बहुत पहले की बात है. पापा के साथ किन्हीं के घर गया था. मालूम नहीं था कौन थे वो. अभी भी अच्छी तरह से नहीं याद. पापा ने बताया था उनके कोई शिक्षक थे. कोई ४० साल पुराने. सुनकर बड़ा अजीब लगा था. ४० साल पुराने शिक्षक के साथ सम्बन्ध आज भी बने हुए थे. शिक्षक और शिष्यों के बीच रहने वाले सम्बन्ध के बारे में कई बार पापा बता चुके थे. किस्सा सुनाया करते थे कुछ शिक्षकों का जिनके सड़क से गुजरने वक़्त उनके शिष्य साइकिल से उतरकर किनारे खड़े हो जाया करते थे.
अक्सर सुनता आया हूँ किस तरह पुराने दिनों में शिक्षकों को सम्मान मिला करता था. आज मै भी कॉलेज का विद्यार्थी हूँ. कुछ सालो में शायद खुद भी शिक्षक बन जाऊँगा. जब उन सारे कहानियों के बारे में सोचता हूँ तो यही लगता है कि क्या वो सारी बाते सच में कहानियों तक ही सीमित रह गयी हैं. आज के समय में हम अपने शिक्षकों को वो सम्मान तो बिल्कुल ही नहीं दे रहे और ये आशा रखना कि हमारे शिक्षक बनने पर हमें वो सम्मान मिलेगा, ये बेमानी ही होगी.
वो समय कुछ और था जब शायद लोग गुरु जी को उनके नाम से पुकारते तक नहीं थे. मास्टर साहब बोल कर ही काम चलाया जाता था. कोई दबाव नहीं था मास्टर साहब बोलने का. बात अंतरात्मा से ही निकलती थी. उसके बाद समय आया जब गुरु जी को नाम से पुकारा जाने लगा. नाम के आगे सर या मैडम लगा दिया जाता था जो सम्मानसूचक हुआ करते थे. अगर मात्रा में देखा जाए तो सम्मान पहले से कमा था मगर फिर भी एक critical value से ऊपर ही था. आज का समय है. हम अपने गुरु जी को न नाम से पुकारते हैं ना ही सर या मैडम जैसे कोई संबोधन का प्रयोग करते हैं. आज के समय में झा जी झउआ बन गए हैं, सिंह जी सिंघवा, मंडल जी मंडलवा और तिवारी जी तिवरिया. जिनके उपनाम ऐसे हैं जिन्हें इस प्रकार से सुशोभित नहीं किया जा सकता उन लोगो के नामो का ही उपयोग कर लिया जाता है. सुधीर सुधिरवा बन जाते हैं और रीता रितिया. कुछ लोगो के नाम ऐसे होते हैं जिसके किसी भाग को ही इस तरह सुशोभित करना मुश्किल ये विचारनीय. बात है वाले गुरुओं के लिए सरवा या मैडमिया ही काफी होता है. ऐसे संबोधन मात्र से पता चल सकता है कि हम आज के समय में कितना सम्मान अपने ग्रोन के लिए रखते हैं.
बदलाव आया है. गुरु-शिष्य संबंधों में गिरावट ही आई है. अगर थोड़ी अतिशयोक्ति कि इजाज़त दी जाये तो ये कहना चाहूँगा कि गुरु-शिष्य सम्बन्ध अब नदारद ही हो चुके हैं. बदलाव सच में आया है जो गिरावट के शक्ल में दिख रहा है. अब बदलाव आया है तो कुछ कारण तो होगा ही. परिवर्तन संसार का नियम है; गीता के इस दर्शन का उपयोग मात्र कर के ही हम इस बदलाव को परिभाषित नहीं कर सकते. कही न कही कुछ अंतर तो हुआ जरूर है. ये शिक्षको के बदलते स्तर से जुड़ा है या विद्यार्थियों कि बदलती सोच से ये विचारणीय बात है.
पहले के समय में जो गुरु जी हुआ करते थे उनके पास ज्ञान का भण्डार हुआ करता था. ऐसा नहीं है कि आज के समय में शिक्षको को ज्ञान की कमी है, मगर उस ज्ञान को बाटने कि क्षमता और योग्यता जितनी पुराने शिक्षको में थी उतनी शायद आज नहीं रह गयी है. विद्यार्थी भी शायद अब पहले से ज्यादा आज़ाद हो गए हैं. Competition के इस युग में शायद उनकी निर्भरता अपने शिक्षको पर से कम गयी है. self-study का बोलबाला बढ़ गया है और इसके फैलने से शिक्षको कि महत्ता में खासी कमी आ गयी है.
सम्मान उनके लिए ही मन में आता है जो कि हमारे लिए कुछ सकारात्मक लेकर आते हैं. मानव स्वभाव है ये. हम उनको ही सम्मान देते हैं जिनसे हमें कुछ फायदा होता है.आज के समय में विद्यार्थियों को शायद शिक्षको से कोई फायदा नहीं मिल रहा. भाग दौड़ के इस युग में सब एक रेस में लगे हुए हैं. आगे निकल जाने की, सब को पछार देने की एक होड़ लगी हुई है. इस होड़ में विद्यार्थी को खुद से ज्यादा किसी पर भरोसा नहीं है. देखा जाए तो ये गलत भी नहीं है. खुद से ज्यादा वैसे भी किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए. अपने तकदीर के निर्धारक हम खुद हैं. इसे निर्धारित करने के लिए हमें किसी की जरूरत नहीं. ये कह कर शायद मैं विद्यार्थियों को justify कर रहा हूँ. शायद मैं यही कह रहा हूँ की दोष किसी का नहीं है, समय की आवश्यकता है ये बदलाव. हो सकता है आज मै एक विद्यार्थी हूँ और इसी हैसियत से ही लिख रहा हूँ. इसलिए विद्यार्थियों के पक्ष में ज्यादा लिखा है. कुछ साल बाद जब खुद एक शिक्षक बनू तो शायद उचित सम्मान न मिल पाने की झुंझलाहट में इसी ब्लॉग पर शिक्षको की और से भी कुछ विचार लिख सकू। खैर अभी के लिए इतने पर ही विचार काफी है।
2 comments:
आपके विचार सही, सटीक, सार्थक और समयोचित हैं।
धन्यवाद मनोज जी!
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