Friday, October 22, 2010
कल रात, फिर से
कल रात, फिर से
बिस्तर की सिलवटों में,
बेचैनी की करवटों में.
कई ख्याल,
चंद सवाल.
नींद के इंतज़ार में,
मेज़ पर रखी घड़ी,
टिक-टिक करती घुमती घड़ी की सुइयां,
छत पर घूमता पंखा,
हलकी सी बारिश में भींगी
मिट्टी की भीनी -भीनी खुशबू,
हल्की चलती हवाओं से
पत्तियों की सरसराहट.
मन का क्या, निकल पड़ा.
बचपन की गलियों में,
यादो की टोली के साथ.
वो मोहल्ला,
वो पतली सी सड़क,
जामुन के पेड़ पर की
भूतों की कहानी,
शाम ढलते ही
घर लौटने की बेचैनी,
वो पुराने दोस्त,
वो पुरानी दोस्ती.
मन को कौन समझाए,
न अब वो मोहल्ला रहा,
न अब वो दोस्त, न दोस्ती रही.
मन तो फिर भी मन ही है,
न कोई ओर, न कोई छोड़,
न पतंग की कोई डोर.
कैसे बाँध लूं इसको.
कभी हवा के साथ,
कभी यादों के भंवर में,
कभी पुरानी बातों में,
तो कभी भविष्य के ख्यालों में.
मन घूमता रह गया,
कभी स्कूल की मस्ती में,
कभी कॉलेज की बातों में.
घूमता हुआ मन
न जाने कहाँ निकल गया.
वो नहीं रुकता,
न दिल को दुखाने वाली यादों से,
न आने वाली ज़िन्दगी के
संघर्ष के ख्यालों से.
कभी प्यारे दिनों की यादों में
होठों पर मुस्कराहट देता,
कभी उन उदास रातों को याद दिलाकर
आँखों में दो आंसू देता.
मन कुछ नहीं समझता,
वो तो बस घूमना चाहता है
ख्यालों में, यादों में,
कभी कभी सवालों में.
कल रात, फिर से
बिस्तर की सिलवटों में,
बेचैनी की करवटों में...
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7 comments:
5/10
सहज और सरल रचना
सादगी का भी अलग दिलकश अंदाज होता है.
रचना के भावों के तार सभी पाठकों के दिल के तार से जुड़ेंगे
आपसे और बेहतर लेखन की अपेक्षा है.
वाह वाह बडी सहजता से मन के भावों को पिरोया है।
बहुत सुन्दर रचना ..........शब्दों को बहुत सुन्दरता से सजाया है....
सराहना के लिए आप सब को बहुत बहुत धन्यवाद!
बेहद खूबसूरत रचना!
LOVED IT!!!
thanks!
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