Saturday, December 27, 2014

PK और "घर वापसी"

पिछले हफ्ते आई फिल्म PK अपने साथ कई विवाद लेकर आई। धर्म के प्रति इंसान के अन्धविश्वास को बड़ी ही सहजता से दर्शाती यह फिल्म अकारण ही हिन्दू धर्मावलम्बियों के निशाने पर आ गयी है। इसको लेकर सोशल मीडिया में बहस और फिल्मकार और फिल्म से जुड़े अन्य कलाकारों के प्रति कई प्रकार के चुटकुले और तीखी टिप्पणियां देखने को मिल रहे हैं। पिछले हफ्ते मुझे भी यह फिल्म देखने का मौका मिला। आमिर खान की अदायगी का पुराना कायल रहा हूँ इसलिए फिल्म को देखने की उत्सुकता काफी पहले से थी। राजू हिरानी की पिछली फिल्मों को देखने के बाद उम्मीद इस फिल्म से भी लगी थी। हालांकि फिल्म पिछली ऊंचाइयों को छूने में जरूर नाकाम रही मगर यह जरूर कहना चाहूंगा की एक अच्छे सन्देश के साथ ही ख़त्म हुई।

देश में मौजूदा समय में चल रहे "घर वापसी" की हवा ने विवादों की इस आग को और जोरों से भड़कने का मौका दे दिया है। अपने धर्म के अस्तित्व और झूठी रक्षा के इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के चोंचलों में आज हिन्दू यूँही फसाए जा रहे हैं। उनके इन्हीं चोंचलों में फसकर कई लोग इस सीधी साधी फिल्म को हिन्दू विरोधी ठहरा कर हिन्दू धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को दिखा रहे हैं। शायद मेरा ये ब्लॉग पढ़कर यही लोग मुझे भी हिन्दू विरोधी कहने लगेंगे। इसलिए कुछ भी आगे लिखने के पहले अपने बारे में, धर्म के प्रति अपनी सोच के बारे में बता देना ही सही होगा।

मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ और पालन-पोषण एक धार्मिक परिवेश में होने के कारण अपने आप को हिन्दू मानता हूँ। नानाजी की कहानियाँ सुनकर बड़ा हुआ हूँ जिनमें हमेशा से कई पौराणिक धार्मिक कथाएं रहा करती थी। इन कहानियों के जरिये हिन्दू धर्म को जानने और समझने की कोशिश करता रहा हूँ। कई सारे भगवान, एक भगवान के कई रूप, हर रूप की कई कहानियाँ। छोटे मन में सब समाती चली गयी। जैसे जैसे बड़ा होता गया, मन में सवाल उठते गए। ब्रह्मा का राक्षशों को वरदान देना, मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अपनी ही अर्धांगनी पर अविश्वास रखकर अग्नि परीक्षा में भेजने का उनका अमर्यादित कृत्य, रणछोड़ कृष्ण का महाभारत के युद्ध में किया गया छल, यह सब भगवान को न मानने और नाश्तिक हो जाने के प्रति मेरा झुकाव बढ़ाता चला गया। चूँकि घर में एक धार्मिक परिवेश शुरू से रहा है इसलिए खुलकर कभी अपने आप को नाश्तिक नहीं कह पाया। आज भी यह ब्लॉग पढ़कर शायद घरवालों को धक्का सा लगे, पर सच तो सच ही है। परिवार में चल रहे धार्मिक अनुष्ठानों में योगदान करता हूँ मगर धर्म के प्रति अंधविश्वास कभी नहीं रखता। विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए हर चीज़ पर सवाल करता हूँ, धर्म पर भी।

हिन्दू धर्म को मानता हूँ, मगर इसका ये मतलब नहीं की इसकी बुराइयों को नज़रअंदाज़ करूँगा। वो हिन्दू धर्म जो सनातन है, जो अनादि है, अनंत है उसके कोई ठेकेदार नहीं थे। उसे स्वयंसेवकों और परिषदों की जरुरत नहीं थी। वो इतना कमजोर नहीं था कि उसे घर वापसी की जरुरत थी। आज जिस हिन्दुवाद की हवा देश में फ़ैल रही है ये वो सनातन धर्म नहीं। हिन्दू धर्म कभी दूसरे धर्मों की अवहेलना नहीं करता। जितनी आसानी से दूसरे धर्मों को अपने साथ मिलाता है ये कहीं और देखने को नहीं मिलता। किसी चीज के लिए कभी विवश नहीं करता, इसकी कोई आचार संहिता नहीं। मंदिर में जाकर प्रसाद चढ़ाने वाले भी हिन्दू हैं और मंदिर में कभी न जाने वाले भी हिन्दू। धोती कुरता पहनने वाले भी हिन्दू और पैंट शर्ट वाले भी हिन्दू। गिरिजा या मस्जिद में जाने से हिन्दू धर्म भ्रष्ट नहीं होता।

डर पैदा करना हिन्दू धर्म की संस्कृति में था ही नहीं। पंडितों और बाबाओं ने डर का जो व्यापार खड़ा किया हम उसमें फंसते चले गए। बचपन से सत्यनारायण की कथा सुनता आ रहा हूँ। हर कथा में एक डर है, अमुक व्यक्ति कथा-पाठ का वचन देकर भूल गया तो उसके साथ ऐसा हो गया। इसी तरह कई बाबा पैदा होते चले गए। प्रवचन के नाम पर पैसे ऐंठना इनका धंधा हो गया। डर के इस व्यवसाय में लोग शिष्य बनते चले गए। काम-धंधा छोड़कर पूजा पाठ करो, कल्याण होगा। हिन्दू धर्म की नींव को ही हिलाने का काम इन धर्म-गुरुओं और बाबाओं ने शुरू कर दिया। 'कर्म करो, फल की चिंता मत करो' को भूलकर लोग बाबा के दरबार में फल की प्राप्ति के लिए टिकट कटाने लगे। डर के सामने कमजोर हो जाना ये इंसानी फितरत है। इंसान की इसी कमजोरी का फायदा ये बाबा लोग उठा रहे हैं और हम उनके चंगुल में फंसते जा रहे हैं। गलती उनकी नहीं जिन्होंने इस धंधे को शुरू किया।  वो तो अपना कर्म कर रहे हैं, अपने धर्म का पालन। गलती हमारी है जो अपने कर्मों से दूर उनकी बातों में आकर उनके धंधे को और बढ़ा रहे हैं।

ऐसे ही बाबाओं के पीछे अपना धर्म भ्रष्ट कर रहे लोगों की कहानी कहती है यह फिल्म PK. हिन्दुओं को बुरा लग रहा है कि क्यों सिर्फ उनके धर्म के ऊपर ही टिप्पणी की जा रही है। यह बात उन्हें और चुभ रही कि फिल्म का नायक एक मुसलमान है। मुझे बुरा नहीं लग रहा, हिन्दू होकर भी। उल्टा मैं खुश हूँ। मैं खुश हूँ क्यूंकि यह फिल्म मेरे हिन्दू भाइयों को अपने भ्रष्ट होते धर्म को बचाने का एक मौका दे रही है। हिन्दू धर्म को उस 'घर वापसी' की जरुरत नहीं जो आज हमारे देश में चल रही है। इसे जरुरत है इस 'घर वापसी' की जहां लोग उस सनातन हिन्दू धर्म की तरफ दुबारा लौटे जहां कोई रोक-टोक नहीं थी, जहां कोई डर नहीं था।

     

Wednesday, August 06, 2014

कुछ रंग इस ज़िंदगी के

बुजुर्गों से हमेशा सुबह उठने के फायदे सुनता रहा हूँ। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुबह जल्दी उठने की प्रथा जैसे ख़त्म ही होती जा रही है। पापा हमेशा सुबह उठते हैं, आज भी। हम सारे भाई-बहन मॉर्निंग स्कूल के दिनों को छोड़कर कभी सुबह जल्दी उठ नहीं पाये। जैसे जैसे बड़े होते गए, रूटीन और भी बदलता चला गया। पढाई का बोझ बढ़ता चला गया और उसके साथ रात में सोने का समय भी देर होता चला गया। शरीर की कई जरूरतों में हमने सबसे पहला स्थान नींद को ही रखा है। दुनिया इधर की उधर हो जाये हम तो नींद अधूरी छोड़ नहीं सकते। रात को सोने में देरी के साथ सुबह उठने का समय भी देर होता चला गया। हालत ऐसी हो गयी है कि अब छुट्टी के दिनों में सुबह का नाश्ता करने की भी जरुरत नहीं पड़ती। सीधा उठके दोपहर का खाना ही नसीब होता है।

खैर, इधर कुछ दिनों से सुबह उठने की कोशिश चल रही है। कामयाबी भी मिल रही है। सुबह उठकर कुछ देर बाहर घूमने निकलता हूँ। कलकत्ता के जिस कोने में रहता हूँ, वो शायद सुबह की सैर के लिए सबसे सही और सबसे ज्यादा प्रचलित भी है। विक्टोरिया मेमोरियल और मैदान के आसपास का ये इलाका दक्षिण कलकत्ता के रईसों का सैरगाह काफी पुराने समय से रहा है। लोग अपनी लक्ज़री गाड़ियों में आते हैं और सैर करते हैं। मर्सिडीज, बीएमडब्लू, जैगुआर जैसी गाड़ियां जितनी यहाँ इस समय दिखती हैं, उतनी ज़िन्दगी में न कभी देखी थी और न कभी देखने की उम्मीद रखता हूँ।

इस दौड़ती भागती ज़िन्दगी में सुबह का ये समय सुकून भरा लगता है। ज़िन्दगी ठहरी हुई सी मालूम पड़ती है। एक अलग सी दुनिया में होने का अहसास होता है। एक पूरी अलग दुनिया ही देखने को मिलती है। कुछ उम्रदार लोगों का झुण्ड पार्क में एक घेरा लगा कर एक्सरसाइज करता हुआ दिखता है। एक लय में, साथ साथ। तभी दूसरी तरफ से जोर जोर से हंसी की आवाज़ आती है। ऐसे ही लोगों का एक घेरा हाथ ऊपर कर के जोर जोर से हँसता हुआ दिखता है। लाफ्टर थेरेपी। उन हँसते हुए चेहरे को देखकर हंसी की कीमत समझ में आती है आज के भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में। साधारण सी हंसी भी आज कितनी मुश्किल से मिलती है!

वहीँ पास में दो बूढी औरतें एक बेंच पर बैठी हैं। थोड़ी देर टहलने के बाद दम उखड़ आया है। उनकी चाल से पता चलता है कि जोड़ों ने अब जवाब दे दिया है। वो आपस में बात कर रही हैं। पास से गुजरते हुए कुछ बातें मेरे भी कान में पड़ी। थोड़ी दूर चलने से दम उखड़ जाना उनकी तकलीफ नहीं है, न ही उनका जोड़ों का दर्द। वही आज के युग की कहानी, या शायद चिरकाल की। बच्चों का अब अपना परिवार हो गया है, अब उन्हें इनकी जरुरत नहीं रही। न जाने कितनी बूढ़ी माँ की आँखों के आंसू यही फ़साना बयां करते हैं। तभी आँखों के सामने पापा-मम्मी का चेहरा नज़र आता है। घर में अकेले बरामदे में बैठे चाय पी रहे होंगे। तीन बच्चे, तीनों दूर, अपनी अपनी दुनिया में मशगूल। अजीब सा लगता है। दिल में कचोट होती है, मगर कुछ कर नहीं सकते। बस आगे बढ़ जाते हैं।

आगे कुछ लोग बैठे भजन करते हुए दिखते हैं। सुबह सुबह भगवान का नाम सुनकर शांति का अहसास होता है। पीछे जो कुलबुलाहट मन में पैदा हुई थी वो यहां थम गयी सी लगने लगती है। तभी सामने से एक बुजुर्ग आदमी आते हुए  नज़र आते है। आगे-आगे उनका पोता भी है। दादा के चेहरे पर चमक है, वो खुश हैं। अपने पोते की मासूमियत को महसूस कर रहे हैं। ज़िन्दगी हमेशा बुरी नहीं होती। दादा-पोते की इस जोड़ी को देखकर ऐसा ही लगता है। मन में थोड़ी ठंडक पड़ती है। और आगे बढ़ते हैं।

ज़िन्दगी का एक अलग ही रंग देखने को मिलता है। फूटपाथ पर कुछ लोग सो के उठ रहे हैं। रात उन्होंने यहीं पर बिताई है ऐसा मालूम होता है। शायद उनकी सारी रातें यहीं बीतती हैं, या शायद ऐसी ही किसी फूटपाथ पर। जब सुबह उठते हैं तो पता नहीं होता कि आज की रात कहाँ बीतेगी। दिन कैसे गुजरेगा। दो वक़्त की रोटी का क्या होगा। वहीँ बगल में एक बड़ी गाडी रूकती है। मालिक उतरता है और फूटपाथ पर अपनी सैर शुरू करता है। मन में अजीब सी उलझन शुरू होती है। फूटपाथ पर सोने वाले उस मजदूर के चेहरे पर उस एसी गाडी से उतरने वाले आदमी के चेहरे से ज्यादा सुकून दिखता है। सोचते सोचते आगे बढ़ता हूँ। सूरज मैदान के उस पार से अब चेहरे पर पड़ने लगता है। ज़िन्दगी के इन कई रंगों को देखता देखता सोचता हुआ अब लौटता हूँ। और न जाने कितनी कहानियाँ इन पार्क में और आसपास के फूटपाथ में चलती रहती हैं। निरंतर, लगातार, बिना रुके हुए। ठीक इस ज़िन्दगी की तरह।



Wednesday, May 07, 2014

ज़िन्दगी और मौत


जीने की चाह से भरी
वो टिमटिमाती सी आँखें। 
मुझसे पूछती हैं,
'तू घबराया सा क्यूँ है?'
मैं चुप खड़ा हूँ। 
उसे देख रहा, एकटक।
महसूस कर रहा हूँ 
उसके ज़िंदा रहने की चाहत को.
महसूस करता हूँ 
उस निर्दयी मौत की आहट को। 
झांकता हूँ उसकी आँखों में,
देखता हूँ उनमें,
मुझसे उम्मीदें लगी हैं। 
सिहर जाता हूँ। 
अहसास होता है 
मैं कुछ नहीं कर सकता 
उसकी उम्मीदों को कभी 
पूरा नहीं कर सकता। 
फिर आँखें चुराता हूँ,
डर लगता है,
उसने देख तो नहीं लिया
मेरी आँखों में छुपी 
उस मौत के इंतज़ार को. 
अपने उन्हीं आँखों से। 
वही टिमटिमाती सी आँखें 
जीने की चाह से भरी.… 


ज़िन्दगी एक जुआ है। ऐसा कहते हुए कई बार कईयों को सुना है। कई बार ज़िन्दगी में ऐसी परिस्थितियां सामने आती हैं जब सच मे इस बात पर भरोसा होने लगता है। इस जुए के खेल में ज़िन्दगी ऐसी बाज़ियाँ चलती चली जाती है जिसके सामने आप कुछ नहीं कर पाते। ऐसी परिस्थितियां आती हैं जो आपको सिर्फ़ चौंकाती ही नहीं मगर हिला देतीं हैं। 

डाक्टरी के पेशे में जब से घुसा हूँ कई मौत देख चुका हूँ। शुरू शुरू में थोड़ा ख़राब महसूस होता था हर मौत के बाद। डेथ सर्टिफिकेट बनाते समय कलम थोड़ा डगमगाती थी। फिर खराब लगना बंद हो गया। जैसे रोज़ की बात हो। एक रूटीन। देखा जाये तो मौत तो है ही एक रूटीन। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तो निश्चित है ही। ज़िन्दगी का पहला और अन्तिम सच मौत ही तो है। फिर क्यूँ ऐसा होता है कि किसी के मरने से आदमी हिल सा जाता है।

किसी अपने नजदीकी के या चाहने वाले की मौत पर सदमा सबको लगता है। डाक्टर हूँ, हमें अनजान लोगों की मौत से भी वैसा ही धकका लगता है। ज्यादातर मौत रूटीन ही होती हैं मगर कुछ मौत बिल्कुल अलग होती हैं। जिनकी उम्मीद किसी को नहीं होती। वो सबको हिला कर रख देती हैं। ऐसी मौतें ही वो परिस्थितियां पैदा करती हैं जिनसे सच मे लगता है कि ज़िन्दगी एक जुआ है। कुछ मौके ऐसे भी आते हैं जब मौत की सिर्फ़ आहट भर ही दिल को दहला देने के लिये काफी होती है। आनंद फिल्म के आनंद की मौत की तरह।

20-22 साल की एक लड़की। देखने में 17-18 से ज्यादा की नहीं। पेट फुला हुआ। पिछले 15 दिनों से बीमार है। कुछ खा नहीं पा रही। पेट फूलता ही जा रहा है। गैस भी नहीं छूट रहा। हालत ख़राब है। अच्छे से जाँच करने पर पता चला शायद पैखाने के रास्ते में कैंसर है जिसने रास्ता ही बन्द कर दिया है। शुरूआती स्टेज नहीं, एडवांस्ड स्टेज लग रहा है। उसी दिन ऑपरेशन करके बाईपास कर देने की बात तय हो गयी।  ऑपरेशन भी हो गया। लड़की अभी ठीक है। उसके साथ रह रही उसकी माँ पूछती है कि उसकी बेटी कैसी है। हम डाक्टर लोग एक दूसरे का मुंह देखते रह जाते हैं।

किताबों में पढ़ा है, इस तरह के कैंसर के होने की औसत उम्र पिछले कुछ दशक में काफी कम हो गयी है। यह भी लिखा है कि कम उम्र मे होने वाले कैंसर से बचने की उम्मीद बहुत कम होती है। सब कुछ याद है फिर भी खड़े सोचते रह जाते हैँ कि उसकी माँ को क्या जवाब दें। कैसे बताये उसे कि उसकी बेटी की ज़िन्दगी हर गुजरते हुए पल के साथ कम होती चली जा रही है। कैसे बताएं उसे की जब इस छोटी उम्र की लड़की को देखता हूँ तो उसके चेहरे में मुझे मौत का चेहरा नज़र आता है। वो मौत जो ज़िन्दगी के जुआ के उस खेल की एक गहरी चाल है। वो मौत जो अपनी आहट के साथ एक सिहरन भी लाती है। वो मौत जिसके आने की आहट भर से दिल दहल सा जाता है। 

 

Monday, April 07, 2014

बस उस मौके की तलाश में...


ऐसे पेशे में रहना जहां जीवित रहने के लिए (और मरीज़ों को रखने के लिए भी) पढ़ाई करने की जरुरत हमेशा बनी रहती है वहाँ अपने आप को किताबी-कीड़ा कहने में कोई परहेज़ नहीं होना चाहिए। हालांकि मुझे इस सम्बोधन से हमेशा ऐतराज़ रहा है और ऐसे किसी भी व्यक्ति की संगत मुझे कभी रास नहीं आयी। कभी भी अपने आप को एक किताबी-कीड़े की तरह नहीं रखा। पढ़ाई उतनी ही की जिससे काम चलता रहे। हाँ मगर, ये भी है कि उतनी ही पढ़ाई जिससे काम चलती रहे तक अपने को सीमित रखने के चक्कर में दिल लगाकर कुछ और कभी पढ़ नहीं पाया। दोस्तों के साथ जब साहित्य की और उपन्यासों की बात होने लगती थी तो अपने आप को हमेशा अलग-थलग महसूस करता था। शायद यही कारण था कि हमेशा से उन लोगों के प्रति जो अपना काफी समय साहित्य की तरफ देते थे, एक आदर की भावना मन में रहती थी और एक चाहत रहती थी कि काश कभी मैं भी समय निकाल कर कुछेक किताबें पढ़ सकूं।

ज़िन्दगी में कई समय ऐसे आये जब साहित्य की तरफ रूझान काफी उमड़-उमड़ कर बाहर आया मगर हर बार कुछ अपने आलस की वजह से और कुछ पेशे की जरुरत को देखकर बीच में ही ख़त्म हो गया। इधर कुछ दिनों से फिर से  साहित्य की तरफ का आकर्षण बढ़ा है और कुछ नया पढ़ने की कोशिश जारी है। हालांकि जब लिखने की या बोलने की बात आती है तो हिंदी से ही अपनापन ज्यादा महसूस होता है मगर पढ़ने के समय खिंचाव अंग्रेजी साहित्य की तरफ ज्यादा चला जाता है। कारण कुछ ख़ास नहीं हैं। शायद जिन लोगों से ऐसी चर्चा होती है वो सब अंग्रेजी के ज्यादा शौक़ीन हैं इसलिए सुझाव भी अंग्रेजी के ही ज्यादा आते हैं। साहित्य किसी भी भाषा में हो, मानवीयता एक ही होती है, भावनाएं एक ही होती हैं। संस्कृति के थोड़े अंतर के कारण इंसानियत में बदलाव नहीं आता। साहित्य की यही खासियत होती है और इसलिए मेरा मानना है कि इसे भाषा के तराजू में तौलने से हमेशा बचना चाहिए। खैर…

कई बार कोई कहानी या उपन्यास पढ़ते-पढ़ते उनमे छुपी हुई भावनाएं, वो परिस्थितियां आपकी ज़िन्दगी से ऐसी मेल खा जाती हैं कि आपको लगता है कि आप अपनी ही कहानी पढ़ रहे हैं। कहानी के किरदारों के साथ आपका रिश्ता जुड़ने सा लगता है। उनके साथ अपनापन महसूस होने लगता है। दूर-दूर तक न उसके साथ न उसकी परिस्थिति के साथ आपका कोई सम्बन्ध होता है फिर भी आप कहीं न कहीं अपनी और उन भावनाओं में समानता देखने लगते हैं। कई बार आपको आपकी अपनी भावनाओं का एहसास ही तब होता है जब कहानी में उस किरदार को आप वैसा महसूस करते पाते हैं। ऐसा ही कुछ पिछले कुछ दिनों में कुछ हद तक मेरे साथ भी हुआ है, खालिद हुसैनी की "The Kite Runner" पढ़ कर।

चार युगों में फैले हुए अफ़ग़ानिस्तान में बसी तीन पीढ़ी की कहानी है The Kite Runner. ये कहानी है अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध और राजनैतिक अस्थिरता के मकड़जाल में फंसे भावनाओं के बवंडर की। ये कहानी है बाप-बेटे के रिश्ते की बनते-बिगड़ते रूप की। ये कहानी है बचपन की दोस्ती और उस दोस्ती में धोखे की। ये कहानी है धोखे से जुड़े पश्चाताप और उसे सुधारने की जद्दोजहद की। हालांकि इन किन्हीं भी परिस्थितयों से कभी मेरा कोई साक्षात्कार नहीं हुआ है मगर फिर भी कहीं न कहीं इस कहानी ने मुझे अपने अंदर झांकने को मजबूर जरूर किया है।

कई बार जाने-अनजाने में आप अपने चाहने वालों की महत्ता अपनी ज़िन्दगी में समझ नहीं पाते। बस घर की मुर्गी दाल बराबर समझते हुए निकलते चले जाते हैं। बार-बार टोके जाने पर भी समझ नहीं आता कि सामने वाले पर आपके इस व्यवहार का क्या असर पर रहा है। उसके दिल पर क्या गुजरती होगी जब आपकी तरफ से उसे रह रह कर बेरुखी ही मिलती है। सामने वाले के लिए उसके प्यार के प्रति, उसके विश्वास के प्रति, उसके भरोसे के प्रति ये आपका धोखा ही है। ना जानते हुए भी, ना समझते हुए भी आप उसके साथ धोखे पर धोखा करते ही चले जाते हैं। और सबसे ख़राब तब होता है जब आपको इस बात का अहसास होता है कि आपने कोई धोखा किया है मगर फिर उसे छुपाने की कोशिश में आप लगातार और धोखे करते चले जाते हैं। एक झूठ को बचाने के लिए सौ झूठ, वैसे ही एक धोखे को बचाने के लिए सौ और धोखे।

पापों का अम्बार खड़ा होता चला जाता है और फिर अंत में जब अहसास होता है तो फिर पीछे मुड़ कर सब कुछ ठीक कर देने की स्थिति से आप बहुत आगे निकल आते हैं। अब सिर्फ मौकों की तलाश रहती है कि कब कोई ऐसी स्थिति आये और आप अपने पापों का प्रायश्चित कर पाये। कहानी के नायक को अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए मौका मिल जाता है मगर आप, आप बस इंतज़ार करते चले जाते हैं कि कब वो मौका आये और आप अपने पापों को धो पाएं, उस विश्वास को, उस प्यार को, उस भरोसे को जिसे आपने बहुत पहले खो दिया है उसे वापस जीत पाएं। बस उस मौके की तलाश में... 

  

Wednesday, January 29, 2014

डेढ़ इश्क़िया


तकरीबन चार साल बीत गए हैं। इसी ब्लॉग में एक पोस्ट लिखा था फ़िल्म इश्क़िया के बारे में और फ़िल्म देखने के बाद याद आये अपने कॉलेज के शुरूआती दिनों के बारे में। फ़िल्म में खुल कर देशी पुरबिया गालियों के प्रयोग से लेकर सूती साड़ी में लिपटी विद्या बालन का गज़ब का सेक्सी दिखने तक ने बड़ा ही प्रभावित किया था। कुछ सालों बाद जब फ़िल्म के सीक्वल बनने की बात सामने आयी तब से ही इस नयी फ़िल्म को देखने की बड़ी तमन्ना दिल में थी। काफी इंतज़ार के बाद जब डेढ़ इश्क़िया रिलीज हुई तो सिनेमा हॉल में जाकर इस फ़िल्म को देखने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया।

फ़िल्म की कहानी पिछली फ़िल्म की तरह ही उत्तर प्रदेश में आधारित है। फ़िल्म की शुरुआत फिर से उसी कब्रिस्तान से होती हैं जहां से पिछली फ़िल्म की शुरुआत होती है। खालू जान और बब्बन एक बार फिर अपने सरदार मुश्ताक़ के कब्जे में हैं और बब्बन अपनी आखिरी ख्वाहिश में फिर से वही लतीफा सुनाता है। वही दो साधू तोते और गालियां बकने वाली तोती की कहानी। इस बार कहानी एक पायदान आगे तक पहुँचती है मगर फिर भी जाते जाते फ़िल्म की आने वाली कहानी के बारे में इशारा करती हुई ही जाती है। दर्शक समझ चुका होता है कि फिर से इन दोनों की ज़िन्दगी में कोई औरत तूफ़ान लाने वाली है। तूफ़ान की शुरुआत होती है वहीँ कब्रिस्तान में जहां मुश्ताक़ के चंगुल से दोनों उसकी ही गाड़ी में फरार हो जाते हैं और शुरू होता है भागम-भाग और चोरी-छिपे के खेले के बीच एक नया सस्पेंस।

पिछली फ़िल्म का गोरखपुर का बैकड्रॉप इस बार उठकर पहुँचता है नवाबों कि नगरी लखनऊ के पास एक छोटे से कसबे महमूदाबाद में। इसके साथ ही पुरबिया की खालिस क्रुडनेस इस बार बदल जाती है नवाबों की अदबियत में। बेग़म पारा के सालाना जलसे में उनका दिल जीतने की तमन्ना लिए हुए आये नवाबों में एक खालू जान भी शिरकत करते हैं। पहली फ़िल्म में खुले आम गालियां बकने वाला खालू इस बार शायरी करता हुआ नज़र आता है। बेग़म पारा की खूबसूरती में फ़िदा हुआ खालू बब्बन के साथ एक शाजिश में धँसता चला जाता है। पहली फ़िल्म की तरह ही इश्क़ करने की फितरत में इस बार फिर बेमतलब दूसरों के फटे में टांग अड़ाते हुए दोनों नयी नयी मुसीबत में फंसते चले जाते हैं।

सीक्वल होने के कारण सस्पेंस थोड़ा कमजोर होता लगता है और कहानी का पूर्वाभाष काफी हद तक हो जाता है। इसके बावजूद डेढ़ इश्क़िया पहली फ़िल्म की तरह ही प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहती है। विशाल भरद्वाज की चिर-परिचित शैली में बनी यह noir-comedy फ़िल्म भी रंग जमाती हुई अपनी छाप छोड़ती है। संगीत और गाने हालांकि पिछली फ़िल्म से काफी कमजोर हैं और कहीं से भी गुलज़ार-विशाल भरद्वाज की जोड़ी के नाम के साथ न्याय नहीं करते। फिर भी सब मिलाकर पिछले काफी दिनों के बाद एक ऐसी फ़िल्म देखने का मौका मिला जिसे देखकर काफी अच्छा लगा। अब तो बस डेढ़ के बाद ढाई इश्क़िया के इंतज़ार में.… 

Saturday, January 11, 2014

"नानी तुम सच में चली गयी?"

शाम के लगभग पौने सात-सात बजे होंगे। दिन भर किसी सेमिनार से थका-हारा हॉस्टल के अपने कमरे में घुसा ही था। मोबाइल को चार्ज में लगा कर पलटा ही था कि उसी मोबाइल की रिंग बज उठी। पापा का फ़ोन था। शाम के उस समय में उनका फ़ोन आना थोड़ा अटपटा लगा था। फ़ोन उठाया और पापा के हेल्लो बोलने के अंदाज़ ने ही मन में थोड़ी बेचैनी पैदा कर दी थी। फ़ोन पर आने वाली आवाज़ में एक अजीब तरीके की मनहूसियत का अहसास हो रहा था। माहौल के ग़मज़दा होने का बोध बिना कुछ बोले ही हो रहा था। कुछ अटपटी अनहोनी की आशंका ने अभी मन में घर करना शुरू किया ही था कि पापा की आवाज़ आयी। 'नानी नहीं रहीं'। इसके आगे न पापा ने कुछ कहा और न मैंने ही कुछ और सुनने की कोशिश की। फ़ोन रख दिया।

एक दिन पहले फ़ोन पर मम्मी से बात हुई थी। नानी की तबियत पहले से ठीक हुई है, मम्मी ने बताया था। थोड़ी परेशान थी। बोल रही थी कि नानी अब ज्यादा दिन बचेगी नहीं। बेचैन थी, बोली एक बार जाकर मिलने का मन कर रहा है।  जल्दी ही जाने का प्रोग्राम बन रहा था। पापा के इस फ़ोन से अचानक एक दिन पहले की ये बातें याद आयी। कहते हैं कई बार यूँही कह दी गयी बात भी भगवान सुन लेता है और बात सच हो जाती है। अगले ही पल मन से एक धिक्कार भगवान के नाम की निकली। तुझे सुनना ही था तो ये बात। फिर याद आया कि इस खबर से मम्मी की क्या हालत हो रही होगी, और मैंने पापा से पूछा भी नहीं। तुरंत पापा को फ़ोन किया और बोल दिया कि मैं आ रहा हूँ। सोचा अभी स्टेशन चला जाउंगा तो किसी न किसी ट्रेन से सुबह तक पहुँच जाऊँगा। 

एक घंटे बाद ट्रेन में बैठा था। बिना रिजर्वेशन के। टीटी को कुछ पैसे दिए और एक सीट मिल गयी। रात भर का समय यूँही बैठे-बैठे कट गया। सोच रहा था कि नानी से तो कभी भी इतनी नजदीकी नहीं थी, फिर भी इतनी बेचैनी कैसे। फिर लगा जिनसे खून का रिश्ता होता है उनसे नजदीकी उनकी गोद में खेलकर या बैठ कर उनके साथ बातें करने से नहीं होती। खून का रिश्ता आखिर खून का ही होता है। कोसों दूर सात समंदर पार रहने वाला इंसान भी हमेशा अपनी बगल में ही महसूस होता है। कुछ ऐसा ही रिश्ता मेरा नानी के साथ था। 

शायद ही हमारे देश में कोई ऐसा बचपन होगा जो बिना नानी की कहानियों के बीता होगा। मेरा बचपन कुछ ऐसा ही था। बचपन में कहानियाँ तो कई सुनी, मगर नानी से एक भी नहीं। कहानियाँ नाना जी ही सुनाते थे और इसलिए घनिष्ठता उनसे ही अधिक थी। नाना जी के रहने से नानी के वहाँ नहीं होने की कोई कमी नहीं खलती थी। फिर क्यूँ आज नाना जी के रहते हुए नानी के चले जाने से इतनी बेचैनी हो रही है। आखिर समय पर खाने-पीने का पूछने के अलावा नानी से कभी और बात भी नहीं किया। फिर भी ट्रेन में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि कल जब बथुआ पहुँचूँगा तो अपने कोठरी के चौखट पर बैठी, इंतज़ार करती हुई नानी वहाँ नहीं होगी। कैसा लगेगा वो खाली चौखट!

सुबह जब बथुआ पहुँचा तो नानी वहीँ थी। अपने उसी कोठरी के चौखट के पास। बैठी नहीं थी, लेटी हुई थी। आँखें बंद, मानो गहरी नींद में सोती हुई। मम्मी वहीँ पास में बैठी रो रही थी। आँखों ने सबसे पहले नाना जी को ढूँढा था। बाहर कुर्सी पर बैठे रो-रोकर बुरा हाल हो रखा था। आधी सदी से ज्यादा वक़्त जिसके साथ बिताया था वो उन्हें छोड़कर चली गयी थी। आँखों से निरंतर आंसू मेरे भी निकल रहे थे। नानी के चले जाने का ग़म ज्यादा था या नाना जी की बची हुई ज़िन्दगी के खालीपन की तकलीफ ज्यादा थी, यह बात आज भी समझ नहीं आयी।

अर्थी को कांधा देकर श्मशान तक पहुँचाना और फिर उसे चिता पर रख कर आग लगा देना बड़ा अज़ीब लग रहा था। जब बांस काटकर उसका बल्ला बनाकर बचपन में खेलता था तो यही नानी मारे चिंता के न जाने कितनी बार टोकती थी कि ध्यान से कहीं हाथ न कट जाये। आज उनको ही कटे हुए बांस की बनी अर्थी पर लिटा दिया। आग की लपटों में देखकर ऐसा लग रहा था कि मेरा कोई हिस्सा जल रहा हो। दुनिया की भी क्या अजीब रीत है! जिस बेटे को माँ ज़िन्दगी भर हर तरह के तकलीफों से दूर रखती है, जिसके लिए सारा दुःख-दर्द अपने ऊपर ले लेती है उसी बेटे के लिए सबसे बड़ा पुण्य का काम उस माँ को आग देना होता है। फूट-फूट कर रोते हुए नानी को आग देते हुए मामू का वो चेहरा आज भी भुलाये नहीं भूलता। उनके मन में क्या चल रहा होगा। अपनी माँ को आग की लपटों में डाल देने की शक्ति उनमें कहाँ से आयी होगी। अपनी माँ को जलते हुए देखकर उनका खुद का कितना बड़ा हिस्सा जल कर ख़ाक़ हो गया होगा।

किसी के चले जाने से दुनिया रुक नहीं जाती। कुछ समय के लिए जीवन अधूरा जरुर लगता है मगर ख़त्म नहीं होता। ऐसी ही बातें ऐसे समय में अपने आप का ढांढस बढ़ाने के काम आती हैं, अपने आप को साहस देती हैं। नानी जा चुकी थी। राख बनकर वहीँ श्मशान की मिट्टी में मिल चुकी थी। पूरी ज़िंदगी जितना उनके साथ बिना बात नहीं किये हुए बिता दिया, उसकी भरपाई करने की इच्छा अब उनके जाने के तीन-साढ़े तीन महीने बाद भी होती रहती है। हर वक़्त जब भी नानी का चेहरा आँखों के सामने आता है, कई सवाल मन में उठने लगते हैं। अंतिम सवाल हमेशा एक ही होता है, "नानी तुम सच में चली गयी?"     
         

Thursday, January 09, 2014

कन्फेशन!

उफ्फ़! फिर वही कन्फेशन। एक पूरा साल बीत गया। कभी अंदाजा ही नहीं लगा। इतने दिन बीत गए इधर आये हुए। ऐसा कुछ भी नहीं कि 13 अंक से कोई नफरत हो या वैसा कुछ अंधविश्वास कि 2013 में कुछ काम ही न करूँ। वक़्त के लहरों में न जाने कब पूरा एक साल बह निकला, इसका अहसास ही कभी नहीं हो सका। पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग की याद आ रही थी और आज जब इस ओर आना हुआ तब जाकर पता चला कि यहाँ कभी अच्छा-ख़ासा समय बिताने वाला मैं पिछले पूरे साल में कभी आया ही नहीं।

हर बार जब भी इस तरह का एक बड़ा अंतराल आया है तो कहीं न कहीं मन में सवाल उठते हैं इस ब्लॉग की जरुरत को लेकर। आत्मचिंतन करने को मन विवश हो उठता है और सबसे बड़ा सवाल इस ब्लॉग के पूरे अस्तित्व को लेकर ही उठ खड़ा होता है। आखिर वह कौन सी जरुरत थी या ऐसा क्या शौख था कि इस ब्लॉग पर मैं कभी इतना समय बिताया करता था। और अब मेरी ज़िन्दगी में ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं कि न अब वो जरुरत रही और न ही वो शौख।

हालांकि, क्रिएटिविटी हमेशा से अकेलेपन की नाजायज़ औलाद की तरह रही है। इस ब्लॉग पर मेरी क्रिएटिविटी, मगर, सबसे ज्यादा उन दिनों में ही रही जब मैं घर में रहता था, कॉलेज में पढाई कर रहा था और दोस्ती और रिश्तेदारी अपने चरम पर थी। आज अकेला हॉस्टल में रहता हूँ। दोस्ती सीमित है और रिश्तेदारी एसटीडी फ़ोन कॉल्स पर निर्भर रह गयी है। फिर भी कभी ब्लॉग्स का ख्याल मन में नहीं आया, ये थोड़ा अचंभित करने जैसा लगता है।

ब्लॉग नहीं लिखने का कारण हमेशा एक ही बहाने पर थोपता रहा हूँ। लिखने को कुछ था ही नहीं। इस बार ये बात हज़म होने वाली नहीं लगती। एक आदमी की ज़िन्दगी में पूरे एक साल से भी ज्यादा के समय में कुछ महत्त्वपूर्ण हुआ ही नहीं हो, ये कहीं से नहीं पचता। व्यक्तिगत ज़िन्दगी से लेकर पारिवारिक और सांसारिक ज़िन्दगी में कई बदलाव पिछले पूरे साल ने देखे। 6 साल पुराने प्यार की शादी ठीक होने से लेकर साल के अंत में शादी होने तक की पूरी यात्रा ही ब्लॉग पर बार बार आने के लिए काफी थी। परिवार की कुछ दुःखद घटनाओं का दर्द भी यहाँ बांटा जा सकता था, मगर नहीं।

वक़्त नहीं मिला का बहाना भी नहीं चल सकता इस बार। जितना वक़्त इंटरनेट की गोद में इस पूरे साल में बीता है उतना शायद ही कभी और बीता होगा। बैठे बैठे Youtube पर न जाने कितने विडियो देख डाले। फेसबुक पर इतना समय बिताया कि अब ऊब सी हो गयी है और दिन में कभी कभार कुछ पलों के लिए ही उधर जाता हूँ और बंद कर देता हूँ। शायद उसी ऊबाई का नतीजा है कि फिर से ब्लॉग की तरफ आने का मन किया।

देश दुनिया की ख़बरें पिछले साल ऐसी रही जिसने सोचने को मजबूर किया। अन्ना के आंदोलन से आप के अस्तित्व में आने तक और फिर उसी आप की ऐतिहासिक जीत ने मन में कई सवाल खड़े किये। उन सवालों या उनसे जुड़ी स्थितियों पर अपने नजरिये के साथ कई बार ब्लॉग पर आया जा सकता था, लेकिन नहीं।

इसके पहले भी कई बार इस ब्लॉग के साथ मैंने बेवफाई की है। हर बार वादे के साथ लौटा हूँ कि ये एक नई शुरुआत है। हर बार उम्मीद रही है कि आगे ऐसा मौका नहीं आने दूंगा। उम्मीद इस बार भी है मगर वादा इस बार नहीं करूंगा। कहीं न कहीं वादाखिलाफी के डर से ज्यादा भरोसा अपने आलसीपने पर है जो शायद फिर से मुझे मेरे ब्लॉग से दूर ले जाये। इसी डर और भरोसे की ज़ंग के बीच उम्मीद करता हूँ इस ब्लॉग पर क्रिएटिविटी ज़िंदा रहे.…