2008 मार्च से ब्लॉग लिख रहा हूँ। उसके पहले ब्लॉग के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। बड़े भाई साहब ने ब्लॉग के बारे में बताया था और उन्होंने ही मेरा ब्लॉग बनाया भी था। उनके अनुसार, कुछ भी देखकर या पढकर जो कुछ भी महसूस होता है, उसे शब्दों का रूप दे देना ब्लॉग कहलाता है। खुद अंग्रेजी किताबों और फिल्मों के बहुत बड़े शौक़ीन हैं और हज़ारों की संख्या में किताबे पढ़ चुके हैं और फ़िल्में देख चुके हैं। उन्ही किताबों और फिल्मों के बारे में वो ब्लॉग लिखा करते हैं। अंग्रेजी ब्लॉग जगत में एक अलग पहचान है उनकी। उनके द्वारा दिखाए गए रास्ते को ही पकड़ कर मैंने भी ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया। शुरुआत अंग्रेजी में लिखे पोस्ट से ही हुई। ज्यादातर मैं भी ब्लॉग फिल्मों के बारे में ही लिखा करता था। अंग्रेजी में लिखना कोई मजबूरी नहीं थी बस हिंदी में टाइप करना बड़ा ही कष्टदायक काम लगता था इसलिए अंग्रेजी को ही अपना माध्यम चुन लिया। ऊपर से बचपन से अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़े होने के कारण कभी अंग्रेजी को पराया नहीं पाया। हिंदी तो अपनी थी ही, हमने अंग्रेजी को भी गोद ले रखा था।
शुरुआत में वैसी फिल्मों के बारे में ही लिखता था जिन्हें देखकर सच में अच्छा लगा हो। मगर कुछ पोस्ट के बाद लगा कि अच्छी फिल्मों के बारे में लिखने के साथ-साथ उन फिल्मों की आलोचना करना भी जरूरी है जो उतनी अच्छी नहीं लग पायीं। जब ऐसी फिल्मों के बारे में लिखने लगा तो पाया कि ज्यादातर पोस्ट नकारात्मक आलोचना वाले ही होने लगे। अंदर से एक ग्लानि महसूस होने लगी। किसी की कृति को यूँ बैठे बैठे चंद शब्दों के जरिये नकार देना अच्छा नहीं लगा। लिखते समय बड़ा गर्व महसूस होता था कि आज तो अमुक फिल्म का बस ले लिए। लेकिन बाद में सोचता था कि किसने मुझे हक दिया किसी की मेहनत को इस तरह भला बुरा कहने का। कोई अपना दिल लगा कर किसी चीज की रचना करता है और उस रचना को हम यूँही भला बुरा कह दे, यह तो उस भगवान का अपमान है जिसने रचनात्मक कार्यों को इस धरती का सबसे बड़ा पुण्य बताया है।
धीरे-धीरे कुछ लिखने की ओर से मन उचटने लगा और ज्यादा समय ब्लॉग लिखने के बजाय ब्लॉग पढ़ने की ओर जाने लगा। एक तरह से अच्छा ही था, कम से कम कई तरह के विचारों की जानकारी तो मिलने लगी थी। ब्लॉग पढ़ने के इसी क्रम में कई सारे हिंदी ब्लॉग पढ़ने का मौका मिला। अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति प्रेम थोडा और बढ़ गया। अब हिंदी टाइप करने में होने वाली परेशानी हिंदी के प्रति सम्मान के सामने छोटी लगने लगी और हिंदी में ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया।
इधर कई सारे हिंदी ब्लॉग पढ़े। मालूम चला कि हिंदी ब्लॉग भी एक अथाह समंदर है जिसमे गोते पर गोते लगाये जा सकते हैं। एक-आध कोने में मैंने भी गोते लगाये। अब इसे सिर्फ अपनी किस्मत ही मान लेता हूँ कि इस समंदर के जिस तट पर मैंने गोते लगाए वहाँ ज्यादातर ब्लॉग मुझे राजनीतिक ही मिले। ज्यादातर ब्लॉग में मन का गुबार फूटता हुआ ही नजर आता था। कही किसी की भड़ास निकलती हुई मिलती थी कहीं कोई ज्वालामुखी फूटता था। हर तरफ अपने समाज और इसकी व्यवस्था के प्रति एक अजीब सी नकारात्मकता नजर आती थी। हर जगह कोई न कोई किसी न किसी की आलोचना ही करता मिलता था। हिंदी भाषा की तकनीकि जानकारी की थोड़ी कमी है इसलिए आपसे ही एक सवाल पूछना चाहता हूँ। क्या नकारात्मक टिप्पणियां ही आलोचना कहलाती हैं? क्या आलोचनाएं सकारात्मक नहीं हो सकतीं?
मानता हूँ अपने समाज में एक अजीब गंद फैली हुई है मगर क्या सिर्फ गंद ही है? खोजना चाहेंगे तो आज भी इस समाज में बडाई करने लायक बातें होती हैं, मगर क्यूँ लोग हमेशा उन बुराइयों को ही अपना निशाना बनाते हैं। बुराइयों को सब की नजरों में लाकर जरूर हम अच्छा काम करते हैं मगर क्या हमें उन बड़ाईयों को भी ऊपर लाकर प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए? समाज एक आदमी नहीं बदल सकता मगर शुरुआत एक आदमी ही करता है। उसे अगर उसका उचित प्रोत्साहन हम नहीं देंगे तो कौन देगा? और अगर कोई नहीं देगा तो उसका अन्तःमन भी एक दिन जवाब दे जायेगा। उम्मीद की एक किरण जो उसके रूप में उगी थी वो भी कहीं खो जायेगी। इस धरातल से रसातल की और जा रहे समाज को देखकर जरूर हमारे मन में नकारात्मक भावनाएं भर आती हैं मगर इससे काम तो नहीं चलने वाला। काम तो होगा सकारात्मकता से ही। कम से कम अपनी सोच में तो सकारात्मकता लानी ही होगी।
इतना सब कुछ तो मैंने कह दिया है मगर ये जरूर कहूँगा कि इन सब से मैं भी अछूता नहीं रहा हूँ। कहीं न कहीं ऐसा जरूर लगता है कि ब्लॉग्गिंग ने समाज की नकारात्मकता को बढ़ावा दिया है। खैर, हिंदी ब्लॉग के समंदर के एक छोटे से तट पर डुबकी लगा कर इतनी सारी बातें कह देना तो वैसा ही है मानो जैसे एक खट्टे आम को खाकर कह देना कि पूरा का पूरा पेड़ ही खट्टा है। कुछेक ब्लॉग पढकर इस तरह से पूरे समाज के बारे में ऐसी धारणा बना लेना कहीं से सही नहीं है। मगर फिर भी, दो टूक बात करता हूँ। जो सोचता हूँ वो लिखता हूँ। हो सकता है पढ़ने वाले को बुरा भी लगे। ये नहीं कहूँगा कि किसी को बुरा लगने की मुझे कोई चिंता नहीं मगर उससे ज्यादा जरूरी मेरे लिए अपनी बात आपके सामने रखना है। अगर किसी को मेरी बातें बुरी लगी हों तो माफ कर दें और अगर कोई बात गलत लगी हो तो कृपया मुझे जानकारी भी दें। धन्यवाद!
Friday, February 26, 2010
रैगिंग और हमारी एमबीबीएस यात्रा- 2
हो सकता है आपको याद हो। पिछले पोस्ट में मेरे द्वारा अपने कॉलेज जीवन के कुछ रोचक हिस्सों को आपके सामने प्रस्तुत करने का वादा किया गया था। हालांकि इस ब्लॉग पर वायदे पहले भी बहुत किये गए हैं मगर एक भले ब्लॉगर की माफिक कभी उन वायदों को पूरा करने का कोई प्रयास मेरे द्वारा नहीं किया गया। आज पहली बार इस ओर बढ़ रहा हूँ। कब तक निभा पाऊँगा मालूम नहीं मगर आपका प्यार मिलता रहा तो ये किस्से आगे भी चलते रहेंगे। खैर, जिस श्रंखला की पहली कड़ी पिछले पोस्ट के रूप में आपके सामने आई थी उसी की अगली कड़ी यहाँ प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। आशा करता हूँ ये पेशकश भी पसंद आएगी।
पिछले पोस्ट में काउंसलिंग तक के अपने सफ़र और वहां पर हुई रैगिंग के ट्रेलर के बारे में आपको बताया था। आज ज़िक्र करूँगा उस काल के बारे में जिसका शंखनाद हमारे बॉस ने उस दिन कर दिया था। कॉलेज में देख लेने की धमकी मेरे अन्दर घर कर गयी थी। पिताजी ने काफी समझाया था मगर फिर भी डर तो लग ही रहा था। उस डर के साथ कॉलेज एडमिशन लेने पहुँच गया था। माँ-पिताजी उस दिन भी साथ थे। जिस सपने को उन्होंने साथ मिल कर न जाने कब देखा था वो उस दिन पूरा हो रहा था। उनका बेटा एक मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने पंहुचा था। उनका साथ जाना तो लाजिमी ही था। उनके साथ नियत समय पर मैं कॉलेज पहुच गया था मगर वहां भी बिहार सरकार की कार्यशैली अपने शबाब पर थी। जहां 9 बजे कार्यालय खुल जाना चाहिए था वहीँ लोग 11 बजे पहुचते थे। इंतज़ार में बैठना तो पड़ना ही था। थोड़ी देर वहीँ बैठा रहा मगर फिर अचानक चंचल मन ने दुत्कार दिया। उसने कहा, "क्या बैठल है यहाँ पर चलो न कॉलेज घूम के आते हैं।" मैंने भी सोच लिया कि मन की इस बात को न मानने का कोई कारण नहीं है। मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने की सोच से ही सीना इतना फूला जा रहा था कि ये सोच भी नहीं पाया कि कॉलेज घुमने के इस प्लान के साइड-एफ्फेक्ट क्या हो सकते थे। शायद थोड़ी देर के लिए उस धमकी को ही भूल गया था। फिर क्या था, निकल गए हम कॉलेज घुमने।
दो चार कदम आगे बढ़ा था कि कुछ लड़के हाथों में किताब लिए हुए दिखाई दिए। जल्दी समझ नहीं पाया कि वे कौन थे। समझने में हुई इस देरी का दुष्परिणाम तत्काल कुछ पलों में ही मिल गया। कॉलेज घुमने निकला हुआ मैं अपने आप को थोड़ी ही देर में 'Boys Common Room' में खड़ा पा रहा था। एक बड़ा सा हॉल, दो दरवाजे, कुछ खिड़कियाँ मगर सभी अन्दर से बंद; रौशनी के लिए दो चार रोशनदान जिनके मकड़जालों से छन कर सूरज की कुछ किरणें किसी तरह अन्दर आ रही थी; कुछ बेंच, दो टेबल जिनपर अखबार के पन्ने छितराए हुए थे; टेबल टेनिस के 2 टेबल जिनपर जमी धूल से ये अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि अंतिम बार उन पर खेल कब हुआ होगा। कुल मिला कर उस अँधेरे कमरे में किसी मेडिकल कॉलेज का संस्कार कतई नजर नहीं आ रहा था। जब नज़रें ज़मीन की तरफ गयीं तो नज़ारा ही जबरदस्त था। मेरे जैसे ही कॉलेज घुमने निकले कुछ लड़के वहाँ मुर्गा बने हुए थे। उन्हें चारों तरफ से घेरे हुए थे वो कसाई जिन्हें हमने बाद में बॉस के नाम से जाना। कुल मिला कर ऐसा लगा कि जैसे मैं बकरा आप ही शेर के गुफा में घुस आया हूँ और वहां कई सारे शेर दावत के इंतज़ार में मुंह पिजाये बैठे हुए हैं।
एक बॉस ने मुझे अपनी ओर बुला लिया। वहां की भयावह स्तिथि देखते ही सिट्टी-पिट्टी तो ऐसे ही गुम हो चुकी थी और सामने वह बाली खड़ा हो गया था जिसके सामने जाते ही आधी शक्ति यूँही नष्ट हो जाती है। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था या मांसपेशियां जकड़ आई थी नहीं कह सकता मगर अन्तपरिणाम ये हुआ कि उस बॉस के सामने सर झुकाने के बजाये सर उठाये ही खड़ा रह गया था। क्या हो रहा था कुछ समझ नहीं आ रहा था। रहम की कोई गुंजाइश नज़र नहीं आ रही थी मगर फिर भी दिल के हर कोने से रहम-रहम की पुकार ही निकल रही थी। सर को उठाये हुए ही खड़ा था कि बॉस ने मुर्गा बनने का आदेश दे डाला। पिताजी की बात याद आ गयी, बिना कोई शक या सवाल बस बॉस की बात मान लेनी थी। मैंने ऐसा ही किया और पहले से बने हुए मुर्गों में मैं भी शामिल हो गया। एक बॉस ने बोल डाला, "मुर्गा बना है, चलो अब सब अंडा दो।" मुर्गा बनने का एक्स्पेरीयंस तो स्कूल जीवन से ही था मगर अंडा कैसे देते हैं ये कभी मालूम नहीं हुआ था। मुर्गा बने-बने ही सोच में पड़ गया कि अब ये अंडा लाऊँ कैसे। एक बॉस ने मेरी मुसीबत को भांप लिया। उसने मेरे साथ बने हुए मुर्गे को मुझे अंडा देना सिखाने को बोल दिया। बगल वाले ने मुर्गा बने-बने ही अपने पिछवाड़े को उचका कर दिखा दिया कि अंडे कैसे देते हैं। फिर क्या था, उस दिन तो न जाने कितने अंडे हमने कुछ सेकेंड में ही दे डाले। तभी एक बॉस ने फिर से गालियों का पूरा बोझा हमारे ऊपर दे मारा। "साला, गधा सब, रे सेट्टिंग से आया है क्या रे? इतना भी समझ नहीं आता है कि मुर्गा अंडा देता है कि नहीं? साला बनाये मुर्गा और बाबुलोग यहाँ पर अंडा पर अंडा दिए जा रहे हैं। साला सेक्स का ज्ञान नहीं है रे तुम लोग लईकी क्या पटायेगा रे?", इस तरह के और न जाने कितने सारे लांछन हमारे ऊपर बॉस ने फेक डाले थे।
थोड़ी देर तक मुर्गा बने रहने के बाद बॉस ने हमें खड़े होने को कहा। इस बार सर को झुकाए बॉस के सामने खड़ा हो गया। बॉस ने इंट्रो पूछा। अंग्रेजी स्कूल की पढाई होने के कारण मैंने अपना इंट्रो अंग्रेजी में ही शुरू कर दिया। मुझे मालूम नहीं था कि अपने राष्ट्रभाषा की इतनी इज्ज़त हमारे बॉस करते थे। पूरे इंट्रो में जहां भी अंग्रेजी का कोई शब्द आया तो बस बन जाओ मुर्गा। हालत ऐसी हो गयी कि पिताजी का नाम बोलने में भी डाक्टर नहीं बोल पाया, चिकित्सक शब्द का इस्तमाल करना पड़ा। पूरे इंट्रो में 10-12 बार मुर्गा बनने की नौबत आई। धीरे-धीरे पूरे इंट्रो की रूप-रेखा समझ में आ गयी। प्रणाम बॉस से शुरू कर के अपना नाम, पिताजी का नाम, माध्यमिक (मेट्रिक) स्कूल, अन्तःस्नातकीय (इंटर) कॉलेज, प्रवेश परीक्षा में मेधा क्रमांक और अंत में अपनी अभिरुचि बता कर इंट्रो का समापन करना होता था। प्रणाम करने का भी तरीका होता था, बाएं पैर को ज़ोरदार पटक कर दायें हाथ से सलामी देते हुए प्रणाम बॉस बोलना। सामने अगर सीनियर लड़की हो तो कमर पर 90 डिग्री का कोण बनाकर झुक कर प्रणाम मैडम बोलना होता था। अभिरुचि बोलने में भी सावधानी बरतनी होती थी। जो भी अभिरुचि बताओ उसे करके दिखाना होता था। शुरुआत में जानकारी नहीं थी इस बात की इसलिए अपने साथ पंगा इस बात पर भी हो गया। सच बोलने की ललक में मैंने अपनी अभिरुचि क्रिकेट खेलना बता दिया। बॉस ने बोला चलो यहाँ से वहां तक 50 रन दौड़ कर बनाओ। हालत क्या हुई होगी बताना कोई जरूरी नहीं समझता।
एडमिशन के उस दिन ही काफी कुछ समझ आ गया था। एडमिशन के पहले ही सबसे जरूरी कक्षा हमारी उस कॉमन रूम में लग चुकी थी। एक गंभीर विद्यार्थी की तरह सारे पाठों को कंठस्थ कर लिया था मैंने। प्रणाम करने के तरीके से लेकर, इंट्रो के कंटेंट तक सब कुछ याद हो गया था। सबसे बड़ी बात तो थी कि अभिरुचि भी बदलनी पर गयी थी। बाथरूम से बाहर कभी गीत नहीं गाने वाले अंशुमान की अभिरुचि अब गाना सुनाना बन चुकी थी। ये अभिरुचि सभी लड़कों की सबसे चर्चित अभिरुचि थी। अच्छा या खराब गाने की कोई दिक्कत ही नहीं थी। सुर में गाओ या बेसुरा कोई फर्क नहीं पड़ता। बेसुरा गाने में कम से कम एक फायदा होता था, अपने सीनियर से तत्काल बदला ले लिया जाता था। कुछ भी गाओ सुनना सामने वाले की मजबूरी होती थी और कान तो उसके ही पकते थे।
उन जानवरों के साथ कुछ आधा-एक घंटा बिता कर उस काल-कोठरी से बाहर निकलने का मौका मिला। लौट कर बुद्धू घर को आये की तर्ज़ पर मैं फिर कार्यालय वापस पहुच गया। माँ वहाँ वैसे ही बैठी हुई थी। माँ ने पुछा, "कैसा लगा कॉलेज?" "बहुत बढ़िया है!", मेरा जवाब था। अपनी सारी सिकन को छिपाते हुए पिछले एक घंटे में अपने ऊपर क्या बीती थी उसका कोई जिक्र नहीं करते हुए माँ के बगल में जाकर बैठ गया। एक कंगारू के बच्चे को भी मालूम होता है कि माँ के साथ ही वो सुरक्षित रह सकता है, फिर मैं तो था आदमी का बच्चा ही। कम से कम इतनी समझ तो मुझमे भी आ ही चुकी थी। अब चुप चाप माँ के साथ बैठूँगा ये सोच कर वही बैठ गया और थोड़ी देर में एडमिशन की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी। अंत यहीं नहीं था। ये तो बस एक शुरुआत थी।
एडमिशन के दौरान सीनियर की एक टीम कार्यालय आई, अपने साथ नाश्ते के पैकेट लेकर। वो पैकेट हमारे लिए थे। ख़ुशी हुई कि चलो कुछ तो अच्छा भी करते हैं ये सीनियर हमारे लिए। उन पैकेट के साथ एक कागज़ की पर्ची भी दी गयी थी हमें। नियम और कानून लिखे हुए थे उस कागज़ में जो सीनियर ने हमारे लिए बनाये थे। ड्रेस कोड जो हमें पहन कर कॉलेज आना था वो किसी भी भले मानुष को जोकर बनाने के लिए काफी था। ऊपर से बालों को एक इंच से छोटा रखना, उनपर सरसों का तेल लगाना, दाढ़ी-मूंछ सब सफाचट रखना इत्यादि भी उन कानून में शामिल थे। मैंने भी कुर्बानी दे दी अपनी खेती की जो मैंने बड़े शान से उगाई थी अपनी नाक के नीचे। पिताजी को बड़ा दुःख हुआ था मगर क्या कर सकता था। हमारे यहाँ मान्यता है कि आदमी मूंछ अपने माता-पिता के मरने पर ही मुन्डाता है और इसलिए पिताजी का दुखी होना जायज़ भी था। उनके जीवन काल में ही अपनी खेती को उस तरह कुर्बान कर देना अच्छा तो मुझे भी नहीं लगा था मगर अब जब अपना साफ़-सुथरा चेहरा देखता हूँ तो अफ़सोस नहीं होता। इन सब कानून के साथ कई सारे और भी नियम थे। अंतिम से पहले वाला नियम था, "Seniors are always right" और अंतिम नियम था, "In any case of confusion, follow the previous rule।"
सच कहता हूँ, इन दो नियमों का पालन अपने पूरे कॉलेज-काल में जम कर किया मैंने और सच में बड़ी सहूलियत हुई इन दो नियमों के कारण। आगे कुछ और रोचक हिस्से आपके सामने आयेंगे, इस बात की उम्मीद रखता हूँ। उम्मीद है ये प्रस्तुति पसंद आई होगी आपको.
पिछले पोस्ट में काउंसलिंग तक के अपने सफ़र और वहां पर हुई रैगिंग के ट्रेलर के बारे में आपको बताया था। आज ज़िक्र करूँगा उस काल के बारे में जिसका शंखनाद हमारे बॉस ने उस दिन कर दिया था। कॉलेज में देख लेने की धमकी मेरे अन्दर घर कर गयी थी। पिताजी ने काफी समझाया था मगर फिर भी डर तो लग ही रहा था। उस डर के साथ कॉलेज एडमिशन लेने पहुँच गया था। माँ-पिताजी उस दिन भी साथ थे। जिस सपने को उन्होंने साथ मिल कर न जाने कब देखा था वो उस दिन पूरा हो रहा था। उनका बेटा एक मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने पंहुचा था। उनका साथ जाना तो लाजिमी ही था। उनके साथ नियत समय पर मैं कॉलेज पहुच गया था मगर वहां भी बिहार सरकार की कार्यशैली अपने शबाब पर थी। जहां 9 बजे कार्यालय खुल जाना चाहिए था वहीँ लोग 11 बजे पहुचते थे। इंतज़ार में बैठना तो पड़ना ही था। थोड़ी देर वहीँ बैठा रहा मगर फिर अचानक चंचल मन ने दुत्कार दिया। उसने कहा, "क्या बैठल है यहाँ पर चलो न कॉलेज घूम के आते हैं।" मैंने भी सोच लिया कि मन की इस बात को न मानने का कोई कारण नहीं है। मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने की सोच से ही सीना इतना फूला जा रहा था कि ये सोच भी नहीं पाया कि कॉलेज घुमने के इस प्लान के साइड-एफ्फेक्ट क्या हो सकते थे। शायद थोड़ी देर के लिए उस धमकी को ही भूल गया था। फिर क्या था, निकल गए हम कॉलेज घुमने।
दो चार कदम आगे बढ़ा था कि कुछ लड़के हाथों में किताब लिए हुए दिखाई दिए। जल्दी समझ नहीं पाया कि वे कौन थे। समझने में हुई इस देरी का दुष्परिणाम तत्काल कुछ पलों में ही मिल गया। कॉलेज घुमने निकला हुआ मैं अपने आप को थोड़ी ही देर में 'Boys Common Room' में खड़ा पा रहा था। एक बड़ा सा हॉल, दो दरवाजे, कुछ खिड़कियाँ मगर सभी अन्दर से बंद; रौशनी के लिए दो चार रोशनदान जिनके मकड़जालों से छन कर सूरज की कुछ किरणें किसी तरह अन्दर आ रही थी; कुछ बेंच, दो टेबल जिनपर अखबार के पन्ने छितराए हुए थे; टेबल टेनिस के 2 टेबल जिनपर जमी धूल से ये अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि अंतिम बार उन पर खेल कब हुआ होगा। कुल मिला कर उस अँधेरे कमरे में किसी मेडिकल कॉलेज का संस्कार कतई नजर नहीं आ रहा था। जब नज़रें ज़मीन की तरफ गयीं तो नज़ारा ही जबरदस्त था। मेरे जैसे ही कॉलेज घुमने निकले कुछ लड़के वहाँ मुर्गा बने हुए थे। उन्हें चारों तरफ से घेरे हुए थे वो कसाई जिन्हें हमने बाद में बॉस के नाम से जाना। कुल मिला कर ऐसा लगा कि जैसे मैं बकरा आप ही शेर के गुफा में घुस आया हूँ और वहां कई सारे शेर दावत के इंतज़ार में मुंह पिजाये बैठे हुए हैं।
एक बॉस ने मुझे अपनी ओर बुला लिया। वहां की भयावह स्तिथि देखते ही सिट्टी-पिट्टी तो ऐसे ही गुम हो चुकी थी और सामने वह बाली खड़ा हो गया था जिसके सामने जाते ही आधी शक्ति यूँही नष्ट हो जाती है। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था या मांसपेशियां जकड़ आई थी नहीं कह सकता मगर अन्तपरिणाम ये हुआ कि उस बॉस के सामने सर झुकाने के बजाये सर उठाये ही खड़ा रह गया था। क्या हो रहा था कुछ समझ नहीं आ रहा था। रहम की कोई गुंजाइश नज़र नहीं आ रही थी मगर फिर भी दिल के हर कोने से रहम-रहम की पुकार ही निकल रही थी। सर को उठाये हुए ही खड़ा था कि बॉस ने मुर्गा बनने का आदेश दे डाला। पिताजी की बात याद आ गयी, बिना कोई शक या सवाल बस बॉस की बात मान लेनी थी। मैंने ऐसा ही किया और पहले से बने हुए मुर्गों में मैं भी शामिल हो गया। एक बॉस ने बोल डाला, "मुर्गा बना है, चलो अब सब अंडा दो।" मुर्गा बनने का एक्स्पेरीयंस तो स्कूल जीवन से ही था मगर अंडा कैसे देते हैं ये कभी मालूम नहीं हुआ था। मुर्गा बने-बने ही सोच में पड़ गया कि अब ये अंडा लाऊँ कैसे। एक बॉस ने मेरी मुसीबत को भांप लिया। उसने मेरे साथ बने हुए मुर्गे को मुझे अंडा देना सिखाने को बोल दिया। बगल वाले ने मुर्गा बने-बने ही अपने पिछवाड़े को उचका कर दिखा दिया कि अंडे कैसे देते हैं। फिर क्या था, उस दिन तो न जाने कितने अंडे हमने कुछ सेकेंड में ही दे डाले। तभी एक बॉस ने फिर से गालियों का पूरा बोझा हमारे ऊपर दे मारा। "साला, गधा सब, रे सेट्टिंग से आया है क्या रे? इतना भी समझ नहीं आता है कि मुर्गा अंडा देता है कि नहीं? साला बनाये मुर्गा और बाबुलोग यहाँ पर अंडा पर अंडा दिए जा रहे हैं। साला सेक्स का ज्ञान नहीं है रे तुम लोग लईकी क्या पटायेगा रे?", इस तरह के और न जाने कितने सारे लांछन हमारे ऊपर बॉस ने फेक डाले थे।
थोड़ी देर तक मुर्गा बने रहने के बाद बॉस ने हमें खड़े होने को कहा। इस बार सर को झुकाए बॉस के सामने खड़ा हो गया। बॉस ने इंट्रो पूछा। अंग्रेजी स्कूल की पढाई होने के कारण मैंने अपना इंट्रो अंग्रेजी में ही शुरू कर दिया। मुझे मालूम नहीं था कि अपने राष्ट्रभाषा की इतनी इज्ज़त हमारे बॉस करते थे। पूरे इंट्रो में जहां भी अंग्रेजी का कोई शब्द आया तो बस बन जाओ मुर्गा। हालत ऐसी हो गयी कि पिताजी का नाम बोलने में भी डाक्टर नहीं बोल पाया, चिकित्सक शब्द का इस्तमाल करना पड़ा। पूरे इंट्रो में 10-12 बार मुर्गा बनने की नौबत आई। धीरे-धीरे पूरे इंट्रो की रूप-रेखा समझ में आ गयी। प्रणाम बॉस से शुरू कर के अपना नाम, पिताजी का नाम, माध्यमिक (मेट्रिक) स्कूल, अन्तःस्नातकीय (इंटर) कॉलेज, प्रवेश परीक्षा में मेधा क्रमांक और अंत में अपनी अभिरुचि बता कर इंट्रो का समापन करना होता था। प्रणाम करने का भी तरीका होता था, बाएं पैर को ज़ोरदार पटक कर दायें हाथ से सलामी देते हुए प्रणाम बॉस बोलना। सामने अगर सीनियर लड़की हो तो कमर पर 90 डिग्री का कोण बनाकर झुक कर प्रणाम मैडम बोलना होता था। अभिरुचि बोलने में भी सावधानी बरतनी होती थी। जो भी अभिरुचि बताओ उसे करके दिखाना होता था। शुरुआत में जानकारी नहीं थी इस बात की इसलिए अपने साथ पंगा इस बात पर भी हो गया। सच बोलने की ललक में मैंने अपनी अभिरुचि क्रिकेट खेलना बता दिया। बॉस ने बोला चलो यहाँ से वहां तक 50 रन दौड़ कर बनाओ। हालत क्या हुई होगी बताना कोई जरूरी नहीं समझता।
एडमिशन के उस दिन ही काफी कुछ समझ आ गया था। एडमिशन के पहले ही सबसे जरूरी कक्षा हमारी उस कॉमन रूम में लग चुकी थी। एक गंभीर विद्यार्थी की तरह सारे पाठों को कंठस्थ कर लिया था मैंने। प्रणाम करने के तरीके से लेकर, इंट्रो के कंटेंट तक सब कुछ याद हो गया था। सबसे बड़ी बात तो थी कि अभिरुचि भी बदलनी पर गयी थी। बाथरूम से बाहर कभी गीत नहीं गाने वाले अंशुमान की अभिरुचि अब गाना सुनाना बन चुकी थी। ये अभिरुचि सभी लड़कों की सबसे चर्चित अभिरुचि थी। अच्छा या खराब गाने की कोई दिक्कत ही नहीं थी। सुर में गाओ या बेसुरा कोई फर्क नहीं पड़ता। बेसुरा गाने में कम से कम एक फायदा होता था, अपने सीनियर से तत्काल बदला ले लिया जाता था। कुछ भी गाओ सुनना सामने वाले की मजबूरी होती थी और कान तो उसके ही पकते थे।
उन जानवरों के साथ कुछ आधा-एक घंटा बिता कर उस काल-कोठरी से बाहर निकलने का मौका मिला। लौट कर बुद्धू घर को आये की तर्ज़ पर मैं फिर कार्यालय वापस पहुच गया। माँ वहाँ वैसे ही बैठी हुई थी। माँ ने पुछा, "कैसा लगा कॉलेज?" "बहुत बढ़िया है!", मेरा जवाब था। अपनी सारी सिकन को छिपाते हुए पिछले एक घंटे में अपने ऊपर क्या बीती थी उसका कोई जिक्र नहीं करते हुए माँ के बगल में जाकर बैठ गया। एक कंगारू के बच्चे को भी मालूम होता है कि माँ के साथ ही वो सुरक्षित रह सकता है, फिर मैं तो था आदमी का बच्चा ही। कम से कम इतनी समझ तो मुझमे भी आ ही चुकी थी। अब चुप चाप माँ के साथ बैठूँगा ये सोच कर वही बैठ गया और थोड़ी देर में एडमिशन की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी। अंत यहीं नहीं था। ये तो बस एक शुरुआत थी।
एडमिशन के दौरान सीनियर की एक टीम कार्यालय आई, अपने साथ नाश्ते के पैकेट लेकर। वो पैकेट हमारे लिए थे। ख़ुशी हुई कि चलो कुछ तो अच्छा भी करते हैं ये सीनियर हमारे लिए। उन पैकेट के साथ एक कागज़ की पर्ची भी दी गयी थी हमें। नियम और कानून लिखे हुए थे उस कागज़ में जो सीनियर ने हमारे लिए बनाये थे। ड्रेस कोड जो हमें पहन कर कॉलेज आना था वो किसी भी भले मानुष को जोकर बनाने के लिए काफी था। ऊपर से बालों को एक इंच से छोटा रखना, उनपर सरसों का तेल लगाना, दाढ़ी-मूंछ सब सफाचट रखना इत्यादि भी उन कानून में शामिल थे। मैंने भी कुर्बानी दे दी अपनी खेती की जो मैंने बड़े शान से उगाई थी अपनी नाक के नीचे। पिताजी को बड़ा दुःख हुआ था मगर क्या कर सकता था। हमारे यहाँ मान्यता है कि आदमी मूंछ अपने माता-पिता के मरने पर ही मुन्डाता है और इसलिए पिताजी का दुखी होना जायज़ भी था। उनके जीवन काल में ही अपनी खेती को उस तरह कुर्बान कर देना अच्छा तो मुझे भी नहीं लगा था मगर अब जब अपना साफ़-सुथरा चेहरा देखता हूँ तो अफ़सोस नहीं होता। इन सब कानून के साथ कई सारे और भी नियम थे। अंतिम से पहले वाला नियम था, "Seniors are always right" और अंतिम नियम था, "In any case of confusion, follow the previous rule।"
सच कहता हूँ, इन दो नियमों का पालन अपने पूरे कॉलेज-काल में जम कर किया मैंने और सच में बड़ी सहूलियत हुई इन दो नियमों के कारण। आगे कुछ और रोचक हिस्से आपके सामने आयेंगे, इस बात की उम्मीद रखता हूँ। उम्मीद है ये प्रस्तुति पसंद आई होगी आपको.
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