पूरी तो नहीं कहूँगा मगर कम से कम आधी दुनिया के लिए कल का दिन बहुत महत्वपूर्ण था. मेरे लिए भी कल का दिन एक अलग तरह की महत्ता के साथ आया. जहां मेरे सारे दोस्त और शायद अनगिनत और लोग कल "Friendship Day" मना रहे थे वहीँ मैं भी खुश था मगर कारण कुछ और था.
सबसे पहले तो मैं ये बताना चाहता हूँ कि ऐसे किसी भी Day पर मुझे कोई विश्वास नहीं है. मेरा तो मानना है कि दोस्ती और दोस्त 365 दिन के लिए होते हैं, किसी एक दिन पर इनकी याद करने से सिर्फ इनकी महत्ता कम ही की जा सकती है और कुछ भी नहीं. अचानक से न जाने कहाँ से इतने सारे दिन आ गए हैं हमारे मनाने के लिए. कभी friendhip day, कभी rose day, कभी father's day, कभी mother's day, कभी brother's day, कभी sister's day, और न जाने कितने कैसे कैसे दिन. पश्चिमी सभ्यता से कुछ चीजें अगर लेने में हमने कोई कोताही नहीं बरती है तो वो ये दिन ही हैं. जन्म से अभी तक साढ़े तेईस साल हो चुके हैं और सत्रह-अट्ठारह साल की उम्र तक मुझे नहीं याद कभी ऐसे दिनों के बारे में सुना भी करता था. शायद यही कारण है कि अभी जब इन दिनों को मनाने के बारे में सुनता हूँ तो बरा अटपटा लगता है, यहाँ तक कि अगर कोई अपना मुझे इनकी बधाई दे जाता है तो मन करता है बस मुंह नोच लूं. मगर बचपन में पढाया गया था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इसी बात को ध्यान में रखकर बस समाज की राह पर ही चलते हुए मैं भी जवाब दे जाता हूँ. भाइयों के लिए भय्या दूज और बहनों के लिए राखी का पर्व मनाने वाले हमारे समाज में कब इन दिनों ने अपनी जगह बना ली समझ नहीं आया.
|
"डॉ." बनने की तरफ पहला कदम, 1st Year |
बहरहाल, कहाँ मैं कल के दिन की अपनी ख़ुशी के बारे में बात कर रहा था और कहाँ इन सब पचड़ों में पडा रह गया. जैसा कि पहले भी लिख चुका हूँ, कल का दिन मेरे लिए अलग तरह से महत्वपूर्ण था. ये पोस्ट कल ही लिखना चाह रहा था मगर इन्टरनेट कनेक्शन के न रहने के कारण लिख नहीं सका. कल का दिन यादों की कश्ती में बैठकर पुराने दिनों के समंदर में दूर तक सफ़र करने में ही बीत गया. बचपन में एक सपना देखा था, डाक्टर बनने का. 5 साल पहले कल के ही दिन इस सपने की तरफ अपना पहला कदम बढाया था. अपने कॉलेज जीवन का वो पहला कदम 1 अगस्त 2005 को रखा था और आज पूरा आधा दशक बीत चुका है और नाम के आगे "Dr." लगाने का वो सपना आज पूरा हो चुका है. 5 साल पहले के उस दिन को लम्हा-दर-लम्हा एक बार फिर जी लिया कल बैठे बैठे ही. मेडिकल कॉलेज में घुसने की ख़ुशी, सीनियर की रैगिंग का डर, नए दोस्तों से मिलने की उत्सुकता और न जाने क्या क्या. सफ़ेद शर्ट, सफ़ेद पैंट, ऊपर से एप्रन और खादी की हरे रंग की एक बैग के उस ड्रेस कोड में जोकर से कम नहीं लग रहा था मगर सीना इस तरह चौड़ा करके चल रहा था जैसे कहीं का राजा बन गया हूँ. एहसास हो रहा था कि दुनिया का पहला डाक्टर बनने वाला हूँ, इस बात से पूरी तरह से बेखबर कि एक ऐसे कैम्पस में कदम रख रहा हूँ जहां कौवा बीट भी करता है तो गिरता किसी डाक्टर के सर पर ही है.
|
Dr. Anshuman Aashu |
खैर, ख़ुशी का वो मंजर फिर से जीने की इच्छा होती है. समय को वापस घुमाने का कोई भी रास्ता होता तो शायद उसी पल को जीता, एक बार नहीं बार बार. अभी कल की ही बात लगती है जब हॉस्टल के छत पर रैगिंग में अपने इज्ज़त की नीलामी देख रहा था, मगर तभी हवा का एक झोका आता है और कैलेंडर के साठ पन्नों को उड़ाकर आज का दिन दिखा जाता है और तब एह्साह होता है कि आधा दशक बीत गया सब कुछ हुए. अपने जैसे न जाने कितनों की इज्ज़त की नीलामी उसी छत पर कर चुका हूँ, न जाने कितनों को उसी तरह सीना चौड़ा किये हुए इस कैम्पस में घुसते हुए देख चुका हूँ और न जाने कितनों को इसी चौड़े सीने की बलि चढ़ते हुए सड़क पर ही मुर्गा बनते हुए देख चुका हूँ. मगर फिर भी उस दिन की यादें हैं जो जाने का नाम नहीं लेतीं. यादें, याद आती हैं...