Tuesday, January 12, 2010

ये मैं हूँ, एक हिन्दुस्तानी!

आज बड़े भाई का जन्मदिन है। माँ को लेकर महावीर मंदिर गया था। पटना जंक्शन पर जो भी आये होंगे उन्होंने बहार निकलने के बाद भूके-नंगे भिकडियोँ के अलावा सबसे पहले इस मंदिर को ही देखा होगा। थोड़ा और आगे जायेंगे तो चौराहे पर चाचा नेहरु खडे मिलेंगे। हाथ में सफ़ेद कबूतर लिए हुए। जब से होश संभाला है चाचा को वही खड़ा पाया है। बचपन में सोचता था कि शायद नेहरु जी को कबूतरों से बहुत लगाव था इसलिए उसे लेकर खड़े हैं। बाद में कबूतर उड़ाने का सही मतलब समझ आया। पहले देखने का नजरिया ही नहीं था। २३ साल इस दुनिया में भटका तो थोड़ी बहुत परिपक्वता आई और अब किसी भी चीज को देखता हूँ तो सोचने को मजबूर हो जाता हूँ। थोड़ा अवलोकन और थोड़ा विश्लेषण समय के साथ आदमी सीख ही जाता है। अभी समय और भी है इसलिए सीखने कि प्रक्रिया चलती ही रहेगी।
२ महीने पहले उसी चौराहे को १४ नवम्बर कि तैयारी के लिए काफी सजाया गया था। चाचा को नहलाया धुलाया गया था। शायद चेहरे को पोलिश भी किया गया हो। चाचा चमक रहे थे। जीवंत प्रतीत हो रहे थे। फूल मालाएं पहनाई गयी, बल्ब-रोशनियाँ लगायी गयी थी। आज दो महीने बाद उसी प्रतिमा में वो फूल-मालाएं वैसे ही लटके हुए थे। फर्क इतना था कि वे अब सूख चुके थे। चमकता चेहरा अब धूमिल हो गया था और चिड़ियों के प्रसाद से सुशोभित हो रहा था। ज्यादा बताने कि जरुरत नहीं कि वो प्रसाद क्या है। चाह रहा था कि एक तस्वीर भी लगा सकूँ इस ब्लॉग पर मगर साथ में कैमरा न था। शायद बाद में कभी लगाऊं। वैसे लगाने कि जरुरत भी नहीं है। ये कोई नयी बात नहीं है। विशेषतया पटना की बात हो या नेहरु की मूर्ति के साथ ही ऐसा होता हो, ये भी नहीं है। ये तस्वीर भारत के हर शहर हर गाँव की है। हर महान व्यक्ति के साथ यही सुलूक होता है।
कुछ दिन पहले केन्द्रीय राज्य मत्री श्री शशि थरूर ने नेहरु जी के विदेश नीति पे कुछ टिपण्णी की थी जो हमारे राजनेताओं को पसंद नहीं आई थी। अखबारों ने उस टिप्पणी को काफी तवज्जो दी थी। पहले पन्ने का बड़ा भाग उस खबर को गया था। थरूर जी को इस टिप्पणी के लिए प्रधान मंत्री को स्पष्टीकरण भी देना पड़ा।
ये अलग मामला है कि क्या थरूर सही थे। विस्तार में बाद में कभी। मगर यहाँ ये जरूर कहना चाहता हूँ कि समय के साथ सब बदलता है। आन्तरिक नीतियों को न भी बदला जाये तो कोई बात नहीं मगर विदेश नीतियाँ समय के अनुसार ही चलनी चाहिए क्यूंकि उनके निर्धारक सिर्फ हम नहीं बल्कि "विदेश" भी है जो समय के साथ बदल रहे हैं। बहरहाल...
नेहरु जी कि उसी नीति की द्योतक यह प्रतिमा आज जिस हालत में शहर के बीचो बिच खड़ी है उसे देख कर यही लगता है कि राजनेताओं का वो नेहरु प्रेम कही न कही एक छलावा ही था। अखबारों को थरूर कि टिप्पणी पर टिप्पणी करने का समय आसानी से मिल गया मगर इस प्रतिमा तक किसी की नजर तक नहीं गयी। गयी भी हो तो क्या। इसमें मसाला कहाँ है, विवाद कहाँ है। मसाला नहीं, विवाद नहीं तो TRP नहीं। TRP नहीं तो न्यूज़ नहीं। आज की मीडिया TRP तक ही सीमित रह गयी है। समाज सुधारक का वो काम जो उनके जिम्मे है वो कही दूर रह गया है।
मीडिया को दोषी ठहराना और राजनेताओं के उदासीन रवैये पर ऐतराज जता देना ही क्या हमारा कर्त्तव्य है। क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। मुझको ही ले लीजिये। मैंने उस मूर्ति को देखा, देख कर सोचा। सोचा तो मन उदास हुआ। फिर भी मैं आगे बढ़ा। रुक नहीं सकता था, पीछे कि गाड़ियों के होर्न से कान फटा जा रहा था। घर लौटने कि तरफ आगे बढ़ा तो थोड़ी दूर पर एक ऑटो वाले ने गाड़ी के बिल्कुल करीब से ही अपना ऑटो आगे बढ़ा लिया। नेहरु जी कि शांति नीति के बारे में सोचते हुए कुछ सेकंड ही गुजरे थे, शायद मन में तब भी वही चल रहा था। मगर उस ऑटो वाले कि उस हरकत को देखते ही शांति गयी तेल लेने और दिल में उसके लिए सम्मान के दो चार शब्द (F... words वाले) अपने आप आ गए। आगे बढ़ता गया। गाड़ी का होर्न बजता गया। पैदल और रिक्शों को पिछाड़ता हुआ होर्न कि आवाज में मशगूल हो शांति को भूल ही गया।
ये मैं हूँ। मैं जो अपने आप को हिन्दुस्तानी कहता हूँ। भारत का मतलब नहीं जानता और कहता हूँ कि भारत महान है। सीना चौड़ा करके कहता हूँ I PROUD TO BE AN INDIAN! ये मैं हूँ, एक हिन्दुस्तानी!

4 comments:

मनोज कुमार said...
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मनोज कुमार said...

बहुत अच्छा आलेख। बहुत अच्छी सोच। प्रेरक।
वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें। टिप्पणी देने में असुविधा होती है।

Aashu said...

धन्यवाद मनोज जी! सुझाव का स्वागत है। आशा करता हूँ आगे कोई तकलीफ नहीं होगी।

Anonymous said...

I wish not acquiesce in on it. I think polite post. Expressly the appellation attracted me to study the intact story.