बुजुर्गों से हमेशा सुबह उठने के फायदे सुनता रहा हूँ। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुबह जल्दी उठने की प्रथा जैसे ख़त्म ही होती जा रही है। पापा हमेशा सुबह उठते हैं, आज भी। हम सारे भाई-बहन मॉर्निंग स्कूल के दिनों को छोड़कर कभी सुबह जल्दी उठ नहीं पाये। जैसे जैसे बड़े होते गए, रूटीन और भी बदलता चला गया। पढाई का बोझ बढ़ता चला गया और उसके साथ रात में सोने का समय भी देर होता चला गया। शरीर की कई जरूरतों में हमने सबसे पहला स्थान नींद को ही रखा है। दुनिया इधर की उधर हो जाये हम तो नींद अधूरी छोड़ नहीं सकते। रात को सोने में देरी के साथ सुबह उठने का समय भी देर होता चला गया। हालत ऐसी हो गयी है कि अब छुट्टी के दिनों में सुबह का नाश्ता करने की भी जरुरत नहीं पड़ती। सीधा उठके दोपहर का खाना ही नसीब होता है।
खैर, इधर कुछ दिनों से सुबह उठने की कोशिश चल रही है। कामयाबी भी मिल रही है। सुबह उठकर कुछ देर बाहर घूमने निकलता हूँ। कलकत्ता के जिस कोने में रहता हूँ, वो शायद सुबह की सैर के लिए सबसे सही और सबसे ज्यादा प्रचलित भी है। विक्टोरिया मेमोरियल और मैदान के आसपास का ये इलाका दक्षिण कलकत्ता के रईसों का सैरगाह काफी पुराने समय से रहा है। लोग अपनी लक्ज़री गाड़ियों में आते हैं और सैर करते हैं। मर्सिडीज, बीएमडब्लू, जैगुआर जैसी गाड़ियां जितनी यहाँ इस समय दिखती हैं, उतनी ज़िन्दगी में न कभी देखी थी और न कभी देखने की उम्मीद रखता हूँ।
इस दौड़ती भागती ज़िन्दगी में सुबह का ये समय सुकून भरा लगता है। ज़िन्दगी ठहरी हुई सी मालूम पड़ती है। एक अलग सी दुनिया में होने का अहसास होता है। एक पूरी अलग दुनिया ही देखने को मिलती है। कुछ उम्रदार लोगों का झुण्ड पार्क में एक घेरा लगा कर एक्सरसाइज करता हुआ दिखता है। एक लय में, साथ साथ। तभी दूसरी तरफ से जोर जोर से हंसी की आवाज़ आती है। ऐसे ही लोगों का एक घेरा हाथ ऊपर कर के जोर जोर से हँसता हुआ दिखता है। लाफ्टर थेरेपी। उन हँसते हुए चेहरे को देखकर हंसी की कीमत समझ में आती है आज के भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में। साधारण सी हंसी भी आज कितनी मुश्किल से मिलती है!
वहीँ पास में दो बूढी औरतें एक बेंच पर बैठी हैं। थोड़ी देर टहलने के बाद दम उखड़ आया है। उनकी चाल से पता चलता है कि जोड़ों ने अब जवाब दे दिया है। वो आपस में बात कर रही हैं। पास से गुजरते हुए कुछ बातें मेरे भी कान में पड़ी। थोड़ी दूर चलने से दम उखड़ जाना उनकी तकलीफ नहीं है, न ही उनका जोड़ों का दर्द। वही आज के युग की कहानी, या शायद चिरकाल की। बच्चों का अब अपना परिवार हो गया है, अब उन्हें इनकी जरुरत नहीं रही। न जाने कितनी बूढ़ी माँ की आँखों के आंसू यही फ़साना बयां करते हैं। तभी आँखों के सामने पापा-मम्मी का चेहरा नज़र आता है। घर में अकेले बरामदे में बैठे चाय पी रहे होंगे। तीन बच्चे, तीनों दूर, अपनी अपनी दुनिया में मशगूल। अजीब सा लगता है। दिल में कचोट होती है, मगर कुछ कर नहीं सकते। बस आगे बढ़ जाते हैं।
आगे कुछ लोग बैठे भजन करते हुए दिखते हैं। सुबह सुबह भगवान का नाम सुनकर शांति का अहसास होता है। पीछे जो कुलबुलाहट मन में पैदा हुई थी वो यहां थम गयी सी लगने लगती है। तभी सामने से एक बुजुर्ग आदमी आते हुए नज़र आते है। आगे-आगे उनका पोता भी है। दादा के चेहरे पर चमक है, वो खुश हैं। अपने पोते की मासूमियत को महसूस कर रहे हैं। ज़िन्दगी हमेशा बुरी नहीं होती। दादा-पोते की इस जोड़ी को देखकर ऐसा ही लगता है। मन में थोड़ी ठंडक पड़ती है। और आगे बढ़ते हैं।
ज़िन्दगी का एक अलग ही रंग देखने को मिलता है। फूटपाथ पर कुछ लोग सो के उठ रहे हैं। रात उन्होंने यहीं पर बिताई है ऐसा मालूम होता है। शायद उनकी सारी रातें यहीं बीतती हैं, या शायद ऐसी ही किसी फूटपाथ पर। जब सुबह उठते हैं तो पता नहीं होता कि आज की रात कहाँ बीतेगी। दिन कैसे गुजरेगा। दो वक़्त की रोटी का क्या होगा। वहीँ बगल में एक बड़ी गाडी रूकती है। मालिक उतरता है और फूटपाथ पर अपनी सैर शुरू करता है। मन में अजीब सी उलझन शुरू होती है। फूटपाथ पर सोने वाले उस मजदूर के चेहरे पर उस एसी गाडी से उतरने वाले आदमी के चेहरे से ज्यादा सुकून दिखता है। सोचते सोचते आगे बढ़ता हूँ। सूरज मैदान के उस पार से अब चेहरे पर पड़ने लगता है। ज़िन्दगी के इन कई रंगों को देखता देखता सोचता हुआ अब लौटता हूँ। और न जाने कितनी कहानियाँ इन पार्क में और आसपास के फूटपाथ में चलती रहती हैं। निरंतर, लगातार, बिना रुके हुए। ठीक इस ज़िन्दगी की तरह।
खैर, इधर कुछ दिनों से सुबह उठने की कोशिश चल रही है। कामयाबी भी मिल रही है। सुबह उठकर कुछ देर बाहर घूमने निकलता हूँ। कलकत्ता के जिस कोने में रहता हूँ, वो शायद सुबह की सैर के लिए सबसे सही और सबसे ज्यादा प्रचलित भी है। विक्टोरिया मेमोरियल और मैदान के आसपास का ये इलाका दक्षिण कलकत्ता के रईसों का सैरगाह काफी पुराने समय से रहा है। लोग अपनी लक्ज़री गाड़ियों में आते हैं और सैर करते हैं। मर्सिडीज, बीएमडब्लू, जैगुआर जैसी गाड़ियां जितनी यहाँ इस समय दिखती हैं, उतनी ज़िन्दगी में न कभी देखी थी और न कभी देखने की उम्मीद रखता हूँ।
इस दौड़ती भागती ज़िन्दगी में सुबह का ये समय सुकून भरा लगता है। ज़िन्दगी ठहरी हुई सी मालूम पड़ती है। एक अलग सी दुनिया में होने का अहसास होता है। एक पूरी अलग दुनिया ही देखने को मिलती है। कुछ उम्रदार लोगों का झुण्ड पार्क में एक घेरा लगा कर एक्सरसाइज करता हुआ दिखता है। एक लय में, साथ साथ। तभी दूसरी तरफ से जोर जोर से हंसी की आवाज़ आती है। ऐसे ही लोगों का एक घेरा हाथ ऊपर कर के जोर जोर से हँसता हुआ दिखता है। लाफ्टर थेरेपी। उन हँसते हुए चेहरे को देखकर हंसी की कीमत समझ में आती है आज के भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में। साधारण सी हंसी भी आज कितनी मुश्किल से मिलती है!
वहीँ पास में दो बूढी औरतें एक बेंच पर बैठी हैं। थोड़ी देर टहलने के बाद दम उखड़ आया है। उनकी चाल से पता चलता है कि जोड़ों ने अब जवाब दे दिया है। वो आपस में बात कर रही हैं। पास से गुजरते हुए कुछ बातें मेरे भी कान में पड़ी। थोड़ी दूर चलने से दम उखड़ जाना उनकी तकलीफ नहीं है, न ही उनका जोड़ों का दर्द। वही आज के युग की कहानी, या शायद चिरकाल की। बच्चों का अब अपना परिवार हो गया है, अब उन्हें इनकी जरुरत नहीं रही। न जाने कितनी बूढ़ी माँ की आँखों के आंसू यही फ़साना बयां करते हैं। तभी आँखों के सामने पापा-मम्मी का चेहरा नज़र आता है। घर में अकेले बरामदे में बैठे चाय पी रहे होंगे। तीन बच्चे, तीनों दूर, अपनी अपनी दुनिया में मशगूल। अजीब सा लगता है। दिल में कचोट होती है, मगर कुछ कर नहीं सकते। बस आगे बढ़ जाते हैं।
आगे कुछ लोग बैठे भजन करते हुए दिखते हैं। सुबह सुबह भगवान का नाम सुनकर शांति का अहसास होता है। पीछे जो कुलबुलाहट मन में पैदा हुई थी वो यहां थम गयी सी लगने लगती है। तभी सामने से एक बुजुर्ग आदमी आते हुए नज़र आते है। आगे-आगे उनका पोता भी है। दादा के चेहरे पर चमक है, वो खुश हैं। अपने पोते की मासूमियत को महसूस कर रहे हैं। ज़िन्दगी हमेशा बुरी नहीं होती। दादा-पोते की इस जोड़ी को देखकर ऐसा ही लगता है। मन में थोड़ी ठंडक पड़ती है। और आगे बढ़ते हैं।
ज़िन्दगी का एक अलग ही रंग देखने को मिलता है। फूटपाथ पर कुछ लोग सो के उठ रहे हैं। रात उन्होंने यहीं पर बिताई है ऐसा मालूम होता है। शायद उनकी सारी रातें यहीं बीतती हैं, या शायद ऐसी ही किसी फूटपाथ पर। जब सुबह उठते हैं तो पता नहीं होता कि आज की रात कहाँ बीतेगी। दिन कैसे गुजरेगा। दो वक़्त की रोटी का क्या होगा। वहीँ बगल में एक बड़ी गाडी रूकती है। मालिक उतरता है और फूटपाथ पर अपनी सैर शुरू करता है। मन में अजीब सी उलझन शुरू होती है। फूटपाथ पर सोने वाले उस मजदूर के चेहरे पर उस एसी गाडी से उतरने वाले आदमी के चेहरे से ज्यादा सुकून दिखता है। सोचते सोचते आगे बढ़ता हूँ। सूरज मैदान के उस पार से अब चेहरे पर पड़ने लगता है। ज़िन्दगी के इन कई रंगों को देखता देखता सोचता हुआ अब लौटता हूँ। और न जाने कितनी कहानियाँ इन पार्क में और आसपास के फूटपाथ में चलती रहती हैं। निरंतर, लगातार, बिना रुके हुए। ठीक इस ज़िन्दगी की तरह।