शाम के 5 बज चुके थे........वो बेचैन सा हो रहा था.......लैब में बैठे बैठे कोई काम न था.........बस मैडम के जाने का इंतज़ार.....मन ही मन गालियाँ दे रहा था......कब जाएगी ये खूसट और कब निकलूंगा मैं बाहर. बाहर जाने की यूँ कोई हड़बड़ी नहीं रहती थी, पर उस दिन बेचैन था. वो जो आई हुई थी. बाहर लाइब्ररी में बैठ कर इंतज़ार कर रही थी उसका......पिछले आधे घंटे से........जुगत में बैठा था कि कब मैडम निकले और वो जाकर उससे मिले................सुबह सुबह फ़ोन पर झगडा जो हुआ था. ऐसे ही किसी बात पर कहा-सुनी हो जाना आम बात हो चुकी थी.........सुबह में झगडा और शाम में फिर मिल कर बात सलटा लेना अमूमन रोज़ की बात. उस रोज़ भी वो मुलाक़ात वैसी ही होने वाली थी और यही उसकी बेचैनी का कारण भी......
मैडम के कमरे में कुछ सुगबुगाहट शुरू हुई........मन को थोड़ी तसल्ली हुई कि अब बस थोड़े देर की ही बात है........वो खुश था. उसने मिस कॉल मार दिया..........5 -10 मिनटों में मैडम भी चली गयी. दौड़ता हुआ वो बाहर निकला. लाइब्ररी की तरफ जैसे ही कदम बढ़ाये, उस ओर से वो आती हुई दिखी.....
खुले हुए लहराते बाल, कुर्ते-जींस पहने हुए, होठों पर मुस्कान लिए वो उस ओर आ रही थी............उसने नोटिस किया, उसने बाल कटवाए थे. पूरे छोटे नहीं, किनारों से. उसे लम्बे बाल पसंद थे. उसका बाल कटवाना उसे अच्छा नहीं लगता था. न बाल खुले रखना. वो चाहता था कि हमेशा उसके बाल लम्बे ही रहे. उसे उसका जींस पहनना भी पसंद नहीं था. कई बार जाहिर भी कर चुका था ये बात...........यूँ बाल कटवा कर इस तरह से जींस में उसका आना उसे गंवारा नहीं गुजरा..........वो समझ नहीं पा रहा था कि सब कुछ जानते हुए भी क्यूँ वो आज सुलह करने इस तरह से आई थी........उसे कुछ समझ नहीं आया. वक़्त की नज़ाक़त और उसकी मुस्कान को देखकर उसने चुप रहना ही मुनासिब समझा..........कई बार ख़ामोशी एक ऐसी जरुरत बन जाती है जिसके सामने कोई शब्द मायने नहीं रखते........ये ऐसा ही समय था........वक़्त के ऊपर सब कुछ छोड़ते हुए वो भी मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ा.......
"काफी देर इंतज़ार करना पड़ा."
"नहीं लाइब्ररी में पढाई कर रही थी, इसलिए समय का पता नहीं चला."
"चाय पीना है?"
"चलो."
न जाने कितनी दफे चाय इस तरह बातचीत के बीच समय काटने के लिए एक मजबूत हथियार बनेगा, वो सोच रहा था.........
"तुमने तो नोटिस भी नहीं किया, मैंने बाल कटवाए हैं."
"ह्म्म्मम्म.........मैंने किया..........कुछ बोलने को नहीं है उसपर इसलिए बोला नहीं.......यू नो, आई डोंट लाइक इट मच!"
"अरे, शौख से नहीं कटवाया है बाबा........बाल फूटने लगे थे नीचे.........नहीं कटवाती तो ये कभी नहीं बढ़ते."
"हम्म्म्म........मगर अचानक?........सुबह तो कुछ नहीं बताया."
"सुबह तुम्हारा मूड कहाँ था बात करने का..........कुछ बोलो तो उल्टा जवाब.........क्या बताती.........वैसे भी अचानक ही प्रोग्राम बना.........सब जा रहे थे तो मैं भी चली गयी..........जावेद हबीब में कटवाया है......99 रुपये में."
"गधा जनम छुड़ा ही लिया आखिर........हेयर डिजाइनर से कटवा कर.....अच्छा है.........बट, यू नो, आई स्टील डोंट लाइक ईट."
एक चाय, एक काफी और 2 मफिन लेकर वो काफी शॉप पर ही बैठ गए थे.......... बातों बातों में उसने बताया की बाल काटने वाले, उस पार्लर में, लड़के थे...........काफी की सिप मुंह की मुंह में और कप की कप में ही रह गयी. बात बर्दाश्त से बाहर हो चुकी थी. जींस पहनना, बाल खुले रखना, उन्हें कटवाना ये सब वो बर्दाश्त कर चुका था. लड़कों से बाल कटवाना उसे बर्दाश्त न हुआ..........जिन बालों में खुद ऊँगली फिराने की उसकी चाहत थी उन बालों को अभी थोरी देर पहले कोई लड़का घंटे भर संवार रहा था, इस सोच ने उसे अन्दर तक गुस्से से भर दिया. उसने उससे पूछना चाहा कि क्या उसे ऐसी सोच से कोई दिक्कत नहीं. बहुत कोशिश की अपने गुस्से को काबू में रखने की पर वो रख न सका. अंत में पूछ ही लिया उसने..........और जिस बात का डर था, वही हुआ...........जब जवाब नहीं के रूप में आया तो फिर उसके पास बोलने को कुछ नहीं बचा था. कुछ और बात करने को उसका दिल नहीं हो रहा था..........
सुबह के झगडे को सुलझाने वाली मुलाक़ात, खुद एक झगडे का सबब बन कर रह जाएगी, वो नहीं जानता था.........बड़ी कोशिश की उसने खुद को समझाने की कि ऐसा होता है आज के युग में. वो कल की बात थी जब लड़कियां लड़कों के सलून में नहीं जाती थी और लड़के लड़कियों के. आज दोनों के लिए एक ही पार्लर होते हैं.............लाख कोशिशों के बावजूद भी वो खुद को समझा न सका..........खुद पर धिक्कार करने की भी कोशिश की कि छोटे शहर की छोटी सोच के साथ ही जियेगा, मगर जितना धिक्कार करता उतना ही उस सोच पर उसे गुमान होता..........आखिर मध्यम-वर्गीय परिवार से आने का उसे गर्व जो था. वो चुप नहीं रहा............बाते हुई, झगडे बढे.........भावनाओं को ठेस पहुची........दोनों तरफ..........जो मुलाक़ात सुबह के झगडे को ठीक करने के लिए शुरू हुई थी वो खुद एक ऐसे झगडे का रूप ले चुकी थी जिसका अंत उसके उठ कर वापस अपने घर चले जाने से हुआ. जींस पहनने पर तो कोई बात भी नहीं हो सकी. वो खफा थी. उसकी छोटी सोच से.......उसके मध्यम-वर्गीय ढकोसलों से..........उसकी बातों से...........अपने ऊपर उसके विश्वास की कमी से..........
कुछ दिन बाद:
वो पहले से तय प्रोग्राम के मुताबिक़ शहर छोड़कर अपने घर वापस जा चुकी थी.........इसे यही रहना था..........इसी शहर में, इसी लैब में.........वो इसी कैम्पस में था...........रोज़ लैब जाता था........सुबह फ़ोन पर थोड़ी बात होती थी........झगडा सुलझ चुका था.......रोज़ 5 बजते थे........बेचैनी रोज़ होती थी........मिलने की नहीं, इस बात की कि आज बाहर कोई मिलने वाला नहीं होगा..........रात को लाइब्ररी में अकेले अपने लैपटॉप और किताबों के साथ घंटों बैठता था...........बाहर निकलेगा तो फ़ोन पर कोई बात करने वाला न होगा, इस सोच से डर जाता था..........बाहर निकलता था तो हर ज़र्रा उसे उसकी याद दिलाता था........उस पेड़ के नीचे बैठ कर कभी प्यार की तो कभी तकरार की बाते करते थे.......वहां वो फिसल कर गिर रही थी तो उसने हाथ थाम कर उसे रोका था..........उस कैंटीन में बैठ कर शाम का नाश्ता करते थे..........बाते करते हुए इसी रास्ते से रात के 2-3 बजे लाइब्ररी से निकल कर काफी पीने जाते थे.........वो काफी शॉप, जहां न जाने कितनी बाते हुई है, कितने झगडे हुए हैं, कितने झगडे सुलझे हैं........सब कुछ..........वही काफी शॉप जहां वो अंतिम झगडा भी हुआ था..........उस सोच का झगडा.........क्या वो झगडा जरुरी था, क्या वो उसे समझ नहीं सकता था या क्या उसने झगडा करके कोई गलती की थी..........क्या इसकी पसंद-नापसंद को समझने का उसका कोई फ़र्ज़ न था..........क्या उसने इसका विश्वास तोड़ा था.........न जाने कितने सवाल मन में आते हैं और चले जाते हैं........बस रह जाती है एक कचोट की काश साथ रहने के उन अंतिम कुछ दिनों में वो झगडा नहीं करता. ...........काश.........काश.......काश!
मैडम के कमरे में कुछ सुगबुगाहट शुरू हुई........मन को थोड़ी तसल्ली हुई कि अब बस थोड़े देर की ही बात है........वो खुश था. उसने मिस कॉल मार दिया..........5 -10 मिनटों में मैडम भी चली गयी. दौड़ता हुआ वो बाहर निकला. लाइब्ररी की तरफ जैसे ही कदम बढ़ाये, उस ओर से वो आती हुई दिखी.....
खुले हुए लहराते बाल, कुर्ते-जींस पहने हुए, होठों पर मुस्कान लिए वो उस ओर आ रही थी............उसने नोटिस किया, उसने बाल कटवाए थे. पूरे छोटे नहीं, किनारों से. उसे लम्बे बाल पसंद थे. उसका बाल कटवाना उसे अच्छा नहीं लगता था. न बाल खुले रखना. वो चाहता था कि हमेशा उसके बाल लम्बे ही रहे. उसे उसका जींस पहनना भी पसंद नहीं था. कई बार जाहिर भी कर चुका था ये बात...........यूँ बाल कटवा कर इस तरह से जींस में उसका आना उसे गंवारा नहीं गुजरा..........वो समझ नहीं पा रहा था कि सब कुछ जानते हुए भी क्यूँ वो आज सुलह करने इस तरह से आई थी........उसे कुछ समझ नहीं आया. वक़्त की नज़ाक़त और उसकी मुस्कान को देखकर उसने चुप रहना ही मुनासिब समझा..........कई बार ख़ामोशी एक ऐसी जरुरत बन जाती है जिसके सामने कोई शब्द मायने नहीं रखते........ये ऐसा ही समय था........वक़्त के ऊपर सब कुछ छोड़ते हुए वो भी मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ा.......
"काफी देर इंतज़ार करना पड़ा."
"नहीं लाइब्ररी में पढाई कर रही थी, इसलिए समय का पता नहीं चला."
"चाय पीना है?"
"चलो."
न जाने कितनी दफे चाय इस तरह बातचीत के बीच समय काटने के लिए एक मजबूत हथियार बनेगा, वो सोच रहा था.........
"तुमने तो नोटिस भी नहीं किया, मैंने बाल कटवाए हैं."
"ह्म्म्मम्म.........मैंने किया..........कुछ बोलने को नहीं है उसपर इसलिए बोला नहीं.......यू नो, आई डोंट लाइक इट मच!"
"अरे, शौख से नहीं कटवाया है बाबा........बाल फूटने लगे थे नीचे.........नहीं कटवाती तो ये कभी नहीं बढ़ते."
"हम्म्म्म........मगर अचानक?........सुबह तो कुछ नहीं बताया."
"सुबह तुम्हारा मूड कहाँ था बात करने का..........कुछ बोलो तो उल्टा जवाब.........क्या बताती.........वैसे भी अचानक ही प्रोग्राम बना.........सब जा रहे थे तो मैं भी चली गयी..........जावेद हबीब में कटवाया है......99 रुपये में."
"गधा जनम छुड़ा ही लिया आखिर........हेयर डिजाइनर से कटवा कर.....अच्छा है.........बट, यू नो, आई स्टील डोंट लाइक ईट."
एक चाय, एक काफी और 2 मफिन लेकर वो काफी शॉप पर ही बैठ गए थे.......... बातों बातों में उसने बताया की बाल काटने वाले, उस पार्लर में, लड़के थे...........काफी की सिप मुंह की मुंह में और कप की कप में ही रह गयी. बात बर्दाश्त से बाहर हो चुकी थी. जींस पहनना, बाल खुले रखना, उन्हें कटवाना ये सब वो बर्दाश्त कर चुका था. लड़कों से बाल कटवाना उसे बर्दाश्त न हुआ..........जिन बालों में खुद ऊँगली फिराने की उसकी चाहत थी उन बालों को अभी थोरी देर पहले कोई लड़का घंटे भर संवार रहा था, इस सोच ने उसे अन्दर तक गुस्से से भर दिया. उसने उससे पूछना चाहा कि क्या उसे ऐसी सोच से कोई दिक्कत नहीं. बहुत कोशिश की अपने गुस्से को काबू में रखने की पर वो रख न सका. अंत में पूछ ही लिया उसने..........और जिस बात का डर था, वही हुआ...........जब जवाब नहीं के रूप में आया तो फिर उसके पास बोलने को कुछ नहीं बचा था. कुछ और बात करने को उसका दिल नहीं हो रहा था..........
सुबह के झगडे को सुलझाने वाली मुलाक़ात, खुद एक झगडे का सबब बन कर रह जाएगी, वो नहीं जानता था.........बड़ी कोशिश की उसने खुद को समझाने की कि ऐसा होता है आज के युग में. वो कल की बात थी जब लड़कियां लड़कों के सलून में नहीं जाती थी और लड़के लड़कियों के. आज दोनों के लिए एक ही पार्लर होते हैं.............लाख कोशिशों के बावजूद भी वो खुद को समझा न सका..........खुद पर धिक्कार करने की भी कोशिश की कि छोटे शहर की छोटी सोच के साथ ही जियेगा, मगर जितना धिक्कार करता उतना ही उस सोच पर उसे गुमान होता..........आखिर मध्यम-वर्गीय परिवार से आने का उसे गर्व जो था. वो चुप नहीं रहा............बाते हुई, झगडे बढे.........भावनाओं को ठेस पहुची........दोनों तरफ..........जो मुलाक़ात सुबह के झगडे को ठीक करने के लिए शुरू हुई थी वो खुद एक ऐसे झगडे का रूप ले चुकी थी जिसका अंत उसके उठ कर वापस अपने घर चले जाने से हुआ. जींस पहनने पर तो कोई बात भी नहीं हो सकी. वो खफा थी. उसकी छोटी सोच से.......उसके मध्यम-वर्गीय ढकोसलों से..........उसकी बातों से...........अपने ऊपर उसके विश्वास की कमी से..........
कुछ दिन बाद:
वो पहले से तय प्रोग्राम के मुताबिक़ शहर छोड़कर अपने घर वापस जा चुकी थी.........इसे यही रहना था..........इसी शहर में, इसी लैब में.........वो इसी कैम्पस में था...........रोज़ लैब जाता था........सुबह फ़ोन पर थोड़ी बात होती थी........झगडा सुलझ चुका था.......रोज़ 5 बजते थे........बेचैनी रोज़ होती थी........मिलने की नहीं, इस बात की कि आज बाहर कोई मिलने वाला नहीं होगा..........रात को लाइब्ररी में अकेले अपने लैपटॉप और किताबों के साथ घंटों बैठता था...........बाहर निकलेगा तो फ़ोन पर कोई बात करने वाला न होगा, इस सोच से डर जाता था..........बाहर निकलता था तो हर ज़र्रा उसे उसकी याद दिलाता था........उस पेड़ के नीचे बैठ कर कभी प्यार की तो कभी तकरार की बाते करते थे.......वहां वो फिसल कर गिर रही थी तो उसने हाथ थाम कर उसे रोका था..........उस कैंटीन में बैठ कर शाम का नाश्ता करते थे..........बाते करते हुए इसी रास्ते से रात के 2-3 बजे लाइब्ररी से निकल कर काफी पीने जाते थे.........वो काफी शॉप, जहां न जाने कितनी बाते हुई है, कितने झगडे हुए हैं, कितने झगडे सुलझे हैं........सब कुछ..........वही काफी शॉप जहां वो अंतिम झगडा भी हुआ था..........उस सोच का झगडा.........क्या वो झगडा जरुरी था, क्या वो उसे समझ नहीं सकता था या क्या उसने झगडा करके कोई गलती की थी..........क्या इसकी पसंद-नापसंद को समझने का उसका कोई फ़र्ज़ न था..........क्या उसने इसका विश्वास तोड़ा था.........न जाने कितने सवाल मन में आते हैं और चले जाते हैं........बस रह जाती है एक कचोट की काश साथ रहने के उन अंतिम कुछ दिनों में वो झगडा नहीं करता. ...........काश.........काश.......काश!
5 comments:
काश !!! :) वो इतनी सी बात समझ सकता की प्यार में कभी कोई शर्त नहीं होती जो जैसा है उससे उसकी सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ अपना कर प्यार किया तो प्यार है वरना कुछ भी नहीं....
@Pallavi: क्या एक झगड़ा हो गया तो प्यार प्यार न रहा? अगर उसने एक इच्छा जता दी और उसके न पूरे होने पर थोडा सा ऐतराज़ जता दिया तो क्या वो उससे प्यार नहीं करता? जी हाँ, प्यार शर्तों से नहीं किया जाता, मगर प्यार में दुसरे की पसंद-नापसंद को अपनाया नहीं जाता ऐसा भी नहीं है. अगर उस लड़की के बजाये वो लड़का किसी ऐसी जगह जाता जहां लड़कियां मसाज किया करती हैं तो क्या वो मध्यम-वर्गीय लड़की उसे माफ़ करती? क्या तब झगड़ा नहीं होता? और क्या तब भी आप कहती कि वो लड़की उससे प्यार नहीं करती? प्यार सिर्फ बेशर्तिया हो ये जरुरी नहीं, जरुरी है कि बिना शर्तों के एक-दुसरे की पसंद-नापसंद का भी ख्याल रखा जाये!
sahi yar sahi ,acha hai
purani yaadein taza ho gayin...:)wo bina baat ka jhagda baki sara...bahaut bhayanak th delhi aur wahan jaake humlog...saare....sach hai jagah ka farak padta hai...
es topic ka koi aant nh..alag log alag soch....par haan dusre ki pasand napasand ka khayal rkhna mere hisab se apne aap h sache pyaar m hota hai...zabardasti zaruri man k nh..koi pyaar krega to use khud h saamne wale ki pasand napasand ki respect rhegi...haha par ye bh zaruri ki samajh aye ki uske kuchh krne se samne wala hurt hoga...aksar yh nh samajh aata esp mere jaise kam dimag wale logon ko:)isiliye mere hisab se "mens rea" janna jada zaruri hai than "action rea":)khair galti to th zarur:)
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