काफी दिनों से इधर ब्लॉग-जगत से दूर रहा हूँ। कुछ पारिवारिक कारणों और यात्रा के कारण ब्लॉग के प्रति समय नहीं निकाल पाया। न ब्लॉग लिख सका हूँ न ही कोई ब्लॉग पढ़ पाया हूँ इस अंतराल में। हालांकि, वापस आये हुए आज 2 दिन हो गए मगर कुछ लिख नहीं पाया इस ब्लॉग पर। अपनी यात्रा का वृतांत घर वालों को बताने और छूटे हुए ब्लॉग पढ़ने में ही सारा समय निकल गया। अब समय ही समय है और आशा करता हूँ कि आगे ब्लॉग-यात्रा बिना रुकावट के जारी रहेगी। अधूरी छूटी हुई श्रंखला की ५ की कड़ियाँ पेश करूँगा मगर उसके पहले इजाजत अपनी यात्रा के उन पहलुओं के बारे में बात करने की दी जाये जिन्होंने कुछ सोचने को मजबूर कर दिया।
8 तारीख को पटना से निकल कर 16 तारीख को यहाँ वापस पहुच गया। इन 8 दिनों में बंगलोर, तिरुपति और कलकत्ता की यात्रा हो गयी। बिताने को समय थोडा कम था इसलिए भागम-भाग थोड़ी ज्यादा हो गयी। वैसे सभी जगह इससे पहले भी जा चुका था इसलिए काम चल गया। इन ८ दिनों में कई चीजें देखने को मिली। सही मायनों में भारत में मौजूद विविधताओं के दर्शन हुए इस यात्रा में। सामजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, जलवायु, भूगोल, सभी चीजों में विविधताएं देखने को मिली। सही मायनों में कहूँ तो 'अनेकता में एकता' के सिद्धांत को प्रत्यक्ष रूप से अभी ही देख एवं समझ पाया। सच में हमारे देश में बात तो है!
बंगलोर और कलकत्ता दोनों भारत के गिने चुने मेट्रो शहरों में से हैं। दोनों विशाल हैं, दोनों विकसित हैं और सबसे बड़ी बात (जो आज की युवा पीढ़ी के लिए सबसे जरूरी बात है) कि दोनों मेट्रोपोलिटन हैं। एक जैसे होने के बावजूद दोनों में परस्पर एक जमीन-आसमान का फर्क है इसे इस बार मैंने महसूस किया। जहां बंगलोर आधुनिक भारत की उभरती हुई तस्वीर प्रकट करता है वहीँ कलकत्ता हमें हमारी जड़ों से जोड़ देता है। मेट्रो शहर होने के सारे पहलु दोनों जगह मौजूद हैं मगर फिर भी बंगलोर की तरह कलकत्ता में इसका एहसास कभी नहीं होता। कलकत्ता बड़ा अपना-अपना सा लगा। बंगलोर की अंधी दौड के सामने कलकता बिलकुल स्थिर लगा। बंगलोर की चकाचौंध से निकलकर चौन्धियाई आँखों को अपना सामान्य रूप कलकत्ता में ही मिला।
जो सारी चीजें बंगलोर में आलीशान लगी थी वो सारी चीजें कलकत्ता में मौजूद नहीं है मगर फिर भी कलकत्ता से उतना ही प्यार हुआ जितना बंगलोर से। ऐसा क्यूँ, शायद इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं मगर फिर भी सोचता हूँ तो लगता है, कहीं न कहीं इसका लेना-देना अपने देश की विविधता से ही है। देश में मौजूद विविधताओं की तरह हमारी चाहत भी विविध हो चुकी है। हमें कुछ भी अच्छा लग सकता है। कहीं शहर साफ़-सुथरा है तो वो भी अच्छा और कहीं गंदे सड़क दिख रहे हों तो उनमे भी अच्छाई। एक उदहारण देता हूँ। बंगलोर में हर जगह चमचमाते कांच के मकान देखे, बड़ा अच्छा लगा। लगा जैसे उन कांच में अपने भारत के चमकते भविष्य को देख रहा हूँ। मन खुश हुआ। कलकत्ता आया, वहा भी सुन्दर-सुन्दर इमारतें दिखीं। उन्ही इमारतों के साथ वाली इमारत पर जब नज़र पड़ी तो एक पुराना मकान था जिसके दीवारों पर पीपल के जड़ निकल आये थे। ये देख कर भी मन खुश हुआ। कम-से-कम इस शहर ने अपने भूत को तो बचा कर रखा हुआ है। आसानी से उस पीपल के जड़ को वहाँ से हटाया जा सकता था मगर ये कलकत्ता है, यहाँ ये नहीं होता। जड़ों को न हटा के कोई महान काम भी नहीं करता कलकत्ता, बस इस बात से आश्वस्त कर देता है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत कभी मिट नहीं सकती। मैं ये नहीं कह रहा के जड़ों को न हटाना हमारी संस्कृति है। मैं बस इतना कह रहा हूँ कि ये सिर्फ एक द्योतक है उस सोच का, उस कवायद का, जो अपने भूत को बचाने के लिए कलकत्ता की आत्मा में खुद-ब-खुद चल रहा है।
मैंने दिल्ली भी देखा है, मुंबई भी। बंगलोर भी देख चुका हूँ। मगर ये बात जो कलकत्ता में दिखी शायद खोजने पर भी कहीं नहीं मिलेगी। जो दिल्ली मैंने १३ साल पहले देखा था और जो दिल्ली मैंने 5 साल पहले देखा था दोनों अलग थी। दिल्ली बदल रही है। जितना परिवर्तन उन 8 सालों में दिल्ली में देखा, शायद उसका 8 गुना पिछले 5 सालों में दिल्ली बदल गयी हो। कम-से-कम लोगों से सुन कर तो ऐसा ही लगता है। इतिहास में न जाने कितनी बार दिल्ली दुबारा बसाई गयी हो, हमने तो वर्तमान में ही दिल्ली को दुबारा बसते हुए देख लिया है। कुछ यही हाल मुंबई का भी है। मुंबई की आत्मा को छोड़ कर बाकी सब कुछ बदल गया।
जहां तक कलकत्ता का सवाल है तो नाम छोड़ कर कुछ भी नहीं बदला। जिस समय बाकी शहरों में चाय २ रुपये में आते थे कलकत्ता में एक अट्ठनी में भी चाय की दो चुस्की मिल जाती थी। हर नुक्कड़, हर चौराहे पर एक बूट पोलिश वाला और एक छोटी सी चाय की दुकान होती थी। वो वहाँ आज भी हैं। फूटपाथ पर आज भी उनका राज है। सड़कों पर पीली रंग की टैक्सी कल भी थी आज भी हैं। लकड़ी वाले बस कल भी थे, आज भी हैं, हाँ कुछ अच्छे AC बस भी चलने लगे हैं। जब बात ट्राम की आती है तो सबसे पहले कलकत्ता ही याद आता है। मालूम नहीं ट्राम से कोई फायदा किसी को होता भी है या नहीं, मगर जहां विरासत दाँव पर लग जाये वहाँ नफे-नुक्सान की कौन सोचता है। ट्राम को बचाए रखने के लिए कोई शहर अगर तैयार हो सकता था तो वो कलकत्ता ही था, किसी और में वो हिम्मत ही कहाँ थी।
कलकत्ता की विरासत को जिंदा देख कर जितनी खुशी हुई वहीँ बंगलोर में बदलते भारत की तस्वीर देख कर मन प्रसन्न हो गया। चौड़ी-चौड़ी सड़कें, सुन्दर-सुन्दर मकान, हरे-भरे बाग, लंबी-लंबी विदेशी गाडियां, बड़े-बड़े मौल सब कुछ तो हैं वहाँ जिसे देख कर सीना फूल जाए। जो मिश्रण बंगलोर की आधुनिकता और कलकत्ता की विरासत पैदा करती है वही हमारा असल भारत है। इन दो छोड़ों के बीच ही तो बसी है हमारे भारतवर्ष की आत्मा। है किसी भी मुल्क में औकात तो दिखा दे ऐसी विविधता अपने पास। आखिर हम ऐसे ही सर उठा कर नहीं कहते, "मेरा भारत महान!"
3 comments:
nice
badiya
एनोनाइमस को डिलिट कीजिए। वाइरस से भरा होगा।
आप कलकता आए। और शहर को इसके लक्षणों के साथ पसंद किया। बडा़ अच्छा लगा।
कुछ नहीं बदला है .. सही कहा आपने। पर नाम बदल गया है .. अब यह कोलकाता है।
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
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