Wednesday, April 21, 2010

हाँ, मैं ही हूँ तुम्हारा मुजरिम

एक बार फिर से पोस्ट की शुरुआत माफ़ी से कर रहा हूँ। काफी कोशिश के बाद भी नियमितता नहीं बरत पा रहा हूँ अपने ब्लॉग के प्रति। डाक्टर बनने और इंटर्नशिप ड्यूटी शुरू होने के बाद से समय का जैसे अकाल ही पड़ गया है। अस्पताल में ड्यूटी के बाद जो समय बचता है उसका काफी हिस्सा पढाई की तरफ लगा देता हूँ। ब्लॉग के लिए कुछ विषय होने के बावजूद कुछ लिख नहीं पाया, शायद प्राथमिकता अभी बदल गयी है। समय बचे और थकावट न हो तो पढाई की ओर ही झुकाव रहता है। फिर भी, इधर पिछले हफ्ते में अगर सच में कोशिश करता तो शायद एकाध पोस्ट लिखे जा सकते थे। आज जिस घटना के बारे में लिखने जा रहा हूँ वो एक हफ्ते पहले मेरे सामने घटित हुई थी मगर उसका प्रभाव मेरे मानस-पटल पर शायद अभी तक है। अब काफी हद तक उबर चूका हूँ और यही कारण है कि आज पोस्ट लिख पा रहा हूँ।
बात पिछले गुरूवार की है। इमरजेंसी ड्यूटी थी लेबर रूम में रात में। शाम 7 बजे से लेकर सुबह 7 बजे तक। चूँकि ज़िन्दगी में पहली बार नाईट ड्यूटी कर रहा था, मन में उत्साह भी था और कौतूहल भी। एक नया अनुभव होने वाला था उस रात जो किसी भी डाक्टर की ज़िन्दगी का अभिन्न अंग है। पहले से सोच रखा था कि रात भर काम करना है सोना नहीं है। काम किया भी। पूरे 12 घंटे में एक सेकंड की भी झपकी नहीं ली। मन मुताबिक़ रात भर जगे हुए ही बैठे बैठे काट दिया था मैंने। मन का होने के बाद भी सुबह ख़ुशी नहीं थी अन्दर। एक दुःख, एक पीड़ा, एक ग्लानि, और एक गुस्सा था मन में जब वहाँ से निकल रहा था। एक घटना ने मुझे झकझोर दिया था।
रात के करीब 9 बजे एक मरीज प्रसव पीड़ा के साथ भर्ती हुई। उस मरीज को hepatitis B नाम की बीमारी थी जिसके संक्रमण का एक माध्यम खून होता है। ऐसे मरीजों के ओपरेशन के समय एक ख़ास तरह की पोशाक डाक्टरों को पहननी पड़ती है इस संक्रमण से बचने के लिए। अमूमन हमारे यहाँ, पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल, में वो पोशाक सरकार की तरफ से मुहैया करायी गयी रहती है। उस रात कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि O.T. में वैसी एक भी पोशाक उपलब्ध नहीं थी। जहां इमरजेंसी में किसी भी वक़्त ऐसे मरीज आ सकते हों और उस पोशाक की जरुरत कभी भी पड़ सकती हो, वहाँ एक भी पोशाक का उपलब्ध न होना आम बात नहीं थी। फिर भी मेरे साथ काम कर रहे सीनियर डाक्टरों का रवैया देख कर ऐसा लग रहा था कि जैसे रोज़ की बात हो।
O.T. में वैसी पोशाक की उपलब्धता की जिम्मेवारी अस्पताल के अधीक्षक की होती है जो O.T. में नियुक्त अपने कर्मचारी की मांग पर ये पोशाक उपलब्ध कराते हैं। हमने आनन-फानन में एक चिट्ठी उनके नाम लिख कर उसी वक़्त भिजवा दिया इस मांग को पूरा करने के लिए। करीब 2 घंटे के बाद अधीक्षक के कार्यालय से उस चिट्ठी का जवाब आया। जवाब में जहां हम पोशाक के आपूर्ति की आशा कर रहे थे, वहाँ एक सामान्य सा वाक्य आया। उसमे लिखा था, "Sister Incharge of the O.T. should be held responsible."
एक मरीज की जान जहां ओपरेशन के इंतज़ार में अटकी पड़ी हो वहाँ इस तरह का जवाब क्या दर्शाता है यह समझने के लिए डाक्टर होने की कोई जरुरत नहीं। रात के तकरीबन 12 बज चुके थे। अस्पताल के बाहर के दूकान से भी उस पोशाक को मरीज द्वारा खरीदवा लेने का हमारा प्रयास विफल हो चुका था। सारे दूकान बंद हो चुके थे जहां वो पोशाक मिल सकते थे। अधीक्षक की ओर से भी कोई प्रयास नज़र नहीं आ रहा था इस बाबत। सच बताऊँ तो अधीक्षक के कार्यप्रणाली को देखते हुए उनसे उम्मीद भी नहीं थी कि वो कुछ करेंगे। उम्मीद की एक आस थी अस्पताल में दुसरे O.T. जहां से वो पोशाक मिल सकते थे मगर उसके लिए हमें सुबह 5 बजे तक का इन्तेजार करना था जब वे खुलें और हमें वो पोशाक मिले।
उन 5 घंटों तक उस औरत की चीख-पुकार हमारे कानों में आती रही। इन सारी तकनीकी बातों से नासमझ मरीज के अभिभावक गिडगिडाते रहे हमारे सामने उसके ओपरेशन के लिए। डाक्टर होकर भी इस तरह की निर्दयता अपने मन में रखने का भी ये मेरा पहला ही अनुभव था। सुबह 5 बजे तक किसी तरह डांट-पीट कर हमने उन्हें टाले रखा। सुबह जब वो पोशाक हमारे पास आये तब तक काफी देर हो चुकी थी। अगर 10 मिनट और पहले ओपरेशन शुरू हो गया रहता तो शायद हम उस बच्चे की जान बचाने में सफल हो गए रहते। कोख से एक मरा हुआ बच्चा जब निकला तो दिल झल्ला उठा। चाहते हुए भी कुछ भी न कर पाने का मलाल हो रहा था और साथ में अस्पताल प्रशासन पर गुस्सा भी था जो अपनी गलती किसी और पर थोप कर चैन की नींद ले रहा था।
जब O.T. के बाहर निकला तो एक डर था कि किस तरह उन अभिभावकों का सामना करूंगा जो रात बार मिन्नत करते रह गए थे जल्दी ओपरेशन करने के लिए। बुरा भी लग रहा था और साथ में डर भी। जब बाहर निकला तो माहौल मन को झकझोर देने वाला था। उस आदमी ने एक उफ़ तक नहीं किया मेरे सामने। उस सदमे में उसने मुझसे कुछ भी नहीं कहा। अभी भी याद आ रही हैं मुझे वो आँखें जिनमे दुःख था, मगर आक्रोश नहीं था, गुस्सा नहीं था। उन आँखों में मेरे लिए कोई अनादर भी नहीं था फिर भी उन खामोश आँखों ने मुझे कह दिया था कि उनका मुजरिम मैं भी था। जब आप जानते हों कि आपकी गलती से किसी ने अपनी ज़िन्दगी की इतनी बड़ी ख़ुशी खो दी हो और वो आपके सामने कुछ भी बोले, ये काफी होता है आपको आपकी औकात बताने के लिए। यूँ खामोश रह कर उस आदमी ने मुझे मेरी औकात बता दी थी। 10 घंटे की कड़ी ड्यूटी के बाद जहां मैं अपने आप से खुश हो रहा था वहीँ इस एक घटना ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था।
उसके बाद के कुछ घंटे या सच कहूं तो आज तक समय आत्म-ग्लानि में ही कट गया। पहले सोच रहा था कि मेरी कोई गलती नहीं। दूसरों की तरह मैं भी गलतियां दूसरों पर थोप कर अपना पल्ला झाड रहा था। न जाने कितनी गालियाँ मैंने अधीक्षक महोदय को मन ही मन में दे दिया था। अस्पताल प्रशासन के प्रति मन में गुस्सा उबाल खा रहा था। सरकार के विकास के नारों से मन में ज्वालामुखी फट रहा था। फिर धीरे से दिमाग के किसी कोने में एक बात आई कि मैंने आखिर किया क्या उस जान को बचाने के लिए। क्या मेरे पास कुछ भी नहीं था करने को? क्या रात में उस जगह की दुकानों के बंद होने की सूरत में मैं प्रयास नहीं कर सकता था कहीं और से जाकर उस सामान को लाने की? साधन होने के बावजूद भी मैंने कोई प्रयास नहीं किया। रात भर अधीक्षक के उस जवाब की भर्त्सना मुक्त-कंठ से करता रहा मगर दिमाग में खुद कुछ करने की बात कभी नहीं आई।
आज भी जब उन अभिभावकों को देखता हूँ तो अपना रास्ता बदल लेता हूँ। नज़रें मिलाना तो दूर सामना करने की भी हिम्मत नहीं होती। मन रोता रहता है, झल्लाता रहता है अपनी इस कायरता पर। जी होता है कि उठूं और जाकर कह दूं उस आदमी से, "हाँ, मैं ही हूँ तुम्हारा मुजरिम। देखो मैं कायर नहीं हूँ, देखो मैं कह रहा हूँ कि मैं ही हूँ तुम्हारा मुजरिम।" मगर ये दिल झूठ नहीं बोल पाता। ये जानता है कि मैं कायर हूँ। ये जानता है कि मुझमे हिम्मत नहीं है उस आदमी का सामना करने की। ये सब कुछ जानता है और मन ही मन रोता भी है।
पहली नाईट ड्यूटी होने की अनुभूति कभी नहीं भूल पाऊंगा। याद रखना चाहता था, एक सुखद अनुभूति को। याद रहेगी, एक दुखद दास्ताँ।

Friday, April 09, 2010

नहीं करूंगा मैं दंतेवाड़ा के शहीदों को सलाम!

आज रात साढ़े 8 बजे NDTV इंडिया पर दंतेवाड़ा में हुए शहीदों के ऊपर बनी डौक्युमेंटरी देख रहा था। प्रोग्राम का नाम नहीं मालूम, शायद, 'ग्राउंड जीरो से' था। मूलतः शहीदों के परिवार पर आधारित था यह प्रोग्राम। कोई 10-11 परिवारों को शोक मनाते दिखाया गया। कहीं एक बुढा बाप अपने बेटे से एक घर की आस लगाये इंतज़ार कर रहा था तो कहीं एक पत्नी अपने कोख के लाडले को उसके पिता से मिलवाने का इंतज़ार कर रही थी। कहीं एक भाई दुसरे भाई के कमज़ोर दिल के होने की दुहाई देकर उसे पिता के चले जाने की खबर नहीं दे पा रहा था तो कहीं एक बच्ची सिर्फ यह कहकर फफक पड़ी की पापा उसे घुमाने ले जाया करते थे। मरने के ठीक पहले एक जवान ने अपने घर बात भी की। कितना बोझ होता है एक जवान के ऊपर। देश के लिए मर जाने का जज्बा भी है ओर साथ में परिवार की फिक्र भी। 2 मिनट की उस बात में उस जवान ने अपनी पत्नी से सिर्फ इतना कहा, 'बच्चों का ख्याल रखना।' उसके लाडलों का ख्याल तो किसी तरह रोते-फफकते ही सही मगर उसकी पत्नी रख ही लेगी मगर अपने इस लाडले का ख्याल हमारी भारत माता क्यूँ नहीं रख पायी।
जिस दिन सुबह में अखबार के पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में हमले की खबर और तस्वीरों को देखा है, उस दिन से मन विचलित हुआ जा रहा था। एक बार भी कभी कोई समाचार चैनल देखने का जी नहीं कर रहा था। हमेशा डर लगा रहता था। लगता था पता नहीं कब कोई तस्वीर ऐसी दिख जाए या कोई खबर ऐसी सुनाई पड़ जाये जिससे मन और बैठ जाये। आज किसी तरह से हिम्मत जुटाया और दिलेरी के साथ सारा प्रोग्राम देख गया। ताज होटल के हमले ने भी इस तरह अन्तःमन को नहीं झकझोरा था जैसा आज हुआ। दिमाग सन्न हो कर रह गया। गला सूख गया। रोने का मन हुआ तो आँखों में आंसू भी नहीं आये। कुछ बोलने के लिए जब जुबान को हिलाना चाहा तो वो भी संभव नहीं हो सका। बस साँसें चलती रही और दिल धड़कता रह गया। ज़िन्दगी की यही दो निशानियाँ उस वक़्त थी जिससे दिलासा हुआ कि जिंदा हूँ।
जब थोड़ी सुध आई तो प्रोग्राम ख़त्म हो चुका था। थोडा जोर देकर सोचा तो तरस आया अपने आप पर। कितनी आसानी से शिथिल हो गया सिर्फ एक प्रोग्राम देखकर। कहने को तो जवान हूँ मगर तरस आया अपनी जवानी पर जब उस बूढ़े बाप को देखा अपने बेटे की अर्थी उठाये। कहने को तो मर्द हूँ पर तरस आया अपनी मर्दानगी पर जब देखा उस लड़के को पूरे सम्मान के साथ अपने पिता को मुखाग्नि देते हुए। अब तो रोना भी नहीं आ रहा था। खुद अपने आप को नीचा दिखाने का मन हो रहा था। जब बिजली कटती थी तब उसकी शिकायत होती थी पिताजी से। आज जब पिताजी ने इनवर्टर लगवा दिया है तब शिकायत होती है कि बिजली जाने के बाद AC नहीं चल पाता। पिताजी जेनरेटर का भी इंतजाम करा ही देंगे। तब शिकायत होगी कि कोई है नहीं जो रात में आकर AC चला दे और सुबह बंद कर दे। इंतजाम उसका भी हो जायेगा। AC कमरे में बैठे, LCD टीवी पर आराम से फिर किसी नक्सल हमले की खबर देखूंगा। 2-4 दिन फिर विचलित रहूँगा। फिर सब ठीक। सारा ध्यान एक बार फिर IPL की चकाचौंध की ओर चला जायेगा। हो सकता है एक और ब्लॉग लिख दूंगा अपने आप को गाली देते हुए, अपने आप पर लांछन लगाते हुए। थोडा कम विचलित हुआ तो खड़ा कर दूंगा सरकारी नीतियों के खिलाफत का पहाड़।
और क्या करूँगा, कुछ भी तो नहीं। कुछ कर भी सकता हूँ क्या। कुछ भी तो नहीं। अपनी डाक्टरी छोड़ कर चल तो नहीं दूंगा एक ऐसे जगह जहां 100 किलोमीटर की दूरी तय की जाती है 10 घंटे में, जहां बिजली नहीं, पानी नहीं, रहने को घर तक नहीं। ऊपर से नक्सलियों की गोली का शिकार कभी भी बन सकने का डर। AC के लिए कम्प्लेन करने वाला कैसे वहाँ जाकर रह सकता है। वो कैसे अपनी ज़िन्दगी वहाँ गुजारने की सोच सकता है। वो कोई और नहीं, वो मैं भी नहीं, वो है एक आम हिन्दुस्तानी, वो वहाँ जाकर नहीं रह सकता। वहाँ रह सकता है तो कोई ख़ास हिन्दुस्तानी। वहाँ रह सकता है तो सिर्फ CRPF का वो जवान जो इतनी दिक्कतों के बावजूद भी कभी कम्प्लेन नहीं करता। जहां जाकर हम दो बूँद पसीना बहाने को तैयार नहीं वहाँ वो आये दिन खून बहाता रहता है। पता नहीं कहाँ से आता है वो जज्बा उनके पास। इतना सब कुछ हो जाता है फिर भी पीछे नहीं हटता वो। मुख से एक ही बात हमेशा निकलती है, "आ देखें ज़रा किसमे कितना है दम!" ऐसे ख़ास हिन्दुस्तानी को सलाम करने का मन नहीं करता। सोच रहे होंगे कि क्यूँ सलाम करना नहीं चाहता। क्यूँ करूं मैं सलाम। आखिर औकात ही क्या है मेरी। कुछ भी हुआ नही कि बस बैठ गए ब्लॉग पर भड़ास निकालने। निकाल दिया और हो गए खुश कि रख दी सब के सामने अपनी बात। अरे क्या होगा ये लिखकर। नहीं करूंगा मैं सलाम उस ख़ास हिन्दुस्तानी को। नहीं करूंगा उसका अपमान अपनी सलामी से। एक अर्जी है आप भी तब ही करियेगा उन्हें सलाम जब लगे कि आपका सलाम उनके चरणों के धुल के भी बराबर है। छोटी सी अर्जी है सोचियेगा जरूर और यथासंभव मानियेगा भी!

Thursday, April 08, 2010

न्यूज़ चैनल की साप्ताहिकी- एक व्यंग्य!

इन दिनों यूँ तो काम की आपा-धापी में कभी समय नहीं मिल पाया मगर जब भी समाचार चैनलों की तरफ मुखातिब हुआ तो हर जगह शोएब-सानिया के चर्चे ही मिले। कई लोग कई तरह की बातें कर रहे थे, कुछ विचार अपने मन में भी आये जिन्हें ब्लॉग के माध्यम से प्रस्तुत करने का जी हुआ मगर मौका नहीं मिल पाया। आज जब कुछ लिखने बैठा हूँ तो असमंजस में पड़ गया हूँ। शोएब-सानिया पर कुछ लिखूं या मीडिया में TRP की बढती महत्ता पर। कुछ समझ नहीं आ रहा। दोनों पर कुछ लिखने का मन कर रहा है। 12 घंटे की इमरजेंसी ड्यूटी के बाद अभी काफी थकावट भी महसूस हो रही है। थकावट के असर को कम करने के लिए चलिए थोड़ी मनोरंजक बातें ही हो जाएँ। तो आज का पोस्ट अभी के समय के सबसे बड़े मनोरंजन के माध्यम, न्यूज़ चैनलों पर एक व्यंग्य ही हो जाये। प्रस्तुत है सभी भारतीय न्यूज़ चैनल पर हफ्ते भर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों का ब्यौरा!
दिन सोमवार, हफ्ते का पहला दिन:
सुबह सुबह एक और प्रिन्स एक खड्डे में गिर गया। पूरा का पूरा सोमवार सभी चैनलों पर प्रिन्स की खबर से ही पटा रह गया। रात में जब तक उसे खड्डे से निकाल नहीं लिया गया, किसी भी रिपोर्टर ने चैन से सांस नहीं ली। पल-पल की खबर, सबसे तेज़, घटना की सबसे ताज़ी तस्वीरें इत्यादि ने जमकर एक ब्रेकिंग न्यूज़ बना दिया। दिन भर का रोज़गार न्यूज़ वालों को तो मिल ही गया, साथ साथ उन सब लोगों को भी मिल गया जो दिन भर इस ताक में कैमरे के आसपास टिके रह गए कि कभी उनकी भी तस्वीर टीवी पर आ जाये। समझ में नहीं आता कि कैसे अचानक इन ३-४ सालों में ऐसी घटनाओं की संख्या इस प्रकार बढ़ गयी है। सोचता हूँ कि कहाँ अंतर आया। क्या पहले गड्ढे नहीं खोदे जाते थे या पहले प्रिन्स जैसे बच्चे पैदा नहीं लिया करते थे। या ऐसा हो गया है कि न्यूज़ वालों के पास समय ही समय है ऐसी ख़बरों को हम तक पहुचाने के लिए। स्कूल में गुरु जी कहाँ करते थे "ऑलवेज थिंक पोजिटिव, हमेशा सकारात्मक सोचो।" चलिए कुछ सकारात्मकता इस प्रिन्स-काण्ड में भी ढूंढें। न्यूज़ चैनलों पर इनकी बढती संख्या का कारण क्या हो सकता है। या तो अभी गड्ढे ज्यादा संख्या में खोदे जा रहे हैं, या प्रिन्स जैसे चंचल बच्चों की संख्या बढ़ गयी है या फिर चैनलों का कभरेज एरिया बढ़ गया है। अगर गड्ढे ज्यादा खोदे जा रहे हैं तो ख़ुशी मनाने की बात है, अरे भाई, देश के infrastructure का विकास हो रहा है। अगर प्रिन्स आज ज्यादा खेल-कूद कर रहा है तो ये भी ख़ुशी की बात है, आखिर, वो कुपोषण का शिकार होकर घर में कमजोर तो नहीं बैठा हुआ है; कहीं न कहीं स्वास्थय सेवाएं सुधरी जरूर होंगी। यदि चैनलों का बढ़ता कवरेज कारण है तो भी खुश हो जाइये, अरे, qualitative न सही quantitative विकास तो जरूर हो रहा है इन चैनलों का। तो जनाब जब भी कभी कोई प्रिन्स कहीं गड्ढे में गिरे तो अफ़सोस मत मनाइए न ही न्यूज़ वालों से रुष्ट होइए, ख़ुशी मनाइए, आखिर, हमारे विकास की जीती जागती तस्वीर जो ठहरी ये खबर।
मंगलवार, दूसरा दिन:
कल दिन भर प्रिन्स की थकावट के बाद आज कुछ आराम करने का मौका मिल गया चैनल वालों को। न कही कोई प्रिन्स गड्ढे में गिरा, न कहीं किसी बिहारी पर हमला हुआ और न ही किसी सेलिब्रिटी ने किसी को तमाचा मारा। कल के भयानक रोज़गार के बाद आज की बेरोज़गारी में कोई खबर ही नहीं मिली जिसे सनसनीखेज बनाया जा सके। करें तो करें क्या। ध्येय तो एक ही बचा है न्यूज़ का आज के युग में, और वो है मनोरंजन। तो छोटे परदे से बढ़कर मनोरंजन और कहाँ। दिन भर आनंदी, अम्मा जी, लाली, पुनपुन वाली, इत्यादि न्यूज़ चैनलों पर छाई रहीं। कौन से सीरियल में क्या होने वाला है ये भी ब्रेकिंग न्यूज़ बन गया। जब बीच बीच में माहौल थोडा सीरियस होता गया तो लाफ्टर शो की झलकियाँ भी मिलीं। रात होते-होते जब नक्सलियों से न्यूज़ वालों की खस्ताहाल देखी नहीं गयी तो उन्होंने ही ब्रेकिंग न्यूज़ प्रदान कर दी सब के लिए। छोटा-नागपुर के जंगल में एक और नक्सल हमला। मध्य रात्रि से अचानक फिर से सभी संवाददाता सक्रिय हो गए।
बुद्धवार, वृहस्पतिवार एवं शुक्रवार:
तीनों दिन चौबीसों घंटे एक ही समाचार। ब्रेकिंग न्यूज़, नक्सल हमला। पहला दिन सिर्फ हमले की विस्तृत रिपोर्ट में बीत गया। दूसरा दिन सरकारी मशीनरी की खामियां निकालने में और तीसरा दिन पक्ष-विपक्ष में बहस कराने में ही निकल गया। बीच में कुछ घंटे कभी कभार उन शहीदों को भी याद कर लिया गया जो हमले के शिकार बने। सब को अपनी-अपनी बात रखने का मौका दिया गया। जो इस घटना से सम्बंधित हो उसने जितना भाग चैनल वालों के साथ लिया उससे कही ज्यादा उन लोगों ने लिया जिनका इस घटना से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं। आम जनता के लिए SMS पोलिंग भी खोल दी गयी। आम लोगों ने जमकर अपनी राय भेजी। समाचार की जगह सभी चैनलों पर वही SMS नीचे स्ट्रीम होते रहे। इन तीन दिन देश-दुनिया में और जगह क्या हुआ नहीं हुआ, किसी को मालूम नहीं चला। आखिर क्यों पता चले। हमले की ख़बरों से ही जब ऐसी TRP मिली तो क्यों कोई और खबर खोजे। क्यों कोई बेकार की मेहनत करे। आराम से ऐसे ही नाम और पैसे न कमाए जाएँ??
शनिवार:
लीजिये, अभी नक्सल हमले ने दम तोडना शुरू ही किया था कि सचिन ने शुक्रवार की शाम ही एक शतक ठोक दिया। शनिवार की सुबह से ही सचिन पुराण सभी चैनलों पर शुरू हो गए। पूरी की पूरी जीवन गाथा न जाने हर घंटे कितनी बार बारम्बार दिखाई गयी। ऐसी ऐसी बातें बताई गयी सचिन के बारे में जो शायद सचिन को खुद नहीं मालूम होंगी। सचिन का मन भी अघा गया होगा अपने बारे में एक ही बात हर घंटे सुन कर मगर ये रिपोर्टर का मन कभी नहीं अघाता। चाहे कितनी ही बार हो, किसी भी समाचार को प्रस्तुत करने में उनकी तन्मयता कभी कम होती नहीं दिखती है। रात तक तो बच्चों-बच्चों को सचिन के बारे में इतनी बातें पता हो गयीं होंगी जितनी उन्हें खुद के बारे में भी नहीं होगी। खैर, कम से कम न्यूज़ वालों ने सामान्य ज्ञान तो बढाया बच्चों का।
रविवार:
आज फिर से न कहीं कोई बम विस्फोट हुआ, न ही किसी नेता का कोई घोटाला पकड़ा गया और न ही किसी औद्योगिक घराने के भाइयों के बीच की कोई टकराव सामने आई। आज फिर वही स्थिति उत्पन्न हो आई। करें तो करें क्या। एक बार फिर रुख हुआ छोटे परदे की तरफ। फिर वही आनंदी, फिर वही अम्माजी, फिर वही राजू श्रीवास्तव। फिर इन्ही लोगों ने न्यूज़ चैनलों को बचा लिया नंगे होने से। आम जनता को अपने साथ खिचे रहने के लिए बेतुके SMS पोल आज भी यूँही चलते रहे और लोग आराम से अपने SMS भेजते रहे। न्यूज़ चैनल को TRP आज भी पूरी मिल ही गयी।
सोमवार, अगला सप्ताह:
आज फिर शुरुआत हुई एक प्रिन्स के गड्ढे में गिरने से। आज फिर वही सब हुआ जो पिछले हफ्ते हुआ.................

Wednesday, April 07, 2010

आखिर बन ही गए डाक्टर!

काफी दिनों से ब्लॉग के प्रति एक बार फिर सक्रियता घट गयी है। पहले भी ऐसा हो चुका है। पहले अमूमन इसके पीछे का कारण विषय की अनुपलब्धता हुआ करती थी। इस बार बात थोड़ी अलग है। पिछले दिनों इतना कुछ अचानक गुजर गया ज़िन्दगी में कि खुद उस ओर दुबारा ध्यान ही नहीं जा सका। सारी बातें लिखने लायक थी, आपसे बांटने लायक थी मगर इतनी बातें हो गयीं कि लिखने का समय ही नहीं मिल सका।
सबसे पहले, 31 तारीख को साढ़े चार साल की तपस्या (थोड़ी कम तपिश वाली) का फल मिला। अंतिम वर्ष की परीक्षा के परिणाम घोषित हुए और जनाब के नाम के आगे डाक्टर लग गया। सोने पर सुहागा कि अपन पटना विश्वविद्यालय के topper भी बन गए। बन गए तो बन गए। डाक्टर बनने के साथ आगे की औपचारिकताओं के कारण २-३ दिन व्यस्तता रही। अस्पताल में इन्टर्नशिप में joining और तब से फुर्सत के कुछ क्षण, जिसमे ब्लॉग लिख सकूं, की तलाश ही चली। आज समय निकला है तो सोचा अंततः देर ही सही, कम से कम इस ख़ुशी को बाँट तो लूं यहाँ।
इंटर्नशिप में आने के बाद सही मायने में डाक्टरी करने का मौका मिला। कल का दिन काफी महत्त्वपूर्ण रहा। ज़िन्दगी में पहली दफा ओपरेशन में हाथ आजमाने का मौका मिला। जिस क्षेत्र में शुरू से रूचि रही हो, उसका पहला काम करके जो अनुभूति होती है उसे बयां करना मुश्किल है। सिर्फ यही कह पाऊँगा कि ख़ुशी बहुत हुई। देर सबेर शायद कोई फोटो भी अपलोड कर पाऊँ।
खैर, इतना कुछ घटित हुआ अपनी ज़िन्दगी में और इन सब के बारे में विस्तार से न लिख पाने का मलाल महसूस हो रहा है। शायद थोडा समय मिल पाता तो सब कुछ पर एक पूरा पोस्ट समर्पित होता। शायद आगे कभी retrospection में कुछ पोस्ट लिख भी दूं मगर अभी इतना ही।
अपनी ज़िन्दगी के अलावा इन दिनों देश दुनिया में भी काफी कुछ हुआ जिसपर के विचार मन में उफान मार रहे हैं शब्दों के रूप में बयां होने के लिए। शोएब-सानिया प्रकरण हो या माओवादी हमला, मन को कचोटने के लिए काफी कुछ था। एक मामला जिसे बिना मतलब राष्ट्रीय महत्व का बना दिया गया और दूसरा जिसे अपनी उचित महत्ता इस TRP के चक्कर में पड़े मीडिया के कारण शायद कभी नहीं मिलेगी। इन सब बातों पर बहुत कुछ लिखना है। वक़्त निकालना है। समय मिला और कुछ पोस्ट आयेंगे जरूर। इंतज़ार अभी और भी...