Tuesday, November 02, 2010

डॉट है तो हॉट है!

जी हाँ! बिहार के विधानसभा चुनाव के चौथे चरण में कल हमारे यहाँ पटना में भी चुनाव हुए. हालांकि बालिग़ हुए 4 साल हो गए हैं, मगर मतदान करने का मौका पहली बार ही मिला. 2009 के आम चुनाव के समय बालिग़ था मगर निर्वाचन आयोग की लापरवाहियों की वजह से न मतदाता सूची में नाम चढ़ सका था ना ही मतदाता पहचान पत्र ही बन सका था. इस बार लग-भीड़ कर किसी तरह से नाम भी चढवा लिया और पहचान पत्र भी बनवा लिया. और इस बार गधा जन्म छुडाते हुए जीवन में पहली बार मतदान कर ही दिया. हर-हर गंगे के उद्घोष के साथ लोकतंत्र के महापर्व में हमने भी आखिरकार डूबकी लगा ही ली.
कभी कभार ऐसी बाते आपके साथ हो जाती हैं जो आपको अपने देश की व्यवस्था पर सवाल उठाने को मजबूर कर ही देती हैं. जब पहली बार मतदाता सूची में नाम और मतदाता पहचान पत्र के लिए आवेदन किया तो उसपर कोई सुनवाई ही नहीं हुई. दुबारा जब फिर से कोशिश हुई तो इस बार नाम तो चढ़ा मगर उसमे सारे विवरण गलत थे. नाम सही नहीं लिखा हुआ था, पिताजी का उपनाम गलत था, एक भले-भाले पुरुष को वहाँ महिला करार कर दिया गया था और रही सही कसर नाम के आगे एक औरत की तस्वीर लगा कर पूरी कर दी गयी थी. संशोधन के लिए फिर से आवेदन करना पड़ा और संशोधित पहचान पत्र जब घर पहुंचा तो उसमे तस्वीर, लिंग और पिताजी का नाम तो सही कर दिया गया था मगर मेरा नाम की स्पेल्लिंग अभी भी गलत थी. चूँकि चुनाव नजदीक आ चुके थे इसलिए इस बार संशोधन के लिए आवेदन को चुनाव बाद तक टाल दिया. कल उसी गलत-सलत पहचान पत्र से जाकर मतदान कर आया. पता नहीं कितनी बार दौड़ना पड़ेगा एक अदने से पहचान पत्र को त्रुटी-रहित बनाने के लिए. क्यूँ, सवाल उठते हैं न अपनी देश की व्यवस्था पर?
खैर, 3 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद आज सूची में अपना नाम खोज सका और जाकर मतदान किया. मन में ख़ुशी तो होनी ही थी. जीवन का पहला मतदान, वो भी इतनी शिद्दत के बाद तो ख़ुशी के लिए जगह तो बनती ही है. मगर आज जब अभी ये सबकुछ लिख रहा हूँ तो उतना खुश नहीं हूँ. जानता हूँ कि भले मेरा उम्मेदवार चुनाव जीत जाए, मत तो मेरा बर्बाद ही जाना है.  देश के लोकतंत्र की ऐसी हालत हो गयी है जहां चुनाव जनता की भलाई के लिए नहीं जीता जाता. चुनाव जीता जाता है अपनी तिजोरी भरने के लिए और जेब गर्म रखने के लिए. दिए गए सभी विकल्पों में कोई उम्मीदवार इस लायक नहीं है कि हम उसे अपना नेता कह सके. ऐसे में एक मत किसी को भी चला जाए कोई फर्क नहीं पड़ता. सब लूटेंगे ही, कोई कम नहीं, कोई ज्यादा नहीं. ख़ुशी तब अधिक होती जब सच में कोई नेता कहलाने लायक उम्मीदवार मैदान में होता या फिर बैलट पर 'इनमे से कोई नहीं' का विकल्प होता ताकि उसके सामने का बटन दबाकर अपनी अस्वीकृति को दर्ज करा सकता था. खैर, छोड़िये इन बातों को, अंतहीन बहस है ये, एक ऐसा बहस जिसका कोई निष्कर्ष नहीं निकलने वाला. बात मतदान की है, अपनी मौलिक अधिकारों के इस्तेमाल की है और अपनी मौलिक धर्म को निभाने की है. यही सोचकर खुश हो जाता हूँ कि कम से कम आज के दिन ही सही, करोड़ों में एक तो हूँ!
    
   

2 comments:

मनोज कुमार said...

गुड।
आपकी चिंता जायज़ है। पर देश की कुव्यवस्थाओं को दूर करने में युवाओं को आगे तो आना ही पड़ेगा।

Nawal said...

ab jyada chinta ki baat nahi yaar.....kuchh hi dino me every indian will have his/her own UID...a solution to every type of identification