Monday, November 22, 2010

कल्पनाओं से परे एक परिवार की उड़ान!


तीन कमरे का एक छोटा सा मकान. छोटे-छोटे कमरे, सब मिलकर एक कमरे के बराबर. 5 लोगों का परिवार. 1-2 की संख्या में अतिथि हमेशा मौजूद. एस्बेस्टस की छत. ऊंचाई इतनी कि एक पंखा भी न टाँगा जा सके. जेठ की झुलसती गर्मी में बदहवास होते बच्चों पर तरस खाकर मकान-मालिक ने एक पुराना-खटारा टेबल पंखा दे दिया. गर्मी से निजात तो मिली मगर आँखों की नींद पंखे की घर्र-घर्र ने छीन ली. छोटा बेटा सिर्फ 3 महीने का था, बड़ा वाला 7 साल का, बीच में एक बेटी, 5 साल की. बड़ा बेटा रात को बाहर ही सोता था, खुली आसमान के नीचे. मजबूरी भले थी, मगर, उसे शायद अच्छा लगता था. सपनों की उड़ान को रोकने वाला कोई नहीं होता था. सीधे चाँद और तारों से बातें होती थी.
सुबह उठकर नहाने की दिक्कत. एक गुसलखाना तक न था. बच्चे पापा के साथ घर के बाहर लगे नलके के नीचे बैठकर ही नहा लिया करते थे. माँ जैसे तैसे घर के अन्दर ही नहाती थी. गर्मी ऐसे ही अन्दर बाहर करते बीत जाती थी. सुकून मिलता था, शायद अब आराम मिले. बरसात की फुहारों से शायद कुछ राहत मिले. बरसात आपने साथ राहत जरूर लाती थी, मगर दिक्कतें यही ख़त्म नहीं होती. एस्बेस्टस की छत थी, कुछ छेद तो होने ही थे. बरसात शुरू तो पता ही नहीं चलता था कि घर के अन्दर हैं या बाहर. जगह-जगह से पानी की बूंदें गिरती थी. कमरे भले तीन थे मगर बिस्तर सिर्फ एक ही हुआ करता था. सूरज गोले बरसाए या छत पर से बूँदें टपके, सब को सोना वही पड़ता था. कभी साबुन से छेदों को सील करके तो कभी कटोरियाँ टांग के. अब तो छोटा बेटा भी 3 साल का हो गया था. बल्ला-बॉल खरीदने के लायक पापा की आर्थिक क्षमता नहीं थी. ऐसे में बच्चे कभी शिकायत नहीं करते थे. कटोरियाँ टांगने की मजबूरी को ही अपना खेल समझते थे और छेदों को सील करने वाले साबुन को अपना खिलौना. दुःख कहाँ दिखता था चेहरे पर. कोई शिकन भी नहीं.
एक बड़े से अहाते के एक कोने में बने इस छोटे से घर की दिक्कतें किसी मौसम में ख़त्म नहीं होती. जंगल-झाड के बीच बने इस घर में बरसात के बाद सापों का प्रकोप दिखता था. बच्चों को तो सांप से भी डर नहीं लगता था. सांप देखते ही बेटी अपने पापा को लाठी जाकर दे देती थी. न जाने कितने साँपों के सर का कचूमर निकलते देखा था उन नन्हे आँखों ने. डर क्यूँ आएगा. पढने के टेबल पर किताबों के बीच में सांप भी बैठते थे. एक याराना सा लगता था शायद. जाड़े के मौसम में डाक्टर पापा की MBBS डिग्री का सही मतलब समझ आता था. एक ही बिस्तर पर एक ही रजाई के नीचे मियाँ-बीवी-बच्चों-समेत. जगह कम होने की कोई शिकायत नहीं होती थी.
स्थिति कुछ सुधरी तो खेलने के कुछ सामन आने लगे. साल में एक. एक बार बल्ला आया, एक बार कैरम बोर्ड, एक बार व्यापारी. 'साल में एक' की शर्त का नतीजा था शायद जो बच्चों ने अपनी ज़िन्दगी में चीजों को सहेज कर रखने का गुण सीखा.    कभी एक से ज्यादा की मांग नहीं कि, जरुरत ही नहीं महसूस होती थी. जब जो माँगा गया, माँ-पापा ने सब कुछ पूरा किया, शायद इसलिए कोई लालसा नहीं रहती थी. बिना मांगे ही उन्होंने इतना कुछ दिया कि कभी कोई कमी महसूस नहीं होती थी. क्या नहीं था उन बच्चों के पास. पड़ोस के बच्चों जैसे रिमोट पर चलने वाले कार नहीं थे तो क्या हुआ, पापा ने रस्सी खीचने वाली गाडी खुद बना दी थी. गाडी में बैठ कर घूमने का मजा वो नहीं जानते थे, स्कूटर पर माँ-पापा के साथ बैठकर घूमने के सामने उनके लिए कुछ भी नहीं था. बेटी आगे खड़ी होती थी, बड़ा बेटा बीच में बैठता था और छोटा माँ की गोद में. बेटी बड़ी होने के बाद भी वहीँ खड़ी होती थी, गर्दन दर्द हो जाये इस तरह से अपने सर को झुकाए. कभी जो उसने एक बार भी चूं तक की हो. दर्द क्या होता था बच्चे जानते ही नहीं थे.
बड़ा बेटा अब 17 साल का हो गया था, बेटी 15 की और छोटा बेटा 10 साल का. पापा की आमदनी और बचत से अब अपना एक घर बन गया था. छोटा सा प्यारा सा एक घर. खिडकियों में पल्ले लगाने के पैसे नहीं थे फिर भी, सब लोग इस घर में आ गए. समय के साथ खिडकियों में पल्ले भी लग गए और एक तल्ला छोटा मकान कुछ सालों में 3 तल्ले से भी ऊपर हो गया. बड़ा बेटा इंजीनियर बन गया. अपनी कमाई से एक बड़े शहर में अपना एक फ्लैट खरीद लिया उसने. बेटी डाक्टर बन गयी. अपना घर उसने भी बसा लिया. छोटा बेटा भी अब डाक्टर बन चुका है. अपने उसी तीन तल्ले घर में रहता है. दो तल्ले खुद के पास रखे गए हैं. 3 छोटे-छोटे कमरों से शुरू हुई वो यात्रा आज 6 बड़े कमरों, 2 हॉल, 2 रसोई और 6 गुसलखाने तक पहुच गयी है. जब आदमी थे तब जगह नहीं था, आज जगह है आदमी नहीं. नए फ़ोन में पल-पल डायलटोन खोजने वाला छोटा बेटा आज दिन भर लैपटॉप लेकर ऑनलाइन रहता है. एक स्कूटर पर घूमने वाले पूरे परिवार के पास आज 4 चारपहिये और 4 दुपहिये हैं.
सब कुछ कितना बदल गया. कुछ नहीं बदला तो वो है माँ-पापा के चेहरे की वो ख़ुशी. वो तब भी थी, वो आज भी है. दुःख क्या होता है बच्चे आज भी नहीं जानते, या यूँ कहे कि जानना ही नहीं चाहते. कोई शिकायत आज भी नहीं होती. कोई मांग तब भी नहीं थी आज भी नहीं है, पापा बस वैसे ही बच्चों की झोलियाँ भरते रहते हैं. उनकी मेहनत ने उनके सपनों के साथ मिलकर क्या गुल खिलाया है उसपर विश्वास उन्हें आज भी नहीं होता. 20 साल पहले का वो घर कबूतरखाना ही तो लगता है आज. मगर क्या उनसब के लिए वो आशियाने से कम था. न जाने क्या क्या सपने देखे थे उस परिवार ने उस एस्बेस्टस की छत के नीचे. पता नहीं ऐसे भविष्य की कल्पना भी कभी की थी या नहीं.
20 तारीख को हमारे घर के गृह-प्रवेश के 14 साल पूरे हो गए. गाहे-बगाहे यूँही वो लम्हा याद आ गया जब पहली बार इस घर में कदम रखा था. उन लम्हों के साथ वो सबकुछ याद आ गया जो उसके पहले हमारे परिवार ने एक साथ बांटा था. बस वही सबकुछ यहाँ लिख दिया है. अभी बैठकर जब सबकुछ सोचता हूँ तो कुछ नहीं सूझता. बस मालूम होता है कि ये कुछ नहीं, एक मामूली परिवार की कल्पनाओं से परे एक उड़ान ही तो है, और क्या!
  
 

12 comments:

Asha Joglekar said...

कठिनाई से गुजर कर जो मंजिल मिलती है उसे पाने का सुख ही कुछ और होता है । पर ेक बात यह भी है कि जब आप रास्ते के सफर को आनंद से भर दें तो मंजिल खुद ब खुद आपके सामने होती है । दिल को छू गई आपकी ये कथा या आत्मकथा ।

The Evolution said...

बहुत अच्छी तरह से प्रकट किया.कठोर परिश्रम और ईमानदारी हमेशा वापस भुगतान करता है.

Kunal said...

Aashu, bohot achha likha hai. Shayad Doosron se jyaada samajh bhi paoonga yeh sab.

Vishal Sinha said...

anshuman....tumne bahut achche se apni bhavnaaon ko vyakt kiya hai....lekin padhne par aysa laga jaise ye kahani kuch mere parivar se bhi mel khati ho
dada ji patna ke IG Police hone ke bawajood na jaane kitne saal hum rent ke ghar mein rahe....unki imaandari ke baare mein es say jada kya kahen...3 sister mein se ek ki shaadi hi hue thi ki mere dada ji ka swarg waas ho gaya...aur kathin parishram se mere papa aur bade papa ne aaj family ko kahan se kahan pahuncha diya.....ek makan ko tarasne wale mere dada ke sons ko india mein 5 jagah apna house hai...magar ab sukh ka samay aaya to papa hi na rahe mere....sirf sangharsh ka hissa hi jee paaye....
aage likh nahin paayengay
m so emotional
but anshuman tumne jo likha uski bdai shabdon mein nahi kar sakta

PraTeek said...

Bahut Sunder.. :)

Prem Prakash said...

...सुंदर लिखा है.. बधाई... इसमे न सिर्फ एक परिवार की संघर्ष यात्रा है... बल्कि अपने परिवार से गहरे जुड़े होने की संवेदना भी है..

Aashu said...

@आशा जी: ख़ुशी हुई जो मेरी ये पोस्ट आपके दिल को छू पायी.
@महेश्वर: धन्यवाद भाई!
@प्रतीक: धन्यवाद.

Aashu said...

@कुणाल: हाँ किशु भैया, उन दिनों में इस परिवार के जितना नजदीक आपका परिवार था उतना कोई और न था. आपको तो समझना ही था. जब भी मन लगाने की बात आती थी तो हर शाम आपके यहाँ आप लोगों के साथ खेल कर ही तो बीतती थी.

Aashu said...

@विशाल: भाई ये सिर्फ मेरी और तुम्हारी ही नहीं, बल्कि मध्यम वर्गीय हर परिवार की कहानी है जो अपने मेहनत के बल पर अपनी एक नयी पहचान बनाने में सफल होती है.

Aashu said...

@प्रेम: इन्ही संवेदनाओं के बल पर तो इस यात्रा को आज भी जीवित रखा है इस परिवार ने. बाकी आप तो सब जानते ही हैं PP चाचा! :)

Nawal said...

padh kar bahut achchha laga yaar......made me emotional......both the content as well way of expressing it was inspirational

Aashu said...

@nawal: thanks dear! It made me emotional too when I was writing.... aur ghar ke sablog padh ke ro rahe the un dinon ko yaad karke........It happens, if something comes out directly from the heart, it touches everybody's heart!!!