ढाई साल के बाद आज इधर आया हूँ। पिछले कई सालों से यहाँ पहले की तरह आना नहीं हो पाता था। ज़िन्दगी में कई सारे बदलाव आये। समय की कमी और काम के प्रति व्यस्तता इस कदर बढ़ गयी कि चाह कर भी इधर आना संभव नहीं हो सका। या सच कहूँ तो कभी इधर आने की चाहत ही वैसी कुछ खास नहीं हुई।
जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसी घटना घट जाती है कि अंदर तक मन हिल जाता है। मन में कई सारे सवाल आते हैं। कुछ खुद से, कुछ सामने वाले से और कुछ भगवान से। एक ऐसी ही पारिवारिक त्रासदी झेल कर आज इधर कुछ सवाल करने आया हूँ। हमेशा से सुनता चला आया हूँ कि जो होता है अच्छे के लिए होता है, भगवान जो करते हैं सब अच्छे के लिए करते हैं, भगवान के हर काम के पीछे कहीं न कहीं कुछ भलाई छिपी रहती है। फिर क्यों कभी ऐसा भी कुछ हो जाता है कि फिर उस घटना के पीछे की अच्छाई ढूंढने से भी नज़र नहीं आती! लाख कोशिशों के बावजूद वो भलाई दिखाई नहीं देती जिसके लिए घटना घटी हो।
एक 82 साल के वृद्ध हैं जो कुछ वर्षों पहले अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी संतानों पर आश्रित हो चुके हैं। हाथ कांपने लगे हैं। पैरों में कमजोरी रहती है। अपने शरीर के नित्य कर्म किसी तरह से खुद कर पाते हैं। खान-पान पहले की तुलना में आधा हो चुका है। जीवन के इस पड़ाव में आकर अपने आप को दवाओं पर आश्रित रहकर जीने की तुलना में ऐसे ही बाकी समय काट लेने की सोच के साथ इलाज़ नहीं कराने के लिए अपने बच्चों को निरंतर ना करते रहते हैं। मगर इलाज़ कराने की क्षमता रखने के कारण बच्चों को उन्हें कष्ट में देखना गंवारा नहीं रहता। बच्चे ज़िद करते हैं। जबरदस्ती डॉक्टर से मिलकर दवाइयाँ लेते हैं। कसमें खिलाई जाती हैं। एक पैक्ट तैयार होता है, अगर कुछ दिन में दवाइयों का मनचाहा असर नहीं हुआ तो इलाज़ बंद कर देना है। दवाइयां शुरू की जाती हैं। कुछ हफ़्तों में असर दिखना शुरू होता है। दवाइयां चलती रहती हैं। दो महीने बीतते हैं। दवाओं का असर अच्छा दिखना शुरू हो चुका है। एक सुबह जिस छोटे बेटे के घर में रहते हैं वहाँ कुछ हलचल सी महसूस होती है। छोटा बेटा घर से निकल गया है। कुछ घंटे बाद बड़े दामाद दूसरे शहर से आते हैं और बताते हैं कि बड़े बेटे की तबियत अचानक थोड़ी ख़राब हो गयी है। सब बड़े बेटे के शहर जाते हैं, घर पहुँचते हैं और तब उस बूढ़े बाप को पता चलता है कि भगवान, जो जो कुछ भी करता है भले के लिए करता है, ने उनके कन्धों पर दुनिया का सबसे भारी बोझ रख दिया है। अपने ही जवान हँसते-खेलते बेटे के अर्थी का बोझ। भगवान! ये तुम ही जानो कि एक 82 साल के बूढ़े बाप के लिए, जो खुद अब बिमारियों से घिरे हुए हैं, ऐसा बोझ उठाने के पीछे क्या भलाई हो सकती है। ऐसी घटना के पीछे की अच्छाई भगवान तुमको ही पता होगी, हमने तो ढूंढ ढूंढ कर अब हार मान ली है!
सब ठीक ठाक था तब तो महीनों बीत जाते थे बात किये हुए। मिले हुए, एक दूसरे को देखे हुए कभी कभी सालों बीत जाते थे। यादों में हमेशा रहते थे मगर कभी उतनी कमी महसूस नहीं होती थी। पता होता था कि दूरी फ़ोन पर बस एक नंबर डायल करने भर की है। आज जब वो चले गए हैं तो हर पल कुछ खाली खाली सा लगता है। चमड़े और मांस का ये लबादा बस ऊपर ऊपर से महसूस होता है, अंदर सब कुछ खोखला मालूम पड़ता है। आज सामने होते तो न जाने कितनी बातें करते। हँसते, मुस्कुराते, एक साथ घंटों बिता देते। वो सब कुछ याद आता है जो वक़्त हमने साथ बिताया था। बचपन की वो सारी दीवालियाँ याद आती हैं जिनके पटाख़े आपने ला कर दिए थे। ननिहाल के बाज़ार में हमारी नन्हीं आँखों का वो टकटकी लगाए खोजते रहना कि कहीं किसी दुकान पर मामू खड़े हुए नज़र आएंगे और हमारे पटाखों की झोली भर जाएगी। हर महीने दो महीने पर आपका हमारे घर आना और हमें वो उपहार वाले लेटर पैड, कलम, रबर, चाय की ट्रे, कांटे-चम्मचों का सेट, और न जाने क्या क्या देकर जाना याद आता है। घर की सारी पढ़ाई, गणित के सारे अध्याय हमने आपके दिए हुए पैड पर ही तो की थी। आज आपके जाने के बाद जब घर में पहली चाय बनी तो उसे परोसने के लिए इस्तेमाल किया हुआ ट्रे भी तो आपका ही दिया हुआ था। क्या अच्छाई हो सकती है भगवान तुम्हारी इस करनी में, पता नहीं!
इतनी भी क्या जल्दी थी भगवान तुमको। माँ ने कहा था, "मामू से एक बार बात कर लेना। चेकअप के लिए कलकत्ता जाना चाहता है तुम्हारे यहाँ मगर थोड़ा सकुचाता है। बात कर के सामने से बुला लेना। अगली छुट्टी में तुम्हारे यहाँ जायेगा।" कुछ अपने आलस के कारण, कुछ काम की व्यस्तता और कुछ सारे कामों को टालने की अपनी लत की वजह से फ़ोन नहीं कर पाया। भगवान ही साक्षी है मेरी ख़ुशी का जब मुझे पता चला था कि मामू आने वाले हैं। आज भी भगवान को ही साक्षी बनाता हूँ अपने अफ़सोस का कि मैंने सही समय पर फोन नहीं किया। फ़ोन कर के बुला लिया होता तो शायद मामू आज छोड़कर गए नहीं होते। मैं दिल में बसता था उनके। सबसे प्यारा भगिना था मैं उनका। मेरा तो नामकरण भी उनका ही किया हुआ है। वो मेरे बुलाने को इस तरह से टाल नहीं सकते थे। पता नहीं इस बात के पीछे क्या भलाई छिपी हो सकती है कि बची हुई सारी ज़िंदगी ये मलाल साथ ही रहेगा कि समय पर फ़ोन कर लिया होता तो ये दिन देखना नहीं पड़ता। 82 साल के एक बूढ़े बाप को शायद ये बोझ नहीं उठाना पड़ता। 21 साल की एक बच्ची को अपने पिता को मुखाग्नि देने की कड़ी परीक्षा नहीं झेलनी पड़ती। परिवार के एक-एक सदस्य पर जो गुजरी वो दुखों का पहाड़ नहीं टूटता। काश! मैंने वो फ़ोन सही समय पर कर लिया होता!
जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसी घटना घट जाती है कि अंदर तक मन हिल जाता है। मन में कई सारे सवाल आते हैं। कुछ खुद से, कुछ सामने वाले से और कुछ भगवान से। एक ऐसी ही पारिवारिक त्रासदी झेल कर आज इधर कुछ सवाल करने आया हूँ। हमेशा से सुनता चला आया हूँ कि जो होता है अच्छे के लिए होता है, भगवान जो करते हैं सब अच्छे के लिए करते हैं, भगवान के हर काम के पीछे कहीं न कहीं कुछ भलाई छिपी रहती है। फिर क्यों कभी ऐसा भी कुछ हो जाता है कि फिर उस घटना के पीछे की अच्छाई ढूंढने से भी नज़र नहीं आती! लाख कोशिशों के बावजूद वो भलाई दिखाई नहीं देती जिसके लिए घटना घटी हो।
एक 82 साल के वृद्ध हैं जो कुछ वर्षों पहले अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी संतानों पर आश्रित हो चुके हैं। हाथ कांपने लगे हैं। पैरों में कमजोरी रहती है। अपने शरीर के नित्य कर्म किसी तरह से खुद कर पाते हैं। खान-पान पहले की तुलना में आधा हो चुका है। जीवन के इस पड़ाव में आकर अपने आप को दवाओं पर आश्रित रहकर जीने की तुलना में ऐसे ही बाकी समय काट लेने की सोच के साथ इलाज़ नहीं कराने के लिए अपने बच्चों को निरंतर ना करते रहते हैं। मगर इलाज़ कराने की क्षमता रखने के कारण बच्चों को उन्हें कष्ट में देखना गंवारा नहीं रहता। बच्चे ज़िद करते हैं। जबरदस्ती डॉक्टर से मिलकर दवाइयाँ लेते हैं। कसमें खिलाई जाती हैं। एक पैक्ट तैयार होता है, अगर कुछ दिन में दवाइयों का मनचाहा असर नहीं हुआ तो इलाज़ बंद कर देना है। दवाइयां शुरू की जाती हैं। कुछ हफ़्तों में असर दिखना शुरू होता है। दवाइयां चलती रहती हैं। दो महीने बीतते हैं। दवाओं का असर अच्छा दिखना शुरू हो चुका है। एक सुबह जिस छोटे बेटे के घर में रहते हैं वहाँ कुछ हलचल सी महसूस होती है। छोटा बेटा घर से निकल गया है। कुछ घंटे बाद बड़े दामाद दूसरे शहर से आते हैं और बताते हैं कि बड़े बेटे की तबियत अचानक थोड़ी ख़राब हो गयी है। सब बड़े बेटे के शहर जाते हैं, घर पहुँचते हैं और तब उस बूढ़े बाप को पता चलता है कि भगवान, जो जो कुछ भी करता है भले के लिए करता है, ने उनके कन्धों पर दुनिया का सबसे भारी बोझ रख दिया है। अपने ही जवान हँसते-खेलते बेटे के अर्थी का बोझ। भगवान! ये तुम ही जानो कि एक 82 साल के बूढ़े बाप के लिए, जो खुद अब बिमारियों से घिरे हुए हैं, ऐसा बोझ उठाने के पीछे क्या भलाई हो सकती है। ऐसी घटना के पीछे की अच्छाई भगवान तुमको ही पता होगी, हमने तो ढूंढ ढूंढ कर अब हार मान ली है!
सब ठीक ठाक था तब तो महीनों बीत जाते थे बात किये हुए। मिले हुए, एक दूसरे को देखे हुए कभी कभी सालों बीत जाते थे। यादों में हमेशा रहते थे मगर कभी उतनी कमी महसूस नहीं होती थी। पता होता था कि दूरी फ़ोन पर बस एक नंबर डायल करने भर की है। आज जब वो चले गए हैं तो हर पल कुछ खाली खाली सा लगता है। चमड़े और मांस का ये लबादा बस ऊपर ऊपर से महसूस होता है, अंदर सब कुछ खोखला मालूम पड़ता है। आज सामने होते तो न जाने कितनी बातें करते। हँसते, मुस्कुराते, एक साथ घंटों बिता देते। वो सब कुछ याद आता है जो वक़्त हमने साथ बिताया था। बचपन की वो सारी दीवालियाँ याद आती हैं जिनके पटाख़े आपने ला कर दिए थे। ननिहाल के बाज़ार में हमारी नन्हीं आँखों का वो टकटकी लगाए खोजते रहना कि कहीं किसी दुकान पर मामू खड़े हुए नज़र आएंगे और हमारे पटाखों की झोली भर जाएगी। हर महीने दो महीने पर आपका हमारे घर आना और हमें वो उपहार वाले लेटर पैड, कलम, रबर, चाय की ट्रे, कांटे-चम्मचों का सेट, और न जाने क्या क्या देकर जाना याद आता है। घर की सारी पढ़ाई, गणित के सारे अध्याय हमने आपके दिए हुए पैड पर ही तो की थी। आज आपके जाने के बाद जब घर में पहली चाय बनी तो उसे परोसने के लिए इस्तेमाल किया हुआ ट्रे भी तो आपका ही दिया हुआ था। क्या अच्छाई हो सकती है भगवान तुम्हारी इस करनी में, पता नहीं!