Monday, November 08, 2010

आइना मुझसे मेरी पहचान मांगता है

कई बार आपने देखा होगा किसी किशोर या किशोरी को कि अचानक उनमे कुछ बदलाव आ जाता है. उनकी ज़िन्दगी में उनके परिवार से ज्यादा अहमियत किसी और की हो जाती है. बताने की जरुरत नहीं कि किसकी. अचानक पिता का रोकना-टोकना खटकने लगता है. माँ से एक दूरी सी बन जाती है. घर के मामलों से ज्यादा वक़्त मोबाइल से चिपके रहने में चला जाता है और न जाने कितने घंटे इंटरनेट पर चैटिंग करने में बीत जाते हैं. आज के समय में ऐसे बदलाव इक्के-दुक्कों को छोड़कर सभी में आते हैं. पहले ये कॉलेज में जाने के बाद हुआ करता था, आजकल स्कूलों से ही शुरू हो जाता है. पता नहीं कैसे अचानक इन किस्सों में इतनी वृद्धि आई है मगर एक बात तो तय है कि इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता.
कुछ लोग इन बदलावों के बाद भी एक समन्वय अपनी ज़िन्दगी में बना लेते हैं जिससे किसी को कोई कठिनाई नहीं आती मगर, ज्यादातर लोग इस समन्वय को बना पाने में असमर्थ रहते हैं. बात बात पर घर में झूठ बोलना, बातों को छिपाना, चुप रहना, लड़ना-झगड़ना एक आदत सी बन जाती है. माँ-बाप भी सब कुछ जानकार अनजान बने रहते हैं. उनकी सुनने वाला ही कोई नहीं रहता जिसे वो कुछ बोलें. एक आपसी तनाव का सा माहौल बन जाता है. ऐसा तनाव जिसके छूटते ही पूरा घर बिखर जाए. कई घरों को बिखरते देखा है ऐसे तनाव में. कुछ बच जाते हैं और कुछ बचने का ढोंग करते रहते हैं. बस, ऐसे बदलाव की हर नयी खबर से एक और घर के बिखरने का डर मन में बैठ जाता है. एक आशा मन में जगी रहती है कि काश ये घर उन घरों में से हो जो बिखरने से बच जाते हैं.
आज की पेशकश भी ऐसे ही बदलावों के बारे में है जो हर किशोर और किशोरी के जीवन में आज आ रहे हैं. उम्मीद है पसंद आएगी.

आइना मुझसे मेरी
पहचान मांगता है,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानता है.

मेज पर रखी घड़ी,
रैक पर की किताबें,
कमरे की छत,
छत के कोने के झाले,
सब,
नीची निगाहों से मुझे देखते हैं,
आँखों ही आँखों में मुझे कोसते हैं.
कहते हैं मैं वो न रहा,
बदल गया हूँ,
किसी के मिल जाने से
घमंडी हो गया हूँ.

माँ भी यही कहती है,
पापा कुछ नहीं कहते,
उन्होंने कभी कुछ कहा भी नहीं.
बस देखते हैं, घूरते हैं,
शायद मन ही मन वो भी कोसते हैं.

मैं समझ न पाया,
बदलाव ये कैसा मुझमे आया,
आईने में ढूँढने जाता हूँ,
मगर नज़र उठा नहीं पाता,
आइना सवाल करता है,
मैं कुछ बता नहीं पाता.

आईने से नज़रें चुराकर
खुद से नज़रें मिलाता हूँ,
उन दो पलों में ही
खुद को कितना बदला हुआ पाता हूँ,.

माँ की बातों से दूर,
उसकी बेतुकी बातें अब अच्छी लगती हैं,
पापा की झाड़ से पहले
उसके SMS पर आँखें टिकी रहती हैं.

आइना सबकुछ बता देता है,
खुद की नज़रों में सबकुछ दिखा देता है.
कोई धुंध नज़रों के बीच नहीं आता,
कोई पर्दा सच को छिपा नहीं पाता.

अब तो अपनी नज़रें भी
मेरी पहचान मांगती हैं,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानती है.

  

11 comments:

Prem Prakash said...

...sunder hindi...samvendnatmak aviwyakti...

Prem Prakash said...

...sunder hindi...samvendnatmak aviwyakti...

Deepak chaubey said...

मेरे एक मित्र जो गैर सरकारी संगठनो में कार्यरत हैं के कहने पर एक नया ब्लॉग सुरु किया है जिसमें सामाजिक समस्याओं जैसे वेश्यावृत्ति , मानव तस्करी, बाल मजदूरी जैसे मुद्दों को उठाया जायेगा | आप लोगों का सहयोग और सुझाव अपेक्षित है |
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Anonymous said...

good

Anamikaghatak said...

आइना मुझसे मेरी
पहचान मांगता है,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानता है.
bahut sundar........talat aziz ka gaya 'aaina mujhse meri pahali si surat mange' yaad aa gayee

S.M.Masoom said...

आईने से नज़रें चुराकर
खुद से नज़रें मिलाता हूँ,
उन दो पलों में ही
खुद को कितना बदला हुआ पाता हूँ,
बहुत खूब .

nidhi said...
This comment has been removed by the author.
vandana gupta said...

बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।

मोहसिन said...

बहुत ही सुन्दर कविता.

संजय भास्‍कर said...

क्या बात है..बहुत खूब....बड़ी खूबसूरती से दिल के भावों को शब्दों में ढाला है.

उस्ताद जी said...

4.5/10

विचार मंथन
बहुत अच्छा प्रयास
आज का हर इंसान अन्दर-बाहर से तन्हा है. इस तन्हाई को कम करने में ये चैट, फेसबुक और ब्लागिंग जैसे साधन कितने सक्षम हैं, अपने आस-पास से कटकर बाहर से जुड़ने की कोशिश कितनी सही है ..इस पर मनन आवश्यक है.