मेरे लिए ये व्रत थोडा अनजाना सा है. बिहार से ताल्लुक रखता हूँ और अपनी छोटी सी ज़िन्दगी में बिहारी परम्पराओं को जितना देखा है उस हिसाब से मेरा इस व्रत के प्रति अनजानापन कोई अचम्भा नहीं है. बिहार में मैंने कभी इस पर्व को मनाते न अपने घर में देखा है न अड़ोस-पड़ोस में. हमारे यहाँ इस पर्व की ही तरह का एक दूसरा पर्व औरतें मनाती हैं जिसे हम 'तीज' कहते हैं. पूरे 24 घंटे तक बिना पानी पिए रहने का ये अनुष्ठान अगली सुबह को ही ख़त्म होता है. जो थोड़ी बहुत जानकारी करवा चौथ के बारे में मुझे है, वो अखबारों और फिल्मों के ज़रिये ही पहुची है. हालांकि, इधर के सालों में अचानक इस पर्व ने हमारी क्षेत्रीय संस्कृति में भी जगह बनानी शुरी कर दी है. इस साल यहाँ के क्षेत्रीय अखबारों में भी इस पर्व को बड़ा स्थान दिया गया है. अचानक इस प्रकार एक ख़ास परंपरा हमारी पौराणिक संस्कृतियों में अपनी पैठ बनाती है तो मन सोचने को मजबूर ज़रूर होता है.
आज से 15 साल पहले शायद मेरे घर में कोई करवा चौथ के बारे में कुछ ख़ास नहीं जानता होगा. मगर, आज का दिन है कि सब जानते ही नहीं बल्कि इसको लेकर बाते भी होती हैं. हालांकि अभी तक इसे करना किसी ने शुरू नहीं किया है मगर इस बात को पूरी तरह ठुकरा नहीं सकता कि आने वाली पीढ़ी इस परम्परा को भी अपनी संस्कृति में आयात न कर ले. खैर, जिस प्रकार पिछले दशक-डेढ़ दशक में इस व्रत की व्यापकता बढ़ी है कहीं न कहीं कुछ कारण जरूर है. सोचते-सोचते बात हर दिशा से सिनेमा की तरफ ही आकर रूकती है.
तकरीबन 15 साल पहले 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' फिल्म आई थी. करवा चौथ का एक महत्वपूर्ण प्रसंग इस फिल्म में था. 'मेहँदी लगा के रखना' गीत इसी प्रसंग में फिल्माया गया था. फिल्म सुपर-डुपर हिट रही, गाना आज भी लोग गुनगुना रहे हैं और पंजाबी संस्कृति के इस महत्वपूर्ण पर्व से इस फिल्म ने पूरे भारत को अवगत करा दिया. उसके बाद 'कुछ कुछ होता है', 'कभी ख़ुशी कभी ग़म', 'हम दिल दे चुके सनम' जैसी सुपर हिट फिल्मों ने इस पर्व को एक नयी लोकप्रियता दे दी. रही सही कसर टीवी सीरियलों ने पूरी कर दी. आज के दिन हर सीरियल में करवा चौथ ही मनाया जा रहा है.
फिल्मों की हमारी संस्कृति के ऊपर पड़ रहे प्रभावों का एक सजीव उदाहरण करवा चौथ की बढती लोकप्रियता रही है. फिल्मों ने पहले भी हमारी पारंपरिक मिथकों पर प्रभाव डाला है. '70 के दशक में अचानक जो उछाल संतोषी माँ की लोकप्रियता के ग्राफ में आया वो अद्वितीय ही नहीं बल्कि अद्भुत भी है कि किस तरह एक फिल्म का प्रभाव इतने बड़े भूमंडल पर फैली मानव सभ्यता पर पड़ सकता है. हर ओर माँ संतोषी की धूम मच गयी. हालांकि संतोषी माँ दीर्घकालीन न बन सकी मगर फिर भी उन्होंने हमारे मानस-पटल पर एक अमिट छाप छोड़ दी है. संतोषी माँ के साथ-साथ फिल्मों ने हमें कई और क्षेत्रीय परम्पराओं से वाकिफ कराया है. शिर्डी के साईं बाबा की पॉपुलरिटी की तुलना आज हनुमान से की जा रही है और कई मायनों में उन्होंने हनुमान को पीछे छोड़ भी दिया है. वैष्णो देवी की बात करे तो जितना फायदा उन्हें फिल्मों ने, गुलशन कुमार ने, और T-Series ने कराया है उतना कोई नहीं करा सकता था. हमारी संस्कृति में आज साईं बाबा और वैष्णो देवी एक व्यापक स्थान बना चुके हैं, इसका सीधा सीधा कारण फिल्मों को ठहराया जा सकता है.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ आध्यात्म की दिशा में ही फिल्मे हमें कुछ नया पड़ोसती रही है. सबसे जीवंत उदाहरण Valentine's Day का है. आज से लगभग 15 साल पहले एक आम भारतीय को शायद इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. आज हालात कुछ ऐसे हो गए हैं कि गुरु नानक जयंती कब मनाई जाती है ये हमारे युवाओं को शायद याद न हो मगर valentine's day को भूलने की ज़हमत ये कभी नहीं उठा सकते. सब कुछ फिल्मों की ही देन है.
इतना सब कुछ लिखने के बाद मन में ख्याल आ रहा है कि इसमें दिक्कत ही क्या कि फिल्मे हमें इन परम्पराओं से वाकिफ करा रही हैं. कोई दिक्कत नहीं है. एक तरह से अच्छा है कि भारत के हर क्षेत्र के लोग इन फिल्मों के माध्यम से दूसरे क्षेत्र की परम्पराओं को समझ रहे हैं. क्षेत्रीय परम्पराओं के व्यापकता को बढ़ाने का इससे बढ़िया माध्यम हमें नहीं मिल सकता था. आज एक बिहारी होकर भी करवा चौथ के बारे में कुछ लिख रहा हूँ तो इसका श्रेय फिल्मों को ही जाता है. मगर फिर बात परम्पराओं की तरफ आकर रुक जाती है. जिस प्रकार इस नयी संस्कृति और पुरानी परम्पराओं का फ्यूजन हो रहा है, डर लगता है कि हमारी क्षेत्रीय पौराणिक धारणाएं दम न तोड़ दें. जैसे फिल्मों के जरिये यह संस्कृति एक फैशन बन कर उभर रही है, हो सकता है कि हमारी परम्पराओं को ये आउटडेटेड कर दें और हमारी नयी पीढ़ी उनसे वंचित होकर इस फैशन के बहाव में बह जाये. जिस प्रकार करवा चौथ पर अति-ध्यान दिया जा रहा है वो कभी न कभी बिहारी 'तीज' को लील लेने की क्षमता रखता है. और अगर ऐसा हुआ तो मुझे नहीं मालूम किसी को अच्छा लगेगा या नहीं पर पर उनमे मैं तो नहीं ही शामिल होऊंगा. इसलिए कह रहा हूँ कि नयी संस्कृति को अपनाने में कोई दिक्कत नहीं मगर इन्हें यदि अपनी सांस्कृतिक धरोहर की कीमत चुका कर अपनाया जाय तो दिक्कत ही दिक्कत है. भारत महान है क्यूंकि इसके हर क्षेत्र की एक अलग धरोहर है मगर फिर भी सब भारतीयता के एक धागे से जुड़े हैं, कोई अलग नहीं है, कोई जुदा नहीं है. इसलिए अपनी धरोहर को बचाए रखने का दायित्व हमारे ऊपर ही है!