अंततः परिक्षाओं से छुटकारा मिला। पिछली 2 जनवरी को जो अंतिम वर्ष की परीक्षा शुरू हुई थी कल जाकर पूरे 50 दिन के बाद खत्म हुई। हालांकि खत्म इन्हें 11 दिन पहले ही होना था मगर विश्वविद्यालय हड़ताल के कारण कुछ और दिन लग गए। लग गए तो लग गए, आखिर खत्म तो हुए, नहीं तो लग रहा था कि हनुमान जी की पूंछ ही बनती जा रही है ये परीक्षा। बताता चलूँ कि कॉलेज की आंतरिक परीक्षाएं दिसंबर महीने में ही थी और बीच में कुछ 15-20 दिनों का फासला। अतः तकनीकी रूप से कहूँ तो परीक्षाएं दिसंबर से ही हो रही हैं और तैयारियां अक्टूबर से ही चल रही थी। ५ महीने तक किताबों के साथ ऐसी जंग शायद पहले कभी लड़ने का मौका नहीं मिला था। द्वितीय वर्ष में भी इतनी ही लंबी परीक्षा हुई थी मगर उसमे तनाव कम था। जो मानसिक उलझनें इस परीक्षा में आयीं वो अभी तक तो कभी भी नहीं आई थी। खैर, अब परीक्षा समाप्त हो चुकी है और महीने भर के अंदर परिणाम भी आ जायेंगे। उम्मीद करता हूँ कि महीने के अंदर ही मैं अंशुमान से डा. अंशुमान बन जाऊँगा।
साढ़े चार साल पहले मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद भी कुछ ऐसा ही सोचा था। फर्क था कि उस समय वक्त साढ़े चार साल का था। आज वो दिन याद कर रहा हूँ तो कई गुदगुदाने वाले पल याद आ रहे हैं। बारहवीं के बाद सीधा मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाना एक अप्रतिम अनुभूती थी। 17 साल की उस उम्र में इस खुशी को दबा के रख पाना बड़ा ही मुश्किल था। खुशी मनाने वाली बात भी थी सो हमारा पूरा परिवार खुश भी था। काउंसलिंग के लिए मेरे साथ माँ और पिताजी दोनों आये थे। बड़ा ही उत्साह था। चारों तरफ मेरे जैसे ही खुश विद्यार्थी और उनके माता-पिता। जब सब को देखा तो अपने आप को उस भीड़ में से ही एक पाया। सुकून सिर्फ एक बात का था कि ये भीड़ एक अलग भीड़ थी। बाहर एक और बड़ी भीड़ इस भीड़ का हिस्सा बनने के लिए इन्तज़ार कर रही थी और हमारा इन्तज़ार खत्म हो चुका था।
चूँकि काउंसलिंग बिहार सरकार के द्वारा संचालित थी सो इसमें इसकी छवि तो आनी ही थी। समय से काफी देर हो चुकी थी मगर प्रक्रिया शुरू होने का नाम ही नहीं ले रही थी। इन्तज़ार से मन भारी हुआ ही जा रहा था कि तभी पता चला कि कॉलेज के कुछ सीनियर वहाँ भी पहुच चुके हैं। रैगिंग के बारे में काफी सुन चुका था तब तक मगर कभी सामना नहीं हुआ था। उन सीनियर को देख कर बस यही लग रहा था कि जैसे बकरों को मरने के लिए शेर के साथ पिंजरे में रख दिया गया हो। एक सीनियर हमारी तरफ भी मुखातिब हुए। इज्ज़त में हम भी खड़े हो गए। सीनियर ने बड़े प्यार से बगल में कुर्सी लगा कर बैठते हुए मुझे भी मेरी कुर्सी पर बैठने को कह दिया। नजदीक से उस भयानक पशु, जिसका नाम सीनियर होता है, से मेरा पहला साक्षात्कार यही था। उस सीनियर ने बड़े प्यार से मुझसे मेरा नाम पूछा। मुझे तो मालूम भी नहीं था कि सीनियर का अभिवादन यहाँ कैसे करते हैं। मैंने तुक्का लगाते हुए उन्हें 'सर' कहके संबोधित करते हुए अपना नाम बता दिया। उन्होंने बड़े ही प्यार से समझाया कि यहाँ 'सर' नहीं 'बॉस' कहते हैं। आश्चर्य नहीं हुआ। चूँकि पिताजी भी डाक्टर हैं और उन्हें कई लोगों को बॉस कहकर संबोधित करते हुए सुना है इसलिए एक तरह से ये अपेक्षित ही था। मगर फिर भी जिस रूप में इस शब्द का इस्तमाल हम स्कूल में करते थे वो सोचकर उस वक्त थोड़ी असहजता महसूस जरूर हुई (बताता चलूँ की 'BOSS' का इस्तमाल हम 'Brother Of Sexy Sister' के रूप में किया करते थे)। वो असहजता कुछ पलों की ही रही और शायद इस शब्द का इस तरह प्रयोग स्कूल के बाद आज अपने पोस्ट पर ही कर रहा हूँ। अब तो ये शब्द हमारी जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं।
वहाँ बैठे बैठे बॉस ने हमें हमारी मेडिकल की पहली शिक्षा दे डाली थी। उसके बाद बारी आई हमारी इंट्रो की। बॉस ने मुझसे मेरा इंट्रो पूछा। पहली बार था तो इंट्रो शब्द ही नहीं समझ पाया कि आखिर ये बला क्या है। बॉस के तेवर थोड़े सख्त हो गए। उन्होंने कड़क आवाज में कहा, "रे गधा, इंट्रो मने इंट्रोडक्सन।" इसके बाद भी बात कुछ पल्ले नहीं पड़ी। सोचा नाम तो बता ही चुका हूँ अब इंट्रो में बचा क्या। इतने में बॉस फिर से मेरी मुसीबत समझ गए और इंट्रो के कंटेंट के बारे में मुझे बता दिया कि नाम, पिताजी का नाम, घर और स्कूल के बारे में बताना है। सब कुछ बता दिया उसके बाद बॉस वहाँ से जाने लगा मगर उठते उठते उसने एक बम फोड ही दिया। उसने कहा, "साले यहाँ तो सब हमही बता दिए, कॉलेज आओ न तब न पता चलेगा। ऐसा लेंगे न तुम्हरा कि यादे रहेगा जिंदगी भर।"
बॉस शब्द और बॉस नामक प्राणी के साथ मेरी पहली मुलाक़ात इस तरह से हुई थी। बॉस ने सच ही कहा था, ये बातें अब तक याद हैं और शायद जिंदगी भर याद रहेंगी भी। जब बॉस वो बम फोड कर किसी और की तरफ बढ़ चुका था तो मेरी स्थिति ऐसी थी मानो काटो तो खून नहीं। बॉस जा चुका था इस बात की थोड़ी खुशी तो जरूर हो रही थी मगर साथ में आने वाले उस काल का भय भी सता रहा था जिसका शंखनाद वो कर चुका था। तत्काल कम्पीट करने की सारी खुशी मिट चुकी थी। मन में सिर्फ भय और भय था। शायद पिताजी ने इस भय को भांप लिया। उन्होंने समझाना शुरू किया, "अरे काहे डर रहे हो, जान थोड़े ना मार लेगा। क्या करेगा दू-चार गो सवाल पूछेगा। ऐसा सवाल रहेगा जिसका तुम्हारे पास कोई जवाब हो, तुमको डांट परबे करेगा। कुछो बोलोगे तो गलते बोलेगा। हर गलत जवाब पर मुर्गा बनाएगा, और क्या करेगा। ढेर होगा तो पैंट खोलवायेगा, यही ना। खोल देना। अरे उ मैदान में पैंट खोलने के लिए थोड़े न बोलेगा, रूम में बोलेगा तो खोल देना, कोई दिक्कत नहीं है। ऐसे भी हॉस्टल में सब लड़का आधा नंगा ही घूमता है। अपने रहोगे हॉस्टल में तो वैसे ही घूमोगे। एक्के बात याद रखना रैगिंग में कि कभी किसी सीनियर का बात काटना मत। जो बोलता है बस करते जाना, कोई दिक्कत नहीं होगा।" पिताजी ने शायद उस समय से ३२ साल पहले अपने समय में यही मंत्र अपनाया होगा। एक बार उनके इस गुरुमंत्र की आज के समय में वैद्यता पर थोडा शक जरूर हुआ मगर कॉलेज पहुचते ही ये पता चल गया कि भले काल के पहिये निरंतर चलते रहे, ये मंत्र हर युग के हर सीनियर-जूनियर पर लागू होंगे।
इस प्रकार हमारी काउंसलिंग भी खत्म हो गयी और पंच में एडमिसन का पत्र भी मेरे हाथ में आ गया। डाक्टर बनने की तरफ मैंने अपना पहला कदम बढ़ा लिया था। आज इतने पर ही छोड़ता हूँ। रैगिंग और कॉलेज के कुछ और मजेदार किस्से लेकर आगे आऊंगा। उम्मीद करता हूँ कि ये वाकया आपको पसंद आया होगा। बताइयेगा जरूर।
5 comments:
बहुत दिन बाद आए। आपको पढना अच्छा लगत है।
धन्यवाद मनोज जी! बस क्या करें परीक्षाओं के बोझ का मारा हुआ हूँ. अब आराम मिला है, आशा है ज्यादा नियमित रह पाऊँगा ब्लॉग के प्रति!
Waah kya post tha anshuman , tum mein tulna karne ka tarikka bahut achcha hai. Medical college ki andar ki ghatnaon aur ek student ke ghabrae man aur man mein uthte prashno ko tumne bakhubi bataya. I loved it.- Vishal
massst tha...........waise story ko to be continued likh ke.........iska trp badhana chahte hai kya?????
@nayanshree: राम गोपाल वर्मा की फिल्मों की तरह 'To be contd." का इस्तमाल नहीं किया गया है यहाँ :)
बस आगे भी कई ऐसे रोचक घटनाएं आईं थी कॉलेज में जिसके बारे में लिखना है इसलिए ही लिखा हूँ. रही बात TRP की तो कौन नहीं चाहता TRP. :)
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