पिछले हफ्ते कोई ब्लॉग नहीं लिख पाया। कारण कुछ ख़ास नहीं था, बस, पढाई की थोड़ी टेंशन और कुछ निकटतम मित्रों से हुई अनबन ने सारा खेल बिगाड़ दिया। खैर, 16 तारीख को साल भर लम्बी चलने वाली इंटर्नशिप ड्यूटी का पहिया चर्म रोग विभाग में आकर रुका। 3 दिन चर्म रोग विभाग के OPD में ड्यूटी करने के बाद कैसा लग रहा है, क्या महसूस कर रहा हूँ, ये सब बाद में कभी बताऊंगा। इस पोस्ट में ख़ास तौर पर कुष्ठ रोग के बारे में कुछ बातें आपसे बांटना चाहता हूँ।
अभी जब आपने 'कुष्ठ रोग' शब्द पढ़ा होगा तो आपकी नज़रों के सामने आपके शहर के सबसे बड़े मंदिर की सीढियों का नज़ारा आ गया होगा। ट्रेन का इंतज़ार करते वक़्त प्लेटफोर्म पर भीख मांगते भिखमंगे याद आ गए होंगे। कुष्ठ रोग से कोई भी आम आदमी सबसे पहले ऐसी ही तस्वीर मन में बनाता है। टेढ़े-मेढ़े, बिना अँगुलियों के हाथ-पैर, उनपर वो लाल रंग के घाव, और वो सब कुछ जो उन्हें भीख मांगने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसी ही कुछ सोच मेरी भी थी इस बीमारी के बारे में। साढ़े चार साल की पढाई में कई बार इस बीमारी के बारे में पढ़ा मगर किताब में लिखी गयी बातों को नज़र से देखी हुई हकीकत के सामने तवज्जो नहीं दे पाया। डाक्टर होकर भी इस बीमारी के सिर्फ अंतिम भयानक रूप को ही समझ पाया था। कभी इस ओर ध्यान नहीं दे पाया कि ऐसी स्थिति किसी मरीज की अचानक नहीं होती। इस स्थिति तक पहुचने से पहले ही वहाँ तक पहुचने से इसे रोका जा सकता है।
जब पहले दिन चर्म रोग की OPD बैठा तो दंग रह गया। आने वाले हर 10 मरीजों में 2-3 कुष्ठ रोग के मरीज ही रहते थे। सही मायनों में कुष्ठ रोग से मेरी मुलाक़ात उसी दिन हुई। एक भला-पूरा स्वस्थ आदमी कमरे में प्रवेश करता है और हमारा ध्यान अपने हाथ पर के एक हलके रंग के धब्बे की तरफ ले जाता है। उस धब्बे की पड़ताल के बाद पता चलता है कि वो कुष्ठ रोग का ही एक धब्बा है। कुष्ठ रोग के अंतिम रूप, जो हमें भिखमंगों में दिखता है, की कल्पना से ही मन सिहर जाता है, मगर इस शुरूआती रूप को देखकर ऐसा कुछ भी नहीं होता। आदमी पूरी तरह से स्वस्थ होता है। कई बार तो एक धब्बे के सिवा और कोई शिकायत भी नहीं होती मरीज को। ऐसे मरीजों का इलाक्स संभव ही नहीं बल्कि आसान भी है। 6 महीने या साल भर चलने वाली दवाईयां सरकार की तरफ से मुफ्त में मिलती हैं। इलाज़ होता है और लोग ठीक भी होते हैं। इतने सरल इलाज़ के बावजूद भी हमें मंदिरों, तीर्थ-स्थानों और रेलवे प्लेटफोर्म पर ऐसे मरीजों की कोई कमी महसूस नहीं होती। यह अपने आप में इस समाज के मुंह पर एक तमाचा है। एक आदमी जो अपना सारा काम बिना किसी दिक्कत के कर सकता है वो कुछ सालों के अंतराल में एक ऐसी स्थिति में पहुच जाता है जहां उसके सिवा भीख मांगने के अलावा कोई चारा नहीं बचता, ये सिर्फ और सिर्फ हमारे समाज में इस बीमारी के प्रति जागरूकता की कमी के कारण है। मेरे जैसा डाक्टरी का विद्यार्थी जब इस बीमारी के बारे के सिर्फ एक ही रूप को पहचानता है तो औरों का क्या कहना।
कई बार ये सवाल उठ चूका है कि इलाज़ होते हुए भी इन मरीजों की तादाद में कोई कमी क्यूँ नहीं आती। ठीकरा कई बार मेडिकल साइंस पर और स्वस्थ्य विभाफ पर फोड़ा जा चूका है मगर ऐसा होना सिर्फ मेडिकल साइंस की नाकामी के कारण ही नहीं हो सकता। इसके पीछे एक बड़ा कारण समाज में इस बीमारी के प्रति फैली कुधारणाएं हैं। आज भी मरीज को दवाइयां देने वक़्त यह बतलाने में डर लगता है कि उसे क्या रोग हुआ है। इस बीमारी में मिलने वाली शारीरिक पीड़ा के साथ साथ इसे जान जाने के बाद एक मानसिक पीड़ा भी मरीजों को सहनी पड़ती है। इस बीमारी को पाप की निशानी मानने वाले इस समाज में अलग-थलग रह जाने का डर मरीजों को सताने लगता है। किसी से वो अपने कष्ट को बाँट नहीं पाते और स्वयं में घुटते रह जाते हैं। डर सिर्फ उसकी इस मानसिक पीड़ा का ही नहीं लगता हमें, बल्कि हम इलाज़ के प्रति उस मरीज के विश्वास को लेकर भी शशंकित रहते हैं। जैसे ही उसे पता चलता है कि उसे कुष्ठ रोग है वैसे ही वो सोचता है बनारस के घात पर गंगा स्नान करने का। और भी न जाने कितने अंध-विश्वास सदियों से जुड़े हैं इस बीमारी से जो आज भी इलाज़ के प्रति मरीजों के विश्वास को खोखला बनाने के लिए काफी हैं। समाज में इस बीमारी को कोढ़ का नाम दे दिया गया है। कोढ़ शब्द शायद पहली बार इस बीमारी के लिए ही उपयोग किया गया था मगर इस शब्द का उपयोग धड़ल्ले से हिंदी साहित्य वाले अपनी रचनाओं में हर उस चीज के लिए करते हैं जो घृणित है और जिन्हें समाज पाप का द्योतक मानता है।
ऐसी सोच रखने वाले हमारे समाज में जहां पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी भी कुष्ठ रोग के एक नाम का प्रयोग इस तरह से करते हैं उस समाज में इसके रोगियों के लिए क्या स्थान होगा ये समझ पाना बड़ा ही आसान है। दोष सिर्फ समाज का हो, ऐसा नहीं हो सकता। बराबर के भागीदार खुद खुस्थ रोग से पीड़ित रोगी भी हैं। ऐसे कई भिखमंगे आसानी से दिख जाते हैं जो इस रोग का बहाना करके काम करने की मेहनत से भीख मांग कर जी लेने की ज़िल्लत को ज्यादा आसान समझते हैं। कई भिखमंगे ऐसे होते हैं जिनका रोग ऐसी स्थिति में होता है जब उन्हें ठीक किया जा सकता है मगर वो इलाज़ नहीं करते और भीख मांगने में जुटे रहते हैं। सावन का महिना आ रहा है। सुल्तानगंज से देवघर कांवर लेकर चले जाइए। सैंकड़ों भिखमंगे ऐसे मिल जायेंगे जो अपने हाथ-पैर पर नेल-पोलिश लगाकर इस बीमारी का ढोंग करते नज़र आयेंगे। जब तक लोग इसी तरह से इस बीमारी का उपयोग इस घृणित कार्य के लिए करते रहेंगे, तब तक समाज इन्हें घृणा की नज़रों से देखता रहेगा। और तब तक इन रोगियों को समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान पाने के लिए इंतज़ार करना पड़ेगा। जरूरत है, खुद को सजग करने की, समाज को सजग करने की। मेडिकल साईंस तैयार है इससे लड़ने के लिए, पहल आप कर के तो देखिये। कोशिश कीजिये, इस कोढ़, जो समाज के मुंह पर यह बीमारी खुद है, को जड़ से मिटाने की। ये संभव है, चलिए हाथ बढ़ा कर देखते हैं!!!
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