Tuesday, June 22, 2010

एक बार फ़िर...........

इन दिनों बिना किसी कारण के ही ब्लॉग से दूर रहा हूँ। अगर किसी चीज़ को कारण बताऊंगा ब्लॉग न लिख पाने के लिए तो ये सिर्फ अपने आलस्य को एक नाम देने जैसा रहेगा। भला होगा कि अपने आलस्य को आलस्य ही रहने दूं ओर इसी कड़ी को आगे बढाता हुआ अपने ही एक पुराने पोस्ट को दुबारा प्रकाशित कर रहा हूँ। तकरीबन दो साल पहले अपनी ब्लॉग्गिंग यात्रा की शुरुआत में ही ये लघु कथा मैंने लिखा था। तब हिंदी ब्लॉग की दुनिया से अनजान था। आज जब हिंदी ब्लॉग की अपनी एक अलग दुनिया बन चुकी है तो उस लघु कथा को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।



कमरे के रोशनदान से डूबते हुए सूरज की आखिरी किरणें अन्दर रही थी. दिवार से लगी आराम कुर्सी पर बैठी अवंतिका कुछ सोच रही थी. 27-28 साल की अकेली लड़की इस छोटे से कस्बे के इस कमरे को किराये में लेकर रहती थी. यहाँ उसका कोई था. बचपन से ही वो अनाथ अकेली ही रही थी. अब तो जिंदगी में अकेले रहने की आदत हो गई थी. यहाँ भी उसे अपना कहने वाला कोई नही था. किसी से भी उसकी कभी कोई बात नही हुई थी. मानो वो किसी से बात करना ही नही चाहती थी. ऐसे ही सबसे अलग रहकर वो अपनी जिंदगी गुजार रही थी. वैसे भी मिलिटरी कैंट के अलावा इस कस्बे में और था ही क्या.सुबह उठकर मील दूर अखबार के एक दफ्तर में typist की नौकरी करने जाती थी. दिन भर काम करके शाम को वो वापस आती थी.

रोज़ की तरह वो आज भी उसी सब्जी मंडी वाले रस्ते से होकर लौट रही थी. वो सब्जी खरीदने के लिए वहीँ ठहर गई. “ये परवल कैसे दिए?”,सब्जी वाली से उसने पूछा. “16 रुपये किलो मालकिन”. १ पाव परवल तौलने के लिए कहकर अवंतिका की नज़रें यूँही इधर उधर दौड़ने लगी. थोरी दूर सड़क के उस पार बस स्टाप पर उसकी नज़र जैसे ठहर गई मानो किसी चेहरे को पहचानना चाह रही हो. तभी सड़क से मिलिटरी की गाड़ियों का एक काफिला गुजरने लगा. गाड़ियों की बिच से उसकी नज़रें उसी चेहरे को देखने की कोशिश कर रही थी. तभी सब्जी वाली की आवाज़ उसके कानों में पहुची, “हाँ मालकिन ये लो अपने १ पाव परवल.” उसे उसके पैसे देकर अवंतिका आगे बढ़ी. अभी भी उसकी नज़रें उसी चेहरे को खोज रही थी. काफिले के ख़त्म होने के बाद फ़िर वो उस चेहरे को नही देख पाई. मगर उस चेहरे की पल भर की झलक ने ही उसे उसकी यादों की तरफ़ जाने को मजबूर कर दिया. तेज़ क़दमों के साथ वो अपने कमरे में वापस आ गई.

धीरे-धीरे अँधेरा होने चला था, शाम ढल रही थी, सूरज डूब रहा था और चांदनी अपनी चादर से इन वादियों को ढक रही थी. अवंतिका जैसे अपनी कुर्सी में बैठी कहीं खो सी गई थी. वहीँ पर बैठी बैठी वो ८-१० साल पहले मसूरी के अपने कॉलेज के दिनों को याद करने लगी. इंग्लिश के प्रोफ़ेसर क्लास में बैठे विद्यार्थियों पर shakespere की कोई छाप छोड़ने की कोशिश कर रहे थे . बाहर काफ़ी मूसलाधार बारिश हो रही थी. अवंतिका हर रोज़ की तरह उस दिन भी अकेली ही खिड़की के बगल वाली बेंच पर बैठी थी. वहां भी उसका कोई दोस्त न था. बारिश के फुहारे हवा के ठण्ड झोकों के साथ रह-रह कर उसके पास आकर उसके मन को अपने साथ बाहर ले जाने का प्रयास कर रहे थे. Shakespere के शब्दों और प्रकृति की पुकार के बिच एक अनोखा द्वंद्व अवंतिका की आंखों के सामने चल रहा था. क्लास में बैठ कर प्रोफ़ेसर की बातों की तरफ़ अपने आप को एकाग्र करने की उसकी हर कोशिश नाकाम हो रही थी.

तभी बाहर से बारिश की पानी में भींगता हुआ एक हट्टा-कट्टा गबरू जवान क्लास के अन्दर आया और आकर अवंतिका के सीट के बगल में बैठ गया. अवंतिका के लिए एक नया अनुभव था क्यूंकि उसके साथ आजतक कॉलेज में कभी कोई नही बैठा था. वो हमेशा अकेली ही बैठा करती थी. उसे कभी किसी से दोस्ती ही नही हुई थी शायद इसीलिए कोई उसके साथ नही बैठा करता था. उसे उस दिन बार ही आश्चर्य हुआ. अब बारिश की फुहार और shakespere के शब्द दोनों उसके पास अपनी कोई छाप छोड़ने में नाकाम हो रहे थे. उसका सारा ध्यान उस अजनबी पर चला गया था जो अचानक हवा के झोंके की तरह आकर उसके बगल में बैठ गया था. न चाहते हुए भी उसकी नज़रें उसे एकबार अच्छे से देखने को बेताब हो रही थी. अवंतिका का ध्यान अपने क्लास के लड़के-लड़कियों की तरफ़ कभी नही गया था मगर आज एक अजनबी के आने से अचानक न जाने उसे क्या हो गया था. उसे ख़ुद भी ये सब कुछ अटपटा लग रहा था. क्यों एक अजनबी की तरफ़ वो ऐसे बहकी जा रही थी. क्या था उस अजनबी में जो उसे अपनी और खींचे जा रहा था. उसकी समझ में कुछ भी नही आ रहा था.

क्लास ख़त्म होने के बाद उस नए लड़के का परिचय पूरे क्लास के साथ हुआ. उसका नाम आकाश था. वो मसूरी के पास ही किसी गाँव का रहने वाला था और कॉलेज में admission अभी कुछ दिन पहले ही हुआ था. वो कॉलेज में नया था. उसके बाद से हर रोज़ अवंतिका की आँखें क्लास में उसे ही खोजा करती थी. जब तक वो आ नही जाता था तब तक उसे चैन नही आता था. वो आता और आकर अवंतिका की साथ वाली सीट पर बैठा करता था. अवंतिका उस से बात करने के लिए बेकरार रहती थी मगर कभी उसे हिम्मत नही हुई. और सभी लड़कों से आकाश की बात होती थी. अवंतिका उन बातों को बरे ध्यान से चुपके-चुपके सुना करती थी. उसी से उसे पता चला था की वो एक गरीब अकेली बीमार माँ का अकेला लड़का था. हर हफ्ते आकाश को अपनी बीमार माँ के पास अपने गाँव जाना पड़ता था. बाकी दिन वो कॉलेज के हॉस्टल में ही रहता था. पढ़ने में काफ़ी अच्छा था और मिलिटरी में जाना चाहता था.

कई दिन बीत गए थे. आकाश यूँही अवंतिका के साथ वाली सीट पर बैठा करता था. कभी उन दोनों की बात नही हुई थी मगर अवंतिका उस से बात करना जरुर चाहती थी. एक दिन अचानक आकाश ने ही उस से बात की. शायद वो भी उस से बात करना चाहता था. उस दिन अवंतिका की बेकरारी थोड़ी कम हुई. धीरे धीरे उन दोनों के बिच अच्छे से बातें होने लगी थी. अवंतिका के मन में बातों का सैलाब उमरता रहता था मगर वो इसे बाहर निकलने से हमेशा डरती रहती थी. उसकी बेचैनी उसकी सबसे बरी दुश्मन बन चुकी थी. अपनी दबी हुई सारी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए जहाँ एक और वो बेताब थी वहीँ दूसरी और हिम्मत जुटाने में वो हमेशा नाकाम ही रहती थी. उसकी नाकामी उसे खाए जा रही थी.

समय बीतने के साथ सब कुछ बदलता जा रहा था. आकाश की अब क्लास में सब लोगों से अच्छी दोस्ती हो चुकी थी. वो पूरी तरह से इस नए माहौल में घुल-मिल सा गया था. अवंतिका से भी उसकी बातें हुआ करती थी. अगर कुछ नही बदला था तो वो था आकाश का अवंतिका के साथ बैठना और फ़िर भी अवंतिका की अपने दिल की सारी बातें कह न पाने की नाकामी. शायद अवंतिका ने ही अपने आप को रोके रखा था. एक अनजाने डर ने उसके मन में घर कर लिया था. वो ख़ुद ही आकाश के दिल में रहना चाहती थी मगर कुछ था जो उसे अपनी इस भावना को व्यक्त करने से रोक रहा था. दोनों काफ़ी समय एक दूसरे के साथ बैठते थे, बातें करते थे. दोनों का काफी समय साथ में गुजरा करता था. इन सब के बावजूद अवंतिका कभी भी खुल कर आकाश से बातें नही कर पाती थी. उसका दिल पूरी तरह से आकाश का हो चुका था. उसे ऐसा लगने लगा था की आकाश भी शायद उसे पसंद करता था मगर उसी की तरह ही उसे भी हिम्मत नही होती थी कुछ कहने की. ये अवंतिका का सिर्फ़ ख्याल था या फ़िर आकाश की एक सच्चाई वो तो सिर्फ़ आकाश ही जानता था मगर इसने अवंतिका को प्यार के रिश्ते के बरे में कुछ सोचने को मजबूर कर दिया था.

अवंतिका ऐसे किसी रिश्ते के पूरे होने या उसके अंजाम तक पहुचने के बरे में चिंतित रहती थी. क्या ये सही है? क्या इसका अंजाम सही होगा? कहीं उसे बाद में पछताना न पड़े? इन सब सवालों ने अवंतिका के कदमो को बाँध सा दिया था. न चाहते हुए भी उसने आकाश से अपनी दूरी बढ़ाने का निर्णय कर लिया. मगर क्या ये आसान था? साल भर की अपनी दोस्ती जो शायद दोस्ती से कुछ ज्यादा हो चुकी थी, उसे यूँ पल भर में छोड़ देना, ख़त्म कर देना क्या किसी के लिए इतना आसान हो सकता था? उसने ज्यादा कुछ नही सोचते हुए निर्णय लिया की वो आकाश के साथ रहने के बावजूद भी उसके बारे में अपने दिल में कोई ख़याल नही लाने की कोशिश करेगी. कामयाबी का उसे कोई विश्वास नही था मगर कोशिश करने की एक मजबूरी जरुर थी.

दोनों के साथ रहते लगभग साल भर बीत चुके थे. उसने अपने निर्णय को पूरी तरह से अबतक निभाया था मगर आकाश के साथ उसकी नजदीकी दिनोदिन भरती ही जा रही थी और साथ में आकाश के लिए उसकी कमजोरी भी. उसे अब अपने आप को रोके पाना मुश्किल होता जा रहा था. कई रातें उसने यूँही जगे हुए गुजार दी थी अपने मन में चलते हुए द्वंद्व के कारण. उसका दिल हमेशा उसके दिमाग की सोच को धोका देना चाह रहा था. वो आकाश को सब कुछ बता देना चाहती थी मगर उसके शब्द हर बार होठों तक आकर रुक जाते थे. शायद उसकी जबान पर अभी भी उसके दिमाग का दिल की तुलना में जायदा जोर चल रहा था. आकाश ने भी कभी उस से ये बातें नही की थी. अवंतिका को ये डर भी था की कहीं उसके सब कुछ बोल देने से कहीं आकाश उस से दूर न चला जाए. कभी यह भी सोचती थी की न ही बोल कर कौन सा आकाश उसके पास है.

अभिव्यक्ति के इस तूफ़ान में अवंतिका कहीं खोयी सी जा रही थी. आकाश से उसकी एक पल की जुदाई भी अब उसकी जान निकल देने के लिए काफी हो चुकी थी. वो हमेशा अपने-आप को आकाश के सामने रखना चाहती थी. हमेशा उसकी आँखें आकाश को देखने के लिए ही बेताब रहती थी.

आजकल आकाश न जाने क्यूँ रोज़ क्लास नही आया करता था. अवंतिका की आँखें अक्सर तरसती ही रह जाती थी आकाश की एक झलक तक देंखने को. बहुत हिम्मत करके एक दिन अवंतिका ने आकाश से इसका कारण पूछा. पता चला की उसकी माँ की तबियत थोड़ी बिगड़ गई थी. अवंतिका के मन में चल रहे द्वंद्व में उसके दिल ने उसके दिमाग पर जीत हासिल कर ही लिया था. उसने आकाश को अपने दिल की बात बताने का निर्णय कर लिया था. बहुत हिम्मत करके अवंतिका ने आकाश को बताया की वो उस से कुछ कहना चाहती थी. आकाश ने इस बात की तरफ़ कोई ख़ास तवज्जो नही दी. शायद उसकी माँ की तबियत के बारे में उसके चींते के सामने उसने अवंतिका की इस बात को कोई ख़ास वजन नही दिया था. लंबे चले उस द्वंद्व के बाद जुटाए हुए अवंतिका के हिम्मत को आकाश की इस बेरुखी ने एकदम ही पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया. अब तो अवंतिका के लिए कुछ भी कहना मुश्किल हो रहा था. उसके मन में रोज़ एक नया तूफ़ान उठ खड़ा होता था मगर आकाश की बेरुखी को देखकर वो ख़ुद इस तूफ़ान को दबा देती थी. अब तो इस तूफ़ान को दबाना भी उसके लिए भारी पड़ता जा रहा था.

एक रात पढ़ते पढ़ते अचानक ही उसने निर्णय लिया की आकश की बेरुखी के बावजूद भी अब वो नही रुकेगी. उसका डर उसकी बेचैनी के सामने बौना बन चुका था. उसके प्यार के सामने आकाश की बेरुखी का कोई स्थान नही रह गया था. उसे पूरा यकीं था की आकाश भी उसे चाहता था. शायद ये उसकी चाहत थी की आकाश भी उसे चाहे जो उसके यकीन के रूप में बाहर आ रही थी. उसने चिट्ठी लिख कर आकाश को सब कुछ बताने का निर्णय कर लिया. चिट्ठी लिखने के लिए अवंतिका ने अपने notepad के पीछे से एक कागज़ फाड़ा. उसके बाद वाले पन्ने में कुछ लिखा हुआ था. इतनी दिन साथ में रहने के कारण उसे पहचानने में कोई दिक्कत न हुई की वो लिखावट किसी और की नही पर आकाश की ही थी. उसने उसे पढ़ने में कोई देर नही की. उसके चेहरे से पसीने निकलने लगे थे. आंखों से आंसू एक या दो बूँद धीरे से बाहर आने का रास्ता देख रहे थे. उसे विश्वास नही हो रहा था की आकाश ने ये सब कुछ लिखा है. उसे पता नही चल पा रहा था की आकाश ने ये सब कब लिख दिया. कुछ महीने पहले आकाश ने उसकी कॉपी ली थी कुछ नोट्स उतारने के लिए. शायद तभी उसने ये सब कुछ लिख दिया था. ये सब कुछ पढ़कर वो बेचैन हो चुकी थे. खुश तो वो होना चाहती थे उस सब से जो उस चिट्ठी में लिखा था पर अपने ऊपर उसे गुस्सा आ रहा था. उस चिट्ठी में वो सब कुछ लिखा था जो वो अपनी चिट्ठी में लिखना चाह रही थे. ये चिट्ठी आकाश ने उस वक्त लिखी थी जब अवंतिका के मन में उन दोनों के रिश्ते को लेकर एक अनजाना सा डर, एक अजीब से द्वंद्व ने घर कर लिया था और फलस्वरूप वो आकाश से दूर जा रही थे.

अवंतिका के सामने सब कुछ पानी की तरह साफ़ हो गया था. आकाश की बेरुखी उसकी अपनी न थी शायद वो अवंतिका की अपनी बेरुखी का ही परिणाम थी. अवंतिका अपने आप को ख़ुद अपना और आकाश का भी दोषी मान रही थी. उसने निश्चय कर लिया की वो अगले दिन सुबह ही कॉलेज में जाकर आकाश से सब कुछ बोल देगी. रात भर उसने करवट बदलने और सोचने में ही बिता दिए. रात भर शब्दों के साथ एक अजीब सी लड़ाई उसके मन में चल रही थी. वो समझ नही पा रही थी की आकाश के सामने वो कैसे अपनी बात रखेगी. कुछ भी हो उसने निर्णय कर लिया था की कल उन दोनों के बिच सब कुछ साफ़ हो जाएगा.

अगले सुबह इसी उद्देश्य के साथ अवंतिका कॉलेज पहुची. एक अनदेखी सी चमक उसके चेहरे पर थी उस दिन. आज जिंदगी में पहली बार उसका उतना समय आईने के सामने गुजरा था. आईने में वो अपने आप को आकाश की नज़रों में देखना चाह रही थी. पहली बार आज उसने सजने सवरने का काम किया था. सब कुछ आकाश के लिए. वो इतने दिनों से उसी की तो हो कर रह गई थी. आज तक जो दोस्ती या जो सम्मान आकाश ने उसे दिया था, वो उसके लिए पूर्ण रूप से एक नया अनुभव था. आकाश के पास जाने को उस से हर बात कह देने को वो बेताब हुई जा रही थी. क्लास में बैठी तो थी पर पढ़ाई पर उसका कोई ध्यान नही जा रहा था. हर पल उसकी नज़रें दरवाज़े की तरफ़ ही लगी थी. गलियारे में होने वाले हर क़दमों की आहट से उसे आकाश के आने का ही आभाष होता था मगर हर बार उसका दिल छोटा पर जाता था. इतना अकेलापन उसे जिंदगी में कभी महसूस नही हुआ था. शुरू से ही जिस सीट पर वो अकेली बौठा करती थी, उसी सीट पर अकेले बैठना उसे बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था. हर पल उसका दिल भगवान से दुआ कर रहा था की आज कम से कम आज आकाश उसे मिल जाए. दिन बीत गया, कॉलेज का समय ख़त्म हो गया, आकाश नही आया. अवंतिका पलके बिछाए यूँही बैठी रह गई. अभी भी उसे लग रहा था की शायद आकाश उस से मिलने आ जाए. शाम हो गई, सब जा चुके थे. अवंतिका अभी भी आकाश का वही इन्तज़ार कर रही थी जहाँ वो दोनों अक्सर साथ समय बिताया करते थे. आकाश वहाँ भी नही आया. अवंतिका उस दिन के लिए हार मान चुकी थी.

हर सुबह अवंतिका इस उम्मीद के साथ कॉलेज जाती थी की शायद आकाश आज उसे मिल जाए. वो फिर कभी नही आया. कुछ रोज़ के बाद नोटिस बोर्ड पर एक नोटिस लगा था जिसमे आकाश के कॉलेज छोड़ के जाने के बारे में लिखा हुआ था. उस दिन अवंतिका की रही सही उम्मीद भी ख़त्म हो गई. उसने इस सब के लिए अपने आप को ही दोषी माना. उसने कभी अपने आप को न माफ़ करने का निश्चय कर लिया था. फिर कभी उसे आकाश क बारे में कोई ख़बर न मिली सिवाय इसके की उसकी माँ चल बसी थी. अवंतिका आकाश के अकेलेपन के लिए अपने आप को दोषी मान रही थी. उसे लग रहा था की आकाश को वैसे बुरे समय में जरुर एक साथी की जरुरत होती जो शायद वो ही थी. मगर…………………………………………………………..


तभी अचानक दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. खोल के देखा तो मकान मालिक का पोता आया था. उसने कमरे की बत्ती जला देने को कहा और उसे उसकी कोई चिट्ठी, जो डाकिये ने दिन में दिया था, देकर चला गया. सूरज डूब चुका था, चांदनी अपनी चादर बिछा चुकी थी, रात ने अपने पांव पसार लिए थे. सड़क पर streetlamps जल रहे थे और अवंतिका उन्हें ही देखती-देखती सोच रही थी. एक वो दिन था जब उसने अपने आप को आकाश से दूर कर लेने का फ़ैसला कर लिया था और उसका परिणाम वो अपने प्यार को खो कर भुगत रही थी. एक आज का दिन था जब फ़िर से उसे आकाश दिखा था और फ़िर से वो दूर ही रह गई थी. एक वो दिन था जब उसने उसके पास जाने का निर्णय लिया था मगर तब तक देर हो चुकी थी. एक आज का दिन था जब फ़िर से उसके पास जाने के पहले ही वो जा चुका था.एक वो दिन था जब उसने अपने प्यार को खोया था, एक आज का दिन था जब फ़िर से उसने अपने उसी प्यार को खोया.

एक बार फ़िर ...............................................................................................………………………………

2 comments:

Udan Tashtari said...

पुरानी पोस्ट अब भी उतनी ही प्रभावी रही...इसे लघु कथा कह रहे हैं?? :)

आईये वापस जोश के साथ..त्यागिये आलस्य! शुभकामनाएँ.

Aashu said...

धन्यवाद समीर जी उत्साहवर्धन के लिए! लघु कथा कहने में थोडा संकोच मुझे भी हो रहा था मगर क्या करूं, उपन्यास कह नहीं सकता ओर बाकी कोई शब्द इम्पैक्ट नहीं छोड़ पा रहे थे। हा हा हा!