Wednesday, June 23, 2010

'रावण' का रामायण 'राजनीति' के महाभारत से क्यूँ हार गया?

इधर फिल्म जगत में काफी हलचल रही। पहले प्रकाश झा की 'राजनीति' प्रदर्शित हुई तो पीछे-पीछे मणिरत्नम 'रावण' लेकर आ गए। राजनीति तो देख चुका हूँ और रावण के बारे में पढ़कर अब उसे देखने की कोई लालसा नहीं रह गयी है। राजनीति के बारे में अपने विचारों को अपने ब्लॉग पर लिखा भी है दोनों फिल्मों में एक समानता जरूर है। जहां 'राजनीति' महाभारत के कलयुगी संस्करण को पेश करता है वहीँ 'रावण' रामायण पर आधारित बताया जा रहा है। हालांकि न सुदर्शन चक्र धारण किये कृष्ण हैं न शिव-धनुष तोड़ते हुए राम ही हैं, इसलिए हो सकता है कि धर्म का पाखण्ड की हद तक अनुसरण करने वालों को शायद इन फिल्मों में इन कथाओं का अक्स नज़र न आये मगर फिर भी हमारे फिल्म-इंडस्ट्री के दो प्रख्यात फिल्मकारों ने जिस तरह से अपनी फिल्मों को हमारे पौराणिक कथाओं पर आधारित किया है उसका स्वागत हमें जरूर करना चाहिए।
खैर, दोनों फ़िल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं और 'राजनीति' को सुपरहिट और 'रावण' को फ्लॉप का दर्ज़ा भी दिया जा चुका है। तो ऐसा क्यूँ हो गया कि रामायण आज महाभारत से मात खा गया। इसका कारण इन दोनों फिल्मों की गुणवत्ता हो सकती है। हो सकता है कि रावण सच में बहुत ख़राब फिल्म हो मगर एक पहलु इसका हमारी कलयुगी मानसिकता भी हो सकती है। ऐसी मानसिकता जिससे आज कलयुग में हमें रामायण से ज्यादा अच्छा महाभारत लगने लगता है। अपने हिन्दू आध्यात्म की तरफ थोडा ध्यान से देखेंगे तो पायेंगे कि महाभारत का द्वापर युग, रामायण के त्रेता युग के मुकाबले हमारे कलयुग से ज्यादा नजदीक है।
ज्यादा माथापच्ची करने की जरुरत नहीं है। हिन्दू ग्रंथों में चार युग का वर्णन किया गया है। सृष्टि की शुरुआत सतयुग से होती है। ऐसा युग जिसमे कोई दानव नहीं है। भगवान् हैं जो इस सृष्टि की रचना कर रहे हैं और उन्हें बाधाएं पहुचाने वाले नगण्य हैं। सतयुग के बाद त्रेता युग आता है, राम और रावण का युग। इस युग में भगवान् हैं और साथ में दानव भी हैं। ये ऐसे दानव हैं जो भगवान् की आराधना करते हैं और उनसे आशीर्वाद पाकर अकूत शक्ति के मालिक बनते हैं। हालांकि उनका अंत उनके बढ़ते हुए घमंड के कारण अपरिहार्य हो जाता है और भगवान् को स्वयं राम का रूप लेकर आना पड़ता है। त्रेता युग के बाद द्वापर युग आता है, श्रीकृष्ण का युग, पांडवों और कौरवों का युग। ये एक ऐसा युग था जहां भगवान् की अराधना करने वाले दानवों कि जगह भगवान् को न मानने वाले अधर्मियों ने ले ली थी। सच और धर्म के साथ रहने वाले पांच पांडवों के खिलाफ सौ कौरव दानव का रूप लेकर खड़े थे। एक ऐसा युग था जहाँ भाई को भाई नहीं समझा जाता था, मामा अपने भांजे की दुर्गति का कारण बनता था, कुल मिलाकर रिश्तों की परिभाषा ख़त्म हो रही थी।
इसी राह पर आगे चलते हैं। द्वापर युग के बाद हमारा अपना कलयुग आ गया। जहां द्वापर युग में फिर भी भगवान् का अस्तित्व था वहीँ कलयुग में भगवान् ने आने से ही इनकार कर दिया। जहां पांच पांडवों के खिलाफ सिर्फ 100 कौरव थे वहीँ आज कौरवों की तुलना में पांडव नगण्य हैं। ये तो बदलती हुई परंपरा है जिसे कलयुग ने निभाया है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश के त्रिदेव की जगह अगले युग में जहां मर्यादा-पुरुषोत्तम राम लेते हैं वहीँ उन्हें अपनी जगह द्वापर युग में रास-रसईया श्रीकृष्ण के लिए छोड़नी पड़ती है। अब रणछोड़ श्रीकृष्ण किसके लिए अपनी जगह छोड़ते, श्री राम के चरित्र में थोड़ी गिरावट आई तो भी वो कृष्ण बनकर भगवान् कहलाने के लायक रहे मगर श्री कृष्ण के चरित्र में थोड़ी सी भी गिरावट क्या भगवान् कहलाने के लायक रह पाती। कलयुग ने क्या बिगाड़ा है किसी का। चलती हुई परंपरा को उसने भी ढोया है और तो कुछ नहीं किया उसने। फिर क्यूँ आज जब किसी की बेटी अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है तो ज़माना कलयुग को दोषी बनाकर कहता है, "क्या कर सकते हैं, कलयुग आ गया है।"
अपने सामाजिक मूल्यों में आई इन गिरावट का ही तो असर नहीं कि आज हमें चार भाइयों के प्यार को दर्शाने वाला रामायण, भाइयों के मारकाट को दर्शाने वाले महाभारत से नीचा नजर आता है। महा-विद्वान् रावण आज मुर्ख दुर्योधन के सामने बौना नजर आता है, कहीं ये भी कलयुग का ही तो असर नहीं। खैर जो भी है, सच में कुछ भी किया नहीं जा सकता। कलयुग है क्यूँकि हम ऐसे हैं। कलयुग ऐसा इसलिए है क्यूँकि हमारे मन काले हैं। परम्पराओं को दोषी ठहरा कर हम कुछ नहीं कर सकते। अपने आप को बदलना होगा, अपनी सोच को बदलना होगा। बदल कर देखिये, कलयुग में भी सतयुग का आनंद मिलेगा!!!

2 comments:

दिवाकर मिश्र said...

आपका चित्रण बहुत ही दार्शनिक है | गहरी नज़र रखी है आपने समाज के गिरते स्तर पर । पर समाज पर ज्यादा दोष मढ़ दिया । पर रावण को न पसन्द करने का कारण त्रेतायुग से दूरी नहीं है । रेडियो पर सुने हुए दो कमेंट देखिए - (१) इतनी पुरानी कहानी को क्यों बिगाड़ रहे हो (२) जाइए रावण देख आइये, मणिरत्नम जी इसमें कहानी डालना भूल गए, इससे क्या हुआ फिर भी बहुत कुछ है इस फिल्म में देखने के लिए । फिल्म में हिट कराने लायक बहुत कुछ है पर कहानी के कारण मात खा गई । लोगों को रावण की अच्छाइयों को देखने से कोई ऐतराज नहीं है । फिल्मकारों को कभी कभी गलतफ़हमी हो जाती है कि मसाले में छौंकने से प्रदूषित सब्जी भी स्वादिष्ट हो जाती है । मणिरत्नम ने सोचा कि अच्छे फिल्मांकन, अच्छे गानों के बीच कुछ भी दिखा देंगे । पर जो वे दिखाना चाह रहे थे वह कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे । "मणिरत्नम कह रहे हैं कि ये रामायण के पात्र नहीं हैं । वे इसका खतरा जानते हैं । अगर वे ऐसा कहते तो यह फिल्म दक्षिण के अलावा कहीं रिलीज नहीं हो पाती ।" -यह मेरा कहना नहीं है, एक समाचार पत्र में लिखा था ऐसा । बहुसंख्यक भारतीय जनता की श्रद्धा से खिलवाड़ करने के लिए जो रोमांस कथा इन्होंने डाली थी, मसाले के साथ नँघा देने के लिए, वही इस फिल्म को ले डूबी । समाज का उतना पतन नहीं हुआ है जितना आपने इस टिप्पणी में कारण के रूप में बताया । रावण को न पसन्द करने का कारण मूल्यों की गिरावट नहीं, मूल्यों में आस्था है । यहाँ फिर से कह रहा हूँ कि राम में श्रद्धा रखने वाले को रावण की अच्छाइयाँ देखने से ऐतराज़ नहीं है ।

Aashu said...

@दिवाकर जी: धन्यवाद, आप आये ओर यहाँ पर अपनी टिप्पणी दी। मैं शायद अपनी बात को उतने साफ़ तरीके से नहीं रख पाया जितना रखा जाना चाहिए था। खैर, मेरे इस पोस्ट का 'रावण' फिल्म के फ्लॉप होने से कोई वास्ता नहीं है। फिल्म मैंने देखी नहीं है इसलिए कहानी पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। रही बात रावण को नापसंद करने की जिसपे आपने कहाँ है कि यह मूल्यों के गिरावट के नहीं बल्कि मूल्यों पर आस्था के कारण है, तो यहाँ भी अपने आशय को थोडा स्पष्ट कर दूं। मैंने रावण को नापसंद करने की बात राम के तुलना में नहीं बल्कि दुर्योधन की तुलना में कही है। अगर रावण को राम की तुलना में नापसंद किया जाता है तो वो जरुर मूल्यों में आस्था है मगर इतना तो आप जरूर मानेंगे की त्रेता के रावण का द्वापर के दुर्योधन से कोई मुकाबला नहीं था।
एक छोटी सी बात थी जो मैंने कही थी, वो थी समाज में आई एक क्रमशः गिरावट के बारे में। हमारे मूल्य गिरे हैं, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। लेकिन यदि इस गिरावट का कारण कलयुग को बता दिया जाता है तो मुझे इससे आपत्ति है। ऐसा नहीं है कि यह सब कलयुग में अचानक हुआ है। सतयुग से लेकर कलयुग तक लगातार स्तर नीचे हुए हैं और कलयुग उसी कड़ी का सिर्फ एक हिस्सा भर है!