जब से मैंने होश संभाला है और ओलम्पिक खेलों के बारे में थोड़ा जाना है, तब से आजतक चार ओलम्पिक खेल हो चुके हैं। इन चार खेलों में भारत के पदकों की संख्या ६ रही है जिनमे से तीन हमने अंतिम ओलम्पिक में ही जीते थे। पहले के तीन खेलों में सिर्फ तीन पदक आये थे। उसके पहले के न जाने कितने ओलम्पिक हमारे लिए शिफर साबित हुए मुझे नहीं मालूम, मगर इतना जरूर मालूम है कि खेलों के इतिहास में कभी हमारी स्थिति ऐसी नहीं रही जिससे हम सीना फुला सकें। ले-देकर सबसे अच्छी स्थिति हमारी अंतिम खेलों में ही थी।
ओलम्पिक, राष्ट्रमंडल या एशियाड जैसे खेलों में अपनी स्थिति इतनी खराब क्यूँ है इसकी चर्चा कई बार हो चुकी है। आप भी कहेंगे, इस पगले को आज क्या सूझी जो अभी ये बात लेकर आ गया। आप में से कई ये बात सोच भी चुके होंगे कि अभी निकट भविष्य में तो ऐसा कोई खेल होने वाला नहीं है, फिर इस समय इस बात का क्या औचित्य है। आज खबर मालूम हुई कि भारतीय क्रिकेट टीम एशियाड के क्रिकेट स्पर्धा में हिस्सा नहीं ले रही। BCCI ने साफ़ कर दिया है कि उसी समय हो रहे टेस्ट मैचों के कारण टीम वहाँ नहीं जा रही और ऐसी सूरत में किसी 'बी' टीम को भी नहीं भेजा जा रहा। इस खबर को सुनकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। BCCI से मुझे ऐसी ही उम्मीद थी। न वहाँ करोड़ों के TV rights हैं न अरबों के प्रायोजक। एक साधारण से रिबन में लटके एक पदक के लिए यदि BCCI अपनी टीम को वहाँ भेजती है तो इसमें तो उसकी हंसी ही उड़ेगी। इसलिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ ये जानकर कि BCCI का ऐसे किसी पदक के प्रति कोई झुकाव नहीं है। अभी तो एशियाड की ही बात है, अगर ओलम्पिक भी होता तो भी भारतीय टीम उसका हिस्सा नहीं होती। जिस देश में ऐसे खेल sangh हैं जो एशियाड के पदक को कोई महत्व नहीं dete उस देश में चार ओलम्पिक खेलों में ६ पदक आ जाते हैं, ये कोई कम बात नहीं।
BCCI ने जितनी आसानी से एशियाड से अपना पल्ला झाड़ लिया है उतनी आसानी से कोई और खेल संघ क्या अपना पल्ला झाड़ सकता है। नहीं, ये क्रिकेट है, इसे हमारा साथ मिला हुआ है, इसे 100 करोड़ भारतीय का साथ मिला हुआ है इसे कोई चिंता नहीं। BCCI कुछ भी करे लोग क्रिकेट देखते रहेंगे और उनकी जेबें भरती रहेंगी. क्या BCCI को दोषी ठहराना उचित है? दोषी तो हम ही हैं जिनके लिए क्रिकेट के सामने ओर कोई खेल खेल ही नहीं। एक उदहारण देता हूँ।
भारतीय क्रिकेट टीम ने 1983 में विश्व कप जीता। कपिल देव कप्तान थे। जहां मोहिंदर अमरनाथ को सेमी-फ़ाईनल और फ़ाईनल दोनों में मैन ऑफ़ द मैच का खिताब मिला वहीँ रोजर बिन्नी मैन ऑफ़ द सीरिज के पुरस्कार से नवाजे गए। '87 में भारतीय टीम सेमी-फ़ाईनल से बाहर हुई तो '92 में सेमी-फ़ाईनल तक पहुँच भी नहीं सकी। '96 में एक बार फिर सेमी-फ़ाईनल से बाहर हुई हमारी टीम। इस तरह मुझे अभी तक के सभी विश्व कप में भारत का प्रदर्शन याद है। मुझे कोई शक नहीं कि ये सिर्फ मैं नहीं जिसे ये सब याद है, और भी कई लोग हैं जिन्हें ये सब याद है। अब हर उस आदमी से (मुझे लेकर), ये पूछिए कि '80 ओलम्पिक में जब भारतीय हौकी टीम ने आखरी स्वर्ण जीता था तो कप्तान कौन थे। छोड़िये ये, ये पुरानी बात है। पूछिए किसी से भी कि निशानेबाजी के कौन सी स्पर्धा में अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण जीता या राज्यवर्धन राठौर ने रजत हासिल किया। पूछिए कि कर्णम मल्लेश्वरी ने किस वजन-ग्रुप में पदक हासिल किया था या लिएन्डर पेस ने किसे हराकर कांस्य जीता था। कुछ को तो शायद ये भी नहीं याद होगा कि विजेंद्र सिंह और सुशील कुमार ने किस खेल में हमें पदक दिलाया था। खुशियाँ हमने हर पदक के बाद मनाया था, गर्वान्वित हम हमेशा हुए थे मगर सिर्फ कुछ देर के लिए।
आवाजें उठती हैं कि सभी खेल संघों में राजपाट की तरह लोग कुर्सी में काबिज होकर बैठे हैं। पदक न जीत पाने का सारा ठीकरा देश में काबिज अल्प-सुविधाओं पर फोड़ दिया जाता है। एक ओलम्पिक ख़त्म होता है, हम कुछ पदक से खुश होते हैं और साथ में दुखी होते हैं फिर से लचर प्रदर्शन के लिए। ओलम्पिक ख़त्म, सब कुछ ख़त्म। 4 साल बाद फिर सब कुछ वापस दोहराया जाता है। इन चार सालों में किसी को कभी याद भी नहीं आती ऐसे खेलों की। ओलम्पिक के बारे में तो फिर भी हमें कुछ मालूम होता है मगर राष्ट्रमंडल और एशियाड जैसे खेलों के बारे में हम कोई चिंता भी नहीं करते। अगर आप करते हैं तो बताइए कि पिछला राष्ट्रमंडल और पिछला एशियाड कहाँ खेला गया था। मुझे नहीं याद और शायद इसलिए आज मैं आत्म-भर्त्सना कर रहा हूँ। अगर आपको याद है तो बताइए, विकिपीडिया या मनोरमा इयर बुक का सहारा मत लीजियेगा।
सच सच बताइए कि आप कितनी चिंता करते हैं इन खेलों की। और ये भी बताइए कि कितनी गालियाँ देते हैं सरकार और सिस्टम को, जब एक भी पदक नहीं मिलता। कितना आसन होता है न सिस्टम को गरिया देना। बचपन से ही सिखाया जाता है। सिस्टम न हुआ गली का कुत्ता हुआ। कुछ भी हो सिस्टम को गाली पड़ती ही है। एक भगवान्, एक कलयुग और एक सिस्टम, इन तीनों को न जाने कितनों के किये की सजा गाली के रूप में मिलती है। कुछ हुआ नहीं कि बस 'हे भगवान्, ये तूने क्या कर डाला' या फिर 'क्या करोगे भाई, कलयुग आ गया है' और नहीं तो फिर सिस्टम तो है ही सब के लिए। अगर गलत बोल रहा हूँ तो बताइए। आगे से कभी भी इन तीनों को गरियाने के पहले सोचियेगा कि आपने क्या किया है।
सिस्टम को गलिया देने से कुछ नहीं होने वाला। जरुरत है खुद सुधरने की। हाँ ठीक है कि क्रिकेट आपको पसंद है मगर क्या आपने कभी दुसरे खेलों को पसंद करने की कोशिश भी की है। कभी करके देखिएगा, सभी खेल पसंद आयेंगे। आप साथ दीजियेगा तो भारत में पदक आयेंगे। हमारे यहाँ प्रतिभाओं की कमी नहीं, सुविधाओं की भी उतनी कमी नहीं जितनी प्रोत्साहन की है। हम अगर ओलम्पिक में पदक चाहते हैं तो खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देना होगा। सब कुछ हमें ही करना है, चलिए कुछ कदम उठायें हम!!!
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