Monday, November 05, 2012

वो सब कुछ!


कमरे में अकेला,
पलंग पर करवटें बदलता,
घड़ी की टिक-टिक सुनता,
कोसता उस आवाज़ को
जो याद दिला रही थी उसे
बीते हुए वो दिन, वो पल,
वो सब कुछ।

वो चेहरा, वो मुस्कराहट,
बड़ी सी मुस्कुराती आँखें
शरारत से लबालब,
होठों के नीचे वो काला तिल,
तिल पर टिपटिपाती उंगलियाँ,
वो छोटी छोटी प्यारी उंगलियाँ,
उन्हें अपने हाथों में लेना
अपनी उँगलियों में उन्हें समाना
जैसे अपनी रूह में समाना उसे,
वो सब कुछ।

घड़ी की वही टिक-टिक
याद दिला रही थी उसे,
आज का उसका अकेलापन
दिल का उसका वही खालीपन।
कोशिश करता था वो
उस खालीपन को भरने का
उन्ही यादों के सहारे
उन हर खूबसूरत पलों के सहारे
जो साथ बिताया था उन्होंने,
लड़ते, झगड़ते, हँसते, खेलते,
साथ में।

कितने प्यारे थे वो दिन,
न जाने कहाँ चले गए।
आज सब धुंधला था,
वो चेहरा भी, वो मुस्कराहट भी,
वो आँखें भी, शरारत की जगह
अब आंसुओं से लबालब,
छोटी छोटी वो उंगलियाँ
तड़पती अपने आप को समाने।
वो सब कुछ।

सब कुछ धुंधला था,
आँखों में नमी थी
या सामने धुंध था,
जो भी हो,
एक उम्मीद थी,
नमी हटेगी कभी
धुंध छंटेगा कभी।
वो चेहरा, व मुस्कराहट
सब साफ़ दिखेंगे कभी,
फिर से घड़ी की सुइयां
लायेंगी वापस वही समय,
वहीँ, जहाँ शुरू हुआ था सब कुछ।
हाँ, वो सब कुछ! 

Tuesday, October 23, 2012

एक और मौत, फिर वही बेचैनी और फिर वही दौड़ती भागती ज़िन्दगी

शाम के साढ़े चार बजे थे। सुबह वार्ड की थकान को मिटाने वो आराम से अपने कमरे में सो रहा था। दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ चल रही थी। वार्ड में ज्यादा पेशेंट थे नहीं। पिछले हफ्ते जिनका ओपरेशन हुआ था वही 3-4 बचे थे बस। एक को छोड़कर सब स्टेबल हो गए थे। एक की हालत थोड़ी गंभीर बनी हुई थी, बेड नंबर 61। उसी के चक्कर में सुबह से 3-4 दफे वार्ड के चक्कर लगाने पड़े थे। उसी की थकान थी जो अमूमन दिन में कभी न सोने वाला वो आज सो रहा था। तभी वार्ड से फ़ोन आया। सिस्टर ने इन्फॉर्म किया था, 61 नंबर की हालत बहुत ख़राब थी। जितनी जल्दी हो सका वो वार्ड में था। 61 नंबर अपनी आखिरी सांस ले चुका था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था। आज सुबह हालत गंभीर थी मगर फिर भी बातें कर रहा था। खराब होने की उम्मीद थी मगर इतनी जल्दी हो जायेगा इसका अहसास नहीं था। दुबारा ओपरेशन करने के बारे में अभी सोचना शुरू ही तो किया था। मौत को भी न जाने कौन सी हड़बड़ी थी, शायद शाम में महा-अष्टमी के मेले में पंडालों में घुमने जाना था उसे।

मौत की फोर्मलिटी पूरी करके वो वापस अपने कमरे में आ चुका था। दुखी, अकेला और एक हद तक सन्न। जब से इस पेशे में आया है, कई मौतें देख चुका है। कोई नयी बात नहीं थी। फिर भी एक अजीब किस्म की बेचैनी थी। शायद उसकी मौत का जिम्मेदार एक हद तक अपने आप को मान रहा था। शायद वो उसे बचा सकता था। मगर कैसे। दिल था जो कह रहा था कि ये संभव था, दिमाग जानता था ऐसी मौतों को टाला नहीं जा सकता। लाख पन्ने पढने के बाद भी कभी कभी दिल दिमाग पर इस कदर हावी हो जाता है कि दिमाग की सोचने की शक्ति जाती सी लगती है। ये ऐसा ही एक समय था, जब दिल दिमाग पर हावी हुआ जा रहा था।

कमरे में बैठा वो उस दिन को याद कर रहा था जिस दिन वो पेशेंट वार्ड में एडमिट हुआ था। एक गोरा-चिट्टा भरा-पूरा अच्छे घर का दिखने वाला 46 साल का आदमी। उसने खुद बताया था, "डाक्टर बाबु! पेट में कैंसर है। शरीर में खून भी ख़त्म हो गया है। बिना खून के ओपरेशन कैसे होगा। ऊपर से हार्ट का भी रोग है। ज़िन्दगी बर्बाद हो गया है। खाली अस्पताल और डाक्टर लोग का चक्कर। एकदम परेशान हो गए हैं।" होठों के किनारों में एक मुस्कराहट आ गयी थी। शरीर में खून ख़त्म हो गया है की बात से। मैंने कहा था, "खून नहीं रहता शरीर में तो जिंदा थोड़े रहते। कुछ नहीं होगा, खून चढ़ेगा, ओपरेशन होगा, ठीक हो जाईयेगा एकदम। चिंता नहीं करिए।"

वही चेहरा बार बार उसकी आँखों के सामने आ रहा था। आँखें बंद करता तो बेड के किनारे नीचे  बैठकर चीत्कार करती पेशेंट की पत्नी याद आती। दिन भर भूखा-प्यासा खून के इंतज़ाम के लिए दौड़ता उस पेशेंट का बेटा याद आता जो अपने बाप की मौत की खबर सुनते वही वार्ड में ही बेहोश हो गया। वो सारी आँखें उसे अपनी ओर उठती और सवाल करती दिखती थी। विचलित करती, उसे परेशान करती। उसका दिल उन सभी आँखों का गुनाहगार उसे ठहरा रहा था। एक बेचैनी उसके मन में घर कर रही थी। तकरीबन आठ बज गए थे। बाहर महा-अष्टमी के मेले की धूम शुरू हो चुकी थी। चारों ओर से लाउड-स्पीकर की आवाज़े कानों में आ रही थी। घुमने जाने का प्रोग्राम उसका भी था, दोस्तों के साथ, मगर दिल इजाज़त नहीं दे रहा था।

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रात के दो बज चुके थे। थका-हारा वो अपने कमरे में आ चुका था। बंगाल में आया और दुर्गा पूजा का मजा नहीं लिया तो क्या किया। यही बोलकर उसके दोस्त उसे उठाकर घूमने ले गए थे। माँ के पंडाल, पंडालों की भीड़ और भीड़ में बंगालन सुंदरियां। जब कॉलेज के दोस्त साथ होते हैं तो सुंदरियां अजेंडे में सबसे ऊपर होती है। हमारे अजेंडे में वो सबसे ऊपर नहीं थी, क्यूंकि उन्हें छोड़कर अजेंडे में कोई था ही नहीं। थोड़ी मस्ती हुई, घूमकर सब वापस आये। दिल शांत हो चुका था। दिमाग ने एक बार फिर दिल के ऊपर जीत हासिल की थी। मन मान चुका था कि कई बार सब कुछ करने के बाद भी मौत को टालना अपने हाथ में नहीं होता। मौत सबसे ऊपर है, सबसे ताक़तवर। ये एक जीवन-चक्र है, हमारी ज़िन्दगी का। रोज़ नए पेशेंट आयेंगे। मीठी-मीठी बाते होंगी, इलाज़ होगा। कई ठीक हो जायेंगे, कई मौत के साथ अपनी जंग हार जायेंगे। कुछ को मौत जंग लड़ने का मौका भी नहीं देगी, यूँही साथ लेकर चली जाएगी। जैसे उसे ले गयी थी, बेड नंबर 61 को।


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आज वार्ड से लौटकर जब ये ब्लॉग लिखने बैठा हूँ तो सोच रहा हूँ, मौत कितनी कमीनी होती है। कभी भी किसी को भी अपने साथ उठाकर ले जाती है, और हम कुछ कर नहीं पाते। थोडा उदास होते हैं, कभी कभी थोड़ी बेचैनी भी होती है, मगर कितनी देर। इस पेशे में हूँ तो शायद ज्यादा देर उदास होने या बेचैन होने की इजाज़त भी नहीं है। मगर क्या इस पेशे का नाम लेकर इंसानियत से दूर हुए अपने अहसासों को सही ठहराना खुद सही है। एक ऐसा पेशा खुद चुना है जिसमे ज़िन्दगी और मौत की ये लड़ाई हर रोज़ चलती मिलेगी और उसमे रेफरी के अपने किरदार को हमेशा निभाना पड़ेगा। युद्ध शुरू होने के पहले की अर्जुन की दुविधा कही न कही हमारे पेशे में भी घर करती मिलती ही है। फर्क सिर्फ इतना रह जाता है कि अर्जुन को खुद बाण चलाने थे और वो भी अपने भाइयों पर। हमें बाण नहीं चलाना होता। हमें जिनकी चिंता होती है वो हमारे अपने भी नहीं होते। मगर फिर भी। एक पेशेंट के लिए भगवान के बाद का दर्जा हमें दिया जाता है। जिसकी तकदीर में वो मौत लिख देता है, उसे भी हमारे पास भेजता है। शायद हमें ये याद दिलाने कि हम भगवान नहीं, उसके बाद दुसरे नंबर पर ही हैं।    

Wednesday, October 17, 2012

फिर से लिखेगा वो!!!

कमरे में वो अकेला बैठा हुआ था। न जाने कितनी देर से। बाहर धीरे धीरे अँधेरे ने घर कर लिया था और उसे इसका अंदाजा तक न लग सका। कानों में इयरफोन लगाए लैपटॉप के आगे बैठा गाने सुन रहा था, गुलाल फिल्म के। गीत के भयानक बोलों में खोया था या किसी और उलझन में, पता नहीं। बस समय का अंदाजा नहीं लग रहा था उसे। यूँही बैठा लैपटॉप खोले अपने ही ब्लॉग के पुराने पोस्ट्स पढ़ रहा था। वहीँ बिस्तर पर बगल में वो नोवेल भी रखी थी जिसे उसने लगभग 3-4 महीने पहले पढना शुरू किया था मगर चंद पन्नों के आगे कुछ भी नहीं पढ़ पाया। कुछ सोच रहा था। शायद खुद को उलाहने भी दे रहा था।

वो भी क्या समय था। लैपटॉप पर बैठा ब्लॉग खोलता और शब्द यूँही निकलने लग जाते। कभी अपनी मनःस्थिति के बारे में तो कभी आस-पास की गतिविधिओं के बारे में। कुछ भी। बस लिखता रहता था। 2 साल हो गए। ढंग से कुछ भी नहीं लिखा था उसने। ब्लॉग मर सा गया था उसका। और शायद उस मरे हुए ब्लॉग के सामने बैठा उसी के शोक में डूबा हुआ था। कई बार समय की कमी का बहाना बनाया, कई बार प्रायोरिटी लिस्ट में ब्लॉग के काफी नीचे होने का हवाला भी दिया। बहानों की कभी कोई कमी नहीं रही। बहाने कोई भी हो, परिणाम एक ही था। एक ही तो भली आदत थी उसकी, उसने उसे भी आसानी से जाने दिया था। शायद उस आदत की ही यादों में कहीं खोया हुआ था।

ज़िन्दगी चलते चलते काफी आगे निकल गयी थी। ज़िन्दगी के साथ चलता तो साथी छूट जाते थे और साथ निभाता था तो ज़िन्दगी भागती चली जाती थी। अजीब उधेड़बुन में फंसा हुआ था। न घर का न घाट का। ज़िन्दगी की जद्दोजहद ने उसे कही अलग अकेला लाकर खड़ा कर दिया था। जिसके सहारे ज़िन्दगी जीने के सपने देखे थे उसने, वो तो कहीं पीछे ही छूट गयी थी। बहुत पीछे। पीछे मुड़कर उसे पुकारता तो भी वो सुन नहीं पाती। समय ने एक ऐसी खाई खड़ी कर दी थी जिसे पाटना तो दूर, गहराई को बढ़ने से भी वो रोक नहीं पा रहा था। वही तो एक सहारा था जो उसकी हर आदत का आधार थी। जब आधार ही खो दिया था उसने तो आदतें कहाँ बचतीं।

पहले जब प्यार की बातें होती थी तो खुश रहता था। खुश रहता था तो यूँही सबकुछ अच्छा लगता था। अकेला बैठना भी तब अच्छा लगता था। कुछ करने का जी करता था। कुछ भी करता था। अक्सर लिखता था। जब तकरार होती थी, तब भी लिखता था। कभी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए, कभी मन की भड़ास निकालने के लिए। अक्सर लिखता था। आज न प्यार होता है, न ही तकरार। न खुश ही रहता है, न दुखी ही होता है। Indifferent सा हो गया है। अपनी तरफ, अपनी ज़िन्दगी की तरफ, अपने उस सहारे की तरफ। आदतें छूट गयी हैं।

दिल ही नहीं करता कुछ भी करने का। कहीं भी मन नहीं लगता। बस अकेला बैठा रहता है कमरे में। यूँही। खिड़की के बाहर अँधेरे को गिरता देखता रहता है। उस अँधेरे को जिसने उसके अन्दर घर कर लिया है। रातें उसे अपनी अपनी सी लगने लगी हैं। शायद रात के अँधेरे में वो अपने मन के अँधेरे को देखता है। सुबह होने की कोई चाहत नहीं बची है अब उसके मन में। अँधेरे की ऐसी आदत लगी है कि शायद सूरज की रौशनी अब उसकी आँखों को चौंधियाने के अलावा कुछ भी नहीं करती। आँखें बंद हो जाती है रौशनी में या कि वो खुदबखुद कर लेता है, पता नहीं। पर जो भी हो, बंद आँखों से वो रौशनी उसके अन्दर के अन्धकार को ख़त्म नहीं कर पाती। ख़त्म नहीं कर पाती या वो उसे ख़त्म करने देना नहीं चाहता, पता नहीं। शायद उसे उस पुरानी रौशनी का ही इंतज़ार है जिसने उसकी ज़िन्दगी को रौशन रखा था। इंतज़ार है उसे उसी रौशनी का। आएगी वो एक दिन उसके पास, उसके मन के अंधेरों में और ख़त्म होगा वो अँधेरा। फिर से रौशन होगी उसकी ज़िन्दगी, फिर से खुश होगा वो प्यार की बातों से। फिर से दुखी होगा तकरारों से। फिर से ज़िन्दगी जीना शुरू करेगा वो। फिर से लिखेगा वो!!!


Tuesday, February 21, 2012

काश.........काश.......काश!

शाम के 5 बज चुके थे........वो बेचैन सा हो रहा था.......लैब में बैठे बैठे कोई काम न था.........बस मैडम के जाने का इंतज़ार.....मन ही मन गालियाँ दे रहा था......कब जाएगी ये खूसट और कब निकलूंगा मैं बाहर. बाहर जाने की यूँ कोई हड़बड़ी नहीं रहती थी, पर उस दिन बेचैन था. वो जो आई हुई थी. बाहर लाइब्ररी में बैठ कर इंतज़ार कर रही थी उसका......पिछले आधे घंटे से........जुगत में बैठा था कि कब मैडम निकले और वो जाकर उससे मिले................सुबह सुबह फ़ोन पर झगडा जो हुआ था. ऐसे ही किसी बात पर कहा-सुनी हो जाना आम बात हो चुकी थी.........सुबह में झगडा और शाम में फिर मिल कर बात सलटा लेना अमूमन रोज़ की बात. उस रोज़ भी वो मुलाक़ात वैसी ही होने वाली थी और यही उसकी बेचैनी का कारण भी......
मैडम के कमरे में कुछ सुगबुगाहट शुरू हुई........मन को थोड़ी तसल्ली हुई कि अब बस थोड़े देर की ही बात है........वो खुश था. उसने मिस कॉल मार दिया..........5 -10 मिनटों में मैडम भी चली गयी. दौड़ता हुआ वो बाहर निकला. लाइब्ररी की तरफ जैसे ही कदम बढ़ाये, उस ओर से वो आती हुई दिखी.....
खुले हुए लहराते बाल, कुर्ते-जींस पहने हुए, होठों पर मुस्कान लिए वो उस ओर आ रही थी............उसने नोटिस किया, उसने बाल कटवाए थे. पूरे छोटे नहीं, किनारों से. उसे लम्बे बाल पसंद थे. उसका बाल कटवाना उसे अच्छा नहीं लगता था. न बाल खुले रखना. वो चाहता था कि हमेशा उसके बाल लम्बे ही रहे. उसे उसका जींस पहनना भी पसंद नहीं था. कई बार जाहिर भी कर चुका था ये बात...........यूँ बाल कटवा कर इस तरह से जींस में उसका आना उसे गंवारा नहीं गुजरा..........वो समझ नहीं पा रहा था कि सब कुछ जानते हुए भी क्यूँ वो आज सुलह करने इस तरह से आई थी........उसे कुछ समझ नहीं आया. वक़्त की नज़ाक़त और उसकी मुस्कान को देखकर उसने चुप रहना ही मुनासिब समझा..........कई बार ख़ामोशी एक ऐसी जरुरत बन जाती है जिसके सामने कोई शब्द मायने नहीं रखते........ये ऐसा ही समय था........वक़्त के ऊपर सब कुछ छोड़ते हुए वो भी मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ा.......
"काफी देर इंतज़ार करना पड़ा."
"नहीं लाइब्ररी में पढाई कर रही थी, इसलिए समय का पता नहीं चला."
"चाय पीना है?" 
"चलो."
न जाने कितनी दफे चाय इस तरह बातचीत के बीच समय काटने के लिए एक मजबूत हथियार बनेगा, वो सोच रहा था.........
"तुमने तो नोटिस भी नहीं किया, मैंने बाल कटवाए हैं."
"ह्म्म्मम्म.........मैंने किया..........कुछ बोलने को नहीं है उसपर इसलिए बोला नहीं.......यू नो, आई डोंट लाइक इट मच!"
"अरे, शौख से नहीं कटवाया है बाबा........बाल फूटने लगे थे नीचे.........नहीं कटवाती तो ये कभी नहीं बढ़ते."
"हम्म्म्म........मगर अचानक?........सुबह तो कुछ नहीं बताया."
"सुबह तुम्हारा मूड कहाँ था बात करने का..........कुछ बोलो तो उल्टा जवाब.........क्या बताती.........वैसे भी अचानक ही प्रोग्राम बना.........सब जा रहे थे तो मैं भी चली गयी..........जावेद हबीब में कटवाया है......99 रुपये में."
"गधा जनम छुड़ा ही लिया आखिर........हेयर डिजाइनर से कटवा कर.....अच्छा है.........बट, यू नो, आई स्टील डोंट लाइक ईट."
एक चाय, एक काफी और 2 मफिन लेकर वो काफी शॉप पर ही बैठ गए थे.......... बातों बातों में उसने बताया की बाल काटने वाले, उस पार्लर में, लड़के थे...........काफी की सिप मुंह की मुंह में और कप की कप में ही रह गयी. बात बर्दाश्त से बाहर हो चुकी थी. जींस पहनना, बाल खुले रखना, उन्हें कटवाना ये सब वो बर्दाश्त कर चुका था. लड़कों से बाल कटवाना उसे बर्दाश्त न हुआ..........जिन बालों में खुद ऊँगली फिराने की उसकी चाहत थी उन बालों को अभी थोरी देर पहले कोई लड़का घंटे भर संवार रहा था, इस सोच ने उसे अन्दर तक गुस्से से भर दिया. उसने उससे पूछना चाहा कि क्या उसे ऐसी सोच से कोई दिक्कत नहीं. बहुत कोशिश की अपने गुस्से को काबू में रखने की पर वो रख न सका. अंत में पूछ ही लिया उसने..........और जिस बात का डर था, वही हुआ...........जब जवाब नहीं के रूप में आया तो फिर उसके पास बोलने को कुछ नहीं बचा था. कुछ और बात करने को उसका दिल नहीं हो रहा था..........
सुबह के झगडे को सुलझाने वाली मुलाक़ात, खुद एक झगडे का सबब बन कर रह जाएगी, वो नहीं जानता था.........बड़ी कोशिश की उसने खुद को समझाने की कि ऐसा होता है आज के युग में. वो कल की बात थी जब लड़कियां लड़कों के सलून में नहीं जाती थी और लड़के लड़कियों के. आज दोनों के लिए एक ही पार्लर होते हैं.............लाख कोशिशों के बावजूद भी वो खुद को समझा न सका..........खुद पर धिक्कार करने की भी कोशिश की कि छोटे शहर की छोटी सोच के साथ ही जियेगा, मगर जितना धिक्कार करता उतना ही उस सोच पर उसे गुमान होता..........आखिर मध्यम-वर्गीय परिवार से आने का उसे गर्व जो था. वो चुप नहीं रहा............बाते हुई, झगडे बढे.........भावनाओं को ठेस पहुची........दोनों तरफ..........जो मुलाक़ात सुबह के झगडे को ठीक करने के लिए शुरू हुई थी वो खुद एक ऐसे झगडे का रूप ले चुकी थी जिसका अंत उसके उठ कर वापस अपने घर चले जाने से हुआ. जींस पहनने पर तो कोई बात भी नहीं हो सकी. वो खफा थी. उसकी छोटी सोच से.......उसके मध्यम-वर्गीय ढकोसलों से..........उसकी बातों से...........अपने ऊपर उसके विश्वास की कमी से..........


कुछ दिन बाद:
वो पहले से तय प्रोग्राम के मुताबिक़ शहर छोड़कर अपने घर वापस जा चुकी थी.........इसे यही रहना था..........इसी शहर में, इसी लैब में.........वो इसी कैम्पस में था...........रोज़ लैब जाता था........सुबह फ़ोन पर थोड़ी बात होती थी........झगडा सुलझ चुका था.......रोज़ 5 बजते थे........बेचैनी रोज़ होती थी........मिलने की नहीं, इस बात की कि आज बाहर कोई मिलने वाला नहीं होगा..........रात को लाइब्ररी में अकेले अपने लैपटॉप और किताबों के साथ घंटों बैठता था...........बाहर निकलेगा तो फ़ोन पर कोई बात करने वाला न होगा, इस सोच से डर जाता था..........बाहर निकलता था तो हर ज़र्रा उसे उसकी याद दिलाता था........उस पेड़ के नीचे बैठ कर कभी प्यार की तो कभी तकरार की बाते करते थे.......वहां वो फिसल कर गिर रही थी तो उसने हाथ थाम कर उसे रोका था..........उस कैंटीन में बैठ कर शाम का नाश्ता करते थे..........बाते करते हुए इसी रास्ते से रात के 2-3 बजे लाइब्ररी से निकल कर काफी पीने जाते थे.........वो काफी शॉप, जहां न जाने कितनी बाते हुई है, कितने झगडे हुए हैं, कितने झगडे सुलझे हैं........सब कुछ..........वही काफी शॉप जहां वो अंतिम झगडा भी हुआ था..........उस सोच का झगडा.........क्या वो झगडा जरुरी था, क्या वो उसे समझ नहीं सकता था या क्या उसने झगडा करके कोई गलती की थी..........क्या इसकी पसंद-नापसंद को समझने का उसका कोई फ़र्ज़ न था..........क्या उसने इसका विश्वास तोड़ा था.........न जाने कितने सवाल मन में आते हैं और चले जाते हैं........बस रह जाती है एक कचोट की काश साथ रहने के उन अंतिम कुछ दिनों में वो झगडा नहीं करता. ...........काश.........काश.......काश!



Saturday, February 04, 2012

वो चीखता है


वो हँसता था, खिलखिलाता था,
झूमता था, गाता था, गुनगुनाता था,
दोस्ती थी, प्यार था,
मस्ती थी, तकरार था.
वो जिंदा था, क्यूंकि,
वो ज़िन्दगी को जीता था.

हँसता वो आज भी है, मगर,
वो हँसी कही खो गयी.
खिलखिलाना वो भूल गया है,
झूमना, गाना, गुनगुनाना
उसकी आदत नहीं रही.
दोस्त हैं, प्यार है, मगर.
वो प्यार वो दोस्ती नहीं रही.
जिंदा वो आज भी है,
पर ज़िन्दगी जी नहीं पाता. 

अकेला, गुमसुम, चुपचाप,
जब बैठता है तो रोता है,
सब के साथ होता है तो
बस सांस लेता है, क्यूंकि, जिंदा है.
अक्सर चिल्ला उठता है, चीखता है.

एक गुस्सा है, मन में, आग है.
एक विस्फोट होने की आहट है.
ऐसा विस्फोट जिसकी गूंज
उसे खुद बहरा कर देगा,
वो जानता है.
वो समझता है,
एक ऐसा विस्फोट जो 
आस पास सब ख़त्म कर देगा,

इसलिए रोकता है, रोके रहता है.
दिल के हर कोने में
गुस्से को छुपाने की जुगत में रहता है.
तड़पता है, सब कुछ सहता है,
नाकाम कोशिश करता रहता है
और अंत में चीख उठता है,
अपने दोस्तों पर, अपने प्यार पर.

वो कहते हैं, वो बदल गया है,
वो कुछ नहीं बोलता, बस सुनता है
बैठता है, सोचता है, ढूंढता है,
खुद को देखता है तो पाता है,
वो आज खुद का अक्स न रहा,
जो पहले था, अब वो शख्स न रहा.