Friday, November 26, 2010

फिर यादें होती हैं, उदासी नहीं होती!


कमरे के कोने में बैठा
शायद घंटों बीत गए थे,
एक और शाम यूँही ढल गयी थी
शायद बाहर अँधेरा हो आया था.

कोई फर्क नहीं पड़ता,
बाहर के अँधेरे से,
अब डर नहीं लगता.
आदत सी हो गयी है.
आखिर मन में अँधेरा ही तो है.

मन में अँधेरा?
सचमुच?
नहीं, अँधेरे की आदत नहीं लगी
बस अब महसूस नहीं होता,
यादों के उजाले में, अब,
अँधेरा पता ही नहीं चलता.

एक अकेलापन है.
है क्या?
कमरे के कोने में
अकेला ही तो बैठा हूँ.
सच क्या?
नहीं, यादों के भवर में
कई लोग हैं,
साथ घूम रहे हैं,
यूँही झूम रहे हैं.

साथ वो भी बैठी थी शायद,
बगल में तो नहीं थी,
हाँ, ख्यालों के एक कोने में होगी,
वही तो होती है हमेशा.
कुछ बोलती है
मेरी यादों के बारे में,
कुछ पूछती है,
इन ख्यालों के बारे में.

वो बोलती है,
यादों की उड़ान
न जाने कहा ले जाती है,
टूटे हुए तारों को अचानक
फिर जोड़े जाती है.
तार जुड़ने की खुशियाँ कम,
टूटे होने की पीड़ा अधिक दे जाती है,
तनहा तो नहीं छोड़ती,
पर दुखी छोड़े जाती है.

वो पूछती है,
क्यूँ उदास होते हो पुरानी बातों में,
क्यूँ डूबे रहते हो उन यादों में?
जो खुशियाँ नहीं देती
क्या फायदा उन यादों का,
मन उदास हो जिनसे
क्यूँ बात करना उन ख्यालों का?

मैं कहता हूँ,
यादों से दूर न करो,
उन ख्यालों से दूर न करो.
आज हमेशा आज नहीं होता,
हर कोई हमेशा पास नहीं होता.
दोस्त रहते हैं मगर दोस्ती नहीं रहती,
दिल होता है मगर दिल्लगी नहीं होती.
हाँ, सच ही तो कहते हैं लोग,
ज़िन्दगी हर वक़्त एक जैसी नहीं होती.

लोग मिलते हैं मगर,
बातों की फुर्सत नहीं होती,
बस पुरानी डायरी के कुछ पन्ने होते हैं,
फिर यादें होती हैं, उदासी नहीं होती!

 

Wednesday, November 24, 2010

नीतीश कुमार की जीत: वक़्त ख़ुशी मनाने का या आगे देखने का?

बिहारी चुनाव समर आज आखिरकार अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच गया. वोटों की गिनती और परिणाम घोषित होने के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनने का रास्ता साफ़ हो गया. नीतीश कुमार नीत जदयू-भाजपा गठबंधन की सरकार के शपथ लेते ही एक महीने से चल रही इस पूरी लीला का पटाक्षेप हो जायेगा. आज घोषित हुए ये परिणाम अपने आप में अद्भुत ही नहीं अद्वितीय मालूम पड़ते हैं. नीतीश कुमार के पिछले 5 सालों के विकास-राज ने आज लालू यादव के गुंडा-राज को अंततः दफ़न कर दिया. बिहार की राजनीति में ऐसा पहले कभी न हुआ होगा जब जात-पात को छोड़कर इस तरह की वोटिंग हुई हो और ऐसा जनादेश मिला हो.
'70 के दशक में इंदिरा गाँधी के तथाकथित तानाशाह और उसके बाद इमरजेंसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक बयार बिहार समेत पूरे देश में चली थी जिसका नतीजा केंद्र में पहली दफा गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में आया था. हालांकि जेपी आन्दोलन अपने आप को देश भर में दीर्घकालिक नहीं बना सका था मगर बिहार की राजनीति में इसका प्रभाव लम्बे समय तक आने वाला था. इसी छात्र आन्दोलन की देन बिहार को लालू यादव और नीतीश कुमार के रूप में मिली जो इस विधानसभा चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ खड़े थे. ये चुनाव सिर्फ दो पार्टियों की लड़ाई नहीं थी मगर छात्र आन्दोलन के दो धुरी रहे इन दो नेताओं की साख की लड़ाई थी. एक ही विचारधारा से जुड़े राजनीति में कदम रखने वाले इन दो नेताओं की राहें आज इतनी जुदा हो चुकी हैं जिसका अनुमान आज के चुनाव परिणाम से ही लगाया जा सकता है.
'90 के दशक में कांग्रेस को हराकर सत्ता पर काबिज होने वाले लालू यादव ने एक भूल कर दी थी. जिस तानाशाही का विरोध करके उन्होंने राजनीति में अपनी पहचान बनायीं थी, वो खुद उसी तानाशाही की तरफ बढ़ने लगे थे. 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू' का नारा तक देने में उन्हें उस जनता की याद नहीं आई थी जिसने उन्हें सर आखों पर बिठाया था. बिहार को अपनी बपौती और बिहारियों को अपनी प्रजा समझने की भूल उन्हें 2005 में अपना राज खोकर चुकानी पड़ी. 15 साल से रुके हुए बिहार की इंजन को दुरुस्त करके उसे पटरी पर लाने का एक असाधारण काम नीतीश कुमार ने अपने 5 सालों में कर दिखाया. जिस विकास की बयार नितीश कुमार ने बिहार में इन पांच सालों में बहाई उसका नतीजा आज एक स्पष्ट जनादेश के रूप में उन्हें मिला है.
हर ओर बिहार में आज ख़ुशी का माहौल है. दो तिहाई बहुमत की बात तो छोड़ ही दी जाए, यहाँ तो नौ-दहाई के आसपास का बहुमत एनडीए गठबंधन को मिल चुका है. एक असाधारण फैसला ही लगता है. बिहारी जनता की बात करें तो हर कोई इस विकास की गाड़ी को आगे चलते देखना चाहता था मगर मन में कही न कही इसके ठोकर खाकर रुक जाने का डर सताया हुआ था. आज का ये फैसला उनके डर को सिर्फ समाप्त ही नहीं करता मगर एक नए बिहार के निर्माण के सपने का बीज भी बो रहा है. बिहारी जनता खुश है विकास की इस जीत को देखकर.
ऐसे स्पष्ट जनादेश का मतलब बहुत साफ़ है. नीतीश कुमार के किये गए कामों को हर जगह से स्वीकृति मिली है. मगर सवाल ये है कि कही ऐसा जनादेश देखकर खुद नीतीश बाबु ही अपने आप को न संभाल पाए. कई बार उम्मीद से अधिक मिल जाने पर मन बावला हो उठता है. अगर ऐसा ही कुछ हो गया तो शायद बिहार के लिए इससे बुरी बात और कुछ नहीं रह जाएगी. जिस गफलत का शिकार लालू हो गए थे अगर उसी ने नीतीश को घेर लिया तो अनुमानों से परे नुकसान बिहार को उठाना पड़ सकता है. ऐसा भी हो सकता है कि नीतीश ऐसे जनादेश को देखकर कुछ सुस्ताने की सोच बैठे. जनता का समर्थन अपने ओर देखकर अगर वे निश्चिंत हो गए तो शायद फिर कभी कोई बिहारी निश्चिंत नहीं हो पायेगा. ऐसे में इस जीत पर ख़ुशी मनाकर शायद हम एक भूल कर रहे हैं, समय-पूर्व ख़ुशी मनाने की. ये समय ख़ुशी मनाने का नहीं, आलोचनाओं का है. नीतीश की पिछले 5 सालों में नाकामियों को गिनाने का है और आगे की जरूरतों पर रौशनी डालने का है. समय है नीतीश कुमार को जगाये रखने का, अपनी तरक्की की और विकास की ओर ध्यान लगाये रखने का.

 

Monday, November 22, 2010

कल्पनाओं से परे एक परिवार की उड़ान!


तीन कमरे का एक छोटा सा मकान. छोटे-छोटे कमरे, सब मिलकर एक कमरे के बराबर. 5 लोगों का परिवार. 1-2 की संख्या में अतिथि हमेशा मौजूद. एस्बेस्टस की छत. ऊंचाई इतनी कि एक पंखा भी न टाँगा जा सके. जेठ की झुलसती गर्मी में बदहवास होते बच्चों पर तरस खाकर मकान-मालिक ने एक पुराना-खटारा टेबल पंखा दे दिया. गर्मी से निजात तो मिली मगर आँखों की नींद पंखे की घर्र-घर्र ने छीन ली. छोटा बेटा सिर्फ 3 महीने का था, बड़ा वाला 7 साल का, बीच में एक बेटी, 5 साल की. बड़ा बेटा रात को बाहर ही सोता था, खुली आसमान के नीचे. मजबूरी भले थी, मगर, उसे शायद अच्छा लगता था. सपनों की उड़ान को रोकने वाला कोई नहीं होता था. सीधे चाँद और तारों से बातें होती थी.
सुबह उठकर नहाने की दिक्कत. एक गुसलखाना तक न था. बच्चे पापा के साथ घर के बाहर लगे नलके के नीचे बैठकर ही नहा लिया करते थे. माँ जैसे तैसे घर के अन्दर ही नहाती थी. गर्मी ऐसे ही अन्दर बाहर करते बीत जाती थी. सुकून मिलता था, शायद अब आराम मिले. बरसात की फुहारों से शायद कुछ राहत मिले. बरसात आपने साथ राहत जरूर लाती थी, मगर दिक्कतें यही ख़त्म नहीं होती. एस्बेस्टस की छत थी, कुछ छेद तो होने ही थे. बरसात शुरू तो पता ही नहीं चलता था कि घर के अन्दर हैं या बाहर. जगह-जगह से पानी की बूंदें गिरती थी. कमरे भले तीन थे मगर बिस्तर सिर्फ एक ही हुआ करता था. सूरज गोले बरसाए या छत पर से बूँदें टपके, सब को सोना वही पड़ता था. कभी साबुन से छेदों को सील करके तो कभी कटोरियाँ टांग के. अब तो छोटा बेटा भी 3 साल का हो गया था. बल्ला-बॉल खरीदने के लायक पापा की आर्थिक क्षमता नहीं थी. ऐसे में बच्चे कभी शिकायत नहीं करते थे. कटोरियाँ टांगने की मजबूरी को ही अपना खेल समझते थे और छेदों को सील करने वाले साबुन को अपना खिलौना. दुःख कहाँ दिखता था चेहरे पर. कोई शिकन भी नहीं.
एक बड़े से अहाते के एक कोने में बने इस छोटे से घर की दिक्कतें किसी मौसम में ख़त्म नहीं होती. जंगल-झाड के बीच बने इस घर में बरसात के बाद सापों का प्रकोप दिखता था. बच्चों को तो सांप से भी डर नहीं लगता था. सांप देखते ही बेटी अपने पापा को लाठी जाकर दे देती थी. न जाने कितने साँपों के सर का कचूमर निकलते देखा था उन नन्हे आँखों ने. डर क्यूँ आएगा. पढने के टेबल पर किताबों के बीच में सांप भी बैठते थे. एक याराना सा लगता था शायद. जाड़े के मौसम में डाक्टर पापा की MBBS डिग्री का सही मतलब समझ आता था. एक ही बिस्तर पर एक ही रजाई के नीचे मियाँ-बीवी-बच्चों-समेत. जगह कम होने की कोई शिकायत नहीं होती थी.
स्थिति कुछ सुधरी तो खेलने के कुछ सामन आने लगे. साल में एक. एक बार बल्ला आया, एक बार कैरम बोर्ड, एक बार व्यापारी. 'साल में एक' की शर्त का नतीजा था शायद जो बच्चों ने अपनी ज़िन्दगी में चीजों को सहेज कर रखने का गुण सीखा.    कभी एक से ज्यादा की मांग नहीं कि, जरुरत ही नहीं महसूस होती थी. जब जो माँगा गया, माँ-पापा ने सब कुछ पूरा किया, शायद इसलिए कोई लालसा नहीं रहती थी. बिना मांगे ही उन्होंने इतना कुछ दिया कि कभी कोई कमी महसूस नहीं होती थी. क्या नहीं था उन बच्चों के पास. पड़ोस के बच्चों जैसे रिमोट पर चलने वाले कार नहीं थे तो क्या हुआ, पापा ने रस्सी खीचने वाली गाडी खुद बना दी थी. गाडी में बैठ कर घूमने का मजा वो नहीं जानते थे, स्कूटर पर माँ-पापा के साथ बैठकर घूमने के सामने उनके लिए कुछ भी नहीं था. बेटी आगे खड़ी होती थी, बड़ा बेटा बीच में बैठता था और छोटा माँ की गोद में. बेटी बड़ी होने के बाद भी वहीँ खड़ी होती थी, गर्दन दर्द हो जाये इस तरह से अपने सर को झुकाए. कभी जो उसने एक बार भी चूं तक की हो. दर्द क्या होता था बच्चे जानते ही नहीं थे.
बड़ा बेटा अब 17 साल का हो गया था, बेटी 15 की और छोटा बेटा 10 साल का. पापा की आमदनी और बचत से अब अपना एक घर बन गया था. छोटा सा प्यारा सा एक घर. खिडकियों में पल्ले लगाने के पैसे नहीं थे फिर भी, सब लोग इस घर में आ गए. समय के साथ खिडकियों में पल्ले भी लग गए और एक तल्ला छोटा मकान कुछ सालों में 3 तल्ले से भी ऊपर हो गया. बड़ा बेटा इंजीनियर बन गया. अपनी कमाई से एक बड़े शहर में अपना एक फ्लैट खरीद लिया उसने. बेटी डाक्टर बन गयी. अपना घर उसने भी बसा लिया. छोटा बेटा भी अब डाक्टर बन चुका है. अपने उसी तीन तल्ले घर में रहता है. दो तल्ले खुद के पास रखे गए हैं. 3 छोटे-छोटे कमरों से शुरू हुई वो यात्रा आज 6 बड़े कमरों, 2 हॉल, 2 रसोई और 6 गुसलखाने तक पहुच गयी है. जब आदमी थे तब जगह नहीं था, आज जगह है आदमी नहीं. नए फ़ोन में पल-पल डायलटोन खोजने वाला छोटा बेटा आज दिन भर लैपटॉप लेकर ऑनलाइन रहता है. एक स्कूटर पर घूमने वाले पूरे परिवार के पास आज 4 चारपहिये और 4 दुपहिये हैं.
सब कुछ कितना बदल गया. कुछ नहीं बदला तो वो है माँ-पापा के चेहरे की वो ख़ुशी. वो तब भी थी, वो आज भी है. दुःख क्या होता है बच्चे आज भी नहीं जानते, या यूँ कहे कि जानना ही नहीं चाहते. कोई शिकायत आज भी नहीं होती. कोई मांग तब भी नहीं थी आज भी नहीं है, पापा बस वैसे ही बच्चों की झोलियाँ भरते रहते हैं. उनकी मेहनत ने उनके सपनों के साथ मिलकर क्या गुल खिलाया है उसपर विश्वास उन्हें आज भी नहीं होता. 20 साल पहले का वो घर कबूतरखाना ही तो लगता है आज. मगर क्या उनसब के लिए वो आशियाने से कम था. न जाने क्या क्या सपने देखे थे उस परिवार ने उस एस्बेस्टस की छत के नीचे. पता नहीं ऐसे भविष्य की कल्पना भी कभी की थी या नहीं.
20 तारीख को हमारे घर के गृह-प्रवेश के 14 साल पूरे हो गए. गाहे-बगाहे यूँही वो लम्हा याद आ गया जब पहली बार इस घर में कदम रखा था. उन लम्हों के साथ वो सबकुछ याद आ गया जो उसके पहले हमारे परिवार ने एक साथ बांटा था. बस वही सबकुछ यहाँ लिख दिया है. अभी बैठकर जब सबकुछ सोचता हूँ तो कुछ नहीं सूझता. बस मालूम होता है कि ये कुछ नहीं, एक मामूली परिवार की कल्पनाओं से परे एक उड़ान ही तो है, और क्या!
  
 

Monday, November 08, 2010

आइना मुझसे मेरी पहचान मांगता है

कई बार आपने देखा होगा किसी किशोर या किशोरी को कि अचानक उनमे कुछ बदलाव आ जाता है. उनकी ज़िन्दगी में उनके परिवार से ज्यादा अहमियत किसी और की हो जाती है. बताने की जरुरत नहीं कि किसकी. अचानक पिता का रोकना-टोकना खटकने लगता है. माँ से एक दूरी सी बन जाती है. घर के मामलों से ज्यादा वक़्त मोबाइल से चिपके रहने में चला जाता है और न जाने कितने घंटे इंटरनेट पर चैटिंग करने में बीत जाते हैं. आज के समय में ऐसे बदलाव इक्के-दुक्कों को छोड़कर सभी में आते हैं. पहले ये कॉलेज में जाने के बाद हुआ करता था, आजकल स्कूलों से ही शुरू हो जाता है. पता नहीं कैसे अचानक इन किस्सों में इतनी वृद्धि आई है मगर एक बात तो तय है कि इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता.
कुछ लोग इन बदलावों के बाद भी एक समन्वय अपनी ज़िन्दगी में बना लेते हैं जिससे किसी को कोई कठिनाई नहीं आती मगर, ज्यादातर लोग इस समन्वय को बना पाने में असमर्थ रहते हैं. बात बात पर घर में झूठ बोलना, बातों को छिपाना, चुप रहना, लड़ना-झगड़ना एक आदत सी बन जाती है. माँ-बाप भी सब कुछ जानकार अनजान बने रहते हैं. उनकी सुनने वाला ही कोई नहीं रहता जिसे वो कुछ बोलें. एक आपसी तनाव का सा माहौल बन जाता है. ऐसा तनाव जिसके छूटते ही पूरा घर बिखर जाए. कई घरों को बिखरते देखा है ऐसे तनाव में. कुछ बच जाते हैं और कुछ बचने का ढोंग करते रहते हैं. बस, ऐसे बदलाव की हर नयी खबर से एक और घर के बिखरने का डर मन में बैठ जाता है. एक आशा मन में जगी रहती है कि काश ये घर उन घरों में से हो जो बिखरने से बच जाते हैं.
आज की पेशकश भी ऐसे ही बदलावों के बारे में है जो हर किशोर और किशोरी के जीवन में आज आ रहे हैं. उम्मीद है पसंद आएगी.

आइना मुझसे मेरी
पहचान मांगता है,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानता है.

मेज पर रखी घड़ी,
रैक पर की किताबें,
कमरे की छत,
छत के कोने के झाले,
सब,
नीची निगाहों से मुझे देखते हैं,
आँखों ही आँखों में मुझे कोसते हैं.
कहते हैं मैं वो न रहा,
बदल गया हूँ,
किसी के मिल जाने से
घमंडी हो गया हूँ.

माँ भी यही कहती है,
पापा कुछ नहीं कहते,
उन्होंने कभी कुछ कहा भी नहीं.
बस देखते हैं, घूरते हैं,
शायद मन ही मन वो भी कोसते हैं.

मैं समझ न पाया,
बदलाव ये कैसा मुझमे आया,
आईने में ढूँढने जाता हूँ,
मगर नज़र उठा नहीं पाता,
आइना सवाल करता है,
मैं कुछ बता नहीं पाता.

आईने से नज़रें चुराकर
खुद से नज़रें मिलाता हूँ,
उन दो पलों में ही
खुद को कितना बदला हुआ पाता हूँ,.

माँ की बातों से दूर,
उसकी बेतुकी बातें अब अच्छी लगती हैं,
पापा की झाड़ से पहले
उसके SMS पर आँखें टिकी रहती हैं.

आइना सबकुछ बता देता है,
खुद की नज़रों में सबकुछ दिखा देता है.
कोई धुंध नज़रों के बीच नहीं आता,
कोई पर्दा सच को छिपा नहीं पाता.

अब तो अपनी नज़रें भी
मेरी पहचान मांगती हैं,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानती है.

  

Tuesday, November 02, 2010

डॉट है तो हॉट है!

जी हाँ! बिहार के विधानसभा चुनाव के चौथे चरण में कल हमारे यहाँ पटना में भी चुनाव हुए. हालांकि बालिग़ हुए 4 साल हो गए हैं, मगर मतदान करने का मौका पहली बार ही मिला. 2009 के आम चुनाव के समय बालिग़ था मगर निर्वाचन आयोग की लापरवाहियों की वजह से न मतदाता सूची में नाम चढ़ सका था ना ही मतदाता पहचान पत्र ही बन सका था. इस बार लग-भीड़ कर किसी तरह से नाम भी चढवा लिया और पहचान पत्र भी बनवा लिया. और इस बार गधा जन्म छुडाते हुए जीवन में पहली बार मतदान कर ही दिया. हर-हर गंगे के उद्घोष के साथ लोकतंत्र के महापर्व में हमने भी आखिरकार डूबकी लगा ही ली.
कभी कभार ऐसी बाते आपके साथ हो जाती हैं जो आपको अपने देश की व्यवस्था पर सवाल उठाने को मजबूर कर ही देती हैं. जब पहली बार मतदाता सूची में नाम और मतदाता पहचान पत्र के लिए आवेदन किया तो उसपर कोई सुनवाई ही नहीं हुई. दुबारा जब फिर से कोशिश हुई तो इस बार नाम तो चढ़ा मगर उसमे सारे विवरण गलत थे. नाम सही नहीं लिखा हुआ था, पिताजी का उपनाम गलत था, एक भले-भाले पुरुष को वहाँ महिला करार कर दिया गया था और रही सही कसर नाम के आगे एक औरत की तस्वीर लगा कर पूरी कर दी गयी थी. संशोधन के लिए फिर से आवेदन करना पड़ा और संशोधित पहचान पत्र जब घर पहुंचा तो उसमे तस्वीर, लिंग और पिताजी का नाम तो सही कर दिया गया था मगर मेरा नाम की स्पेल्लिंग अभी भी गलत थी. चूँकि चुनाव नजदीक आ चुके थे इसलिए इस बार संशोधन के लिए आवेदन को चुनाव बाद तक टाल दिया. कल उसी गलत-सलत पहचान पत्र से जाकर मतदान कर आया. पता नहीं कितनी बार दौड़ना पड़ेगा एक अदने से पहचान पत्र को त्रुटी-रहित बनाने के लिए. क्यूँ, सवाल उठते हैं न अपनी देश की व्यवस्था पर?
खैर, 3 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद आज सूची में अपना नाम खोज सका और जाकर मतदान किया. मन में ख़ुशी तो होनी ही थी. जीवन का पहला मतदान, वो भी इतनी शिद्दत के बाद तो ख़ुशी के लिए जगह तो बनती ही है. मगर आज जब अभी ये सबकुछ लिख रहा हूँ तो उतना खुश नहीं हूँ. जानता हूँ कि भले मेरा उम्मेदवार चुनाव जीत जाए, मत तो मेरा बर्बाद ही जाना है.  देश के लोकतंत्र की ऐसी हालत हो गयी है जहां चुनाव जनता की भलाई के लिए नहीं जीता जाता. चुनाव जीता जाता है अपनी तिजोरी भरने के लिए और जेब गर्म रखने के लिए. दिए गए सभी विकल्पों में कोई उम्मीदवार इस लायक नहीं है कि हम उसे अपना नेता कह सके. ऐसे में एक मत किसी को भी चला जाए कोई फर्क नहीं पड़ता. सब लूटेंगे ही, कोई कम नहीं, कोई ज्यादा नहीं. ख़ुशी तब अधिक होती जब सच में कोई नेता कहलाने लायक उम्मीदवार मैदान में होता या फिर बैलट पर 'इनमे से कोई नहीं' का विकल्प होता ताकि उसके सामने का बटन दबाकर अपनी अस्वीकृति को दर्ज करा सकता था. खैर, छोड़िये इन बातों को, अंतहीन बहस है ये, एक ऐसा बहस जिसका कोई निष्कर्ष नहीं निकलने वाला. बात मतदान की है, अपनी मौलिक अधिकारों के इस्तेमाल की है और अपनी मौलिक धर्म को निभाने की है. यही सोचकर खुश हो जाता हूँ कि कम से कम आज के दिन ही सही, करोड़ों में एक तो हूँ!
    
   

Monday, November 01, 2010

मेरा 100वाँ पोस्ट!


लगभग 3 साल से इस ब्लॉग पर सक्रिय हूँ. आज ये पोस्ट मेरी सौवीं पोस्ट बनकर आ रही है. जानता हूँ कि 3 साल के इस लम्बे सफ़र के लिए ये संख्या थोड़ी कम है, मगर देर आये दुरुस्त आये. इधर कुछ समय से इस पोस्ट के लिए मन में काऊंटडाउन चल रहा था और उम्मीद थी कि इसे एक स्पेशल पोस्ट बनाऊंगा. मगर आज जब लिखने बैठा हूँ तो कुछ मिल नहीं रहा. एक तरह की ख़ुशी मन में बैठी हुई है जो शायद इससे दूर हटकर सोचने का मौका ही नहीं दे रही. बार बार अपने ही ब्लॉग के बारे में सोचकर इस यात्रा की खबर मन में ले रहा हूँ. कहाँ था और कहाँ आ गया.
शुरुआत बड़े भाई के प्रोत्साहन पर फरवरी 2008 में हुई मगर सही मायनों में पहली पोस्ट मार्च में ही लिख सका था. अंग्रेजी से शुरू हुई इस सफ़र ने कई मोड़ देखे. शुरूआती दिनों में ज्यादातर फिल्मों के बारे में ही लिखता था. एकाध हिंदी के पोस्ट को छोड़कर सारे पोस्ट अंग्रेजी में ही होते थे. इस साल की शुरुआत में अचानक कुछ हिंदी ब्लॉग पढ़ कर हिंदी में लिखने की रूचि जग गयी. रोज-मर्रा की ज़िन्दगी से कुछ पहलुओं को उठाकर यहाँ पर लिखने लगा. आज हालत ये हो आई है कि एकाध अंग्रेजी के पोस्ट को छोड़कर सबकुछ हिंदी में ही लिखता हूँ. कभी मन में अंग्रेजी लिखने की बात भी आती, तो टाल जाता था. मगर इधर कुछ दिनों पहले दोनों भाषाओँ के लिए अलग अलग ब्लॉग का ख्याल मन में आया तो अंग्रेजी के लिए भी एक ब्लॉग बना ही डाला.
पढाई के बोझ के कारण ज्यादा समय नहीं दे पाता था ब्लॉग पर इसलिए ज्यादा नियमित नहीं हो पाता था. अक्सर या तो परीक्षा ख़त्म होने की खुमारी छाई रहती थी या आने वाले परीक्षाओं की परेशानी ही मन को घेरे रखती थी. ऐसे में जो भी समय बचता था उसमे ब्लॉग ही लिख लिया करता था. पिछले 2 सालों में जहां सिर्फ 50 पोस्ट लिख सका था वहीँ इस साल के दसवें महीने में ही 50 और पूरे हो गए. इस साल की शुरुआत में अपने लिए एक लक्ष्य तय किया था. इस ब्लॉग को नियमित चलाने के लिए और अपनी पढाई और इसके बीच समन्वय बनाये रखने के लिए मैंने हफ्ते में एक पोस्ट के दर का लक्ष्य मन में तय किया था. हालांकि बीच-बीच में कुछ समय के लिए अनियमित होता रहा हूँ मगर, फिर भी अभी तक अपने लक्ष्य से आगे ही हूँ और उम्मीद करता हूँ कि साल का अंत भी इसी तरह से होगा.
अनियमितताओं से अच्छा याद आया. एक बार ऐसा समय आ गया था ब्लॉग पर जहाँ हर पोस्ट की शुरुआत माफ़ी के साथ ही होती थी, माफ़ी ब्लॉग पर न आने की. शायद पोस्ट की शुरुआत के बारे में कुछ सोचने की जरुरत ही नहीं पड़ती थी. मालूम होता था कि शुरुआत तो माफ़ी से ही होगी. मगर शुक्र है कि अब ऐसा नहीं है. जहां तक इस महीने का सवाल है तो ये महिना मेरे ब्लॉग पर सबसे ज्यादा व्यस्त रहा. 10 पोस्ट इसके पहले मैंने किसी महीने में नहीं लिखे थे. ख़ास कर के इसके पहले के दो महीनों में जो अनियमितता आई थी उससे ब्लॉग्गिंग के प्रति रूचि खो बैठने का डर भी लगने लगा था. भला हो हमारी 'उनका', जिनके एक झूठे सपने ने फिर से मुझे ब्लॉग लिखने का प्रोत्साहन दे दिया. एक रोज़ 'उनका' फ़ोन आया और उन्होंने कहा कि उन्होंने एक सपना देखा है कि आज मैं ब्लॉग लिखूंगा, और साथ में शाम तक इस सपने को साकार करने का आग्रह भी था. अब उनका सपना और ऐसा आग्रह, इनकार कैसे कर सकता था. और फिर एक नयी शुरुआत हो आई ब्लॉग पर.
आप लोगों को पकाने का कोई इरादा नहीं था मेरा आज. मगर क्या करूं, बातों बातों में ही आपको पका ही डाला. क्या करूं, मन में एक ख़ुशी जो है. आप सब से बाटना चाहता था इसलिए ये सब लिख दिया. खैर, उम्मीद है कि आप सब का साथ बना रहेगा और मेरी ये गाड़ी, मद्धम गति से ही सही, मगर चलती रहेगी!