Thursday, July 08, 2010

मन का डर, शायद...

एक बार फिर ब्लॉग पर कुछ हलचल हुए कई दिन हो गए। पिछले लगभग एक महीने से अस्पताल में भी कोई व्यस्तता नहीं है। इंटर्नशिप ड्यूटी का ये दौर अभी ऐसे विभागों से गुजर रहा है जहां जाना जरूरी नहीं है इसलिए ज्यादा समय किताबों के साथ घर पर ही बीत गया। थोड़ी पढाई, ढेर सारा आराम, यही दिनचर्या बन कर रह गयी है। पिछले कुछ दिनों से, हालांकि, कुछ पारिवारिक उलझनों में उलझ कर रह गया हूँ। माँ के शब्दों में कहूं तो कोई ग्रह-गोचर का साया लग गया है परिवार पर। पहले माँ की तबीयत थोड़ी सी खराब हुई, फिर मौसी की, फिर मामी की और अब खबर आई है कि 6 महीने की भतीजी की तबीयत खराब हो गयी है। एक से छुटकारा मिलता नहीं कि दूसरी बुरी खबर दस्तक दे देती है। सबसे बुरी बात तो ये रही कि बीमारियों की गंभीरता भी उनके क्रमशः ही बढती जा रही है।
डाक्टर हूँ, गंभीरता को समझ सकता हूँ, इन बीमारियों से मरीजों को मरते देखा है और यही कारण है कि डर रहा हूँ। छोटे-छोटे ग्रह कहीं कोई बड़ा हादसा न पैदा कर दें। कुछ भी सही नहीं लग रहा। हर वक़्त मन डरा सा रह रहा है। फ़ोन पर आये किसी भी बीप के साथ दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है। लगता है, अब क्या हुआ। कोई बुरी खबर नहीं मिलती तो मन थोडा शांत होता है मगर फिर वही सारा मंजर आँखों के सामने आने लगता है। चूँकि डाक्टर हूँ, इसलिए अपने आप को संभालना पड़ता है। माँ के सामने मैं कमजोर नहीं पर सकता। मन हमेशा एक अजीब सी आशंका से ग्रसित रहता है मगर औरों के सामने सामान्य व्यवहार करना पड़ता है। जिस मेडिकल रिपोर्ट को देखकर खुद कई सारी बीमारियाँ ज़ेहन में आने लगती हैं, उसी रिपोर्ट को दिखाकर अपने परिवार को आश्वश्त करता हूँ कि कुछ भी नहीं है। आने वाले रिपोर्ट का हवाला देकर कुछ घंटे के लिए अपने मन के और अपने परिवार के डर को थोड़ी देर के लिए टालता हूँ। एक रिपोर्ट आता है, कई बीमारियों की आशंका ख़त्म होती है, मन थोड़ा हल्का होता है मगर एक बार फिर, डराने के लिए 2-4 नयी बीमारियाँ ज़ेहन में आने लगती हैं जो शायद पहले वाले से भी ज्यादा खतरनाक होती हैं। मन सोचने लगता है कि क्यूँ की इतनी पढाई। क्या मिला पढ़कर इतना? पढ़ा तो सामान्य बीमारियों को भी मगर क्यूँ हर वक़्त दिमाग में खराब बीमारी ही पहले दस्तक देती है।
मन को बहलाने के कई उपाय करता रहता हूँ। ऑरकुट और फेसबुक जैसे social networking sites पर घंटों बैठकर दोस्तों से फिजूल की बातें करता हूँ। किसी भी बात को पकड़कर कचड़ा करता रहता हूँ। दिखाता हूँ कि कितना खुश हूँ, मगर...। अपने डर का क्या करूं कुछ समझ नहीं आता। अब तो सारे दोस्त भी पक से गए हैं। खुद भी पक गया हूँ मन को बहलाने के एक ही बहाने से। ब्लॉग लिखने और पढने का कोई मन नहीं कर रहा। किताब खोलता हूँ तो घड़ी-घड़ी उन पन्नों के तरफ ही चला जाता हूँ जहां फिर से उन डराने वाली बीमारियों से सामना होने लगता है। मन सहम कर रह जाता है। कुछ नहीं कर पाता। आज हिम्मत करके अपने इस डर को यहाँ निकालकर लिख दिया है। शायद आप सब के साथ बांटने से थोडा कम हो जाए डर। शायद उन ग्रहों की अवधि समाप्त हो गयी हो। शायद अब कोई विपत्ति हमारा दरवाजा न खटखटाए। शायद...

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