Sunday, June 06, 2010

'राजनीति', कलयुगी महाभारत का खूनी खेल!!!


शुक्रवार को राजनीति फिल्म देखने गया था। काफी महीने हो गए थे कोई हिंदी फिल्म देखे हॉल में, इसलिए एक हफ्ते पहले काइट्स देखने की भी लालसा थी मगर एडवांस बुकिंग के चक्कर में टिकट नहीं मिल सका और जब समीक्षाओं को पढ़ा तो फिर देखने की हिम्मत नहीं हुई। भला मनाया एडवांस बुकिंग का जिसके कारण टिकट नहीं मिल सकी और पैसे बर्बाद होने से बच गए। राजनीति के प्रोमो देखकर फिल्म के प्रति जिज्ञासा बढती ही जा रही थी और इसलिए इस बार समीक्षा पढने का खतरा नहीं उठाना चाहा और एडवांस बुकिंग के पैसे बचाने के एहसान का बदला इस बार एडवांस में टिकट कटा कर चुका लिया।
प्रोमो देखकर और प्रकाश झा का नाम जुड़ा होने के कारण फिल्म के बारे में एक पूर्वानुमान बन गया था कि शायद गाँधी परिवार की कहानी बिहारी पृष्ठभूमि में दिखाई जायेगी। पूर्वानुमान पूर्णतया गलत साबित हुई। गाँधी परिवार से कोई सरोकार नहीं निकला इस फिल्म में। फिल्म देखकर लगा जैसे महाभारत की कहानी को कलयुगी चूल्हे पर 'The Godfather' का तड़का लगाकर 'सरकार' और 'सरकार राज' की चासनी में पड़ोस दिया गया हो। एक खिचड़ी पका दी गयी है जिसमे महाभारत के किरदारों को 'Godfather' की निर्ममता और क्रूरता प्रदान कर दी गयी है।
प्रथमार्ध का भीष्म पितामह (नाना पाटेकर) उत्तरार्ध का कृष्ण बन जाता है। ध्रितराष्ट्र अँधा नहीं अपाहिज बन जाता है, पांडू दुर्योधन (मनोज वाजपयी) को गद्दी से दूर रखने का हर संभव प्रयास करता है, युधिष्ठीर (अर्जुन रामपाल) धर्मराज नहीं रह जाता है मगर कलयुगी धर्मों का भरी भांति पालन करता है। कुंती अर्जुन (रणबीर कपूर) की जान की रक्षा के लिए कर्ण (अजय देवगन) के पास जाती है मगर माँ की ममता कहीं छोड़ देती है, साथ लेकर जाती है सिर्फ राजनीति। कर्ण रश्मिरथी वाला कर्ण नहीं है, दुर्योधन के सभी दुष्कर्मों का संयोजक है कर्ण, और जब मौका दुर्योधन की जान बचाने का आता है तो उसके कदम फिसल जाते हैं। अर्जुन के प्रति अचानक संवेदनाएं जाग जाती हैं। दुर्योधन मारा जाता है और कृष्ण के उकसाने पर कर्ण का भी वध अर्जुन कर देता है। पूरे खूनी खेल में युधिष्ठीर भी नहीं बचता, गद्दी अंततः द्रौपदी के हाथ में आती है। जिस गद्दी के लिए पूरा खूनी खेल होता है वो किसी खिलाडी को नहीं मिलता। सहानुभूति की सीढ़ी चढ़ती हुई द्रौपदी सीधे गद्दी तक पहुच जाती है।
राजनीति को विचारधाराओं की स्वच्छ लड़ाई समझने वालों के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं। नीतियां कहीं दिखती नहीं, रह जाता है सिर्फ राज, रह जाती है राज करने के लिए न ख़त्म होने वाली रंजिश, और रह जाते हैं राज करने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले खूनी खिलाड़ी। पारिवारिक रंजिश में राजनीतिक विचारधाराएँ को निर्देशक कहीं मिला नहीं पाता। शायद आज की राजनीति का सही चित्रांकन किया गया है। 30 साल पहले भाष्कर सान्याल (नसीरुद्दीन शाह) द्वारा पूंजीवाद के खिलाफ चलाया गया साम्यवादी आन्दोलन कई मायनों में यथार्थ के करीब लगा। पूरी फिल्म में एक वही समय लगा जब राजनीति विचारों के बूते पर लड़ी जा रही थी। बाकी पूरी फिल्म में आज की भारतीय राजनीति की तरह कोई विचारधारा नहीं, कोई मुद्दा नहीं बस निरंतर लड़ाई चल रही है। परमाणु मुद्दे पर BJP के विचार कांग्रेस से इतर नहीं मगर फिर भी लेफ्ट के अविश्वाश प्रस्ताव का समर्थन करता है। विचारों को ताक पे रखकर कुर्सी के लिए कुछ भी करने को तैयार है विपक्ष। संसद के गरिमा की चिंता किये बगैर नोटों की गड्डियां दिखाता है विपक्ष। फिल्म में जो खूनी खेल दिखाया गया है वैसा तो नहीं मगर एक खूनी खेल हमारे देश की राजनीति में हमें देखने को मिलता है जहां हर रोज़ खून होता है हमारे विश्वास का, जहां हर रोज़ हनन होता है हमारी सोच का। सच कहूं तो फिल्म का खूनी खेल ही ज्यादा अच्छा लगता है, कम से कम, जनता के साथ तो कोई खेल नहीं होता वहाँ। फिल्म में विचारों की कोई लड़ाई नहीं और शायद यही कारण है कि अंत में जब परिणाम आता है तो जनता भी विचारों के आधार पर वोट न डालकर सहानुभूति के आधार पर फैसला करती है। खेल का वो परिणाम निकलता है जिसे स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए कोई खिलाडी जिंदा नहीं बचता। शायद इस मामले में कहानी थोड़ी मात खाती है और राजनीति महान बनते बनते रह जाती है, हाँ, अच्छी जरूर बनती है मगर यादगार नहीं!!!
कई भाग में फिल्म की कहानी प्रकाश जा के नाम के अनुरूप सशक्त लगी मगर कुछ बातों में कमजोर भी। राष्ट्रवादी पार्टी के बंटवारे के पहले कहीं भी किसी विपक्षी पार्टी का कोई नामो-निशान नहीं मिला। राजनीति से ज्यादा फिल्म किसी रजवाड़े की लड़ाई जैसी लगी जहां दो भाई सिंहासन के लिए मारकाट पर तुले हैं। फिर भी, सशक्त अभिनय और बेजोड़ निर्देशन के बूते फिल्म दिल में जगह बनाने में सफल रही। नाना पाटेकर अपनी सूत्रधार की भूमिका में खूब जंचे, तो अरसे बाद मनोज वाजपयी अपने रंग में दिखे। अर्जुन रामपाल 'Rock On' की अपनी स्वर्णिम सफलता को यहाँ भी बरकरार रखने में सफल होते हैं। रणबीर कपूर ने अपना किरदार पूरी तन्मयता के साथ निभाया है। कटरीना कैफ कहानी के मुताबिक़ अपने दोनों शेड को बखूभी निभाती हुई शुरू में कामुक भी लगीं हैं और बाद में राजनेत्री के रूप में सशक्त भी। सब मिलाकर कहानी, कास्टिंग, निर्देशन और अभिनय के बल पर जो राजनीति बनकर तैयार हुई है काफी अच्छी लगी है।

1 comment:

आशीष मिश्रा said...

कुल मिलाकर यह फिल्म किसी नेक उद्देश्य को बताने के लिये बनायी ही नही गयी है, परंतु राजनिती की गंदगी को भली-भाँति उजागर करती है.