि अंत में जब परिणाम आता है तो जनता भी विचारों के आधार पर वोट न डालकर सहानुभूति के आधार पर फैसला करती है। खेल का वो परिणाम निकलता है जिसे स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए कोई खिलाडी जिंदा नहीं बचता। शायद इस मामले में कहानी थोड़ी मात खाती है और राजनीति महान बनते बनते रह जाती है, हाँ, अच्छी जरूर बनती है मगर यादगार नहीं!!!
कई भाग में फिल्म की कहानी प्रकाश जा के नाम के अनुरूप सशक्त लगी मगर कुछ बातों में कमजोर भी। राष्ट्रवादी पार्टी के बंटवारे के पहले कहीं भी किसी विपक्षी पार्टी का कोई नामो-निशान नहीं मिला। राजनीति से ज्यादा फिल्म किसी रजवाड़े की लड़ाई जैसी लगी जहां दो भाई सिंहासन के लिए मारकाट पर तुले हैं। फिर भी, सशक्त अभिनय और बेजोड़ निर्देशन के बूते फिल्म दिल में जगह बनाने में सफल रही। नाना पाटेकर अपनी सूत्रधार की भूमिका में खूब जंचे, तो अरसे बाद मनोज वाजपयी अपने रंग में दिखे। अर्जुन रामपाल 'Rock On' की अपनी स्वर्णिम सफलता को यहाँ भी बरकरार रखने में सफल होते हैं। रणबीर कपूर ने अपना किरदार पूरी तन्मयता के साथ निभाया है। कटरीना कैफ कहानी के मुताबिक़ अपने दोनों शेड को बखूभी निभाती हुई शुरू में कामुक भी लगीं हैं और बाद में राजनेत्री के रूप में सशक्त भी। सब मिलाकर कहानी, कास्टिंग, निर्देशन और अभिनय के बल पर जो राजनीति बनकर तैयार हुई है काफी अच्छी लगी है।

Wednesday, June 02, 2010

आखिर क्यूँ नहीं आते भारत में ओलम्पिक पदक!!!

जब से मैंने होश संभाला है और ओलम्पिक खेलों के बारे में थोड़ा जाना है, तब से आजतक चार ओलम्पिक खेल हो चुके हैं। इन चार खेलों में भारत के पदकों की संख्या ६ रही है जिनमे से तीन हमने अंतिम ओलम्पिक में ही जीते थे। पहले के तीन खेलों में सिर्फ तीन पदक आये थे। उसके पहले के न जाने कितने ओलम्पिक हमारे लिए शिफर साबित हुए मुझे नहीं मालूम, मगर इतना जरूर मालूम है कि खेलों के इतिहास में कभी हमारी स्थिति ऐसी नहीं रही जिससे हम सीना फुला सकें। ले-देकर सबसे अच्छी स्थिति हमारी अंतिम खेलों में ही थी।
ओलम्पिक, राष्ट्रमंडल या एशियाड जैसे खेलों में अपनी स्थिति इतनी खराब क्यूँ है इसकी चर्चा कई बार हो चुकी है। आप भी कहेंगे, इस पगले को आज क्या सूझी जो अभी ये बात लेकर आ गया। आप में से कई ये बात सोच भी चुके होंगे कि अभी निकट भविष्य में तो ऐसा कोई खेल होने वाला नहीं है, फिर इस समय इस बात का क्या औचित्य है। आज खबर मालूम हुई कि भारतीय क्रिकेट टीम एशियाड के क्रिकेट स्पर्धा में हिस्सा नहीं ले रही। BCCI ने साफ़ कर दिया है कि उसी समय हो रहे टेस्ट मैचों के कारण टीम वहाँ नहीं जा रही और ऐसी सूरत में किसी 'बी' टीम को भी नहीं भेजा जा रहा। इस खबर को सुनकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। BCCI से मुझे ऐसी ही उम्मीद थी। न वहाँ करोड़ों के TV rights हैं न अरबों के प्रायोजक। एक साधारण से रिबन में लटके एक पदक के लिए यदि BCCI अपनी टीम को वहाँ भेजती है तो इसमें तो उसकी हंसी ही उड़ेगी। इसलिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ ये जानकर कि BCCI का ऐसे किसी पदक के प्रति कोई झुकाव नहीं है। अभी तो एशियाड की ही बात है, अगर ओलम्पिक भी होता तो भी भारतीय टीम उसका हिस्सा नहीं होती। जिस देश में ऐसे खेल sangh हैं जो एशियाड के पदक को कोई महत्व नहीं dete उस देश में चार ओलम्पिक खेलों में ६ पदक आ जाते हैं, ये कोई कम बात नहीं।
BCCI ने जितनी आसानी से एशियाड से अपना पल्ला झाड़ लिया है उतनी आसानी से कोई और खेल संघ क्या अपना पल्ला झाड़ सकता है। नहीं, ये क्रिकेट है, इसे हमारा साथ मिला हुआ है, इसे 100 करोड़ भारतीय का साथ मिला हुआ है इसे कोई चिंता नहीं। BCCI कुछ भी करे लोग क्रिकेट देखते रहेंगे और उनकी जेबें भरती रहेंगी. क्या BCCI को दोषी ठहराना उचित है? दोषी तो हम ही हैं जिनके लिए क्रिकेट के सामने ओर कोई खेल खेल ही नहीं एक उदहारण देता हूँ

भारतीय क्रिकेट टीम ने 1983 में विश्व कप जीता
कपिल देव कप्तान थे जहां मोहिंदर अमरनाथ को सेमी-फ़ाईनल और फ़ाईनल दोनों में मैन ऑफ़ द मैच का खिताब मिला वहीँ रोजर बिन्नी मैन ऑफ़ द सीरिज के पुरस्कार से नवाजे गए। '87 में भारतीय टीम सेमी-फ़ाईनल से बाहर हुई तो '92 में सेमी-फ़ाईनल तक पहुँच भी नहीं सकी। '96 में एक बार फिर सेमी-फ़ाईनल से बाहर हुई हमारी टीम। इस तरह मुझे अभी तक के सभी विश्व कप में भारत का प्रदर्शन याद है। मुझे कोई शक नहीं कि ये सिर्फ मैं नहीं जिसे ये सब याद है, और भी कई लोग हैं जिन्हें ये सब याद है। अब हर उस आदमी से (मुझे लेकर), ये पूछिए कि '80 ओलम्पिक में जब भारतीय हौकी टीम ने आखरी स्वर्ण जीता था तो कप्तान कौन थे। छोड़िये ये, ये पुरानी बात है। पूछिए किसी से भी कि निशानेबाजी के कौन सी स्पर्धा में अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण जीता या राज्यवर्धन राठौर ने रजत हासिल किया। पूछिए कि कर्णम मल्लेश्वरी ने किस वजन-ग्रुप में पदक हासिल किया था या लिएन्डर पेस ने किसे हराकर कांस्य जीता था। कुछ को तो शायद ये भी नहीं याद होगा कि विजेंद्र सिंह और सुशील कुमार ने किस खेल में हमें पदक दिलाया था। खुशियाँ हमने हर पदक के बाद मनाया था, गर्वान्वित हम हमेशा हुए थे मगर सिर्फ कुछ देर के लिए।
आवाजें उठती हैं कि सभी खेल संघों में राजपाट की तरह लोग कुर्सी में काबिज होकर बैठे हैं। पदक न जीत पाने का सारा ठीकरा देश में काबिज अल्प-सुविधाओं पर फोड़ दिया जाता है। एक ओलम्पिक ख़त्म होता है, हम कुछ पदक से खुश होते हैं और साथ में दुखी होते हैं फिर से लचर प्रदर्शन के लिए। ओलम्पिक ख़त्म, सब कुछ ख़त्म। 4 साल बाद फिर सब कुछ वापस दोहराया जाता है। इन चार सालों में किसी को कभी याद भी नहीं आती ऐसे खेलों की। ओलम्पिक के बारे में तो फिर भी हमें कुछ मालूम होता है मगर राष्ट्रमंडल और एशियाड जैसे खेलों के बारे में हम कोई चिंता भी नहीं करते। अगर आप करते हैं तो बताइए कि पिछला राष्ट्रमंडल और पिछला एशियाड कहाँ खेला गया था। मुझे नहीं याद और शायद इसलिए आज मैं आत्म-भर्त्सना कर रहा हूँ। अगर आपको याद है तो बताइए, विकिपीडिया या मनोरमा इयर बुक का सहारा मत लीजियेगा।
सच सच बताइए कि आप कितनी चिंता करते हैं इन खेलों की। और ये भी बताइए कि कितनी गालियाँ देते हैं सरकार और सिस्टम को, जब एक भी पदक नहीं मिलता। कितना आसन होता है न सिस्टम को गरिया देना। बचपन से ही सिखाया जाता है। सिस्टम न हुआ गली का कुत्ता हुआ। कुछ भी हो सिस्टम को गाली पड़ती ही है। एक भगवान्, एक कलयुग और एक सिस्टम, इन तीनों को न जाने कितनों के किये की सजा गाली के रूप में मिलती है। कुछ हुआ नहीं कि बस 'हे भगवान्, ये तूने क्या कर डाला' या फिर 'क्या करोगे भाई, कलयुग आ गया है' और नहीं तो फिर सिस्टम तो है ही सब के लिए। अगर गलत बोल रहा हूँ तो बताइए। आगे से कभी भी इन तीनों को गरियाने के पहले सोचियेगा कि आपने क्या किया है।
सिस्टम को गलिया देने से कुछ नहीं होने वाला। जरुरत है खुद सुधरने की। हाँ ठीक है कि क्रिकेट आपको पसंद है मगर क्या आपने कभी दुसरे खेलों को पसंद करने की कोशिश भी की है। कभी करके देखिएगा, सभी खेल पसंद आयेंगे। आप साथ दीजियेगा तो भारत में पदक आयेंगे। हमारे यहाँ प्रतिभाओं की कमी नहीं, सुविधाओं की भी उतनी कमी नहीं जितनी प्रोत्साहन की है। हम अगर ओलम्पिक में पदक चाहते हैं तो खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देना होगा। सब कुछ हमें ही करना है, चलिए कुछ कदम उठायें हम!!!