Wednesday, October 27, 2010

फ़िल्में, परम्पराएं और इनका फ्यूजन!

आज का दिन हिन्दुस्तान में पत्नियों के लिए बहुत ही पवित्र और महत्वपूर्ण दिन था. करवा चौथ का व्रत, बिना पानी पिए चाँद के दीदार तक रहना और फिर चाँद के साथ अपने पति को देख कर उस व्रत को तोड़ना, भारत के एक बड़े हिस्से में पत्नियों के लिए एक महापर्व है. ऐसी परम्परा भारत में कब से चली आ रही है मुझे पता नहीं, मगर उत्तर और पश्चिमी भारत के एक बड़े भूभाग पर इस पर्व को बड़े चाव के साथ मनाया जाता रहा है. पत्नियां अपने पति के लिए (और आजकल के युग में प्रेमिका अपने प्रेमी के लिए भी), दिन भर का अनुष्ठान उठाती हैं और शाम होने पर चाँद के दीदार के साथ उसी पति (या प्रेमी) के हाथों से पानी का घूँट पीकर इस व्रत को तोड़ती हैं.
मेरे लिए ये व्रत थोडा अनजाना सा है. बिहार से ताल्लुक रखता हूँ और अपनी छोटी सी ज़िन्दगी में बिहारी परम्पराओं को जितना देखा है उस हिसाब से मेरा इस व्रत के प्रति अनजानापन कोई अचम्भा नहीं है. बिहार में मैंने कभी इस पर्व को मनाते न अपने घर में देखा है न अड़ोस-पड़ोस में. हमारे यहाँ इस पर्व की ही तरह का एक दूसरा पर्व औरतें मनाती हैं जिसे हम 'तीज' कहते हैं. पूरे 24 घंटे तक बिना पानी पिए रहने का ये अनुष्ठान अगली सुबह को ही ख़त्म होता है. जो थोड़ी बहुत जानकारी करवा चौथ के बारे में मुझे है, वो अखबारों और फिल्मों के ज़रिये ही पहुची है. हालांकि, इधर के सालों में अचानक इस पर्व ने हमारी क्षेत्रीय संस्कृति में भी जगह बनानी शुरी कर दी है. इस साल यहाँ के क्षेत्रीय अखबारों में भी इस पर्व को बड़ा स्थान दिया गया है. अचानक इस प्रकार एक ख़ास परंपरा हमारी पौराणिक संस्कृतियों में अपनी पैठ बनाती है तो मन सोचने को मजबूर ज़रूर होता है.
आज से 15 साल पहले शायद मेरे घर में कोई करवा चौथ के बारे में कुछ ख़ास नहीं जानता होगा. मगर, आज का दिन है कि सब जानते ही नहीं बल्कि इसको लेकर बाते भी होती हैं. हालांकि अभी तक इसे करना किसी ने शुरू नहीं किया है मगर इस बात को पूरी तरह ठुकरा नहीं सकता कि आने वाली पीढ़ी इस परम्परा को भी अपनी संस्कृति में आयात न कर ले. खैर, जिस प्रकार पिछले दशक-डेढ़ दशक में इस व्रत की व्यापकता बढ़ी है कहीं न कहीं कुछ कारण जरूर है. सोचते-सोचते बात हर दिशा से सिनेमा की तरफ ही आकर रूकती है.
तकरीबन 15 साल पहले 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' फिल्म आई थी. करवा चौथ का एक महत्वपूर्ण प्रसंग इस फिल्म में था. 'मेहँदी लगा के रखना' गीत इसी प्रसंग में फिल्माया गया था. फिल्म सुपर-डुपर हिट रही, गाना आज भी लोग गुनगुना रहे हैं और पंजाबी संस्कृति के इस महत्वपूर्ण पर्व से इस फिल्म ने पूरे भारत को अवगत करा दिया. उसके बाद 'कुछ कुछ होता है', 'कभी ख़ुशी कभी ग़म', 'हम दिल दे चुके सनम' जैसी सुपर हिट फिल्मों ने इस पर्व को एक नयी लोकप्रियता दे दी. रही सही कसर टीवी सीरियलों ने पूरी कर दी. आज के दिन हर सीरियल में करवा चौथ ही मनाया जा रहा है.
फिल्मों की हमारी संस्कृति के ऊपर पड़ रहे प्रभावों का एक सजीव उदाहरण करवा चौथ की बढती लोकप्रियता रही है. फिल्मों ने पहले भी हमारी पारंपरिक मिथकों पर प्रभाव डाला है. '70 के दशक में अचानक जो उछाल संतोषी माँ की लोकप्रियता के ग्राफ में आया वो अद्वितीय ही नहीं बल्कि अद्भुत भी है कि किस तरह एक फिल्म का प्रभाव इतने बड़े भूमंडल पर फैली मानव सभ्यता पर पड़ सकता है. हर ओर माँ संतोषी की धूम मच गयी. हालांकि संतोषी माँ दीर्घकालीन न बन सकी मगर फिर भी उन्होंने हमारे मानस-पटल पर एक अमिट छाप छोड़ दी है. संतोषी माँ के साथ-साथ फिल्मों ने हमें कई और क्षेत्रीय परम्पराओं से वाकिफ कराया है. शिर्डी के साईं बाबा की पॉपुलरिटी की तुलना आज हनुमान से की जा रही है और कई मायनों में उन्होंने हनुमान को पीछे छोड़ भी दिया है. वैष्णो देवी की बात करे तो जितना फायदा उन्हें फिल्मों ने, गुलशन कुमार ने, और T-Series ने कराया है उतना कोई नहीं करा सकता था. हमारी संस्कृति में आज साईं बाबा और वैष्णो देवी एक व्यापक स्थान बना चुके हैं, इसका सीधा सीधा कारण फिल्मों को ठहराया जा सकता है.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ आध्यात्म की दिशा में ही फिल्मे हमें कुछ नया पड़ोसती रही है. सबसे जीवंत उदाहरण Valentine's Day का है. आज से लगभग 15 साल पहले एक आम भारतीय को शायद इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. आज हालात कुछ ऐसे हो गए हैं कि गुरु नानक जयंती कब मनाई जाती है ये हमारे युवाओं को शायद याद न हो मगर valentine's day को भूलने की ज़हमत ये कभी नहीं उठा सकते. सब कुछ फिल्मों की ही देन है.
इतना सब कुछ लिखने के बाद मन में ख्याल आ रहा है कि इसमें दिक्कत ही क्या कि फिल्मे हमें इन परम्पराओं से वाकिफ करा रही हैं. कोई दिक्कत नहीं है. एक तरह से अच्छा है कि भारत के हर क्षेत्र के लोग इन फिल्मों के माध्यम से दूसरे क्षेत्र की परम्पराओं को समझ रहे हैं. क्षेत्रीय परम्पराओं के व्यापकता को बढ़ाने का इससे बढ़िया माध्यम हमें नहीं मिल सकता था. आज एक बिहारी होकर भी करवा चौथ के बारे में कुछ लिख रहा हूँ तो इसका श्रेय फिल्मों को ही जाता है. मगर फिर बात परम्पराओं की तरफ आकर रुक जाती है. जिस प्रकार इस नयी संस्कृति और पुरानी परम्पराओं का फ्यूजन हो रहा है, डर लगता है कि हमारी क्षेत्रीय पौराणिक धारणाएं दम न तोड़ दें. जैसे फिल्मों के जरिये यह संस्कृति एक फैशन बन कर उभर रही है, हो सकता है कि हमारी परम्पराओं को ये आउटडेटेड कर दें और हमारी नयी पीढ़ी उनसे वंचित होकर इस फैशन के बहाव में बह जाये. जिस प्रकार करवा चौथ पर अति-ध्यान दिया जा रहा है वो कभी न कभी बिहारी 'तीज' को लील लेने की क्षमता रखता है. और अगर ऐसा हुआ तो मुझे नहीं मालूम किसी को अच्छा लगेगा या नहीं पर पर उनमे मैं तो नहीं ही शामिल होऊंगा. इसलिए कह रहा हूँ कि नयी संस्कृति को अपनाने में कोई दिक्कत नहीं मगर इन्हें यदि अपनी सांस्कृतिक धरोहर की कीमत चुका कर अपनाया जाय तो दिक्कत ही दिक्कत है. भारत महान है क्यूंकि इसके हर क्षेत्र की एक अलग धरोहर है मगर फिर भी सब भारतीयता के एक धागे से जुड़े हैं, कोई अलग नहीं है, कोई जुदा नहीं है. इसलिए अपनी धरोहर को बचाए रखने का दायित्व हमारे ऊपर ही है!

Monday, October 25, 2010

जीवन का संघर्ष!


ज़िन्दगी के इस सफ़र में
कई मोड़ हैं आते.
कभी सूरज की रोशनी
तो कभी अमावस की रातें.
एक ऐसे ही मोड़ पर
आज खड़ा हूँ मैं,
एक लम्बी सी सुरंग के
बीचो-बीच पड़ा हूँ मैं.

ज़िन्दगी के दो रौशन भागों को
जोडती ये लम्बी सुरंग,
जीवन की रंगीनियों के बीच
ये अँधेरी बदरंग सुरंग.
कल की मस्ती को पीछे छोड़
कल की जिम्मेदारी तक पहुँचाती ये सुरंग,
जीवन के संघर्ष से
पहचान कराती ये सुरंग.

संघर्ष, माँ-बाप के सपनों को पूरा करने का,
संघर्ष, अपनी आकांक्षाओं को पा लेने का,
संघर्ष, समाज की अपेक्षाओं पर खड़ा उतरने का,
संघर्ष, अपने आप को साबित करने का.

चलता जा रहा हूँ
इस एकतरफा सुरंग में,
शायद अकेला हूँ,
शायद कुछ और लोग भी हैं.
घुप्प अँधेरे में
कोई दिखाई नहीं देता
कोई आकृति नहीं , कोई काया नहीं
साथ चलने को, खुद का साया भी नहीं.

बढ़ते रहने की कोशिश करता हूँ
मगर कभी रूक भी जाता हूँ.
पिछली छोर की रौशनी की याद
क़दमों को रोक देती हैं
पीछे लौटना चाहता हूँ,
अपने संघर्ष से हार जाता हूँ.
फिर ख्याल आता है,
सुरंग के अंत का
आने वाले छोर पर रौशनी का,
एक संकल्प करता हूँ,
संघर्ष की फिर शुरुआत करता हूँ
बढ़ता जाता हूँ, चलता जाता हूँ.

 

Sunday, October 24, 2010

दुहाई अपने औरत होने की!

अभी अभी ब्लॉग की दुनिया में घूमते घूमते एक कविता मिली. 21वी सदी की औरत के बारे में कवयित्री काफी कुछ कह रही हैं. उनके मुताबिक़ 21वी सदी की औरत अब बेवकूफ नहीं बनती, वो चैट करती है, मर्दों से, उन्हें झांसे में रखती है अपनी सच्चाई के बारे में. ऐसा करके वो उनसे बदला लेती है जो सदियों से उनका शोषण करते आये हैं. उनको ये शोषण सूद समेत वापस लौटा कर वो आत्म संतुष्टि पा लेती हैं. उनका ब्लॉग सुरक्षित है इसलिए पंक्तियाँ यहाँ नहीं दे पा रहा हूँ, आप कविता इस लिंक पर पढ़ सकते हैं. बस उन्ही की कविता के जवाब में मेरी ये प्रस्तुति:



21वी सदी की नारी है,
हाँ, चैट कर लेती है.
आपसे, मुझसे,
हर किसी से.
कोई इनमे माँ ढूंढता है,
कोई बहन कोई दोस्त.
कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका.
हर कोई ढूंढता है
इनका एक नया रूप.
इस बात से अनजान
कि वो किसे ढूंढ रही.

अपने आप को चालाक समझती है,
धूर्त है, परिचय अनजाने में दे जाती है.
फिर भी समझ नहीं आता.
गफलत में रहती है,
जब सामने वाला इनका इस्तमाल करता है
ये खुश रहती है
सोचकर के इस्तमाल तो वो कर रही हैं.

पता नहीं खुद को क्या समझती है.
पर इतना जरूर है,
इस्तमाल हो जाने के बाद जब अहसास होता है
तो आँखों में आंसू जरुर आते हैं,
अपनी सच्चाई पता चले न चले
दुहाई जरूर देती है.
दुहाई अपने अबला होने की,
दुहाई मर्दों द्वारा तथाकथित शोषण की,
दुहाई अपनी ऐतिहासिक कमजोरी की.
दुहाई अपने औरत होने की!

 

Saturday, October 23, 2010

There are times when...



There are times when,
Life throws at us
Instances.
To look into,
To learn from,
To observe,
To conserve.

There are times when,
Life throws at us
Circumstances.
To understand itself,
To struggle,
To cope with,
To emerge ultimately, the Winner.

There are these same times when,
Despite life throwing at us
Chances,
We don't hold onto,
We don't change,
We don't improve,
We remain what we were.

The same person,
Sometimes a fool,
Sometimes arrogant,
Sometimes an amateur,
Most of the times, Errant and Ignorant!


  

Friday, October 22, 2010

कल रात, फिर से


कल रात, फिर से
बिस्तर की सिलवटों में,
बेचैनी की करवटों में.

कई ख्याल,
चंद सवाल.
नींद के इंतज़ार में,
मेज़ पर रखी घड़ी,
टिक-टिक करती घुमती घड़ी की सुइयां,
छत पर घूमता पंखा,
हलकी सी बारिश में भींगी
मिट्टी की भीनी -भीनी खुशबू,
हल्की चलती हवाओं से
पत्तियों की सरसराहट.
मन का क्या, निकल पड़ा.
बचपन की गलियों में,
यादो की टोली के साथ.

वो मोहल्ला,
वो पतली सी सड़क,
जामुन के पेड़ पर की
भूतों की कहानी,
शाम ढलते ही
घर लौटने की बेचैनी,
वो पुराने दोस्त,
वो पुरानी दोस्ती.
मन को कौन समझाए,
न अब वो मोहल्ला रहा,
न अब वो दोस्त, न दोस्ती रही.

मन तो फिर भी मन ही है,
न कोई ओर, न कोई छोड़,
न पतंग की कोई डोर.
कैसे बाँध लूं इसको.
कभी हवा के साथ,
कभी यादों के भंवर में,
कभी पुरानी बातों में,
तो कभी भविष्य के ख्यालों में.
मन घूमता रह गया,
कभी स्कूल की मस्ती में,
कभी कॉलेज की बातों में.
घूमता हुआ मन
न जाने कहाँ निकल गया.

वो नहीं रुकता,
न दिल को दुखाने वाली यादों से,
न आने वाली ज़िन्दगी के
संघर्ष के ख्यालों से.
कभी प्यारे दिनों की यादों में
होठों पर मुस्कराहट देता,
कभी उन उदास रातों को याद दिलाकर
आँखों में दो आंसू देता.
मन कुछ नहीं समझता,
वो तो बस घूमना चाहता है
ख्यालों में, यादों  में,
कभी कभी सवालों में.

कल रात, फिर से
बिस्तर की सिलवटों में,
बेचैनी की करवटों में...

 

Wednesday, October 20, 2010

तुम्हारे साथ!


उस शाम, राह पर
तुम्हारे साथ,
नज़रें झुकाकर,
ज़माने से बचाकर
चल रहा था.
कोई बात नहीं,
कुछ ख़ास नहीं.
बस चुपचाप.
सिर्फ एक अहसास,
सिर्फ दिल की एक आवाज़,
कि पकड़ लूं तुम्हारा हाथ.
कि ले चलूँ कहीं ज़माने से दूर.
वहां जहाँ कोई नज़र न हो
वहाँ जहाँ किसी का कोई डर न हो.

पर,

झुकी नज़रों का वो डर
मन का वो करना हमेशा 'किन्तु, अपितु, पर'.
हिम्मत हुई, सोचा
कब तक नज़रें झुकाकर
ज़माने की नज़रों को नज़रअंदाज करूंगा,
आखिर कब उस डर को भूलकर
अपने दिल के लिए इन्साफ करूँगा.
दिल ने एक आवाज़ दिया,
आवाज़ से ज्यादा धिक्कार दिया.
हिम्मत हुई, हाथ बढाया,
नज़रों को उठाया
ज़माने की नज़रों से नज़र मिलाया.

और फिर,

चिढाती हुई वो दोस्तों की ऑंखें,
सवाल पूछती वो बुजुर्गों की आँखें,
वो लोगों की नज़र,
उन नज़रों का डर,
वो ज़माने के पत्थर,
अपने घर के शीशे,
तुम्हारे परिवार की इज्ज़त,
अपने माँ-बाप की बेईज्ज़ती का डर.

वो सबकुछ,

बढ़ते हुए हाथ को फिर वापस कर लिया,
बस सबकुछ चुपचाप सोचता रहा,
मन में सब कुछ दबाकर
तुम्हारे साथ बस चलता रहा, चलता रहा.

Saturday, October 09, 2010

वक़्त बदल गया, हम बदल गए मैं वही रह गया, तुम आगे निकल गए!

वक़्त बदल गया, हम बदल गए
मैं वही रह गया, तुम आगे निकल गए.

सिर्फ एक साल ही तो छोटे थे तुम
भाई से ज्यादा दोस्त होते थे तुम.
साथ खेलना, साथ खाना, साथ उठना-बैठना,
कभी कभी तो साथ इतना वक़्त बिताने के लिए मार तक खाना.
दोस्ती की तकरार को भय्यारी से मिटा देना
भय्यारी की मुसीबतों को दोस्ती से सलटा लेना.
मुसीबतों में देना हमेशा एक दुसरे का साथ
एक दुसरे को बताना अपनी वो हर एक बात.

अचानक ये क्या हो गया?

तुम तुम न रहे,
मैं मैं न रहा
दोस्त तो हम नहीं ही रहे,
अब तो भाई भाई भी न रहा.
कभी सोचने बैठता हूँ तो सोच नहीं पाता कि दोषी है कौन,
मैं, तुम, हमारी दोस्ती, ये वक़्त या फिर कोई और.

वक़्त बदलता है, बदलेगा ही और बदला भी,
मगर हमारा वक़्त के साथ में बदलना जरूरी तो नहीं,
या कि दोषी ठहराऊं अपनी उस गहरी दोस्ती को
जो अपनी सारी बातें न बांटते तो आज ऐसा कुछ हुआ होता तो नहीं.
क्या तुम्हारी ज़िन्दगी में किसी और के आने से मैं अहम् न रहा
या ये मेरी ही नासमझी थी जिसके कारण हमारे बीच आज कुछ न रहा.

दोषी ठहराऊं तो किसे ठहराऊं, समझ नहीं आता
सब कुछ भूल जाऊं, ये सोचता हूँ, मगर कर नहीं पाता.
पांच महीने हो गए जब तुमने अंतिम बार मुझसे बात किया था
पता नहीं कहीं वो ही तो वो आखिर बार नहीं, जब तुमने मुझे याद किया था.

वक़्त बदल गया, हम बदल गए
मैं वही रह गया, भाई, तुम आगे, बहुत आगे निकल गए!
 

Wednesday, October 06, 2010

उस पुराने वाले 'तुम' को कहीं न कहीं खोज कर अपना वही 'हम' ज़रूर बनाऊंगा

कई बार ज़िन्दगी में कुछ ऐसे दुखों का सामना करना पड़ता है कि फिर ज़िन्दगी पर से विश्वास उठने लगता है. किसी बहुत अपने को खोने के बाद ये डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं बाकी सब भी छोड़ कर न चले जाये. ऐसे में दोस्तों के साथ की जरुरत होती है और मन बार बार इस बात की तसल्ली लेना चाहता है कि वो साथ हैं या नहीं. ऐसी ही कुछ स्थिति एक अभिन्न मित्र के ज़िन्दगी में कुछ साल पहले घटी. उसने अपने पिताजी को खोया और आज भी हम दोस्तों से इस बात की तसल्ली लेता रहता है कि हम उसके साथ हैं या नहीं. उसी को समर्पित मेरी ये कविता!


दोस्त,
वो बचपन के दिन याद हैं?
मेरे लिए एक नया स्कूल, एक नयी जगह,
कोने में चुपचाप बैठे रहने की मेरी एक ही वजह.
मेरा कोई दोस्त न था वहाँ.
पुराने दोस्तों को पीछे छोड़ आया था,
नए बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था.
जब चाहा था किसी का साथ
तब तुमने ही बढाया था अपना हाथ.

हाँ, दोस्त,
मुझे वो सबकुछ याद है.
वो क्लासरूम की मस्ती,
लंच पीरियड की वो मटरगस्ती,
स्कूल फी जमा करने के बहाने क्लास बंक करना,
स्पोर्टस पीरियड लगवाने के लिए टीचर से जंग करना,
कैंटीन के समोसे की लाइन में मुझे धकेल देना,
और क्लास में पनिशमेंट के लिए मेरी जगह खुद चले जाना.
तुम्ही तो रहते थे हर पल साथ.

हाँ दोस्त, 
मुझे सब कुछ है याद.
मगर आज फिर भी तुम पूछते हो, मैं दूंगा न तुम्हारा साथ?
सच्चे दोस्त कभी बदलते नहीं,
जो बदलते हैं वो सच्चे होते नहीं.
मैं जानता हूँ दोस्त तुमने क्या खोया है,
इतनी कच्ची उम्र में ही कितना रोया है.
पिता को खोने के दर्द को मैं ले तो नहीं सकता हूँ
पर उस दर्द को बांटने का जतन तो कर सकता हूँ.
जानता हूँ, उस वक़्त तुम्हारे आंसू पोछने न आ सका
मालूम है मुझे, तुम्हारी दोस्ती का क़र्ज़ न चुका सका.

पर दोस्त,
ज़रा सोचो,
हमने भी तो खोया है किसी अपने दिल के करीब को.
वो 'तुम' जो उस दर्द के मिलने के पहले हुआ करते थे
आज उस दर्द के साए में कहीं खो गए हो,
वो 'तुम' जो कभी मेरे 'हम' का हिस्सा थे
आज कहीं दूर हो गए हो.
पर याद रखना, दोस्त,
अपनी दोस्ती का क़र्ज़ ज़रूर चुकाऊंगा
उस पुराने वाले 'तुम' को कहीं न कहीं खोज कर
अपना वही 'हम' ज़रूर बनाऊंगा.


Sunday, October 03, 2010

गाँधी, सिर्फ एक सोच या स्वतंत्रा संग्राम का प्रणेता भी?

"I want world sympathy in this battle of right against might."- M.K. Gandhi, 5/4/1930
आज सुबह से ही फेसबुक, ट्विटर, ब्लौगर हर जगह गाँधी जयंती की धूम मची रही. हर ओर पिछली सदी के इस महात्मा को जन्मदिन की शुभकामनाएं देने की होड़ लगी हुई थी. हर कोई इन्हें याद कर रहा था. इसी क्रम में फेसबुक पर मुझे ये तस्वीर मिली. 5 अप्रैल 1930 को गाँधी के हाथ से लिखे गए इस पंक्ति के नीचे उनके ही हस्ताक्षर भी हैं. इस पंक्ति के माध्यम से गाँधी दुनिया से सहानुभूति चाह रहे हैं सत्य की मजबूत के खिलाफ अपनी जंग के लिए. ज़रा ध्यान दीजिये, जिस शब्द का प्रयोग गाँधी कर रहे हैं वो है 'symapthy' यानि 'सहानुभूति.' इस एक शब्द ने न जाने कितने विचार मन में ला दिए. यदि ऊपर की इस पंक्ति से गाँधी के दस्तखत और बैकग्राउंड से उनकी तस्वीर हटा दी जाए और एक पल के लिए सोचा जाये कि एक आम भारतीय ने इस पंक्ति को लिखा है तो क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि कोई अपने देश के लिए दुनिया से भीख मांग रहा है वो भी किसकी, तो सहानुभूति की. अगर गाँधी के परिप्रेक्ष्य से इस बात को पढ़ा जाए तो एक महान वक्तव्य प्रतीत होता है उस महान योद्धा का जिसने अपना न जाने क्या क्या कुर्बान कर दिया मुल्क की खातिर. मगर उस दृष्टिकोण से थोडा परे हटकर पढ़िए और तब सोचिये कि क्या इस पंक्ति ने हमारे देश को बेचारा बना कर पेश किया है या नहीं.
बचपन से थोडा गरम दिमाग का रहा हूँ, शायद इसीलिए गाँधी की कार्यशैली कुछ ज्यादा पसंद नहीं आई. फिर भी वो महात्मा, जो गाँधी हैं, उनकी इज्ज़त करता हूँ. इंसानी पीड़ा को समझने की उनकी क्षमता और इस ओर अपना सब कुछ न्योछावर करके लोगों को उनके अधिकार दिलाने के उनके शतत प्रयास को हमेशा मेरा शत-शत नमन है. गाँधी, जो एक सोच है, हमेशा उसका कायल रहा हूँ. 'सत्य' और 'अहिंसा' से अधिक विश्वास उनकी 'समानता' और 'निरपेक्षता' की सोच पर है. गाँधी को अगर गांधीजी कहता हूँ तो वो सिर्फ उस इंसान के लिए है जिसने सामाजिकता का ज्ञान भारत को दिया, उस गाँधी के लिए नहीं जिसे आसानी से लोग भारत का सबसे बड़ा स्वतंत्रा सेनानी मान लेते हैं.
गाँधी नाम के उस स्वतंत्रा सेनानी, जिसे आम तौर पर भारतीय स्वतंत्रा संग्राम का प्रणेता माना जाता है, उसपर कुछ ख़ास यकीन मैं नहीं रखता. पहले भी लिख चुका हूँ कि शायद इसका कारण मेरा गरम दिमाग का होना है. आज जब इस तस्वीर को देखा तो फिर से वो सारे विचार मन में आ गए जिनसे कई बार पहले भी साक्षात्कार हो चुका है. क्या सच में गाँधी भारत की स्वतंत्रा के लिए लड़े थे, क्या गाँधी के आन्दोलनों के पीछे की मंशा आज़ादी थी, क्या गाँधी को हमारी स्वतंत्रा के लिए उतना श्रेय दिया जाना चाहिए जितना उन्हें मिला है? मेरे लिए इन सभी सवालों का जवाब ना ही है.
अफ्रीका में सामाजिक द्वेष के खिलाफ अपनी लड़ाई के बाद जब गाँधी भारत आये तो उन्हें यहाँ के आम भारतीयों की हालत भी वैसी ही लगी. और तब शुरू हुई गाँधी की लड़ाई, लड़ाई मौलिक अधिकारों के लिए, लड़ाई सामाजिक एकता के लिए. कहीं भी इस लड़ाई का मकसद आज़ादी नज़र नहीं आता. वो चंपारण का सत्याग्रह हो या डांडी का नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन हो या असहयोग आन्दोलन कहीं भी आज़ादी की लड़ाई नहीं दिख रही थी. अगर अंग्रेज़ भारतीयों को उनके अधिकार दे देते और उनपर ज़ुल्म ढाना बंद कर देते तो शायद फिर गाँधी को अंग्रेजी हुकुमत से कोई परहेज नहीं था. 1942 के भारत छोडो आन्दोलन के पहले के लगभग 27 साल के उनके संघर्ष में कहीं भी भारत को आज़ादी दिलाने के बारे में कोई बात नहीं हुई.
बीसवीं सदी के पांचवे दशक तक आते आते दुनिया के हालात ऐसे हो गए थे जहां उपनिवेशवाद अपना अस्तित्व खोता जा रहा था. पूरी दुनिया में एक राय बन चुकी थी उपनिवेशवाद के खिलाफ. दो दो विश्व युद्ध देखने के बाद हुकूमतों की ऐसी हालत नहीं रह गयी थी कि वो इसका अस्तित्व बचा कर रख सके. इसी कड़ी का एक हिस्सा '42 का भारत छोडो आन्दोलन भी था और '47 की हमारी आज़ादी भी. शायद यही कारण है कि सोचता हूँ कि यदि गाँधी नहीं होते तो क्या हम आज़ाद नहीं हुए होते.
भारत-पाकिस्तान बंटवारे, भगत सिंह की फांसी, और सुभाष चन्द्र बोस पर उठते रहे विवादों के कारण भी मन गाँधी को मानने से इनकार करता रहा. अगर गाँधी ने कांग्रेस से नाता न जोड़ा होता तो शायद भारत का कभी बंटवारा नहीं हुआ होता. जिस वक़्त गाँधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सम्बन्ध बनाया था उस वक़्त जिन्ना एक मजबूत कांग्रेसी की तरह स्थापित हो चुके थे. जिन्ना की भव्य जीवनशैली के सामने गाँधी को नेहरु का खादी धारण करना ज्यादा पसंद आया. जिन्ना कांग्रेस से दूर होते गए और नेहरु की धाक जमती गयी. अंत क्या हुआ ये आप और हम सब जानते हैं. पाकिस्तान के रूप में एक नासूर हमें आज भी दर्द दे रहा है. नेहरु की इसी बढती धाक का एक और नतीजा सुभाष चन्द्र बोस जैसे सच्चे स्वतंत्रा सेनानी के नैतिक गिरावट के रूप में भी आया. भगत सिंह की फांसी का मामला किसी से छुपा नहीं है. 1931 के द्वितीय गोल मेज़ सम्मलेन में भाग लेने के लिए कांग्रेसियों को मनाने की अंग्रेजी हुकुमत की कोशिशें गाँधी-इरविन पैक्ट के रूप में कामयाब हुई. असहयोग आन्दोलन में गिरफ्तार किये गए सभी कांग्रेसियों की रिहाई इस पैक्ट का एक महत्वपूर्ण बिंदु थी. उस वक़्त भगत सिंह जैसे उन क्रांतिकारियों को छोड़ दिया गया जिनका मकसद भी वही था जो कांग्रेस का था सिर्फ रास्ते अलग अलग थे. ऐसी बातों से मन में विचार जरूर आने लगते हैं कि कहीं न कहीं गाँधी अपने अनुयायिओं के प्रति ज्यादा वफादार थे. हालांकि, गाँधी, जो एक सोच है, उसके हिसाब से ऐसा नहीं हो सकता मगर फिर भी इनकार नहीं करूंगा कि ऐसे सोच मन में कभी नहीं आते.
खैर, वैसे भी आज गाँधी को लेकर दोस्तों से इन्ही बातों पर काफी बहस हो चुकी है और अब यहाँ भी काफी कुछ अपनी बात रख चुका हूँ. जिस तरह से आम धारणाओं के विपरीत मैंने बातें की हैं उससे तो यही लग रहा है कि कई लोग मुझसे सहमत नहीं होंगे, मगर ये सिर्फ एक नजरिया है. ये मेरी सोच है, आपसे भिन्न हो सकती है. आपकी सहमति और असहमति दोनों का स्वागत है. धन्यवाद!