Thursday, September 03, 2015
Tuesday, July 28, 2015
मसान - जीवन, मृत्यु और उनके बीच का सबकुछ
कुछ महीने पहले की बात है। ट्विटर के बाज़ार पर दो भारतीय फिल्मों का किस्सा गर्म था। मराठी फिल्म कोर्ट और हिंदी फिल्म मसान। कोर्ट पहले ही रिलीज़ हो गयी थी मगर देखने का मौका नहीं मिला हालांकि चाहत देखने की काफी थी। मसान ने कान फिल्म महोत्सव में अच्छा धमाका किया था। इंतज़ार इसके रिलीज़ की तब से ही थी। इतना कुछ इसके बारे में सुना था कि कभी ट्रेलर देखने का मन ही नहीं हुआ, सीधे फिल्म देखने की ही इच्छा हुई थी। अंततः फिल्म देखने का मौका कल मिल ही गया। वरुण ग्रोवर की लिखी इस फिल्म का निर्देशन किया है नीरज घेवान ने।
फिल्म की शुरुआत होती है बनारस के एक छोटे से कमरे से। देवी (ऋचा चड्डा) अपने घर में खिड़की-दरवाजे बंद करके कानों में ईयर-फ़ोन लगाये पॉर्न देख रही है और फिर उठकर बाहर निकलती है। एक लड़के के साथ शहर के एक होटल में जाती है। "जिज्ञासा मिटाने"। उसी समय होटल में पुलिस छापा मारती है और उन्हें आपत्तिजनक स्थिति में पकड़ लेती है। लड़का बदनामी के डर से वहीँ हाथ की नसों को काटकर आत्महत्या कर लेता है। लड़की की उसी हालत में पुलिस इंस्पेक्टर एमएमएस बना लेता है। फिल्म की आगे की टोन और कथानक यहीं तय हो जाते हैं।
एक दूसरी कहानी में बनारस के श्मशान घाट पर मुर्दों को जलाने का काम करने वाले डोम समुदाय का एक लड़का दीपक (विक्की कौशल) एक ऊँचे जाति के लड़की शालू (श्वेता त्रिपाठी) को पसंद करता है। फेसबुक के माध्यम से दोस्ती होती है। दोस्ती प्यार में बदल जाती है। दीपक सिविल इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। बाप-दादा के श्मशान वाले धंधे से उसे बाहर निकलना है, नौकरी करनी है। शालू ग़ज़लों की शौक़ीन है। नीदा फ़ाज़ली और दुष्यंत कुमार को सुनती है। दीपक ग़ज़ल से कोसों दूर हैं। सुनना तो दूर, इन्हे समझने में भी उसे दिक्कत होती है। घंटों की टेलीफोन की बातों में शालू उसे शायरी सुनाती रहती है। बिना समझे दीपक सब सुनता रहता है। निर्दोष भाव से वो स्वीकार भी करता है कि उसे शायरी का श भी समझ नहीं आता। उसकी सच्चाई इस प्यार को नयी ऊंचाइयों तक ले जाती है।
दीपक शालू को चूमता है और फिर सफाई देता है, "तुम घर में सबसे छोटी हो न इसलिए प्यार आ गया।" छोटी जात के लड़के का ऊँची जात की लड़की से यह प्यार निष्पाप तरीके से परवान चढ़ता है। दर्शक जात-पात की बंदिशों को भूलकर इस निर्दोष प्यार के मजे लेते हैं तभी दीपक का दोस्त कहता है, "ऊँचे कास्ट की हैं, भाई ज्यादा सेंटीआईएगा नहीं।" आप इस अद्भुत प्यार को एक दर्दनाक अंत की तरफ बढ़ते हुए महसूस करते हैं। दीपक शालू के सामने अपना सच कह देता है। शालू अपने परिवार के साथ बद्रीनाथ की यात्रा पर जाती है। रास्ते में एक ढाबे पर वो रुकते हैं। ढाबा उनके जात के लोगों का ही है। शालू के माता-पिता जात के इस पुट के साथ खाने की बड़ाई करते हैं और तभी शालू यह निर्णय करती है कि वो जात-पात के इन बंदिशों को तोड़कर दीपक के साथ भागने को भी तैयार है। अगले ही सीन में दीपक घाट पर मुर्दों को जला रहा होता है। कोई बस पलट गयी थी इसलिए घाट पर काफी भीड़ है। उन्हीं मुर्दों में एक शालू भी है। दर्शक दहल से जाते हैं। दर्दनाक अंत का इंतज़ार सबको था मगर ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। दीपक टूट जाता है। और फिर शालू की यादों को दिल में संजोये बनारस छोड़ देता है।
उधर देवी की ज़िन्दगी श्मशान की तरह आगे बढ़ रही है। उसका प्यार मर चुका है और जिसके मौत का कारण उसे ही माना जा रहा है। उसके एमएमएस को यूट्यूब पर डालने की धमकी देकर वो इंस्पेक्टर देवी के बाप से पैसे ऐंठता है। घाट पर पूजा-पाठ की सामग्री बेचने वाला वो बूढ़ा बाप (संजय मिश्रा) संस्कृत का विद्वान है। कभी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था, आज मुसीबत में घिरा एक गरीब बाप है। कहीं-कहीं से वो पैसों का बंदोबस्त करता है। दूकान पर काम करने वाले एक छोटे बच्चे झोंटा को डुबकी लगा कर पैसे निकालने के खेल में शामिल कराकर किसी तरह से कुछ पैसे कमाता है और उस इंस्पेक्टर का मुंह बंद करता है। देवी इस ज़लालत से दूर निकलना चाहती है। रेलवे में अस्थायी नौकरी करके कुछ पैसे कमाती है और बाप की मदद करती है। उसके बाद बनारस छोड़कर बाहर चली जाती है। अपनी ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी से दूर।
कहानी कहाँ शुरू होती है और कहाँ ख़त्म कुछ पता नहीं चलता। किरदारों के जीवन के एक हिस्से को उठाकर कथाकार ने फिल्म में पेश कर दिया है। हर किरदार की एक पहले की कहानी है और एक बाद की। उन कहानियों का इस कहानी पर यदा-कदा ही असर होता दिखता है। मुख्य किरदारों के अलावा कुछ और सहायक किरदार हैं जो फिल्म को आगे ले जाने और अपनी बात कहने में मदद करते हैं। देवी के साथ काम करने वाला रेलवे का एक कर्मचारी (पंकज त्रिपाठी) वैसा ही एक किरदार है। उससे पूछे जाने पर कि वो अकेला रहता है, वो कहता है, "जी नहीं, मैं अपने पिताजी के साथ रहता हूँ, पिताजी अकेले रहते हैं।"
विक्की कौशल की अदाकारी फिल्म में जान डाल देती है। श्वेता त्रिपाठी की मासूमियत को उनकी अदायगी नए आयाम देती है। संजय मिश्रा और पंकज त्रिपाठी सहायक किरदारों में जंचते हैं। ऋचा चड्डा अपने किरदार के साथ पूरा इन्साफ करती नज़र आती हैं हालांकि उनके किरदार में रंगों की कमी उनकी अदाकारी को भी कहीं कहीं नीरस बना देती है। बनारस का शहर फिल्म में एक अभिन्न किरदार के रूप में बाहर आता है। गंगा के घाटों की खूबसूरती, दुर्गा-पूजा में दुल्हन सी सजी शहर की सड़कें या फिर अनंत ज्योति की तरह श्मशान घाट पर जलती हुई चिताएं। सब अपनी अपनी कहानी बताते हैं।
श्मशान के कुछ दृश्य सीधे दिलों पर वार करते हैं। अपने बेटे की चिता को आग देने वाले बाप से डोम-राज कहता है पांच बार बांस के बल्ले से शव के सर को मारकर फोड़ो तब तो मिलेगी आत्मा को मुक्ति। श्मशान की यात्रा कभी सुखद नहीं होती। अपने प्रिय को आग की लपटों में स्वाहा कर देना बड़ा दुःखदायी होता है। कई तरह के विचार मन में आते हैं। जो वहीँ रहकर अपनी रोजी-रोटी ही इस काम से निकालता है उसकी मनःदशा कभी समझने की कोशिश नहीं की थी। फिल्म में उन डोम के ज़िन्दगी को भी बखूबी दर्शाया है। शायद मुर्दों को जलाते रहने के दुःख को वो शराब के अपने नशे से मिटाते रहने की कोशिश करते हैं। तभी तो अंत में एक डोम पिता अपने बेटे को इस काम से दूर निकल कर पढ़ लिख कर नौकरी करने की सलाह देता है।
फिल्म जातिवाद पर भी चोट करती हुई आगे बढ़ती है। देवी का बाप उस इंस्पेक्टर से अपनी ही बिरादरी के होने की दुहाई देता है जिसका कोई असर नहीं पड़ता। सब अपनी फायदे की सोचते हैं। जात की सोचकर कोई नुकसान क्यों उठाये। उसी तरह शालू भी दीपक के साथ ज़िन्दगी बिताने का निर्णय तभी करती है जब उसके माँ-बाप एक ढाबे के खाने की बड़ाई करते हैं क्यूंकि वो उनके बिरादरी के लोगों का ही ढाबा है। फिल्म कई सारी बात पौने दो घंटे में कह देती है।
कैमरामैन ने बनारस की जिस नब्ज़ को पकड़ा है वो शहर के कई रूपों को सामने ले आता है। जलती हुई चिताओं और उससे उठता हुआ धुआं मन में चोट पैदा करता है वहीँ दुर्गा-पूजा में सजे शहर के ऊपर उड़ते हुए वो दो लाल गुब्बारे उस आशा के प्रतीक बनकर ऊपर उठते चले जाते हैं जिनमें आप सोचते हैं यहां सब कुछ बुरा ही नहीं होता। आपको पता है कि वो गुब्बारे ऊपर जाकर फूटने ही वाले हैं मगर फिर भी वो आस नहीं मिटती। यह सीन फिल्म का सबसे प्यारा सीन बनकर सामने आता है। जिस प्यार का इज़हार यह सीन करता है उसी की तरह यह भी अपने अंदर सारे जहां की मासूमियत दबाये रहता है। बनारस, जहाँ सब मरने के बाद मुक्ति के लिए आते हैं, वहीँ वहां के किरदारों को जीवन में अपने दुखों से मुक्ति नहीं मिलती। सब बनारस के मसान में आते हैं मुक्ति पाने मगर देवी और दीपक आगे बढ़ जाते हैं उस मसान की तलाश में जहां उन्हें मुक्ति मिले, दुःखों से, अपनी यादों से।
Saturday, July 04, 2015
एक नया सफर
जीवन एक यात्रा है। निरंतर चलती हुई। अंतिम सांस के साथ आने वाली मौत पर ही रुकने वाली। छोटे से इस जीवन में कई मुकाम आते हैं। रेलगाडी के सफर में आने वाले स्टेशनों की तरह। गाडी रुकती है, कुछ लोग चढते हैं कुछ उतर जाते हैं। गाडी फिर आगे बढ जाती है। नए लोगों का साथ मिलता है पुराने लोग छुट जाते हैं। आज ऐसी ही एक रेलगाडी में बैठा वो अपने जीवन के सफर के अगले मुकाम तक बढ रहा है।
वक्त बढता तो निरंतर अपनी ही रफ्तार से है मगर लोग महसूस करते हैं अपनी सहूलियत से। गुजरता हुआ वक्त जब हसीं होता है तो और लम्बा चलने की हसरत में जल्दी जल्दी बीतता हुआ सा महसूस होता है। लगता है अभी तो शुरूआत हुई थी और अभी अभी सब खत्म हो गया। पिछले तीन सालों में उसने कई उतार चढाव देखे हैं। बडी ही सामान्य सी बात है, आखिर तीन साल कोई छोटा समय तो नहीं होता। कुछ पल बडे लम्बे बीते और कुछ अच्छे वाले पलक झपकते ही ओझल हो गए। यही कारण है कि चाहते हुए भी वह ऐसा नहीं सोच पा रहा है कि ये पिछले तीन साल बडे जल्दी बीत गए।
जो भी हो, कलकत्ता छोडकर जब आज वो निकल रहा है तो पिछले तीन साल के कई खट्टे मीठे पल अभी याद आ रहे हैं उसे। तीन साल और एक दिन। एक और सफर की शुरूआत होती है। ऐसे ही रेलगाडी के एक डिब्बे में। वो उस दिन भी अकेला चला था इस सफर में और आज भी अकेला है। कुछ सपने उस दिन भी थे आँखों में, कुछ आज भी हैं। आज मगर एक सुकून भी है। पुराने सपनों के पूरे हो जाने का। वो सपने जो उसके लिए उसके पापा ने देखे थे। वही सपने जो शायद उसके पापा के लिए उनके बाबूजी ने देखे थे। पिता के सपनों को पूरा करने की खुशी आज अपने सपने खुद देखने वाली पीढी क्या समझेगी!
3 जुलाई 2012 का वो दिन था, अस्पताल में उसका पहला। मंगलवार का दिन। सामने आने वाले 3 सालों के सपनों को देखते हुए अपने नए दोस्तों से मिल रहा था। सबसे पहले एक सीनियर से मुलाक़ात हुई। उसके अपने ही यूनिट के। गैर-हिंदी बोलने वाले इस नए जगह में उस हिंदी-भाषी से मिलकर शायद एक अपनापन सा महसूस हुआ था। समय के साथ दोनों अच्छे दोस्त बनने वाले थे। शुरुआत उस दिन ही हुई थी जो आजतक कायम है। उनके साथ ही उसने पहली बार वार्ड के चक्कर लगाये थे। और वहीँ मुलाक़ात हुई उसे अपने यूनिट के साथी से, जिसके साथ तीन साल बीतने वाले थे।
वार्ड के बाहर ड्यूटी-रूम में बत्तियां बुझाकर सो रहा था। हॉस्टल में कमरा नहीं मिला था। वो ड्यूटी-रूम ही उसका घर बना रहा था अगले ढाई-तीन महीनों के लिए। एक काला सा अजीब सा दिखने वाला लड़का। सांवला कहना सांवलेपन का अपमान था, इसलिए काला। घुंघराले बिखरे बाल। पसीने के दाग लगे हुए कमीज। आँखों में थकान। आने वाले पहले साल की थकान भरी ज़िन्दगी की कहानी बयां कर रही थी उसकी ये हालत। उसके कमरे में घुसते ही वो जग गया था। बत्ती जलायी, सिगरेट मुंह में लगाकर सुलगाया और फिर हाथ बढाकर हुई पहली मुलाक़ात। न जाने कितने सिगरेट पीने का असर उसे झेलना पड़ा था अपने इस नए दोस्त की इस आदत के कारण।
अगले कुछ महीने उसके बड़े खट्टे-मीठे बीते। कभी वार्ड से डिस्चार्ज होते मरीज़ों की दुआएं मिलती और कभी किसी गलती पर सर की झाड़। झाड़ ज्यादा मिलती थी, दुआएं कम। फिर भी काफी होती थी हौसला बढ़ाये रखने के लिए। झाड़ तो अक्सर बंगाली में मिलती थी। शुरूआती कुछ महीने वो समझ ही नहीं पाता था। होठों पर मुस्कान रहती थी। सर और गुस्सा होते थे। और झाड़ पड़ती थी। उसकी मुस्कान टस से मस नहीं होती थी। बाद में उसके साथी उसे बताते थे, वो झाड़ खा रहा था। मुस्कान फिर ठहाकों में बदल जाती थी।
समय गुजरता चला गया। नए मरीज़ भर्ती होते। इलाज़ होता, ऑपरेशन होता। ज्यादातर ठीक होकर घर जाते, कुछ साथ छोड़ देते। कभी दुआएं मिलती, कभी गालियां भी पड़ती। इन सब के बीच वो अपने घर से, परिवार से दूर चलता रहा अपने इस सफर में। कभी कुछ दोस्त होते थे, ज्यादातर अकेले ही रहता था। अकेलेपन का अहसास तो होता ही था, मगर उसने कभी इसे अपने मन पर हावी नहीं होने दिया। सपनों के पीछे भी ताक़त होती है जो उसे उसकी नियति की ओर ले जाती है। माँ-बाप के उस सपने के पीछे उनका ही आशीर्वाद होता है। उसी आशीर्वाद के सहारे आज फिर से उसने एक सपना देखा है। उसी नए सपने के साथ वह चल निकला है। इस नए सफर पर।
वक्त बढता तो निरंतर अपनी ही रफ्तार से है मगर लोग महसूस करते हैं अपनी सहूलियत से। गुजरता हुआ वक्त जब हसीं होता है तो और लम्बा चलने की हसरत में जल्दी जल्दी बीतता हुआ सा महसूस होता है। लगता है अभी तो शुरूआत हुई थी और अभी अभी सब खत्म हो गया। पिछले तीन सालों में उसने कई उतार चढाव देखे हैं। बडी ही सामान्य सी बात है, आखिर तीन साल कोई छोटा समय तो नहीं होता। कुछ पल बडे लम्बे बीते और कुछ अच्छे वाले पलक झपकते ही ओझल हो गए। यही कारण है कि चाहते हुए भी वह ऐसा नहीं सोच पा रहा है कि ये पिछले तीन साल बडे जल्दी बीत गए।
जो भी हो, कलकत्ता छोडकर जब आज वो निकल रहा है तो पिछले तीन साल के कई खट्टे मीठे पल अभी याद आ रहे हैं उसे। तीन साल और एक दिन। एक और सफर की शुरूआत होती है। ऐसे ही रेलगाडी के एक डिब्बे में। वो उस दिन भी अकेला चला था इस सफर में और आज भी अकेला है। कुछ सपने उस दिन भी थे आँखों में, कुछ आज भी हैं। आज मगर एक सुकून भी है। पुराने सपनों के पूरे हो जाने का। वो सपने जो उसके लिए उसके पापा ने देखे थे। वही सपने जो शायद उसके पापा के लिए उनके बाबूजी ने देखे थे। पिता के सपनों को पूरा करने की खुशी आज अपने सपने खुद देखने वाली पीढी क्या समझेगी!
3 जुलाई 2012 का वो दिन था, अस्पताल में उसका पहला। मंगलवार का दिन। सामने आने वाले 3 सालों के सपनों को देखते हुए अपने नए दोस्तों से मिल रहा था। सबसे पहले एक सीनियर से मुलाक़ात हुई। उसके अपने ही यूनिट के। गैर-हिंदी बोलने वाले इस नए जगह में उस हिंदी-भाषी से मिलकर शायद एक अपनापन सा महसूस हुआ था। समय के साथ दोनों अच्छे दोस्त बनने वाले थे। शुरुआत उस दिन ही हुई थी जो आजतक कायम है। उनके साथ ही उसने पहली बार वार्ड के चक्कर लगाये थे। और वहीँ मुलाक़ात हुई उसे अपने यूनिट के साथी से, जिसके साथ तीन साल बीतने वाले थे।
वार्ड के बाहर ड्यूटी-रूम में बत्तियां बुझाकर सो रहा था। हॉस्टल में कमरा नहीं मिला था। वो ड्यूटी-रूम ही उसका घर बना रहा था अगले ढाई-तीन महीनों के लिए। एक काला सा अजीब सा दिखने वाला लड़का। सांवला कहना सांवलेपन का अपमान था, इसलिए काला। घुंघराले बिखरे बाल। पसीने के दाग लगे हुए कमीज। आँखों में थकान। आने वाले पहले साल की थकान भरी ज़िन्दगी की कहानी बयां कर रही थी उसकी ये हालत। उसके कमरे में घुसते ही वो जग गया था। बत्ती जलायी, सिगरेट मुंह में लगाकर सुलगाया और फिर हाथ बढाकर हुई पहली मुलाक़ात। न जाने कितने सिगरेट पीने का असर उसे झेलना पड़ा था अपने इस नए दोस्त की इस आदत के कारण।
अगले कुछ महीने उसके बड़े खट्टे-मीठे बीते। कभी वार्ड से डिस्चार्ज होते मरीज़ों की दुआएं मिलती और कभी किसी गलती पर सर की झाड़। झाड़ ज्यादा मिलती थी, दुआएं कम। फिर भी काफी होती थी हौसला बढ़ाये रखने के लिए। झाड़ तो अक्सर बंगाली में मिलती थी। शुरूआती कुछ महीने वो समझ ही नहीं पाता था। होठों पर मुस्कान रहती थी। सर और गुस्सा होते थे। और झाड़ पड़ती थी। उसकी मुस्कान टस से मस नहीं होती थी। बाद में उसके साथी उसे बताते थे, वो झाड़ खा रहा था। मुस्कान फिर ठहाकों में बदल जाती थी।
समय गुजरता चला गया। नए मरीज़ भर्ती होते। इलाज़ होता, ऑपरेशन होता। ज्यादातर ठीक होकर घर जाते, कुछ साथ छोड़ देते। कभी दुआएं मिलती, कभी गालियां भी पड़ती। इन सब के बीच वो अपने घर से, परिवार से दूर चलता रहा अपने इस सफर में। कभी कुछ दोस्त होते थे, ज्यादातर अकेले ही रहता था। अकेलेपन का अहसास तो होता ही था, मगर उसने कभी इसे अपने मन पर हावी नहीं होने दिया। सपनों के पीछे भी ताक़त होती है जो उसे उसकी नियति की ओर ले जाती है। माँ-बाप के उस सपने के पीछे उनका ही आशीर्वाद होता है। उसी आशीर्वाद के सहारे आज फिर से उसने एक सपना देखा है। उसी नए सपने के साथ वह चल निकला है। इस नए सफर पर।
Sunday, June 07, 2015
मारे गए गुलफाम! और तीसरी कसम
कुछ दिनों पहले परीक्षाओं को लेकर पढाई में काफी व्यस्त था। दिन भर हॉस्टल के कमरे में किताबों के बीच पड़ा रहता था। बाहरी दुनिया से भौतिक तालमेल टूट चुका था। इंटरनेट के माध्यम से ही मन बहलाने का काम चलता था। बाहर जाना, घूमना-फिरना इन सब के लिए न तो समय था और न ही समय निकाल पाने की हिम्मत होती थी। मन बहलता था युट्यूब के वीडियो से। पुराने दूरदर्शन के धारावाहिक के एपिसोड या फिर कभी कभी कोई डाक्यूमेंट्री फीचर। इसी क्रम में मौका मिला फणीश्वर नाथ रेणु के जीवन पर बने इस कार्यक्रम को देखने का। रेणु के बारे में पहले भी कई बार बहुत कुछ पढ़ चुका था। कार्यक्रम के दौरान कई नई जानकारी मिली और कुछ पुरानी बातों की पुनरावृति हो गयी।
बचपन में पापा पुस्तक मेला लेकर जाते थे। पुस्तक उनके लिए होते थे, मेला हमारे लिए। एकाध कोई भारती भवन की किताब हम पसंद करते थे, पापा पुस्तकों का एक जखीरा। राजकमल पेपरबैक्स के प्रतिनिधि कहानियों का कलेक्शन। अमृतलाल नागर, भीषम साहनी, इस्मत चुगताई, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश इत्यादि। इसी कलेक्शन में रेणु का नाम पहली बार सुनने का मौका मिला था। तब उम्र इन्हें पढ़ने की नहीं थी। बड़े हुए, घर बदला और शायद तबादले में या समय के साथ ये किताबें कहीं खोने लगी। बड़े भाई को भी साहित्य का शौख था। पुस्तक मेले में फिर उसके साथ जाने लगा। पुस्तकों के प्रति थोड़ा रुझान बढ़ चुका था मगर फिर भी ज्यादा समय नहीं दे पाता था। ज्यादा जानकारी भी नहीं थी। अपना इस्तेमाल मेले में मैं भैया की मदद के लिए करता था। "रेणु की 'मैला आँचल' कहीं दिखे तो ले लेना", उसने कहा था। उसके हाथ में पहले से 'परती परिकथा' और 'एक आदिम रात्रि की महक' थी। कुछ और किताबों के साथ। जिनमें वो प्रतिनिधि कहानियों का कलेक्शन भी था जो खो गए थे।
तब तक बड़ा हो चुका था और थोड़ी बहुत जानकारी सिनेमा और साहित्य के बारे में मिल चुकी थी। विविध भारती के कार्यक्रम पिटारा में शुक्रवार (शायद) को बॉयोस्कोप की बातें आती थी। उसमें फिल्म तीसरी कसम के बारे में सुना था कुछ ही दिन पहले। रेणु की प्रतिनिधि कहानियाँ वाली किताब में 'मारे गए गुलफाम' को ढूँढा और पढ़ा। तब से फिल्म देखने की इच्छा मन में रही। टीवी पर कई बार मौका मिला पर पूरी फिल्म टुकड़ों में ही देख पाया। जब से फिर से यूट्यूब पर रेणु पर वो कार्यक्रम देखा, तब से फिर से तीसरी कसम देखने की इच्छा बलवती हो गयी। फिर क्या था, इंटरनेटी युग है, हो गया सिनेमा डाउनलोड और आखिरकार कल फिल्म देख ही लिया।
फणीश्वर नाथ रेणु उत्तर पूर्व बिहार से आते हैं और हिंदी साहित्य के उच्चतम लेखकों में एक हैं। बिहार से आते हैं और उनकी शैली में बिहारियात खुल कर बाहर आती है इसलिए शायद उनके साथ एक जुड़ाव अपने-आप बन जाता है। कोसी के उस इलाके से ताल्लुक रखते हैं जो न जाने कितनी बार कोसी की बाढ़ की मार झेलकर आज भी बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाकों में एक है। तकरीबन 50-60-70 साल पहले लिखी गयी उन कहानियों में इस क्षेत्र का दुःख, इनकी गरीबी, ज़मींदारों का सामंती रवैया सब छलक-छलक कर बाहर आता है। और उस सामाजिक कुरीतियों और चलनों के ताने-बाने में संवेदनाओं का अनूठा खेल रेणु की हर कहानी में उनकी शैली बनकर बाहर आता है।
ऐसी ही समाज की दकियानूसी सोच और रवैये के बीच संवेदनाओं का एक भंवर है 'मारे गए गुलफाम' जिसपर फिल्म तीसरी कसम बनी। हिरामन नाम के एक गाड़ीवान की कहानी जो अपने जीवन में दो कसम खा चुका है, एक चोरबाज़ारी का सामान कभी नहीं लेगा और दूसरा बांस कभी नहीं लादेगा। उत्तर-पूर्वी बिहार के एक गाँव का ये नवयुवक गाड़ीवान गाड़ीवानी को अपनी जान बताता है। अपनी शादी की बात पर बोलता है, "कौन बलाय मोल लेने जाए! ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सबकुछ छूट जाए, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन।" इस बार उसे सवारी मिलती है नौटंकी कंपनी के एक बाई की, हीराबाई। हीराबाई हिरामन को मीता कहकर बुलाती है, कहती है, "तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं।, मेरा नाम भी हीरा है।" हिरामन कुछ नहीं कह पाता सिर्फ मुस्कुराता है और पूरी मासूमियत से अंत में कहता है, "इस्स"।
हिरामन और हीराबाई की नजदीकी बढ़ती जाती है। हीराबाई को नौटंकी में नाचना तो फिर भी हिरामन को भाता है मगर उसपर दर्शकों और उसके खुद के दोस्तों की प्रतिक्रिया को वो बर्दाश्त नहीं कर पाता। उसके अंदर जलन की भावना घर करने लगती है। उसके दोस्त हीराबाई की तरफ वही भावना रखते हैं जो लोगों में नौटंकी कंपनी की बाई के लिए होती है। उसके दोस्त कहानी में उस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका एक हिस्सा हिरामन खुद है। हिरामन के मन में फिर भी हीराबाई के लिए इज़्ज़त रहती है जो समय के साथ प्यार में बदलने लगती है। वो इज़्ज़त, वो प्यार जो हीराबाई के लिए बिलकुल नया था। कंपनी की बाई को भला इज़्ज़त कौन देता है।
गाँव का ज़मींदार अपने दौलत के बल पर हीराबाई को अपना बनाने की कोशिश करता है। हीराबाई के लिए ये नया नहीं है। इसके पहले कई लोग उसका इस्तमाल इस तरह कर चुके हैं। मगर फिर भी उसको यहाँ यह नया लगता है। हिरामन से मिली इज़्ज़त से उसे लगता है कि उसे भी इज़्ज़त मिल सकती है, तो क्या हुआ अगर वो कंपनी की एक बाई है। अपने भूत, वर्त्तमान, और भविष्य के बीच में हीराबाई पिसती हुई नज़र आती है। वो क्या थी, वो क्या करती थी, उसके प्रति समाज की राय क्या थी। वर्त्तमान में हिरामन से मिलने वाली इज़्ज़त और प्यार के मायने उसके जीवन के लिए क्या थे, समाज में इस रिश्ते की प्रामाणिकता क्या होगी, ये रिश्ता उसे कहाँ ले जायेगा। उसका भविष्य क्या होगा, क्या हिरामन-हीराबाई के साथ का कोई भविष्य है। इन सभी प्रश्नों और इनसे जुड़े भावनाओं के बीच में हीराबाई टूटती हुई नज़र आती है। कंपनी के उसके दोस्त उसे कोई निर्णय जल्दी लेने के लिए बोलते हैं और पूरी समझदारी के साथ। ताकि इतनी देर न हो जाये कि, "कहीं ऐसा न हो कि हीरादेवी को कोई चाहने वाला न हो, और हीराबाई को कोई देखने वाला न हो।"
भावनाओं के इस भंवर से हार मान कर हीराबाई चली जाती है। हिरामन दौड़ता भागता हुआ मिलने स्टेशन जाता है। अंतिम भेंट। हीराबाई अपने देश वापस लौट जाती है। हिरामन को उसके पैसे और अपनी एक निशानी देकर। ट्रेन सिटी मारती हुई आगे बढ़ जाती है। आंसुओं के फव्वारे दोनों और मन में निकलने लगते हैं। बाहर कोई नहीं आने देता। हिरामन गाड़ी लेकर वापस लौटने लगता है। उसके बैल पलट-पलट कर जाती हुई रेलगाड़ी को देखता है। हिरामन उन्हें झाड़ते हुए कहता है, "पलट-पलट के क्या देखते हो, खाओ कसम फिर कभी कंपनी की बाई को गाड़ी में नहीं बैठाएंगे।" हिरामन की तीसरी कसम।
बचपन में पापा पुस्तक मेला लेकर जाते थे। पुस्तक उनके लिए होते थे, मेला हमारे लिए। एकाध कोई भारती भवन की किताब हम पसंद करते थे, पापा पुस्तकों का एक जखीरा। राजकमल पेपरबैक्स के प्रतिनिधि कहानियों का कलेक्शन। अमृतलाल नागर, भीषम साहनी, इस्मत चुगताई, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश इत्यादि। इसी कलेक्शन में रेणु का नाम पहली बार सुनने का मौका मिला था। तब उम्र इन्हें पढ़ने की नहीं थी। बड़े हुए, घर बदला और शायद तबादले में या समय के साथ ये किताबें कहीं खोने लगी। बड़े भाई को भी साहित्य का शौख था। पुस्तक मेले में फिर उसके साथ जाने लगा। पुस्तकों के प्रति थोड़ा रुझान बढ़ चुका था मगर फिर भी ज्यादा समय नहीं दे पाता था। ज्यादा जानकारी भी नहीं थी। अपना इस्तेमाल मेले में मैं भैया की मदद के लिए करता था। "रेणु की 'मैला आँचल' कहीं दिखे तो ले लेना", उसने कहा था। उसके हाथ में पहले से 'परती परिकथा' और 'एक आदिम रात्रि की महक' थी। कुछ और किताबों के साथ। जिनमें वो प्रतिनिधि कहानियों का कलेक्शन भी था जो खो गए थे।
तब तक बड़ा हो चुका था और थोड़ी बहुत जानकारी सिनेमा और साहित्य के बारे में मिल चुकी थी। विविध भारती के कार्यक्रम पिटारा में शुक्रवार (शायद) को बॉयोस्कोप की बातें आती थी। उसमें फिल्म तीसरी कसम के बारे में सुना था कुछ ही दिन पहले। रेणु की प्रतिनिधि कहानियाँ वाली किताब में 'मारे गए गुलफाम' को ढूँढा और पढ़ा। तब से फिल्म देखने की इच्छा मन में रही। टीवी पर कई बार मौका मिला पर पूरी फिल्म टुकड़ों में ही देख पाया। जब से फिर से यूट्यूब पर रेणु पर वो कार्यक्रम देखा, तब से फिर से तीसरी कसम देखने की इच्छा बलवती हो गयी। फिर क्या था, इंटरनेटी युग है, हो गया सिनेमा डाउनलोड और आखिरकार कल फिल्म देख ही लिया।
फणीश्वर नाथ रेणु उत्तर पूर्व बिहार से आते हैं और हिंदी साहित्य के उच्चतम लेखकों में एक हैं। बिहार से आते हैं और उनकी शैली में बिहारियात खुल कर बाहर आती है इसलिए शायद उनके साथ एक जुड़ाव अपने-आप बन जाता है। कोसी के उस इलाके से ताल्लुक रखते हैं जो न जाने कितनी बार कोसी की बाढ़ की मार झेलकर आज भी बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाकों में एक है। तकरीबन 50-60-70 साल पहले लिखी गयी उन कहानियों में इस क्षेत्र का दुःख, इनकी गरीबी, ज़मींदारों का सामंती रवैया सब छलक-छलक कर बाहर आता है। और उस सामाजिक कुरीतियों और चलनों के ताने-बाने में संवेदनाओं का अनूठा खेल रेणु की हर कहानी में उनकी शैली बनकर बाहर आता है।
ऐसी ही समाज की दकियानूसी सोच और रवैये के बीच संवेदनाओं का एक भंवर है 'मारे गए गुलफाम' जिसपर फिल्म तीसरी कसम बनी। हिरामन नाम के एक गाड़ीवान की कहानी जो अपने जीवन में दो कसम खा चुका है, एक चोरबाज़ारी का सामान कभी नहीं लेगा और दूसरा बांस कभी नहीं लादेगा। उत्तर-पूर्वी बिहार के एक गाँव का ये नवयुवक गाड़ीवान गाड़ीवानी को अपनी जान बताता है। अपनी शादी की बात पर बोलता है, "कौन बलाय मोल लेने जाए! ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सबकुछ छूट जाए, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन।" इस बार उसे सवारी मिलती है नौटंकी कंपनी के एक बाई की, हीराबाई। हीराबाई हिरामन को मीता कहकर बुलाती है, कहती है, "तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं।, मेरा नाम भी हीरा है।" हिरामन कुछ नहीं कह पाता सिर्फ मुस्कुराता है और पूरी मासूमियत से अंत में कहता है, "इस्स"।
कहानी आगे बढ़ती है। हिरामन उसे अपने गाँव-परिवार की बातें बताता है। अपने इलाके के लोक-गीत सुनाता है। कहानियाँ बताता है। महुआ घटवारिन की कहानी। एक कुंवारी सुंदरी जिसे एक सौदागर उठा कर ले गया था। हीराबाई को उस घाट पर नहाने से मना करता है जहाँ से महुआ को उठाया गया था जब वो नहा रही थी। सिनेमा और कहानी के इस प्रसंग में थोड़ा अंतर है। सिनेमा के इस प्रसंग में हिरामन की मासूमियत और कुंवारी शब्द सुनकर हीराबाई की मन की पीड़ा का भाव राज कपूर और वहीदा रहमान ने जिस प्रकार दिखाया है वो देखने लायक है। एक मासूम गाड़ीवान का एक कंपनी की बाई के लिए उमड़ता हुआ प्यार और समाज के अंदर ऐसे रिश्तों के प्रति नीची सोच के बीच का विरोधाभाष कहानी में पहली बार उमड़ कर सामने आता है और फिर इसी विरोधाभाष और इससे जुड़े संवेदनाओं को लेकर कहानी आगे बढ़ती जाती है।"एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है। दूसरे रह-रहकर चंपा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में। बैलों को डाँटो तो 'इस-बिस' करने लगती है उसकी सवारी। उसकी सवारी! औरत अकेली, तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी नहीं! आवाज सुनने के बाद वह बार-बार मुड़कर टप्पर में एक नज़र डाल देता है; अँगोछे से पीठ झाड़ता है। भगवान जाने क्या लिखा है इस बार उसकी किस्मत में! गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चाँदनी उसकी गाड़ी में समा गई। सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा। हिरामन को सबकुछ रहस्यमय, अजगुत-अजगुत- लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गाँव तक फैला हुआ मैदान! कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं?हिरामन की सवारी ने करवट ली। चाँदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रूक गया, अरे बाप! ई तो परी है! परी की आँखें खुल गइं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुँह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटाकर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है। हिरामन की जीभ न जाने कब से सूखकर लकड़ी-जैसी हो गई थी!''भैया, तुम्हारा नाम क्या है?''हू-ब-हू फेनूगिलास! हिरामन के रोम-रोम बज उठे। मुँह से बोली नहीं निकली। उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं।''मेरा नाम! नाम मेरा है हिरामन!''उसकी सवारी मुस्कराती है। मुस्कराहट में खुशबू है।''तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं।, मेरा नाम भी हीरा है।''''इस्स!'' "
हिरामन और हीराबाई की नजदीकी बढ़ती जाती है। हीराबाई को नौटंकी में नाचना तो फिर भी हिरामन को भाता है मगर उसपर दर्शकों और उसके खुद के दोस्तों की प्रतिक्रिया को वो बर्दाश्त नहीं कर पाता। उसके अंदर जलन की भावना घर करने लगती है। उसके दोस्त हीराबाई की तरफ वही भावना रखते हैं जो लोगों में नौटंकी कंपनी की बाई के लिए होती है। उसके दोस्त कहानी में उस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका एक हिस्सा हिरामन खुद है। हिरामन के मन में फिर भी हीराबाई के लिए इज़्ज़त रहती है जो समय के साथ प्यार में बदलने लगती है। वो इज़्ज़त, वो प्यार जो हीराबाई के लिए बिलकुल नया था। कंपनी की बाई को भला इज़्ज़त कौन देता है।
गाँव का ज़मींदार अपने दौलत के बल पर हीराबाई को अपना बनाने की कोशिश करता है। हीराबाई के लिए ये नया नहीं है। इसके पहले कई लोग उसका इस्तमाल इस तरह कर चुके हैं। मगर फिर भी उसको यहाँ यह नया लगता है। हिरामन से मिली इज़्ज़त से उसे लगता है कि उसे भी इज़्ज़त मिल सकती है, तो क्या हुआ अगर वो कंपनी की एक बाई है। अपने भूत, वर्त्तमान, और भविष्य के बीच में हीराबाई पिसती हुई नज़र आती है। वो क्या थी, वो क्या करती थी, उसके प्रति समाज की राय क्या थी। वर्त्तमान में हिरामन से मिलने वाली इज़्ज़त और प्यार के मायने उसके जीवन के लिए क्या थे, समाज में इस रिश्ते की प्रामाणिकता क्या होगी, ये रिश्ता उसे कहाँ ले जायेगा। उसका भविष्य क्या होगा, क्या हिरामन-हीराबाई के साथ का कोई भविष्य है। इन सभी प्रश्नों और इनसे जुड़े भावनाओं के बीच में हीराबाई टूटती हुई नज़र आती है। कंपनी के उसके दोस्त उसे कोई निर्णय जल्दी लेने के लिए बोलते हैं और पूरी समझदारी के साथ। ताकि इतनी देर न हो जाये कि, "कहीं ऐसा न हो कि हीरादेवी को कोई चाहने वाला न हो, और हीराबाई को कोई देखने वाला न हो।"
भावनाओं के इस भंवर से हार मान कर हीराबाई चली जाती है। हिरामन दौड़ता भागता हुआ मिलने स्टेशन जाता है। अंतिम भेंट। हीराबाई अपने देश वापस लौट जाती है। हिरामन को उसके पैसे और अपनी एक निशानी देकर। ट्रेन सिटी मारती हुई आगे बढ़ जाती है। आंसुओं के फव्वारे दोनों और मन में निकलने लगते हैं। बाहर कोई नहीं आने देता। हिरामन गाड़ी लेकर वापस लौटने लगता है। उसके बैल पलट-पलट कर जाती हुई रेलगाड़ी को देखता है। हिरामन उन्हें झाड़ते हुए कहता है, "पलट-पलट के क्या देखते हो, खाओ कसम फिर कभी कंपनी की बाई को गाड़ी में नहीं बैठाएंगे।" हिरामन की तीसरी कसम।
"रेलवे लाइन की बगल से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गई है दूर तक। हिरामन कभी रेल पर नहीं चढ़ा है। उसके मन में फिर पुरानी लालसा झाँकी, रेलगाड़ी पर सवार होकर, गीत गाते हुए जगरनाथ-धाम जाने की लालसा। उलटकर अपने खाली टप्पर की ओर देखने की हिम्मत नहीं होती है। पीठ में आज भी गुदगुदी लगती है। आज भी रह-रहकर चंपा का फूल खिल उठता है, उसकी गाड़ी में। एक गीत की टूटी कड़ी पर नगाड़े का ताल कट जाता है, बार-बार!उसने उलटकर देखा, बोरे भी नहीं, बाँस भी नहीं, बाघ भी नहीं, परी देवी मीता हीरादेवी महुआ घटवारिन, कोई नहीं। मरे हुए मुहूर्तो की गूँगी आवाजें मुखर होना चाहती है। हिरामन के होंठ हिल रहे हैं। शायद वह तीसरी कसम खा रहा है, कंपनी की औरत की लदनी।हिरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारे हुए बोला, ''रेलवे लाइन की ओर उलट-उलटकर क्या देखते हो?'' दोनों बैलों ने कदम खोलकर चाल पकड़ी। हिरामन गुनगुनाने लगा- ''अजी हाँ, मारे गए गुलफाम!'' "
Tuesday, June 02, 2015
वसुधैव कुटुम्बकम
कुछ दिनों से इधर घर से बाहर हूँ। हालांकि परदेस में ये अपने परिवार का घर ही है मगर फिर भी बात अपने आशियें की कुछ और होती है। दिनचर्या में बदलाव आ जाता है और रूटीन की गतिविधियाँ थोड़ी अनियमित हो जाती हैं। कल काफी दिन के बाद NDTV इंडिया पर रविश की रिपोर्ट देखने का मौका मिला। रविश का उन दिनों से फैन रहा हूँ जब उनका साप्ताहिक रिपोर्ट आया करता था। सीधे गाँव से, गली-मुहल्लों से। उनकी शैली में पुरविया टोन उनके नजदीक ले जाती थी। स्टूडियो के चहारदीवारी में उनकी रिपोर्टों की उड़ान पिंज़रे में बंद महसूस होती थी। कल वाली रिपोर्ट फिर से एक गाँव से आई थी।
फरीदाबाद का अटाली गाँव। आदर्श गाँव अटाली। आदर्श लिखना जरूरी है। ये याद रखने के लिए और फिर ये समझने के लिए कि हमारे देश में अगर कोई गाँव आदर्श कहलाता है तो उसकी भूमिका क्या होनी चाहिए और क्या होती है।
पहले ही लिख चुका हूँ कि कुछ दिनों से घर से बाहर हूँ इसलिए ताज़ा ख़बरों के मामले में थोड़ा अनभिज्ञ भी हूँ। इस आदर्श गाँव में कुछ दिनों पहले, 25 तारीख को, एक दुःखद घटना घटी। एक साम्प्रदायिक हिंसा। हिन्दुओं के एक गुट ने गाँव के मुसलमानों के ऊपर हमला कर दिया। विवाद एक मस्जिद बनाने को लेकर था। कोर्ट के आदेश के हिसाब से ज़मीन मुसलमानों की थी और मस्जिद बनाने में कोई आपत्ति नहीं थी। गाँव के हिन्दुओं को, मगर, कठिनाई थी मस्जिद के बनने से। क्यूंकि मस्जिद के ठीक सामने माँ का मंदिर था।
ऊपरी तौर से स्थिति और हालात दोनों वही पुराने दंगों वाले थे। वैसा ही कुछ यहाँ भी हुआ। पहले हिंसा, मारपीट, आगजनी फिर पलायन और शरण और फिर वोटों का राजनीतिक खेल। मैं इस सब के अंदर नहीं घुसना चाहता। उस प्रोग्राम में बड़ी बखूबी से दोनों पक्षों की बात साफ़-साफ़ दिखाई गयी है। बिना किसी पक्षपात के। मैं बात बस इन झंझटों के बीच में टूट जाने वाले इंसानी जज़्बातों की करना चाहता हूँ। गाँव का हरेक आदमी ये मानता है कि पहले हालात 'आदर्श' थे। कोई सांप्रदायिक भेदभाव की स्थिति पहले नहीं थी। सब मिलकर साथ में रहते थे। एक दूसरे के त्योहारों में शरीक होते थे। शादी-व्याह में न्योते चलते थे। एक बड़े परिवार के भाइयों की तरह उनलोगों का आचरण था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया। या अगर इसके पीछे छिपे बड़े तस्वीर को देखें तो फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है। हर उस मामले में जहां लोग ये आपसी सौहार्द छोड़कर भिड़ जाते हैं। धर्म के नाम पर, जात के नाम पर।
अपने कॉलेज के दिनों में जतियारी करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। कॉलेज के दोस्तों के साथ सम्बन्ध शायद आज उतने अच्छे नहीं है इसका एक कारण यह भी हो सकता है। जातिवाद और धर्मवाद का पक्षधर मैं आज भी हूँ। हर एक शख्श की एक पहचान होती है। ये जाति-धर्म इत्यादि उसी पहचान का एक हिस्सा है। आप अपने चेहरे से मुक्ति नहीं पा सकते, वैसे ही आप जात-धर्म से भी अलग नहीं हो सकते। पर जरुरत है इनको ढंग से समझने की। कोई जात या कोई धर्म सर्वोत्तम नहीं होता। कोई जात-धर्म दूसरी मान्यता रखने वालों को बुरा नहीं कहता। ये दुर्भावनाएं समाज में समय के साथ आती चली गयी हैं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए धर्म-गुरु लोगों को भड़काते गए हैं और हम अंध-भक्तों की तरह भड़कते गए हैं। अंतिम नतीजा ऐसा निकलता है जहाँ हर धर्म शिक्षा तो शांति और सद्भाव की देता है मगर लोगों के मनों में द्वेष के सिवा और कुछ नहीं रहता।
ब्लॉग के साथ लिंक यहाँ शेयर कर रहा हूँ। उसी प्रोग्राम की। देखना चाहते हैं तो पूरा वीडियो देखिये। बहुत ही उम्दा रिपोर्ट है। मगर मैं जो कहना चाह रहा हूँ वो देखना चाहते हैं तो सीधे जाइये 36वें मिनट पर। गाँव की एक चौपाल पर लोग बैठे बातें कर रहे हैं। क्या हुआ और अब क्या करना है। जो हुआ उसके लिए दुःख सबको है। भाईचारे से मामले को सलटाने की बात भी सब कर रहे हैं। बुजुर्ग थोड़े नरम हैं। झुककर माफ़ी मांग लेने और सब कुछ पहले जैसा कर लेने की बात भी कह रहे हैं। एक नौजवान, हालांकि, थोड़ा गुस्से में नज़र आता है। गर्म खून। 'हर बार हम ही क्यों झुके' वाला। बातचीत का अंत होता है जब वही बुजुर्ग इस नौजवान को चुप करता है कि तुम तो बाहर से आये हो तुम क्या जानो कि गाँव की स्थिति क्या है और यहाँ क्या क्या हुआ।
इस एक बात से कितनी तस्वीर साफ़ हो जाती है। समाज का पूरा आइना बनकर ये बात सामने आती है। ऐसी हिंसाओं का कारण वो समाज खुद नहीं होता। हम अक्सर ऐसे बाहरी लोगों के बहकावे में आकर जोश खोते हैं। ऐसे लोगों के जिनका हमारी तकलीफों के साथ कोई सीधा सरोकार नहीं है। जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता हमारी हालात से। जो हमें उन्हीं अँधेरी गलियों में छोड़कर फिर बाहर निकल जायेंगे अपनी शहर की जगमगाती दुनिया में। अपना उल्लू सीधा करेंगे एक पूरे गाँव को उल्लू बनाकर।
इसीलिए कहता हूँ, दोष जात-धर्म को मानने वालों का नहीं है। दोष उनका है जो इनके नाम पर समाज को भड़काने का काम करते हैं। शांति और सद्भाव के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो रोष और द्वेष के उस चश्मे को उतार फेंकिए जो आपको इंसानों को इंसान की तरह देखने से रोकता है। अपनाइये उस महान सोच को जिसमें कहा गया है, वसुधैव कुटुम्बकम।
फरीदाबाद का अटाली गाँव। आदर्श गाँव अटाली। आदर्श लिखना जरूरी है। ये याद रखने के लिए और फिर ये समझने के लिए कि हमारे देश में अगर कोई गाँव आदर्श कहलाता है तो उसकी भूमिका क्या होनी चाहिए और क्या होती है।
पहले ही लिख चुका हूँ कि कुछ दिनों से घर से बाहर हूँ इसलिए ताज़ा ख़बरों के मामले में थोड़ा अनभिज्ञ भी हूँ। इस आदर्श गाँव में कुछ दिनों पहले, 25 तारीख को, एक दुःखद घटना घटी। एक साम्प्रदायिक हिंसा। हिन्दुओं के एक गुट ने गाँव के मुसलमानों के ऊपर हमला कर दिया। विवाद एक मस्जिद बनाने को लेकर था। कोर्ट के आदेश के हिसाब से ज़मीन मुसलमानों की थी और मस्जिद बनाने में कोई आपत्ति नहीं थी। गाँव के हिन्दुओं को, मगर, कठिनाई थी मस्जिद के बनने से। क्यूंकि मस्जिद के ठीक सामने माँ का मंदिर था।
ऊपरी तौर से स्थिति और हालात दोनों वही पुराने दंगों वाले थे। वैसा ही कुछ यहाँ भी हुआ। पहले हिंसा, मारपीट, आगजनी फिर पलायन और शरण और फिर वोटों का राजनीतिक खेल। मैं इस सब के अंदर नहीं घुसना चाहता। उस प्रोग्राम में बड़ी बखूबी से दोनों पक्षों की बात साफ़-साफ़ दिखाई गयी है। बिना किसी पक्षपात के। मैं बात बस इन झंझटों के बीच में टूट जाने वाले इंसानी जज़्बातों की करना चाहता हूँ। गाँव का हरेक आदमी ये मानता है कि पहले हालात 'आदर्श' थे। कोई सांप्रदायिक भेदभाव की स्थिति पहले नहीं थी। सब मिलकर साथ में रहते थे। एक दूसरे के त्योहारों में शरीक होते थे। शादी-व्याह में न्योते चलते थे। एक बड़े परिवार के भाइयों की तरह उनलोगों का आचरण था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया। या अगर इसके पीछे छिपे बड़े तस्वीर को देखें तो फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है। हर उस मामले में जहां लोग ये आपसी सौहार्द छोड़कर भिड़ जाते हैं। धर्म के नाम पर, जात के नाम पर।
अपने कॉलेज के दिनों में जतियारी करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। कॉलेज के दोस्तों के साथ सम्बन्ध शायद आज उतने अच्छे नहीं है इसका एक कारण यह भी हो सकता है। जातिवाद और धर्मवाद का पक्षधर मैं आज भी हूँ। हर एक शख्श की एक पहचान होती है। ये जाति-धर्म इत्यादि उसी पहचान का एक हिस्सा है। आप अपने चेहरे से मुक्ति नहीं पा सकते, वैसे ही आप जात-धर्म से भी अलग नहीं हो सकते। पर जरुरत है इनको ढंग से समझने की। कोई जात या कोई धर्म सर्वोत्तम नहीं होता। कोई जात-धर्म दूसरी मान्यता रखने वालों को बुरा नहीं कहता। ये दुर्भावनाएं समाज में समय के साथ आती चली गयी हैं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए धर्म-गुरु लोगों को भड़काते गए हैं और हम अंध-भक्तों की तरह भड़कते गए हैं। अंतिम नतीजा ऐसा निकलता है जहाँ हर धर्म शिक्षा तो शांति और सद्भाव की देता है मगर लोगों के मनों में द्वेष के सिवा और कुछ नहीं रहता।
ब्लॉग के साथ लिंक यहाँ शेयर कर रहा हूँ। उसी प्रोग्राम की। देखना चाहते हैं तो पूरा वीडियो देखिये। बहुत ही उम्दा रिपोर्ट है। मगर मैं जो कहना चाह रहा हूँ वो देखना चाहते हैं तो सीधे जाइये 36वें मिनट पर। गाँव की एक चौपाल पर लोग बैठे बातें कर रहे हैं। क्या हुआ और अब क्या करना है। जो हुआ उसके लिए दुःख सबको है। भाईचारे से मामले को सलटाने की बात भी सब कर रहे हैं। बुजुर्ग थोड़े नरम हैं। झुककर माफ़ी मांग लेने और सब कुछ पहले जैसा कर लेने की बात भी कह रहे हैं। एक नौजवान, हालांकि, थोड़ा गुस्से में नज़र आता है। गर्म खून। 'हर बार हम ही क्यों झुके' वाला। बातचीत का अंत होता है जब वही बुजुर्ग इस नौजवान को चुप करता है कि तुम तो बाहर से आये हो तुम क्या जानो कि गाँव की स्थिति क्या है और यहाँ क्या क्या हुआ।
इस एक बात से कितनी तस्वीर साफ़ हो जाती है। समाज का पूरा आइना बनकर ये बात सामने आती है। ऐसी हिंसाओं का कारण वो समाज खुद नहीं होता। हम अक्सर ऐसे बाहरी लोगों के बहकावे में आकर जोश खोते हैं। ऐसे लोगों के जिनका हमारी तकलीफों के साथ कोई सीधा सरोकार नहीं है। जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता हमारी हालात से। जो हमें उन्हीं अँधेरी गलियों में छोड़कर फिर बाहर निकल जायेंगे अपनी शहर की जगमगाती दुनिया में। अपना उल्लू सीधा करेंगे एक पूरे गाँव को उल्लू बनाकर।
इसीलिए कहता हूँ, दोष जात-धर्म को मानने वालों का नहीं है। दोष उनका है जो इनके नाम पर समाज को भड़काने का काम करते हैं। शांति और सद्भाव के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो रोष और द्वेष के उस चश्मे को उतार फेंकिए जो आपको इंसानों को इंसान की तरह देखने से रोकता है। अपनाइये उस महान सोच को जिसमें कहा गया है, वसुधैव कुटुम्बकम।
Sunday, May 31, 2015
स्वाधीनता! शांति! प्रगति!
इधर कई दिनों के बाद हिंदी में कुछ पढ़ने को मिला। टेक्नोलॉजी के इस युग में सब कुछ सॉफ्ट होता चला जा रहा है। उपन्यासों को कांख के अंदर दबा कर चलने वाले भी अब सोफ्टकॉपी रखते हैं टेबलेट में। अंग्रेजी की कई किताब पहले से सॉफ्ट फॉर्म में मिलती थी। हिंदी पढ़ने वालों के लिए ज्यादा विकल्प नहीं रहते थे। अभी कुछ दिनों पहले कुछ हिंदी उपन्यासों की सॉफ्ट कॉपी मिली। हिंदी पढ़ना हो, बिहार से ताल्लुक रखते हों और घरेलु कहानियों का शौख हो तो फिर बाबा नागार्जुन से ऊपर और कुछ नहीं। कुछ साल पहले बलचनमा पढ़ने का मौका मिला था। हर शब्द में अपनेपन का अहसास होता था। समाजवाद से लेकर राष्ट्रवाद तक सबकुछ था। उत्तर बिहार की उस कहानी में बहुत कुछ अपना अपना सा लगा। दुबारा जब फिर से नागार्जुन को पढ़ने का मौका मिला तो हाथ से जाने नहीं दिया। इस बार बारी थी 'बाबा बटेसरनाथ' की।
बरगद के एक बूढ़े पेड़ की नज़रों से एक गाँव की कहानी। 4 पीढ़ियों में फैली हुई। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत के शुरूआती दिनों में बदलते पृष्ठभूमि की एक अति-साधारण सी ये कहानी ज़मींदारों का शोषण और फिर उठती हुई ज़मींदारी के बीच किसान और दबे हुए वर्ग के लोगों की आंदोलन की एक ऐसी तस्वीर बयां करती है जिसमे उस समय के बिहार को जानने और समझने का बड़ा आसान सा मौका मिलता है। यथार्थ से जुड़े नागार्जुन के हर शब्द अपने आप में एक कहानी की तरह उभर कर आते हैं। पुरबिया भाषा के प्रयोग से हर प्रसंग अपना सा लगता है। मानो मेरे गाँव की ही कहानी हो। शब्दों के जाल से रिश्ते की गर्माहट को कुछ इस तरह से पेश करते हैं जैसे सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो।
बूढ़ा बरगद का एक पेड़ अपने लगाने वाले के पोते को अपना पोता समझ कर कुछ इस तरह प्यार करता है जैसे वो उसका खुद का पोता हो। और पढ़ने वालों के सामने एक ऐसी तस्वीर बनती है जहां उसे उस किरदार में अपनी छवि नज़र आती है।
कहानी आगे बढ़ती है। किसान ज़मींदारों से बरगद की ज़मीन बचाने में सफल होते हैं। बाबा बटेसरनाथ जैकिसुन के पास फिर से आते हैं और अपनी उम्र पूरी हो जाने और अपने अंत की बात करते हैं। साथ ही एक नए बरगद के पेड़ उसी जगह लगाने की बात करते हैं। एक नया बरगद का पेड़, एक नया युग। एक बदला हुआ समाज, एक बदला हुआ भारत। स्वाधीन, शांत और प्रगतिशील।
बरगद के एक बूढ़े पेड़ की नज़रों से एक गाँव की कहानी। 4 पीढ़ियों में फैली हुई। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत के शुरूआती दिनों में बदलते पृष्ठभूमि की एक अति-साधारण सी ये कहानी ज़मींदारों का शोषण और फिर उठती हुई ज़मींदारी के बीच किसान और दबे हुए वर्ग के लोगों की आंदोलन की एक ऐसी तस्वीर बयां करती है जिसमे उस समय के बिहार को जानने और समझने का बड़ा आसान सा मौका मिलता है। यथार्थ से जुड़े नागार्जुन के हर शब्द अपने आप में एक कहानी की तरह उभर कर आते हैं। पुरबिया भाषा के प्रयोग से हर प्रसंग अपना सा लगता है। मानो मेरे गाँव की ही कहानी हो। शब्दों के जाल से रिश्ते की गर्माहट को कुछ इस तरह से पेश करते हैं जैसे सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो।
बूढ़ा बरगद का एक पेड़ अपने लगाने वाले के पोते को अपना पोता समझ कर कुछ इस तरह प्यार करता है जैसे वो उसका खुद का पोता हो। और पढ़ने वालों के सामने एक ऐसी तस्वीर बनती है जहां उसे उस किरदार में अपनी छवि नज़र आती है।
"अब इस अद्भुत मनुष्य ने सिर ऊपर उठाया और थोड़ी देर तक तन्मय दृष्टियों से पूर्ण चन्द्र की ओर देखता रहा- देखता रहा और देखता रहा देखता ही रह गया कुछ काल तक।इसी बरगद की ज़मीन पर गाँव के जमींदारों की नज़र रहती है। कई हथकंडे अपनाये जाते हैं ज़मीन पर दखल बनाने के लिए। किसान वर्ग विरोध करता है। स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरित होकर ये नवयुवक किसान अपने पिता समान इस बरगद की रक्षा के लिए आगे आते हैं। कहानी बरगद के आँखों से फ्लैशबैक में जाती है और बरगद के ज़मीन पर आने से लेकर उसके अलग अलग रूपों का वर्णन करती हुई आगे बढ़ती है। हर प्रसंग में रीतियों-कुरीतियों पर कटाक्ष करती हुई पाठक को सोचने पर मजबूर करती है। आधी शताब्दी पुरानी कहानी आज भी प्रासंगिक लगती है। समाज की वो कुरीतियाँ जिनका बखान नागार्जुन करते हैं वो कहीं न कहीं हमारी ज़िन्दगी का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। मन सोचने को मजबूर हो जाता है। इक्कीसवी शताब्दी के पंद्रह साल हो गए, हम आज भी वहीं हैं। क्या कभी आगे बढ़ पाएंगे। क्या हमें छुटकारा मिलेगा कभी हमारी खुद की बुराइयों से। आशावाद और निराशावाद के बीच यथार्थवाद का क्या होगा पता नहीं।
फिर महापुरुष ने चारों दिशाओं और आठों कोनों की ओर अपनी निगाहें घुमाईं। इसमें भी कुछ वक़्त बीता।
फिर वह झुका।
झुककर पालथी मार ली और जैकिसुन का माथा सूंघने लगा। उसी गहराई से, जिस गहराई से बरसात की पहली फुहारों के बाद जंगली हाथी धरती को सूंघता है।
सूंघता रहा, बार बार सूंघता रहा-नथने फड़क रहे हो, तृप्ति नहीं हो रही हो मानो।
और तब बाबा बटेश्वर जैकिसुन के कपार और छाती पर हाथ फेरने लगे।
जैकिसुन ने करवट बदल ली। उसका एक हाथ बूढ़े के पैर की उँगलियों को छू रहा था। नींद उसकी और भी गाढ़ी हो आई। "
कहानी आगे बढ़ती है। किसान ज़मींदारों से बरगद की ज़मीन बचाने में सफल होते हैं। बाबा बटेसरनाथ जैकिसुन के पास फिर से आते हैं और अपनी उम्र पूरी हो जाने और अपने अंत की बात करते हैं। साथ ही एक नए बरगद के पेड़ उसी जगह लगाने की बात करते हैं। एक नया बरगद का पेड़, एक नया युग। एक बदला हुआ समाज, एक बदला हुआ भारत। स्वाधीन, शांत और प्रगतिशील।
"श्रावण की पूर्णिमा थी आज ।रंग–बिरंगी राखियों से पुरुषों की कलाइयाँ शोभित थीं ।रजबाँध पर उसी जगह बरगद का नया पौधा लहरा रहा था । दतुअन–सा पतला सादा तना—दो पत्ते थे हलकी हरियाली में डूबे हुए, फुनगी पर एक टूसा था–दीप की लौ की तरह दमकता हुआ ।प्रकृति नए सिरे से मानवता को नवजीवन का संदेश दे रही थी ।आसपास चारों ओर सावनी समाँ छाई हुई थी ।समय पर वर्षा हुई थी, सो, धान के पौधे झूम–झूमकर बच्चा बरगद को अभिनंदित कर रहे थे ।सभी के चेहरे से उल्लास टपक रहा था ।हाजी करीमबक्स की कलाई में भी किसी ने राखी बाँध दी थी । वह गुनगुना रहे थे :“सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा!हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलिस्ताँ हमारा!”दयानाथ कुछ बोल नहीं रहे थे, पोते को उँगली पकड़ाए टहल रहे थे । लछमनसिंह, सुतरी झा, सरजुग आदि कई आदमी पौधे की हिफाजत के लिए कैलियों से बाड़ बुन रहे थे । बना–बनाया गोल बाड़ रोपने का उत्सव समाप्त हो चुकने पर पौधे के गिर्द डाल देनी थी ।जीवनाथ और जैकिसुन अलग कुछ बातें कर रहे थे ।पास ही ताजे–कटे बाँस की हरी लंबी ध्वजा के सहारे एक श्वेत पताका फहरा रही थी । उस पर सिंदूरी अक्षरों में तीन शब्द अंकित थे ।स्वाधीनता!शांति!प्रगति!"
Sunday, April 26, 2015
वक़्त का हर शह पर राज!
परीक्षा के दिनों में ब्लॉग पर सक्रिय हो जाने की बीमारी मेरी पुरानी है। MBBS के दिनों में अक्सर परीक्षा के समय ज्यादा पोस्ट लिखा करता था। ऐसे समय पर जब दिमाग ज्यादा चलता है तो शायद रचनात्मकता भी अपने आप ही बढ़ जाती है। या हो सकता है कि दिन भर किताबों में व्यस्त रहने और कमरे में कैद हो जाने के समय में ब्लॉग बाहरी दुनिया से सामंजस्य बनाये रखने का एक जरिया सा बन जाता है। जो भी हो, अभी फिर से परीक्षा से घिरा हुआ हूँ और सच कहूँ तो बड़ी दुविधा में था कि यहाँ पर कुछ समय दूँ या बस रहने दूँ। कल नेपाल में आई तबाही के एक कण को मीलों दूर यहाँ कलकत्ता में भी महसूस किया। उस भयावह मंजर की तस्वीरों को देख कर मन विचलित हो रहा था और कहीं न कहीं मुझे अपने एक दबे हुए डर की ओर ले जा रहा था।
भगवान की कृपा ही थी कि बचपन पूरा भूकम्प के अनुभव के बगैर बीता। इसके बारे में जितना जाना या समझा वो या तो भूगोल की किताबों से जाना या फिर हिंदी सिनेमा से अपने प्यार के कारण जाना। पापा बताते थे कि मेरे जन्म के बाद एक बार झटके उन्होंने महसूस किये थे। मुझे होश नहीं था। मेरी उम्र कुछ महीने रही होगी उस समय। किताबों में पढ़कर या सिनेमा में देखकर भूकम्प के रोमांच को कभी महसूस नहीं कर पाने पर खुद को कोसता था। जी हाँ, रोमांच। वही रोमांच, जिसे आज की हिंदी में एडवेंचर कहते हैं। लगता था कि कोई एडवेंचर ही होगा। इसके साथ जुड़े हुए तबाही की तरफ सोचने की कभी कोशिश नहीं की थी। बी. आर. चोपड़ा की वक़्त को कोई फिल्म-प्रेमी कैसे भुला सकता है। लाला केदारनाथ के उस हँसते गाते परिवार को पल भर में एक भूकम्प तहस-नहस कर देता है। अंत में फिर सब मिल जाते हैं। अगर नहीं मिलते तो शायद भूकम्प की उस तबाही की तरफ ध्यान जाता। तब शायद ये रोमांच नहीं डर पैदा करता।
बचपन जाते जाते कई चीजें देती चली जाती है। डर उनमें से एक है। बच्चा कभी नहीं डरता मगर जैसे जैसे बड़ा होता है, यथार्थ की तस्वीरें उसके अंदर डर पैदा करती चली जाती हैं। भूकम्प की खबरें अखबारों में पढ़कर मन में डर ने पैठ बनाने की शुरुआत की। इस तरह के अनर्थक अनिष्टों से अपनों को खो देने का डर मन में बैठने लगता है। आज तक अपने मन के एक विशेष डर के बारे में किसी को नहीं बताया है। मगर यह डर हमेशा मेरे साथ रहता है। जन्म इसका भी किसी सिनेमा से ही हुआ था। ठीक कौन सा सिनेमा, नाम नहीं याद अब। शायद कटी पतंग रहा होगा। रेलगाड़ी अचानक रात में दुर्घटना का शिकार हो जाती है जब एक पुल टूट जाता है। ऊपर से नदी में गिरते हुए रेलगाड़ी के डिब्बे और उसमें अपने माँ-बाप को खो देने वाला एक नवजात। न जाने इस सीन ने कब मन के अंदर घर कर लिया था। तब से अपनों को इस तरह से खोने का एक डर हमेशा दिल के किसी कोने में रहता है। समय-समय पर ऐसी आपदाओं को देखकर ये डर फिर बाहर निकलता है और दिल दहला देता है।
परीक्षा के कारण दिनचर्या पूरी उलटी हो रखी है। रात भर पढाई और फिर सुबह में सोना। कल भी ऐसे ही सो रहा था। करीब साढ़े ग्यारह बजे होंगे, आँख यूँही खुली। नींद पूरी न होने के कारण और थोड़ी देर सोने के लिए चला गया। तभी कुछ हिलता हुआ महसूस हुआ। सब डोल रहा था। अहसास हुआ कि धरती डोल रही है, ये भूकम्प है। सच बताता हूँ, एडवेंचर का नामोनिशान नहीं था। हॉस्टल के कमरे से बाहर निकला। सब भाग रहे थे। भेड़ चाल में मैं भी भागा। धरती तब तक डोल रही थी। खैर, विपदा टली। थोड़ी देर में वापस कमरे में आया। व्हाट्सएप्प पर परिवार वाले सब झटकों की बात कर रहे थे। सब ठीक थे। किसी को कुछ नहीं हुआ था। हालांकि, फ़ोन पर बात नहीं हो पा रही थी मगर, व्हाट्सएप्प के जरिये सबकी खबर मिल रही थी।
धीरे धीरे ट्विटर पर खबरें आनी शुरू हुई। जिस मंजर ने ऐसा हिलाया था वह काल नेपाल के ऊपर टूटा था। पहले 400, फिर 688, 856, 1000 और रात होते होते मरने वालों की संख्या 1500 पार बताई जाने लगी। तस्वीरें सामने आने लगी और इस भयावह मंजर को महसूस करने लगा। वही अपनों से बिछड़ने का डर आज कितनों के लिए हकीकत बन गया होगा। गिनती बढ़ती ही चली जा रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि इस गिनती के लिए भगवान को दोष दूँ या इस गिनती में मुझे और मेरे परिवार वालों को शामिल नहीं करने के लिए उसका शुक्रिया अदा करूँ। दुविधा में था। बड़े भाई से बात हो रही थी। किसी बात पर उसने बताया कि नास्तिकवाद की शुरुआत ऐसे ही एक भयंकर भूकम्प से हुई थी। लिस्बन में आई उस तबाही के बाद पहली बार भगवान के अस्तित्व और इंसान के प्रति उसके दायित्व पर सवाल किये गए थे।
सच में, ऐसी आपदाएं जीने के एक नए तरीके को जन्म देती हैं। ज़िन्दगी के उस एकमात्र फ़लसफ़े को और मजबूत करती है जिसमें कहा गया है कि ज़िन्दगी की केवल एक सच्चाई है और वह है मौत। भूकम्प के केंद्र से काफी नजदीक सीतामढ़ी में मामाजी रहते हैं। फ़ोन से बात नहीं हो पा रही थी। डर सा था मन में। माँ से बात हुई तो उन्होंने बताया कि उनकी बात हुई है, सब ठीक हैं। फिर मेरी भी बात हुई। मामी कह रही थी कि मौत को नजदीक से देखा उनलोगों ने। सच में शायद जब मौत का तांडव होता है तो धरती ऐसे ही डोलती है। सब कुछ ठीक है जानकर मन अंत में थोड़ा हल्का हुआ, मगर नेपाल पर आई इस त्रासदी ने फिर से वक़्त के उस गीत की तरफ दुबारा लौटा दिया। वक़्त के आगे किसी की नहीं चलती। वक़्त का हर शह पर राज!
कल जहाँ बसती थी खुशियाँ, आज है मातम वहाँ,
वक़्त लाया था बहारें, वक़्त लाया है खिजां।
वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज,
वक़्त की हर शह ग़ुलाम, वक़्त का हर शह पर राज!
भगवान की कृपा ही थी कि बचपन पूरा भूकम्प के अनुभव के बगैर बीता। इसके बारे में जितना जाना या समझा वो या तो भूगोल की किताबों से जाना या फिर हिंदी सिनेमा से अपने प्यार के कारण जाना। पापा बताते थे कि मेरे जन्म के बाद एक बार झटके उन्होंने महसूस किये थे। मुझे होश नहीं था। मेरी उम्र कुछ महीने रही होगी उस समय। किताबों में पढ़कर या सिनेमा में देखकर भूकम्प के रोमांच को कभी महसूस नहीं कर पाने पर खुद को कोसता था। जी हाँ, रोमांच। वही रोमांच, जिसे आज की हिंदी में एडवेंचर कहते हैं। लगता था कि कोई एडवेंचर ही होगा। इसके साथ जुड़े हुए तबाही की तरफ सोचने की कभी कोशिश नहीं की थी। बी. आर. चोपड़ा की वक़्त को कोई फिल्म-प्रेमी कैसे भुला सकता है। लाला केदारनाथ के उस हँसते गाते परिवार को पल भर में एक भूकम्प तहस-नहस कर देता है। अंत में फिर सब मिल जाते हैं। अगर नहीं मिलते तो शायद भूकम्प की उस तबाही की तरफ ध्यान जाता। तब शायद ये रोमांच नहीं डर पैदा करता।
बचपन जाते जाते कई चीजें देती चली जाती है। डर उनमें से एक है। बच्चा कभी नहीं डरता मगर जैसे जैसे बड़ा होता है, यथार्थ की तस्वीरें उसके अंदर डर पैदा करती चली जाती हैं। भूकम्प की खबरें अखबारों में पढ़कर मन में डर ने पैठ बनाने की शुरुआत की। इस तरह के अनर्थक अनिष्टों से अपनों को खो देने का डर मन में बैठने लगता है। आज तक अपने मन के एक विशेष डर के बारे में किसी को नहीं बताया है। मगर यह डर हमेशा मेरे साथ रहता है। जन्म इसका भी किसी सिनेमा से ही हुआ था। ठीक कौन सा सिनेमा, नाम नहीं याद अब। शायद कटी पतंग रहा होगा। रेलगाड़ी अचानक रात में दुर्घटना का शिकार हो जाती है जब एक पुल टूट जाता है। ऊपर से नदी में गिरते हुए रेलगाड़ी के डिब्बे और उसमें अपने माँ-बाप को खो देने वाला एक नवजात। न जाने इस सीन ने कब मन के अंदर घर कर लिया था। तब से अपनों को इस तरह से खोने का एक डर हमेशा दिल के किसी कोने में रहता है। समय-समय पर ऐसी आपदाओं को देखकर ये डर फिर बाहर निकलता है और दिल दहला देता है।
परीक्षा के कारण दिनचर्या पूरी उलटी हो रखी है। रात भर पढाई और फिर सुबह में सोना। कल भी ऐसे ही सो रहा था। करीब साढ़े ग्यारह बजे होंगे, आँख यूँही खुली। नींद पूरी न होने के कारण और थोड़ी देर सोने के लिए चला गया। तभी कुछ हिलता हुआ महसूस हुआ। सब डोल रहा था। अहसास हुआ कि धरती डोल रही है, ये भूकम्प है। सच बताता हूँ, एडवेंचर का नामोनिशान नहीं था। हॉस्टल के कमरे से बाहर निकला। सब भाग रहे थे। भेड़ चाल में मैं भी भागा। धरती तब तक डोल रही थी। खैर, विपदा टली। थोड़ी देर में वापस कमरे में आया। व्हाट्सएप्प पर परिवार वाले सब झटकों की बात कर रहे थे। सब ठीक थे। किसी को कुछ नहीं हुआ था। हालांकि, फ़ोन पर बात नहीं हो पा रही थी मगर, व्हाट्सएप्प के जरिये सबकी खबर मिल रही थी।
धीरे धीरे ट्विटर पर खबरें आनी शुरू हुई। जिस मंजर ने ऐसा हिलाया था वह काल नेपाल के ऊपर टूटा था। पहले 400, फिर 688, 856, 1000 और रात होते होते मरने वालों की संख्या 1500 पार बताई जाने लगी। तस्वीरें सामने आने लगी और इस भयावह मंजर को महसूस करने लगा। वही अपनों से बिछड़ने का डर आज कितनों के लिए हकीकत बन गया होगा। गिनती बढ़ती ही चली जा रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि इस गिनती के लिए भगवान को दोष दूँ या इस गिनती में मुझे और मेरे परिवार वालों को शामिल नहीं करने के लिए उसका शुक्रिया अदा करूँ। दुविधा में था। बड़े भाई से बात हो रही थी। किसी बात पर उसने बताया कि नास्तिकवाद की शुरुआत ऐसे ही एक भयंकर भूकम्प से हुई थी। लिस्बन में आई उस तबाही के बाद पहली बार भगवान के अस्तित्व और इंसान के प्रति उसके दायित्व पर सवाल किये गए थे।
सच में, ऐसी आपदाएं जीने के एक नए तरीके को जन्म देती हैं। ज़िन्दगी के उस एकमात्र फ़लसफ़े को और मजबूत करती है जिसमें कहा गया है कि ज़िन्दगी की केवल एक सच्चाई है और वह है मौत। भूकम्प के केंद्र से काफी नजदीक सीतामढ़ी में मामाजी रहते हैं। फ़ोन से बात नहीं हो पा रही थी। डर सा था मन में। माँ से बात हुई तो उन्होंने बताया कि उनकी बात हुई है, सब ठीक हैं। फिर मेरी भी बात हुई। मामी कह रही थी कि मौत को नजदीक से देखा उनलोगों ने। सच में शायद जब मौत का तांडव होता है तो धरती ऐसे ही डोलती है। सब कुछ ठीक है जानकर मन अंत में थोड़ा हल्का हुआ, मगर नेपाल पर आई इस त्रासदी ने फिर से वक़्त के उस गीत की तरफ दुबारा लौटा दिया। वक़्त के आगे किसी की नहीं चलती। वक़्त का हर शह पर राज!
कल जहाँ बसती थी खुशियाँ, आज है मातम वहाँ,
वक़्त लाया था बहारें, वक़्त लाया है खिजां।
वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज,
वक़्त की हर शह ग़ुलाम, वक़्त का हर शह पर राज!
Sunday, March 15, 2015
एक रूह पड़ी थी झाड़ों में !
कुछ दिनों से BBC पर प्रसारित एक डाक्यूमेंट्री ने अपने देश में खासा ही बवाल खड़ा कर रखा है। दिल्ली के निर्मम बलात्कार काण्ड की सच्चाई बयां करती इस डाक्यूमेंट्री को कोर्ट ने भारत में प्रसारित होने से रोक लगा दी है। इंसानी फितरत होती है, जो नहीं करने बोला जाये वैसा ही करने की। इंसान हूँ इसलिए ऐसी फितरत मेरे अंदर भी है। कोर्ट ने रोक लगायी है तब तो पक्का देखना ही है। 2-3 दिन के अंदर ही इंटरनेट की बदौलत मैंने भी यह डाक्यूमेंट्री देख ही ली। डाक्यूमेंट्री कैसी बनी है या कैसी लगी इसके ऊपर जाने की अभी कोई मंशा नहीं है। डाक्यूमेंट्री को देखकर दिल को जो दुःख हुआ बस उसकी ही चर्चा यहाँ करना चाहता हूँ।
यह कृत्य निर्मम और नृशंस था इसमें संदेह की कोई गुंजाईश नहीं थी। मगर ऐसा करने वालों और उन्हें बचाने की दलील देने वालों की सोच आज भी ऐसी नीची और तंग हो सकती है ऐसा नहीं सोचा था। दुःख होता है ये सोचकर कि हम भी उस समाज में ही रहते हैं जहां ऐसी मानसिकता रखने वाले लोग भी रहते हैं। सरेशाम एक लड़की की इज़्ज़त कोई लूट लेता है और एक अमानवीय तरीके से मौत के घाट उतार देता है और हम कहते हैं कि ऐसा करने वाला एक नाबालिग था इसलिए उसे सजा उस हिसाब से ही मिले। सवाल उठते हैं। उसे नाबालिग मानने वालों पर भी और बालिगपने को सिर्फ उम्र से परिभाषित करने वालों पर भी। एक कृत्य जो बालिग़ होने की निशानी है, वो करने वाला एक नाबालिग। वाह रे देश का क़ानून। 3 साल की सजा हुई उस नाबालिग को। ज़ुर्म था एक निर्मम हत्या। जरा सोचिये, वो इस साल दिसंबर में रिहा होगा। यही नहीं अब वो कानूनन बालिग़ भी है। हमारे आपके बीच अपने समाज में रहेगा। बस सोचिये हम क्या दे रहे हैं अपने समाज को और अपनी पीढ़ी को।
एक दिन पहले ही एक फिल्म भी देखा। NH 10. डाक्यूमेंट्री और इस फिल्म में कोई समानता नहीं है पर चोट दोनों एक जगह ही करती है। इक्कीसवीं सदी में आकर भी हम अपनी माँ-बहन-बेटी की तरफ क्या सोच रखते हैं। परिवार की इज़्ज़त रखने के लिए भाई अपने बहन को मौत के घाट उतार देता है क्यूंकि वो उनके मर्ज़ी के विरुद्ध शादी करना चाहती है। देश की राजधानी की चकाचौंध से ठीक बाहर हरियाणा में ऐसे गाँव हैं जहां बेटियां पैदा नहीं होती, पहले ही मार दी जाती हैं। ये सब सच है। साफ़ सफ़ेद सच, हमारी सोच की, हमारी मानसिकता की। इस फिल्म और डाक्यूमेंट्री ने मिलकर मन को बड़ा विचलित किया। इसी विचलित मन से…
एक रूह पड़ी थी झाड़ों में
था लहू टपकता आँखों से,
थी मांग रही एक हाथ अदद
बढ़ सका न कोई सहस्त्रों में।
था सुना महान है देश उसका
संस्कृति उत्तम है, लिखा शास्त्रों में,
इंसान बसा करते थे जहां
आज हैवान पड़े हैं इन रास्तों में।
माँ कहकर पूजते देश को जो
औरत की इज़्ज़त कर न सके
मरती रही रस्ते में पड़ी बेटी जो
रह गए खड़े, कोई बढ़ न सके।
हर ओर खड़े हैवान यहां
मर रही हर ओर एक बेटी है,
माँ का गर्भ जो सूना हुआ
वो कोई नहीं एक बेटी है।
की गलती उसने
था प्यार किया
इज़्ज़त की खातिर ही
ज़िंदा उसको गाड़ दिया,
है ख़ाक ये ऐसी इज़्ज़त जो
मांगती खून अपनी ही बेटी की
है धिक्कार समाज ये तेरे मस्तक पर
जो रख सका न लाज अपनी ही बेटी की।
एक रूह पड़ी थी झाड़ों में !
यह कृत्य निर्मम और नृशंस था इसमें संदेह की कोई गुंजाईश नहीं थी। मगर ऐसा करने वालों और उन्हें बचाने की दलील देने वालों की सोच आज भी ऐसी नीची और तंग हो सकती है ऐसा नहीं सोचा था। दुःख होता है ये सोचकर कि हम भी उस समाज में ही रहते हैं जहां ऐसी मानसिकता रखने वाले लोग भी रहते हैं। सरेशाम एक लड़की की इज़्ज़त कोई लूट लेता है और एक अमानवीय तरीके से मौत के घाट उतार देता है और हम कहते हैं कि ऐसा करने वाला एक नाबालिग था इसलिए उसे सजा उस हिसाब से ही मिले। सवाल उठते हैं। उसे नाबालिग मानने वालों पर भी और बालिगपने को सिर्फ उम्र से परिभाषित करने वालों पर भी। एक कृत्य जो बालिग़ होने की निशानी है, वो करने वाला एक नाबालिग। वाह रे देश का क़ानून। 3 साल की सजा हुई उस नाबालिग को। ज़ुर्म था एक निर्मम हत्या। जरा सोचिये, वो इस साल दिसंबर में रिहा होगा। यही नहीं अब वो कानूनन बालिग़ भी है। हमारे आपके बीच अपने समाज में रहेगा। बस सोचिये हम क्या दे रहे हैं अपने समाज को और अपनी पीढ़ी को।
एक दिन पहले ही एक फिल्म भी देखा। NH 10. डाक्यूमेंट्री और इस फिल्म में कोई समानता नहीं है पर चोट दोनों एक जगह ही करती है। इक्कीसवीं सदी में आकर भी हम अपनी माँ-बहन-बेटी की तरफ क्या सोच रखते हैं। परिवार की इज़्ज़त रखने के लिए भाई अपने बहन को मौत के घाट उतार देता है क्यूंकि वो उनके मर्ज़ी के विरुद्ध शादी करना चाहती है। देश की राजधानी की चकाचौंध से ठीक बाहर हरियाणा में ऐसे गाँव हैं जहां बेटियां पैदा नहीं होती, पहले ही मार दी जाती हैं। ये सब सच है। साफ़ सफ़ेद सच, हमारी सोच की, हमारी मानसिकता की। इस फिल्म और डाक्यूमेंट्री ने मिलकर मन को बड़ा विचलित किया। इसी विचलित मन से…
एक रूह पड़ी थी झाड़ों में
था लहू टपकता आँखों से,
थी मांग रही एक हाथ अदद
बढ़ सका न कोई सहस्त्रों में।
था सुना महान है देश उसका
संस्कृति उत्तम है, लिखा शास्त्रों में,
इंसान बसा करते थे जहां
आज हैवान पड़े हैं इन रास्तों में।
माँ कहकर पूजते देश को जो
औरत की इज़्ज़त कर न सके
मरती रही रस्ते में पड़ी बेटी जो
रह गए खड़े, कोई बढ़ न सके।
हर ओर खड़े हैवान यहां
मर रही हर ओर एक बेटी है,
माँ का गर्भ जो सूना हुआ
वो कोई नहीं एक बेटी है।
की गलती उसने
था प्यार किया
इज़्ज़त की खातिर ही
ज़िंदा उसको गाड़ दिया,
है ख़ाक ये ऐसी इज़्ज़त जो
मांगती खून अपनी ही बेटी की
है धिक्कार समाज ये तेरे मस्तक पर
जो रख सका न लाज अपनी ही बेटी की।
एक रूह पड़ी थी झाड़ों में !
Tuesday, February 24, 2015
कुछ पुराने पन्नों से
कुछ साल पहले डायरी लिखने की शुरुआत की थी। पहले हर रात लिखा करता था। फिर कुछ अंतराल आने लगे। अंत में सब बंद हो गया। शुरुआत क्यों हुई थी और अंत क्यों हुआ इसके बारे में कभी गहरे विश्लेषण की जरुरत है। बस लिखा करता था। लिखने का शौख था शायद इसलिए या शायद कुछ ऐसी बातें होती थी जो किसी से साझा नहीं कर सकता था इसलिए। जो भी हो, कभी कभी डायरी के उन पन्नों को मिस जरूर करता हूँ। कभी मौका मिलता है तो उन पुराने पन्नों को पलट भी लेता हूँ। कभी हंसी आती है पढ़कर, कभी रोना। जो भी हो पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं। कभी कभी तो ऐसी बातें भी याद आती हैं जिसे समय ने एक गहरी परत के नीचे दफ़ना दिया था।
आज हॉस्टल के अपने कमरे में अकेले बैठे कुछ पुराने कॉपी के पन्ने पलट रहा था। एक छोटा सा कागज़ का टुकड़ा मिला। 2-2.5 साल पुराना। कुछ लिखा हुआ। मन के किसी ख्याल को शायद अपने अकेलेपन में कागज़ पर उतरा होऊंगा। याद करने की कोशिश की। बहुत कुछ याद आया। हर किसी की ज़िन्दगी में कई मोड़ आते हैं। वो मेरी ज़िन्दगी का एक ख़राब समय चल रहा था। 6 साल साथ बिताने के बाद पहली बार हमलोग थोड़े दूर हुए थे। भौगोलिक दूरी का असर कहीं न कहीं हमारे दिलों की दूरी पर भी पड़ा था। झगड़े होते थे। बातें कम होती थीं। भावनाओं पर सवाल उठते थे। और जब उन सवालों से ऊब जाता था तो बस खामोशियाँ रहती थी। ख़ामोशी से और झगड़े होते थे। बातें और काम होती थीं। और सवाल उठते थे, जवाब में और खामोशियाँ आती थी। उसी कागज़ के पन्ने को आज यहाँ साझा कर रहा हूँ। बस यूँही, पुराने दिनों की याद में। कुछ पुराने पन्नों से…
झुकी हुई सी उसकी नज़र सवाल दिल से पूछती है,
मेरी खामोशियों में वो अपने जवाब ढूँढा करती है,
इस ख़ामोशी को मेरी बेरुखी मत समझ लेना तुम,
मेरे दिल का हाल बयां ये ख़ामोशी करती है।
साथ तेरे ही शुरू किया था मैंने ये सफर
मंज़िल भी अपनी आस-पास ही थी कहीं,
फिर क्यों बढ़ गयी दिलों की ये दूरी,
हर वक़्त इसी सोच में डूबी ये ख़ामोशी रहती है।
साथ देने का वादा किया था तुमसे इक बार
आज खामोश हूँ, ये न समझना कि भूल गया
ये मेरी बेवफाई नहीं कि आज कुछ बोल नहीं रहा
इस वादे को निभाने की शर्त बयां ये ख़ामोशी करती है।
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