भगवान् भला करे उसका जो आज ड्यूटी पर आने से पहले उससे बात हुई और उसने दुआ दी कि आज कोई डेथ सर्टिफाई न करनी पड़े........पता नहीं इमरजेंसी ड्यूटी के ऐसे कितने और 8 घंटे मिलेंगे ज़िन्दगी में जिसमे एक भी मौत से पाला न पड़े.........अपनी 8 घंटे की ड्यूटी बजाकर इमरजेंसी से निकल ही रहा था कि बाहर गेट पर एक दोस्त मिल गया, एक बैचमेट...........पिछले 5 सालों में जो कुछ चीज़े कमाई हैं यहाँ कॉलेज में उनमे से एक उसकी दोस्ती भी है. अगले 8 घंटों की शिफ्ट उसकी ही थी..........हाथ में सिगरेट लिए अपने मदमस्त चाल में वो चला आ रहा था.
"एक सुट्टा मारेगा?", उसने पूछा. मैंने कुछ नहीं कहा. "मारा कर साले........कब तक सन्यासी बना रहेगा.........बड़े काम की चीज़ है साले........जो अन्दर 8 घंटे तक दिमाग की दही करके आया है न उससे बचने का सबसे सरल, सस्ता और टिकाऊ उपाय है बे."........ पिछले ५ सालों में न जाने उसने कितनी बार सिगरेट के गुण गिनाये थे........."चल कॉफ़ी पीला यार, सर दर्द कर रहा है.", हर बार की तरह मैंने डिमांड रख दी. बगल के कैंटीन में दो कॉफ़ी का आर्डर करके उसने पूछा, "क्यूँ बे साले, आज कितनों को मौत के घाट उतारा बे?"............... इंटर्नशिप शुरू होने के बाद से हर इमरजेंसी शिफ्ट के बाद आपस में बात करने को ये ही पहली टोपिक मिलती थी. साढ़े चार सालों तक बीमारियाँ और उनके इलाज़ को पढने के बाद जब सच में बीमारियों से पाला पड़ा तो पता चला कि साली सारी किताबें बकवास हैं. मौत की कोई गारंटी नहीं होती. वो अपना एप्वाईंटमेंट खुद लेकर आती है. और तुम कुछ भी कर लो, कुछ नहीं कर सकते.
"अबे यार, आज तो गज़ब हो गया, साला एक भी डेथ सर्टिफाई नहीं किया यार. भीड़ थी, पेशेंट थे, लेकिन फिर भी, पता नहीं. जानता है, आज आने के पहले एक पुरानी दोस्त से बात हुई, फोन पर. उसने दुआ दी थी कि आज मौत से पाला न पड़े. साली की दुआ लग गई लगता है.", मैंने उससे कहा............. "सच में यार, लकी मैन. अब मैं जाता हूँ, देखता हूँ भगवान् मेरे हाथों कितनो की वाट लगाता है आज. साला अजीब लगता है यार..........एक जज मौत की सजा सुनकर कलम की नीब तोड़ देता है. उस कलम से फिर कोई काम नहीं होता, और हम साले न जाने यूँही लगातार कितनो को सर्टिफाई करते रहते हैं.........यार अब तो हाथ भी नहीं धोता मैं सर्टिफाई करने के बाद." सिगरेट की अंतिम कश खीचते हुए उसने कहा.............. "ओये दो-दो रसगुल्ले भी बढ़ाना यार", कैंटीन वाले को उसने आर्डर किया.............. "कितना अजीब लगता है न यार, मौत की बातें कर रहे हैं और मन साला रसगुल्ले खाने को कर रहा है. साली इंसानियत कही घोड़े बेचकर सो गयी लगती है.", मैंने उससे कहा था. "अबे जो होता है साला अच्छे के लिए ही होता है. जब तक मौत से पाला नहीं पड़ता था तब तक मौत 'मौत' लगती थी अब तो साली यारी हो गयी है उससे. अच्छा है न कि कोई फर्क नहीं पड़ता. साला अगर लोड लेने लगते तो ज़िन्दगी यूँही सड़ जाती. छोड़ बे, अपन लोग ऐसी लाइन में आ ही गए हैं तो अब इस बात का रोना क्या. एन्जॉय कर साले." उसने मेरा ढांढस बढाया था. अपने मन को शांत करने के लिए आदमी कई बहाने ढूँढ लेता है, उसने भी यही किया था.
कॉफ़ी की चुस्कियां ख़त्म हो चुकी थी. मेरे चेहरे पर पिछले 8 घंटों की थकान और उसके चेहरे पर आने वाले 8 घंटों की चिंता साफ़ दिख रही थी.............. ऊपर से तो हर कोई मजबूत दिखना चाहता है कि उसे मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता पर अन्दर से सब विचलित होते हैं............ वो भी ऐसा ही था. मन में उसके भी यही चल रहा था. "जा ड्यूटी कर, किस्मत अच्छी रही तो तुझे भी एक भी सर्टिफाई नहीं करना पड़ेगा." मैंने उसे हिम्मत दी थी. "साले खुद एक लौंडिया की दुआ से बच गया तो बड़ा फ़कीर बन रहा है!" यूँही डपट कर हंस देना उसकी पुरानी आदत थी. उस समय भी उसके चेहरे पर हंसी दिख रही थी. अंतिम रसगुल्ले को मुंह में रखते हुए मैंने उससे कहा, "चल अब घर चलता हूँ भाई. जाकर सबसे पहले उसे ही फोन करके शुक्रिया करूँगा. जा तू भी, सर खोज रहे होंगे." "साला वो टकलू क्या खोजेगा मुझे. साला खुद तो कुछ आता नहीं बस बैठा हुआ आर्डर चलता रहता है.", बोलते हुए वो मेरे साथ कैंटीन से बाहर निकल गया.
बाहर थोड़ी अफरा-तफरी मची हुई थी.............कोई रोड एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल लड़की को कुछ लोग इमरजेंसी के अन्दर ले जा रहे थे..............मैंने उससे कहा, "जा साले, कर जाकर सर्टिफाई.".........."लगता है आज फिर शुरुआत मौत से ही होने वाली है भाई." मुस्कराकर उसने कहा था.........वो अन्दर चला गया और मैं अपनी गाडी में बैठकर घर की ओर बढ़ गया. थोरी ही दूर पर मोबाइल बज उठा. एक दोस्त का फ़ोन था. फ़ौरन ब्रेक लगाकर यु-टार्न लिया और फिर इमरजेंसी पहुच गया. जिस दोस्त की दुआओं ने दिन भर मौत के साए से दूर रखा वही दोस्त वहाँ अपनी आखरी साँसे गिन रही थी. एक्सीडेंट हुआ था. होश में थी.................'और कोई डेथ सर्टिफाई किया या नहीं, नहीं मालूम पर मेरा तुम ही करना.'..............उसके अंतिम शब्द थे!
दम तोड़ती उन आँखों ने अंतिम गुजारिश की थी.
डाक्टरी के लबादे ने दिल तक पहुचने ही न दिया.
उम्र और इंसानियत का रिश्ता, सुना था, इन्वर्सली प्रपोर्शनल होता है!!!
Monday, December 13, 2010
Wednesday, December 01, 2010
यूँही फुर्सत में: कुछ ख्याल!
चंद रोज़ बेगारी के,
कुछ पल कामचोरी के,
कई सफहों को कलम फिर गंदा कर गयी!
वो जब कुछ नहीं करता तो कितना कुछ कर देता है या कितना कुछ कर देने की शक्ति रखता है. कमरे में अकेले किताबों के बीच बैठा हुआ. बड़ी मुश्किल से ध्यान वहीँ बगल में रखे अपने लैपटॉप पर से हटा पाता है. किताबों की पतली-मोटी अक्षरें उसका ध्यान अपनी तरफ खींच पाने में अक्सर असफल हो जाती हैं. कमरे के बाहर सड़क पर से गुजरती हुई वो 'उमर बिजली मलहम' की प्रचार गाड़ी उन अक्षरों को हमेशा मात दे देती हैं. कमरे के बाहर का कुछ भी उसे कितना भाता है. उसका मन हमेशा यूँही कुछ ख्यालों में खोया रहता है. बेतरतीब से कई ख्याल, कुछ ढंग के, बाकी सारे बेढंगे, बिना सर पैर के. ख्यालों की कोई निश्चित दिशा नहीं होती, इसका प्रमाण वो हर रोज़ अपनी ज़िन्दगी में देखता है. घर के बाहर काम कर रहे मजदूर के चेहरे पर के झुर्रियों से जो उड़ान ख्याल भरते हैं उनकी लैंडिंग न जाने कहाँ कहाँ हो जाती है. एयर ट्रैफिक कंट्रोल वालों को कितनी मुश्किल होती होगी. कभी आगे से, कभी पीछे से, कभी ऊपर से, कभी नीचे से, अचानक, ख्यालों का एक्सीडेंट न जाने कितनी बार हवाई जहाज़ों से होता होगा.
न जाने कितने ख्याल कुछ मिनटों में उसका मन बुन लेता है. कुछ ख्याल ऐसी सवालों के शक्ल में आते हैं जिनका जवाब कोई नहीं दे सकता. 'मनमोहन देसाई न होते तो "खोया-पाया" फिल्मों का वजूद क्या होता?'.......'अमिताभ बच्चन की ऊंचाई थोड़ी कम होती तो ड्रीम हसबैंड की ऊंचाई का मानक कौन होता?'.......'माधुरी दीक्षित की चोली के पीछे इतनी हलचल क्यूँ रहती थी?'.........'विनोद मेहरा के शर्ट के ऊपर के चार बटन नदारद क्यूँ होते थे?'.........'हेलेन आंटी का पीठ हमेशा खुला ही क्यूँ होता था'.......'हंगल साहब अपने बेटे की अर्थी उठाते उठाते खुद कभी क्यूँ नहीं मरे?'........'सचिन तेंदुलकर बैटिंग के पहले टाँगे क्यूँ फैलाता है?'........'सिद्धू के मुहावरों की गंगोत्री हिमालय के किस भाग से निकलती है?'.........ऐसे ही कई सौ सवाल है..........जवाब न मिलता है, न मिलने की ख्वाहिश होती है. बस एक ख्वाहिश रहती है ऐसे सवालों के हमेशा जिंदा रहने की. शायद मन को घूमने का इक आयाम देती हैं ये. उनकी उड़ान के लिए पंखों का सहारा बनती हैं ये. शायद इसीलिए जवाब ढूंढता भी नहीं वो. कहीं जवाब मिल गए तो मन की उड़ान बंद न हो जाये.....
कई ख्याल ऐसे भी होते हैं जो उसे कुछ सोचने को मजबूर करती है. कई दिन की चिलचिलाती धूप के बाद वो कुछ घंटों के लिए बादलों का घुमड़ना.......हवा के झोकों में किसी लड़की का दुपट्टा फिर से उड़ना.........दिन भर काम करते उस मजदूर का झुर्रियों भरा चेहरा.........अस्पताल में इमरजेंसी में एक गरीब की अपनी किस्मत से हार........उस दिन टेलीफोन पर प्रेमिका से झगडा........न जाने और क्या क्या........रेखा के मन को बहकने के लिए बेली के महकने की दरकार होती थी, उसके मन के लिए ऐसी कोई जरुरत नहीं. बहकना उसके मन का शौक है, मजबूरी नहीं. बिना किसी सीमा के किसी भी गली में कभी भी घुस जाता है उसका मन. मंजिल तक पहुचने की कोई लालसा नहीं, बस राह चलते रहने की अभिलाषा होती है.
कुछ ऐसे ही बेगारी भरे दिन बीते पिछले कुछ दिन. कई ख्याल मन में उमड़ते रहे. कुछ नाकाम रह गए तो कुछ ने शब्दों की शक्ल ले ली. ऐसे ही कुछ ख्याल यहाँ पेश करने के कोशिश कर रहा हूँ. उम्मीद है पसंद आयेंगे!
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उस रोज़ सूरज ने आँखें मूंदी थी
या बादल के साए में छुप गया था.
चाँद दो पल के लिए ही सही, मुस्करा रहा था!
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ज़ालिम हवा के वो झोंके
उड़ता हुआ वो तुम्हारा दुपट्टा
उफ़! खुली आँखों के ये सपने बड़े जालिम होते हैं!
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चाँद आया था धरती और सूरज के बीच
तारे भी उस रोज़ मुस्करा रहे थे.
बीच दोपहर में भी रात आती है कभी!
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वो झुर्रियों भरा चेहरा आज भी ईंट ढो रहा था.
आसमान में आज बादल छा गए थे
आख़िरकार आज सूरज ने भी हार मान ही ली!
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वक़्त की बेवफाई कहूं
या शुबहे की दगाबाजी थी.
जागे हुए बड़ी लम्बी गुजरी थी वो रात!
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ज़िन्दगी और मौत की जद्दोजहद में
गाँधी के चंद हरे-लाल चेहरों ने फिर बाजी मार ली
ये बीमारियाँ गरीबों का पेटेंट ही क्यूँ नहीं करा लेती?
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कुछ पल कामचोरी के,
कई सफहों को कलम फिर गंदा कर गयी!
वो जब कुछ नहीं करता तो कितना कुछ कर देता है या कितना कुछ कर देने की शक्ति रखता है. कमरे में अकेले किताबों के बीच बैठा हुआ. बड़ी मुश्किल से ध्यान वहीँ बगल में रखे अपने लैपटॉप पर से हटा पाता है. किताबों की पतली-मोटी अक्षरें उसका ध्यान अपनी तरफ खींच पाने में अक्सर असफल हो जाती हैं. कमरे के बाहर सड़क पर से गुजरती हुई वो 'उमर बिजली मलहम' की प्रचार गाड़ी उन अक्षरों को हमेशा मात दे देती हैं. कमरे के बाहर का कुछ भी उसे कितना भाता है. उसका मन हमेशा यूँही कुछ ख्यालों में खोया रहता है. बेतरतीब से कई ख्याल, कुछ ढंग के, बाकी सारे बेढंगे, बिना सर पैर के. ख्यालों की कोई निश्चित दिशा नहीं होती, इसका प्रमाण वो हर रोज़ अपनी ज़िन्दगी में देखता है. घर के बाहर काम कर रहे मजदूर के चेहरे पर के झुर्रियों से जो उड़ान ख्याल भरते हैं उनकी लैंडिंग न जाने कहाँ कहाँ हो जाती है. एयर ट्रैफिक कंट्रोल वालों को कितनी मुश्किल होती होगी. कभी आगे से, कभी पीछे से, कभी ऊपर से, कभी नीचे से, अचानक, ख्यालों का एक्सीडेंट न जाने कितनी बार हवाई जहाज़ों से होता होगा.
न जाने कितने ख्याल कुछ मिनटों में उसका मन बुन लेता है. कुछ ख्याल ऐसी सवालों के शक्ल में आते हैं जिनका जवाब कोई नहीं दे सकता. 'मनमोहन देसाई न होते तो "खोया-पाया" फिल्मों का वजूद क्या होता?'.......'अमिताभ बच्चन की ऊंचाई थोड़ी कम होती तो ड्रीम हसबैंड की ऊंचाई का मानक कौन होता?'.......'माधुरी दीक्षित की चोली के पीछे इतनी हलचल क्यूँ रहती थी?'.........'विनोद मेहरा के शर्ट के ऊपर के चार बटन नदारद क्यूँ होते थे?'.........'हेलेन आंटी का पीठ हमेशा खुला ही क्यूँ होता था'.......'हंगल साहब अपने बेटे की अर्थी उठाते उठाते खुद कभी क्यूँ नहीं मरे?'........'सचिन तेंदुलकर बैटिंग के पहले टाँगे क्यूँ फैलाता है?'........'सिद्धू के मुहावरों की गंगोत्री हिमालय के किस भाग से निकलती है?'.........ऐसे ही कई सौ सवाल है..........जवाब न मिलता है, न मिलने की ख्वाहिश होती है. बस एक ख्वाहिश रहती है ऐसे सवालों के हमेशा जिंदा रहने की. शायद मन को घूमने का इक आयाम देती हैं ये. उनकी उड़ान के लिए पंखों का सहारा बनती हैं ये. शायद इसीलिए जवाब ढूंढता भी नहीं वो. कहीं जवाब मिल गए तो मन की उड़ान बंद न हो जाये.....
कई ख्याल ऐसे भी होते हैं जो उसे कुछ सोचने को मजबूर करती है. कई दिन की चिलचिलाती धूप के बाद वो कुछ घंटों के लिए बादलों का घुमड़ना.......हवा के झोकों में किसी लड़की का दुपट्टा फिर से उड़ना.........दिन भर काम करते उस मजदूर का झुर्रियों भरा चेहरा.........अस्पताल में इमरजेंसी में एक गरीब की अपनी किस्मत से हार........उस दिन टेलीफोन पर प्रेमिका से झगडा........न जाने और क्या क्या........रेखा के मन को बहकने के लिए बेली के महकने की दरकार होती थी, उसके मन के लिए ऐसी कोई जरुरत नहीं. बहकना उसके मन का शौक है, मजबूरी नहीं. बिना किसी सीमा के किसी भी गली में कभी भी घुस जाता है उसका मन. मंजिल तक पहुचने की कोई लालसा नहीं, बस राह चलते रहने की अभिलाषा होती है.
कुछ ऐसे ही बेगारी भरे दिन बीते पिछले कुछ दिन. कई ख्याल मन में उमड़ते रहे. कुछ नाकाम रह गए तो कुछ ने शब्दों की शक्ल ले ली. ऐसे ही कुछ ख्याल यहाँ पेश करने के कोशिश कर रहा हूँ. उम्मीद है पसंद आयेंगे!
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उस रोज़ सूरज ने आँखें मूंदी थी
या बादल के साए में छुप गया था.
चाँद दो पल के लिए ही सही, मुस्करा रहा था!
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ज़ालिम हवा के वो झोंके
उड़ता हुआ वो तुम्हारा दुपट्टा
उफ़! खुली आँखों के ये सपने बड़े जालिम होते हैं!
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चाँद आया था धरती और सूरज के बीच
तारे भी उस रोज़ मुस्करा रहे थे.
बीच दोपहर में भी रात आती है कभी!
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वो झुर्रियों भरा चेहरा आज भी ईंट ढो रहा था.
आसमान में आज बादल छा गए थे
आख़िरकार आज सूरज ने भी हार मान ही ली!
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वक़्त की बेवफाई कहूं
या शुबहे की दगाबाजी थी.
जागे हुए बड़ी लम्बी गुजरी थी वो रात!
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ज़िन्दगी और मौत की जद्दोजहद में
गाँधी के चंद हरे-लाल चेहरों ने फिर बाजी मार ली
ये बीमारियाँ गरीबों का पेटेंट ही क्यूँ नहीं करा लेती?
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Friday, November 26, 2010
फिर यादें होती हैं, उदासी नहीं होती!
कमरे के कोने में बैठा
शायद घंटों बीत गए थे,
एक और शाम यूँही ढल गयी थी
शायद बाहर अँधेरा हो आया था.
कोई फर्क नहीं पड़ता,
बाहर के अँधेरे से,
अब डर नहीं लगता.
आदत सी हो गयी है.
आखिर मन में अँधेरा ही तो है.
मन में अँधेरा?
सचमुच?
नहीं, अँधेरे की आदत नहीं लगी
बस अब महसूस नहीं होता,
यादों के उजाले में, अब,
अँधेरा पता ही नहीं चलता.
एक अकेलापन है.
है क्या?
कमरे के कोने में
अकेला ही तो बैठा हूँ.
सच क्या?
नहीं, यादों के भवर में
कई लोग हैं,
साथ घूम रहे हैं,
यूँही झूम रहे हैं.
साथ वो भी बैठी थी शायद,
बगल में तो नहीं थी,
हाँ, ख्यालों के एक कोने में होगी,
वही तो होती है हमेशा.
कुछ बोलती है
मेरी यादों के बारे में,
कुछ पूछती है,
इन ख्यालों के बारे में.
वो बोलती है,
यादों की उड़ान
न जाने कहा ले जाती है,
टूटे हुए तारों को अचानक
फिर जोड़े जाती है.
तार जुड़ने की खुशियाँ कम,
टूटे होने की पीड़ा अधिक दे जाती है,
तनहा तो नहीं छोड़ती,
पर दुखी छोड़े जाती है.
वो पूछती है,
क्यूँ उदास होते हो पुरानी बातों में,
क्यूँ डूबे रहते हो उन यादों में?
जो खुशियाँ नहीं देती
क्या फायदा उन यादों का,
मन उदास हो जिनसे
क्यूँ बात करना उन ख्यालों का?
मैं कहता हूँ,
यादों से दूर न करो,
उन ख्यालों से दूर न करो.
आज हमेशा आज नहीं होता,
हर कोई हमेशा पास नहीं होता.
दोस्त रहते हैं मगर दोस्ती नहीं रहती,
दिल होता है मगर दिल्लगी नहीं होती.
हाँ, सच ही तो कहते हैं लोग,
ज़िन्दगी हर वक़्त एक जैसी नहीं होती.
लोग मिलते हैं मगर,
बातों की फुर्सत नहीं होती,
बस पुरानी डायरी के कुछ पन्ने होते हैं,
फिर यादें होती हैं, उदासी नहीं होती!
Wednesday, November 24, 2010
नीतीश कुमार की जीत: वक़्त ख़ुशी मनाने का या आगे देखने का?
बिहारी चुनाव समर आज आखिरकार अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच गया. वोटों की गिनती और परिणाम घोषित होने के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनने का रास्ता साफ़ हो गया. नीतीश कुमार नीत जदयू-भाजपा गठबंधन की सरकार के शपथ लेते ही एक महीने से चल रही इस पूरी लीला का पटाक्षेप हो जायेगा. आज घोषित हुए ये परिणाम अपने आप में अद्भुत ही नहीं अद्वितीय मालूम पड़ते हैं. नीतीश कुमार के पिछले 5 सालों के विकास-राज ने आज लालू यादव के गुंडा-राज को अंततः दफ़न कर दिया. बिहार की राजनीति में ऐसा पहले कभी न हुआ होगा जब जात-पात को छोड़कर इस तरह की वोटिंग हुई हो और ऐसा जनादेश मिला हो.
'70 के दशक में इंदिरा गाँधी के तथाकथित तानाशाह और उसके बाद इमरजेंसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक बयार बिहार समेत पूरे देश में चली थी जिसका नतीजा केंद्र में पहली दफा गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में आया था. हालांकि जेपी आन्दोलन अपने आप को देश भर में दीर्घकालिक नहीं बना सका था मगर बिहार की राजनीति में इसका प्रभाव लम्बे समय तक आने वाला था. इसी छात्र आन्दोलन की देन बिहार को लालू यादव और नीतीश कुमार के रूप में मिली जो इस विधानसभा चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ खड़े थे. ये चुनाव सिर्फ दो पार्टियों की लड़ाई नहीं थी मगर छात्र आन्दोलन के दो धुरी रहे इन दो नेताओं की साख की लड़ाई थी. एक ही विचारधारा से जुड़े राजनीति में कदम रखने वाले इन दो नेताओं की राहें आज इतनी जुदा हो चुकी हैं जिसका अनुमान आज के चुनाव परिणाम से ही लगाया जा सकता है.
'90 के दशक में कांग्रेस को हराकर सत्ता पर काबिज होने वाले लालू यादव ने एक भूल कर दी थी. जिस तानाशाही का विरोध करके उन्होंने राजनीति में अपनी पहचान बनायीं थी, वो खुद उसी तानाशाही की तरफ बढ़ने लगे थे. 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू' का नारा तक देने में उन्हें उस जनता की याद नहीं आई थी जिसने उन्हें सर आखों पर बिठाया था. बिहार को अपनी बपौती और बिहारियों को अपनी प्रजा समझने की भूल उन्हें 2005 में अपना राज खोकर चुकानी पड़ी. 15 साल से रुके हुए बिहार की इंजन को दुरुस्त करके उसे पटरी पर लाने का एक असाधारण काम नीतीश कुमार ने अपने 5 सालों में कर दिखाया. जिस विकास की बयार नितीश कुमार ने बिहार में इन पांच सालों में बहाई उसका नतीजा आज एक स्पष्ट जनादेश के रूप में उन्हें मिला है.
हर ओर बिहार में आज ख़ुशी का माहौल है. दो तिहाई बहुमत की बात तो छोड़ ही दी जाए, यहाँ तो नौ-दहाई के आसपास का बहुमत एनडीए गठबंधन को मिल चुका है. एक असाधारण फैसला ही लगता है. बिहारी जनता की बात करें तो हर कोई इस विकास की गाड़ी को आगे चलते देखना चाहता था मगर मन में कही न कही इसके ठोकर खाकर रुक जाने का डर सताया हुआ था. आज का ये फैसला उनके डर को सिर्फ समाप्त ही नहीं करता मगर एक नए बिहार के निर्माण के सपने का बीज भी बो रहा है. बिहारी जनता खुश है विकास की इस जीत को देखकर.
ऐसे स्पष्ट जनादेश का मतलब बहुत साफ़ है. नीतीश कुमार के किये गए कामों को हर जगह से स्वीकृति मिली है. मगर सवाल ये है कि कही ऐसा जनादेश देखकर खुद नीतीश बाबु ही अपने आप को न संभाल पाए. कई बार उम्मीद से अधिक मिल जाने पर मन बावला हो उठता है. अगर ऐसा ही कुछ हो गया तो शायद बिहार के लिए इससे बुरी बात और कुछ नहीं रह जाएगी. जिस गफलत का शिकार लालू हो गए थे अगर उसी ने नीतीश को घेर लिया तो अनुमानों से परे नुकसान बिहार को उठाना पड़ सकता है. ऐसा भी हो सकता है कि नीतीश ऐसे जनादेश को देखकर कुछ सुस्ताने की सोच बैठे. जनता का समर्थन अपने ओर देखकर अगर वे निश्चिंत हो गए तो शायद फिर कभी कोई बिहारी निश्चिंत नहीं हो पायेगा. ऐसे में इस जीत पर ख़ुशी मनाकर शायद हम एक भूल कर रहे हैं, समय-पूर्व ख़ुशी मनाने की. ये समय ख़ुशी मनाने का नहीं, आलोचनाओं का है. नीतीश की पिछले 5 सालों में नाकामियों को गिनाने का है और आगे की जरूरतों पर रौशनी डालने का है. समय है नीतीश कुमार को जगाये रखने का, अपनी तरक्की की और विकास की ओर ध्यान लगाये रखने का.
'70 के दशक में इंदिरा गाँधी के तथाकथित तानाशाह और उसके बाद इमरजेंसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक बयार बिहार समेत पूरे देश में चली थी जिसका नतीजा केंद्र में पहली दफा गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में आया था. हालांकि जेपी आन्दोलन अपने आप को देश भर में दीर्घकालिक नहीं बना सका था मगर बिहार की राजनीति में इसका प्रभाव लम्बे समय तक आने वाला था. इसी छात्र आन्दोलन की देन बिहार को लालू यादव और नीतीश कुमार के रूप में मिली जो इस विधानसभा चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ खड़े थे. ये चुनाव सिर्फ दो पार्टियों की लड़ाई नहीं थी मगर छात्र आन्दोलन के दो धुरी रहे इन दो नेताओं की साख की लड़ाई थी. एक ही विचारधारा से जुड़े राजनीति में कदम रखने वाले इन दो नेताओं की राहें आज इतनी जुदा हो चुकी हैं जिसका अनुमान आज के चुनाव परिणाम से ही लगाया जा सकता है.
'90 के दशक में कांग्रेस को हराकर सत्ता पर काबिज होने वाले लालू यादव ने एक भूल कर दी थी. जिस तानाशाही का विरोध करके उन्होंने राजनीति में अपनी पहचान बनायीं थी, वो खुद उसी तानाशाही की तरफ बढ़ने लगे थे. 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू' का नारा तक देने में उन्हें उस जनता की याद नहीं आई थी जिसने उन्हें सर आखों पर बिठाया था. बिहार को अपनी बपौती और बिहारियों को अपनी प्रजा समझने की भूल उन्हें 2005 में अपना राज खोकर चुकानी पड़ी. 15 साल से रुके हुए बिहार की इंजन को दुरुस्त करके उसे पटरी पर लाने का एक असाधारण काम नीतीश कुमार ने अपने 5 सालों में कर दिखाया. जिस विकास की बयार नितीश कुमार ने बिहार में इन पांच सालों में बहाई उसका नतीजा आज एक स्पष्ट जनादेश के रूप में उन्हें मिला है.
हर ओर बिहार में आज ख़ुशी का माहौल है. दो तिहाई बहुमत की बात तो छोड़ ही दी जाए, यहाँ तो नौ-दहाई के आसपास का बहुमत एनडीए गठबंधन को मिल चुका है. एक असाधारण फैसला ही लगता है. बिहारी जनता की बात करें तो हर कोई इस विकास की गाड़ी को आगे चलते देखना चाहता था मगर मन में कही न कही इसके ठोकर खाकर रुक जाने का डर सताया हुआ था. आज का ये फैसला उनके डर को सिर्फ समाप्त ही नहीं करता मगर एक नए बिहार के निर्माण के सपने का बीज भी बो रहा है. बिहारी जनता खुश है विकास की इस जीत को देखकर.
ऐसे स्पष्ट जनादेश का मतलब बहुत साफ़ है. नीतीश कुमार के किये गए कामों को हर जगह से स्वीकृति मिली है. मगर सवाल ये है कि कही ऐसा जनादेश देखकर खुद नीतीश बाबु ही अपने आप को न संभाल पाए. कई बार उम्मीद से अधिक मिल जाने पर मन बावला हो उठता है. अगर ऐसा ही कुछ हो गया तो शायद बिहार के लिए इससे बुरी बात और कुछ नहीं रह जाएगी. जिस गफलत का शिकार लालू हो गए थे अगर उसी ने नीतीश को घेर लिया तो अनुमानों से परे नुकसान बिहार को उठाना पड़ सकता है. ऐसा भी हो सकता है कि नीतीश ऐसे जनादेश को देखकर कुछ सुस्ताने की सोच बैठे. जनता का समर्थन अपने ओर देखकर अगर वे निश्चिंत हो गए तो शायद फिर कभी कोई बिहारी निश्चिंत नहीं हो पायेगा. ऐसे में इस जीत पर ख़ुशी मनाकर शायद हम एक भूल कर रहे हैं, समय-पूर्व ख़ुशी मनाने की. ये समय ख़ुशी मनाने का नहीं, आलोचनाओं का है. नीतीश की पिछले 5 सालों में नाकामियों को गिनाने का है और आगे की जरूरतों पर रौशनी डालने का है. समय है नीतीश कुमार को जगाये रखने का, अपनी तरक्की की और विकास की ओर ध्यान लगाये रखने का.
Monday, November 22, 2010
कल्पनाओं से परे एक परिवार की उड़ान!
तीन कमरे का एक छोटा सा मकान. छोटे-छोटे कमरे, सब मिलकर एक कमरे के बराबर. 5 लोगों का परिवार. 1-2 की संख्या में अतिथि हमेशा मौजूद. एस्बेस्टस की छत. ऊंचाई इतनी कि एक पंखा भी न टाँगा जा सके. जेठ की झुलसती गर्मी में बदहवास होते बच्चों पर तरस खाकर मकान-मालिक ने एक पुराना-खटारा टेबल पंखा दे दिया. गर्मी से निजात तो मिली मगर आँखों की नींद पंखे की घर्र-घर्र ने छीन ली. छोटा बेटा सिर्फ 3 महीने का था, बड़ा वाला 7 साल का, बीच में एक बेटी, 5 साल की. बड़ा बेटा रात को बाहर ही सोता था, खुली आसमान के नीचे. मजबूरी भले थी, मगर, उसे शायद अच्छा लगता था. सपनों की उड़ान को रोकने वाला कोई नहीं होता था. सीधे चाँद और तारों से बातें होती थी.
सुबह उठकर नहाने की दिक्कत. एक गुसलखाना तक न था. बच्चे पापा के साथ घर के बाहर लगे नलके के नीचे बैठकर ही नहा लिया करते थे. माँ जैसे तैसे घर के अन्दर ही नहाती थी. गर्मी ऐसे ही अन्दर बाहर करते बीत जाती थी. सुकून मिलता था, शायद अब आराम मिले. बरसात की फुहारों से शायद कुछ राहत मिले. बरसात आपने साथ राहत जरूर लाती थी, मगर दिक्कतें यही ख़त्म नहीं होती. एस्बेस्टस की छत थी, कुछ छेद तो होने ही थे. बरसात शुरू तो पता ही नहीं चलता था कि घर के अन्दर हैं या बाहर. जगह-जगह से पानी की बूंदें गिरती थी. कमरे भले तीन थे मगर बिस्तर सिर्फ एक ही हुआ करता था. सूरज गोले बरसाए या छत पर से बूँदें टपके, सब को सोना वही पड़ता था. कभी साबुन से छेदों को सील करके तो कभी कटोरियाँ टांग के. अब तो छोटा बेटा भी 3 साल का हो गया था. बल्ला-बॉल खरीदने के लायक पापा की आर्थिक क्षमता नहीं थी. ऐसे में बच्चे कभी शिकायत नहीं करते थे. कटोरियाँ टांगने की मजबूरी को ही अपना खेल समझते थे और छेदों को सील करने वाले साबुन को अपना खिलौना. दुःख कहाँ दिखता था चेहरे पर. कोई शिकन भी नहीं.
एक बड़े से अहाते के एक कोने में बने इस छोटे से घर की दिक्कतें किसी मौसम में ख़त्म नहीं होती. जंगल-झाड के बीच बने इस घर में बरसात के बाद सापों का प्रकोप दिखता था. बच्चों को तो सांप से भी डर नहीं लगता था. सांप देखते ही बेटी अपने पापा को लाठी जाकर दे देती थी. न जाने कितने साँपों के सर का कचूमर निकलते देखा था उन नन्हे आँखों ने. डर क्यूँ आएगा. पढने के टेबल पर किताबों के बीच में सांप भी बैठते थे. एक याराना सा लगता था शायद. जाड़े के मौसम में डाक्टर पापा की MBBS डिग्री का सही मतलब समझ आता था. एक ही बिस्तर पर एक ही रजाई के नीचे मियाँ-बीवी-बच्चों-समेत. जगह कम होने की कोई शिकायत नहीं होती थी.
स्थिति कुछ सुधरी तो खेलने के कुछ सामन आने लगे. साल में एक. एक बार बल्ला आया, एक बार कैरम बोर्ड, एक बार व्यापारी. 'साल में एक' की शर्त का नतीजा था शायद जो बच्चों ने अपनी ज़िन्दगी में चीजों को सहेज कर रखने का गुण सीखा. कभी एक से ज्यादा की मांग नहीं कि, जरुरत ही नहीं महसूस होती थी. जब जो माँगा गया, माँ-पापा ने सब कुछ पूरा किया, शायद इसलिए कोई लालसा नहीं रहती थी. बिना मांगे ही उन्होंने इतना कुछ दिया कि कभी कोई कमी महसूस नहीं होती थी. क्या नहीं था उन बच्चों के पास. पड़ोस के बच्चों जैसे रिमोट पर चलने वाले कार नहीं थे तो क्या हुआ, पापा ने रस्सी खीचने वाली गाडी खुद बना दी थी. गाडी में बैठ कर घूमने का मजा वो नहीं जानते थे, स्कूटर पर माँ-पापा के साथ बैठकर घूमने के सामने उनके लिए कुछ भी नहीं था. बेटी आगे खड़ी होती थी, बड़ा बेटा बीच में बैठता था और छोटा माँ की गोद में. बेटी बड़ी होने के बाद भी वहीँ खड़ी होती थी, गर्दन दर्द हो जाये इस तरह से अपने सर को झुकाए. कभी जो उसने एक बार भी चूं तक की हो. दर्द क्या होता था बच्चे जानते ही नहीं थे.
बड़ा बेटा अब 17 साल का हो गया था, बेटी 15 की और छोटा बेटा 10 साल का. पापा की आमदनी और बचत से अब अपना एक घर बन गया था. छोटा सा प्यारा सा एक घर. खिडकियों में पल्ले लगाने के पैसे नहीं थे फिर भी, सब लोग इस घर में आ गए. समय के साथ खिडकियों में पल्ले भी लग गए और एक तल्ला छोटा मकान कुछ सालों में 3 तल्ले से भी ऊपर हो गया. बड़ा बेटा इंजीनियर बन गया. अपनी कमाई से एक बड़े शहर में अपना एक फ्लैट खरीद लिया उसने. बेटी डाक्टर बन गयी. अपना घर उसने भी बसा लिया. छोटा बेटा भी अब डाक्टर बन चुका है. अपने उसी तीन तल्ले घर में रहता है. दो तल्ले खुद के पास रखे गए हैं. 3 छोटे-छोटे कमरों से शुरू हुई वो यात्रा आज 6 बड़े कमरों, 2 हॉल, 2 रसोई और 6 गुसलखाने तक पहुच गयी है. जब आदमी थे तब जगह नहीं था, आज जगह है आदमी नहीं. नए फ़ोन में पल-पल डायलटोन खोजने वाला छोटा बेटा आज दिन भर लैपटॉप लेकर ऑनलाइन रहता है. एक स्कूटर पर घूमने वाले पूरे परिवार के पास आज 4 चारपहिये और 4 दुपहिये हैं.
सब कुछ कितना बदल गया. कुछ नहीं बदला तो वो है माँ-पापा के चेहरे की वो ख़ुशी. वो तब भी थी, वो आज भी है. दुःख क्या होता है बच्चे आज भी नहीं जानते, या यूँ कहे कि जानना ही नहीं चाहते. कोई शिकायत आज भी नहीं होती. कोई मांग तब भी नहीं थी आज भी नहीं है, पापा बस वैसे ही बच्चों की झोलियाँ भरते रहते हैं. उनकी मेहनत ने उनके सपनों के साथ मिलकर क्या गुल खिलाया है उसपर विश्वास उन्हें आज भी नहीं होता. 20 साल पहले का वो घर कबूतरखाना ही तो लगता है आज. मगर क्या उनसब के लिए वो आशियाने से कम था. न जाने क्या क्या सपने देखे थे उस परिवार ने उस एस्बेस्टस की छत के नीचे. पता नहीं ऐसे भविष्य की कल्पना भी कभी की थी या नहीं.
20 तारीख को हमारे घर के गृह-प्रवेश के 14 साल पूरे हो गए. गाहे-बगाहे यूँही वो लम्हा याद आ गया जब पहली बार इस घर में कदम रखा था. उन लम्हों के साथ वो सबकुछ याद आ गया जो उसके पहले हमारे परिवार ने एक साथ बांटा था. बस वही सबकुछ यहाँ लिख दिया है. अभी बैठकर जब सबकुछ सोचता हूँ तो कुछ नहीं सूझता. बस मालूम होता है कि ये कुछ नहीं, एक मामूली परिवार की कल्पनाओं से परे एक उड़ान ही तो है, और क्या!
Monday, November 08, 2010
आइना मुझसे मेरी पहचान मांगता है
कई बार आपने देखा होगा किसी किशोर या किशोरी को कि अचानक उनमे कुछ बदलाव आ जाता है. उनकी ज़िन्दगी में उनके परिवार से ज्यादा अहमियत किसी और की हो जाती है. बताने की जरुरत नहीं कि किसकी. अचानक पिता का रोकना-टोकना खटकने लगता है. माँ से एक दूरी सी बन जाती है. घर के मामलों से ज्यादा वक़्त मोबाइल से चिपके रहने में चला जाता है और न जाने कितने घंटे इंटरनेट पर चैटिंग करने में बीत जाते हैं. आज के समय में ऐसे बदलाव इक्के-दुक्कों को छोड़कर सभी में आते हैं. पहले ये कॉलेज में जाने के बाद हुआ करता था, आजकल स्कूलों से ही शुरू हो जाता है. पता नहीं कैसे अचानक इन किस्सों में इतनी वृद्धि आई है मगर एक बात तो तय है कि इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता.
कुछ लोग इन बदलावों के बाद भी एक समन्वय अपनी ज़िन्दगी में बना लेते हैं जिससे किसी को कोई कठिनाई नहीं आती मगर, ज्यादातर लोग इस समन्वय को बना पाने में असमर्थ रहते हैं. बात बात पर घर में झूठ बोलना, बातों को छिपाना, चुप रहना, लड़ना-झगड़ना एक आदत सी बन जाती है. माँ-बाप भी सब कुछ जानकार अनजान बने रहते हैं. उनकी सुनने वाला ही कोई नहीं रहता जिसे वो कुछ बोलें. एक आपसी तनाव का सा माहौल बन जाता है. ऐसा तनाव जिसके छूटते ही पूरा घर बिखर जाए. कई घरों को बिखरते देखा है ऐसे तनाव में. कुछ बच जाते हैं और कुछ बचने का ढोंग करते रहते हैं. बस, ऐसे बदलाव की हर नयी खबर से एक और घर के बिखरने का डर मन में बैठ जाता है. एक आशा मन में जगी रहती है कि काश ये घर उन घरों में से हो जो बिखरने से बच जाते हैं.
आज की पेशकश भी ऐसे ही बदलावों के बारे में है जो हर किशोर और किशोरी के जीवन में आज आ रहे हैं. उम्मीद है पसंद आएगी.
आइना मुझसे मेरी
पहचान मांगता है,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानता है.
मेज पर रखी घड़ी,
रैक पर की किताबें,
कमरे की छत,
छत के कोने के झाले,
सब,
नीची निगाहों से मुझे देखते हैं,
आँखों ही आँखों में मुझे कोसते हैं.
कहते हैं मैं वो न रहा,
बदल गया हूँ,
किसी के मिल जाने से
घमंडी हो गया हूँ.
माँ भी यही कहती है,
पापा कुछ नहीं कहते,
उन्होंने कभी कुछ कहा भी नहीं.
बस देखते हैं, घूरते हैं,
शायद मन ही मन वो भी कोसते हैं.
मैं समझ न पाया,
बदलाव ये कैसा मुझमे आया,
आईने में ढूँढने जाता हूँ,
मगर नज़र उठा नहीं पाता,
आइना सवाल करता है,
मैं कुछ बता नहीं पाता.
आईने से नज़रें चुराकर
खुद से नज़रें मिलाता हूँ,
उन दो पलों में ही
खुद को कितना बदला हुआ पाता हूँ,.
माँ की बातों से दूर,
उसकी बेतुकी बातें अब अच्छी लगती हैं,
पापा की झाड़ से पहले
उसके SMS पर आँखें टिकी रहती हैं.
आइना सबकुछ बता देता है,
खुद की नज़रों में सबकुछ दिखा देता है.
कोई धुंध नज़रों के बीच नहीं आता,
कोई पर्दा सच को छिपा नहीं पाता.
अब तो अपनी नज़रें भी
मेरी पहचान मांगती हैं,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानती है.
कुछ लोग इन बदलावों के बाद भी एक समन्वय अपनी ज़िन्दगी में बना लेते हैं जिससे किसी को कोई कठिनाई नहीं आती मगर, ज्यादातर लोग इस समन्वय को बना पाने में असमर्थ रहते हैं. बात बात पर घर में झूठ बोलना, बातों को छिपाना, चुप रहना, लड़ना-झगड़ना एक आदत सी बन जाती है. माँ-बाप भी सब कुछ जानकार अनजान बने रहते हैं. उनकी सुनने वाला ही कोई नहीं रहता जिसे वो कुछ बोलें. एक आपसी तनाव का सा माहौल बन जाता है. ऐसा तनाव जिसके छूटते ही पूरा घर बिखर जाए. कई घरों को बिखरते देखा है ऐसे तनाव में. कुछ बच जाते हैं और कुछ बचने का ढोंग करते रहते हैं. बस, ऐसे बदलाव की हर नयी खबर से एक और घर के बिखरने का डर मन में बैठ जाता है. एक आशा मन में जगी रहती है कि काश ये घर उन घरों में से हो जो बिखरने से बच जाते हैं.
आज की पेशकश भी ऐसे ही बदलावों के बारे में है जो हर किशोर और किशोरी के जीवन में आज आ रहे हैं. उम्मीद है पसंद आएगी.
आइना मुझसे मेरी
पहचान मांगता है,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानता है.
मेज पर रखी घड़ी,
रैक पर की किताबें,
कमरे की छत,
छत के कोने के झाले,
सब,
नीची निगाहों से मुझे देखते हैं,
आँखों ही आँखों में मुझे कोसते हैं.
कहते हैं मैं वो न रहा,
बदल गया हूँ,
किसी के मिल जाने से
घमंडी हो गया हूँ.
माँ भी यही कहती है,
पापा कुछ नहीं कहते,
उन्होंने कभी कुछ कहा भी नहीं.
बस देखते हैं, घूरते हैं,
शायद मन ही मन वो भी कोसते हैं.
मैं समझ न पाया,
बदलाव ये कैसा मुझमे आया,
आईने में ढूँढने जाता हूँ,
मगर नज़र उठा नहीं पाता,
आइना सवाल करता है,
मैं कुछ बता नहीं पाता.
आईने से नज़रें चुराकर
खुद से नज़रें मिलाता हूँ,
उन दो पलों में ही
खुद को कितना बदला हुआ पाता हूँ,.
माँ की बातों से दूर,
उसकी बेतुकी बातें अब अच्छी लगती हैं,
पापा की झाड़ से पहले
उसके SMS पर आँखें टिकी रहती हैं.
आइना सबकुछ बता देता है,
खुद की नज़रों में सबकुछ दिखा देता है.
कोई धुंध नज़रों के बीच नहीं आता,
कोई पर्दा सच को छिपा नहीं पाता.
अब तो अपनी नज़रें भी
मेरी पहचान मांगती हैं,
कौन हूँ मैं, अब,
मुझे अनजान मानती है.
Tuesday, November 02, 2010
डॉट है तो हॉट है!
जी हाँ! बिहार के विधानसभा चुनाव के चौथे चरण में कल हमारे यहाँ पटना में भी चुनाव हुए. हालांकि बालिग़ हुए 4 साल हो गए हैं, मगर मतदान करने का मौका पहली बार ही मिला. 2009 के आम चुनाव के समय बालिग़ था मगर निर्वाचन आयोग की लापरवाहियों की वजह से न मतदाता सूची में नाम चढ़ सका था ना ही मतदाता पहचान पत्र ही बन सका था. इस बार लग-भीड़ कर किसी तरह से नाम भी चढवा लिया और पहचान पत्र भी बनवा लिया. और इस बार गधा जन्म छुडाते हुए जीवन में पहली बार मतदान कर ही दिया. हर-हर गंगे के उद्घोष के साथ लोकतंत्र के महापर्व में हमने भी आखिरकार डूबकी लगा ही ली.
कभी कभार ऐसी बाते आपके साथ हो जाती हैं जो आपको अपने देश की व्यवस्था पर सवाल उठाने को मजबूर कर ही देती हैं. जब पहली बार मतदाता सूची में नाम और मतदाता पहचान पत्र के लिए आवेदन किया तो उसपर कोई सुनवाई ही नहीं हुई. दुबारा जब फिर से कोशिश हुई तो इस बार नाम तो चढ़ा मगर उसमे सारे विवरण गलत थे. नाम सही नहीं लिखा हुआ था, पिताजी का उपनाम गलत था, एक भले-भाले पुरुष को वहाँ महिला करार कर दिया गया था और रही सही कसर नाम के आगे एक औरत की तस्वीर लगा कर पूरी कर दी गयी थी. संशोधन के लिए फिर से आवेदन करना पड़ा और संशोधित पहचान पत्र जब घर पहुंचा तो उसमे तस्वीर, लिंग और पिताजी का नाम तो सही कर दिया गया था मगर मेरा नाम की स्पेल्लिंग अभी भी गलत थी. चूँकि चुनाव नजदीक आ चुके थे इसलिए इस बार संशोधन के लिए आवेदन को चुनाव बाद तक टाल दिया. कल उसी गलत-सलत पहचान पत्र से जाकर मतदान कर आया. पता नहीं कितनी बार दौड़ना पड़ेगा एक अदने से पहचान पत्र को त्रुटी-रहित बनाने के लिए. क्यूँ, सवाल उठते हैं न अपनी देश की व्यवस्था पर?
खैर, 3 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद आज सूची में अपना नाम खोज सका और जाकर मतदान किया. मन में ख़ुशी तो होनी ही थी. जीवन का पहला मतदान, वो भी इतनी शिद्दत के बाद तो ख़ुशी के लिए जगह तो बनती ही है. मगर आज जब अभी ये सबकुछ लिख रहा हूँ तो उतना खुश नहीं हूँ. जानता हूँ कि भले मेरा उम्मेदवार चुनाव जीत जाए, मत तो मेरा बर्बाद ही जाना है. देश के लोकतंत्र की ऐसी हालत हो गयी है जहां चुनाव जनता की भलाई के लिए नहीं जीता जाता. चुनाव जीता जाता है अपनी तिजोरी भरने के लिए और जेब गर्म रखने के लिए. दिए गए सभी विकल्पों में कोई उम्मीदवार इस लायक नहीं है कि हम उसे अपना नेता कह सके. ऐसे में एक मत किसी को भी चला जाए कोई फर्क नहीं पड़ता. सब लूटेंगे ही, कोई कम नहीं, कोई ज्यादा नहीं. ख़ुशी तब अधिक होती जब सच में कोई नेता कहलाने लायक उम्मीदवार मैदान में होता या फिर बैलट पर 'इनमे से कोई नहीं' का विकल्प होता ताकि उसके सामने का बटन दबाकर अपनी अस्वीकृति को दर्ज करा सकता था. खैर, छोड़िये इन बातों को, अंतहीन बहस है ये, एक ऐसा बहस जिसका कोई निष्कर्ष नहीं निकलने वाला. बात मतदान की है, अपनी मौलिक अधिकारों के इस्तेमाल की है और अपनी मौलिक धर्म को निभाने की है. यही सोचकर खुश हो जाता हूँ कि कम से कम आज के दिन ही सही, करोड़ों में एक तो हूँ!Monday, November 01, 2010
मेरा 100वाँ पोस्ट!
लगभग 3 साल से इस ब्लॉग पर सक्रिय हूँ. आज ये पोस्ट मेरी सौवीं पोस्ट बनकर आ रही है. जानता हूँ कि 3 साल के इस लम्बे सफ़र के लिए ये संख्या थोड़ी कम है, मगर देर आये दुरुस्त आये. इधर कुछ समय से इस पोस्ट के लिए मन में काऊंटडाउन चल रहा था और उम्मीद थी कि इसे एक स्पेशल पोस्ट बनाऊंगा. मगर आज जब लिखने बैठा हूँ तो कुछ मिल नहीं रहा. एक तरह की ख़ुशी मन में बैठी हुई है जो शायद इससे दूर हटकर सोचने का मौका ही नहीं दे रही. बार बार अपने ही ब्लॉग के बारे में सोचकर इस यात्रा की खबर मन में ले रहा हूँ. कहाँ था और कहाँ आ गया.
शुरुआत बड़े भाई के प्रोत्साहन पर फरवरी 2008 में हुई मगर सही मायनों में पहली पोस्ट मार्च में ही लिख सका था. अंग्रेजी से शुरू हुई इस सफ़र ने कई मोड़ देखे. शुरूआती दिनों में ज्यादातर फिल्मों के बारे में ही लिखता था. एकाध हिंदी के पोस्ट को छोड़कर सारे पोस्ट अंग्रेजी में ही होते थे. इस साल की शुरुआत में अचानक कुछ हिंदी ब्लॉग पढ़ कर हिंदी में लिखने की रूचि जग गयी. रोज-मर्रा की ज़िन्दगी से कुछ पहलुओं को उठाकर यहाँ पर लिखने लगा. आज हालत ये हो आई है कि एकाध अंग्रेजी के पोस्ट को छोड़कर सबकुछ हिंदी में ही लिखता हूँ. कभी मन में अंग्रेजी लिखने की बात भी आती, तो टाल जाता था. मगर इधर कुछ दिनों पहले दोनों भाषाओँ के लिए अलग अलग ब्लॉग का ख्याल मन में आया तो अंग्रेजी के लिए भी एक ब्लॉग बना ही डाला.
पढाई के बोझ के कारण ज्यादा समय नहीं दे पाता था ब्लॉग पर इसलिए ज्यादा नियमित नहीं हो पाता था. अक्सर या तो परीक्षा ख़त्म होने की खुमारी छाई रहती थी या आने वाले परीक्षाओं की परेशानी ही मन को घेरे रखती थी. ऐसे में जो भी समय बचता था उसमे ब्लॉग ही लिख लिया करता था. पिछले 2 सालों में जहां सिर्फ 50 पोस्ट लिख सका था वहीँ इस साल के दसवें महीने में ही 50 और पूरे हो गए. इस साल की शुरुआत में अपने लिए एक लक्ष्य तय किया था. इस ब्लॉग को नियमित चलाने के लिए और अपनी पढाई और इसके बीच समन्वय बनाये रखने के लिए मैंने हफ्ते में एक पोस्ट के दर का लक्ष्य मन में तय किया था. हालांकि बीच-बीच में कुछ समय के लिए अनियमित होता रहा हूँ मगर, फिर भी अभी तक अपने लक्ष्य से आगे ही हूँ और उम्मीद करता हूँ कि साल का अंत भी इसी तरह से होगा.
अनियमितताओं से अच्छा याद आया. एक बार ऐसा समय आ गया था ब्लॉग पर जहाँ हर पोस्ट की शुरुआत माफ़ी के साथ ही होती थी, माफ़ी ब्लॉग पर न आने की. शायद पोस्ट की शुरुआत के बारे में कुछ सोचने की जरुरत ही नहीं पड़ती थी. मालूम होता था कि शुरुआत तो माफ़ी से ही होगी. मगर शुक्र है कि अब ऐसा नहीं है. जहां तक इस महीने का सवाल है तो ये महिना मेरे ब्लॉग पर सबसे ज्यादा व्यस्त रहा. 10 पोस्ट इसके पहले मैंने किसी महीने में नहीं लिखे थे. ख़ास कर के इसके पहले के दो महीनों में जो अनियमितता आई थी उससे ब्लॉग्गिंग के प्रति रूचि खो बैठने का डर भी लगने लगा था. भला हो हमारी 'उनका', जिनके एक झूठे सपने ने फिर से मुझे ब्लॉग लिखने का प्रोत्साहन दे दिया. एक रोज़ 'उनका' फ़ोन आया और उन्होंने कहा कि उन्होंने एक सपना देखा है कि आज मैं ब्लॉग लिखूंगा, और साथ में शाम तक इस सपने को साकार करने का आग्रह भी था. अब उनका सपना और ऐसा आग्रह, इनकार कैसे कर सकता था. और फिर एक नयी शुरुआत हो आई ब्लॉग पर.
आप लोगों को पकाने का कोई इरादा नहीं था मेरा आज. मगर क्या करूं, बातों बातों में ही आपको पका ही डाला. क्या करूं, मन में एक ख़ुशी जो है. आप सब से बाटना चाहता था इसलिए ये सब लिख दिया. खैर, उम्मीद है कि आप सब का साथ बना रहेगा और मेरी ये गाड़ी, मद्धम गति से ही सही, मगर चलती रहेगी!
Wednesday, October 27, 2010
फ़िल्में, परम्पराएं और इनका फ्यूजन!
आज का दिन हिन्दुस्तान में पत्नियों के लिए बहुत ही पवित्र और महत्वपूर्ण दिन था. करवा चौथ का व्रत, बिना पानी पिए चाँद के दीदार तक रहना और फिर चाँद के साथ अपने पति को देख कर उस व्रत को तोड़ना, भारत के एक बड़े हिस्से में पत्नियों के लिए एक महापर्व है. ऐसी परम्परा भारत में कब से चली आ रही है मुझे पता नहीं, मगर उत्तर और पश्चिमी भारत के एक बड़े भूभाग पर इस पर्व को बड़े चाव के साथ मनाया जाता रहा है. पत्नियां अपने पति के लिए (और आजकल के युग में प्रेमिका अपने प्रेमी के लिए भी), दिन भर का अनुष्ठान उठाती हैं और शाम होने पर चाँद के दीदार के साथ उसी पति (या प्रेमी) के हाथों से पानी का घूँट पीकर इस व्रत को तोड़ती हैं.
मेरे लिए ये व्रत थोडा अनजाना सा है. बिहार से ताल्लुक रखता हूँ और अपनी छोटी सी ज़िन्दगी में बिहारी परम्पराओं को जितना देखा है उस हिसाब से मेरा इस व्रत के प्रति अनजानापन कोई अचम्भा नहीं है. बिहार में मैंने कभी इस पर्व को मनाते न अपने घर में देखा है न अड़ोस-पड़ोस में. हमारे यहाँ इस पर्व की ही तरह का एक दूसरा पर्व औरतें मनाती हैं जिसे हम 'तीज' कहते हैं. पूरे 24 घंटे तक बिना पानी पिए रहने का ये अनुष्ठान अगली सुबह को ही ख़त्म होता है. जो थोड़ी बहुत जानकारी करवा चौथ के बारे में मुझे है, वो अखबारों और फिल्मों के ज़रिये ही पहुची है. हालांकि, इधर के सालों में अचानक इस पर्व ने हमारी क्षेत्रीय संस्कृति में भी जगह बनानी शुरी कर दी है. इस साल यहाँ के क्षेत्रीय अखबारों में भी इस पर्व को बड़ा स्थान दिया गया है. अचानक इस प्रकार एक ख़ास परंपरा हमारी पौराणिक संस्कृतियों में अपनी पैठ बनाती है तो मन सोचने को मजबूर ज़रूर होता है.
आज से 15 साल पहले शायद मेरे घर में कोई करवा चौथ के बारे में कुछ ख़ास नहीं जानता होगा. मगर, आज का दिन है कि सब जानते ही नहीं बल्कि इसको लेकर बाते भी होती हैं. हालांकि अभी तक इसे करना किसी ने शुरू नहीं किया है मगर इस बात को पूरी तरह ठुकरा नहीं सकता कि आने वाली पीढ़ी इस परम्परा को भी अपनी संस्कृति में आयात न कर ले. खैर, जिस प्रकार पिछले दशक-डेढ़ दशक में इस व्रत की व्यापकता बढ़ी है कहीं न कहीं कुछ कारण जरूर है. सोचते-सोचते बात हर दिशा से सिनेमा की तरफ ही आकर रूकती है.
तकरीबन 15 साल पहले 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' फिल्म आई थी. करवा चौथ का एक महत्वपूर्ण प्रसंग इस फिल्म में था. 'मेहँदी लगा के रखना' गीत इसी प्रसंग में फिल्माया गया था. फिल्म सुपर-डुपर हिट रही, गाना आज भी लोग गुनगुना रहे हैं और पंजाबी संस्कृति के इस महत्वपूर्ण पर्व से इस फिल्म ने पूरे भारत को अवगत करा दिया. उसके बाद 'कुछ कुछ होता है', 'कभी ख़ुशी कभी ग़म', 'हम दिल दे चुके सनम' जैसी सुपर हिट फिल्मों ने इस पर्व को एक नयी लोकप्रियता दे दी. रही सही कसर टीवी सीरियलों ने पूरी कर दी. आज के दिन हर सीरियल में करवा चौथ ही मनाया जा रहा है.
फिल्मों की हमारी संस्कृति के ऊपर पड़ रहे प्रभावों का एक सजीव उदाहरण करवा चौथ की बढती लोकप्रियता रही है. फिल्मों ने पहले भी हमारी पारंपरिक मिथकों पर प्रभाव डाला है. '70 के दशक में अचानक जो उछाल संतोषी माँ की लोकप्रियता के ग्राफ में आया वो अद्वितीय ही नहीं बल्कि अद्भुत भी है कि किस तरह एक फिल्म का प्रभाव इतने बड़े भूमंडल पर फैली मानव सभ्यता पर पड़ सकता है. हर ओर माँ संतोषी की धूम मच गयी. हालांकि संतोषी माँ दीर्घकालीन न बन सकी मगर फिर भी उन्होंने हमारे मानस-पटल पर एक अमिट छाप छोड़ दी है. संतोषी माँ के साथ-साथ फिल्मों ने हमें कई और क्षेत्रीय परम्पराओं से वाकिफ कराया है. शिर्डी के साईं बाबा की पॉपुलरिटी की तुलना आज हनुमान से की जा रही है और कई मायनों में उन्होंने हनुमान को पीछे छोड़ भी दिया है. वैष्णो देवी की बात करे तो जितना फायदा उन्हें फिल्मों ने, गुलशन कुमार ने, और T-Series ने कराया है उतना कोई नहीं करा सकता था. हमारी संस्कृति में आज साईं बाबा और वैष्णो देवी एक व्यापक स्थान बना चुके हैं, इसका सीधा सीधा कारण फिल्मों को ठहराया जा सकता है.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ आध्यात्म की दिशा में ही फिल्मे हमें कुछ नया पड़ोसती रही है. सबसे जीवंत उदाहरण Valentine's Day का है. आज से लगभग 15 साल पहले एक आम भारतीय को शायद इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. आज हालात कुछ ऐसे हो गए हैं कि गुरु नानक जयंती कब मनाई जाती है ये हमारे युवाओं को शायद याद न हो मगर valentine's day को भूलने की ज़हमत ये कभी नहीं उठा सकते. सब कुछ फिल्मों की ही देन है.
इतना सब कुछ लिखने के बाद मन में ख्याल आ रहा है कि इसमें दिक्कत ही क्या कि फिल्मे हमें इन परम्पराओं से वाकिफ करा रही हैं. कोई दिक्कत नहीं है. एक तरह से अच्छा है कि भारत के हर क्षेत्र के लोग इन फिल्मों के माध्यम से दूसरे क्षेत्र की परम्पराओं को समझ रहे हैं. क्षेत्रीय परम्पराओं के व्यापकता को बढ़ाने का इससे बढ़िया माध्यम हमें नहीं मिल सकता था. आज एक बिहारी होकर भी करवा चौथ के बारे में कुछ लिख रहा हूँ तो इसका श्रेय फिल्मों को ही जाता है. मगर फिर बात परम्पराओं की तरफ आकर रुक जाती है. जिस प्रकार इस नयी संस्कृति और पुरानी परम्पराओं का फ्यूजन हो रहा है, डर लगता है कि हमारी क्षेत्रीय पौराणिक धारणाएं दम न तोड़ दें. जैसे फिल्मों के जरिये यह संस्कृति एक फैशन बन कर उभर रही है, हो सकता है कि हमारी परम्पराओं को ये आउटडेटेड कर दें और हमारी नयी पीढ़ी उनसे वंचित होकर इस फैशन के बहाव में बह जाये. जिस प्रकार करवा चौथ पर अति-ध्यान दिया जा रहा है वो कभी न कभी बिहारी 'तीज' को लील लेने की क्षमता रखता है. और अगर ऐसा हुआ तो मुझे नहीं मालूम किसी को अच्छा लगेगा या नहीं पर पर उनमे मैं तो नहीं ही शामिल होऊंगा. इसलिए कह रहा हूँ कि नयी संस्कृति को अपनाने में कोई दिक्कत नहीं मगर इन्हें यदि अपनी सांस्कृतिक धरोहर की कीमत चुका कर अपनाया जाय तो दिक्कत ही दिक्कत है. भारत महान है क्यूंकि इसके हर क्षेत्र की एक अलग धरोहर है मगर फिर भी सब भारतीयता के एक धागे से जुड़े हैं, कोई अलग नहीं है, कोई जुदा नहीं है. इसलिए अपनी धरोहर को बचाए रखने का दायित्व हमारे ऊपर ही है!
Monday, October 25, 2010
जीवन का संघर्ष!
ज़िन्दगी के इस सफ़र में
कई मोड़ हैं आते.
कभी सूरज की रोशनी
तो कभी अमावस की रातें.
एक ऐसे ही मोड़ पर
आज खड़ा हूँ मैं,
एक लम्बी सी सुरंग के
बीचो-बीच पड़ा हूँ मैं.
ज़िन्दगी के दो रौशन भागों को
जोडती ये लम्बी सुरंग,
जीवन की रंगीनियों के बीच
ये अँधेरी बदरंग सुरंग.
कल की मस्ती को पीछे छोड़
कल की जिम्मेदारी तक पहुँचाती ये सुरंग,
जीवन के संघर्ष से
पहचान कराती ये सुरंग.
संघर्ष, माँ-बाप के सपनों को पूरा करने का,
संघर्ष, अपनी आकांक्षाओं को पा लेने का,
संघर्ष, समाज की अपेक्षाओं पर खड़ा उतरने का,
संघर्ष, अपने आप को साबित करने का.
चलता जा रहा हूँ
इस एकतरफा सुरंग में,
शायद अकेला हूँ,
शायद कुछ और लोग भी हैं.
घुप्प अँधेरे में
कोई दिखाई नहीं देता
कोई आकृति नहीं , कोई काया नहीं
साथ चलने को, खुद का साया भी नहीं.
बढ़ते रहने की कोशिश करता हूँ
मगर कभी रूक भी जाता हूँ.
पिछली छोर की रौशनी की याद
क़दमों को रोक देती हैं
पीछे लौटना चाहता हूँ,
अपने संघर्ष से हार जाता हूँ.
फिर ख्याल आता है,
सुरंग के अंत का
आने वाले छोर पर रौशनी का,
एक संकल्प करता हूँ,
संघर्ष की फिर शुरुआत करता हूँ
बढ़ता जाता हूँ, चलता जाता हूँ.
Sunday, October 24, 2010
दुहाई अपने औरत होने की!
अभी अभी ब्लॉग की दुनिया में घूमते घूमते एक कविता मिली. 21वी सदी की औरत के बारे में कवयित्री काफी कुछ कह रही हैं. उनके मुताबिक़ 21वी सदी की औरत अब बेवकूफ नहीं बनती, वो चैट करती है, मर्दों से, उन्हें झांसे में रखती है अपनी सच्चाई के बारे में. ऐसा करके वो उनसे बदला लेती है जो सदियों से उनका शोषण करते आये हैं. उनको ये शोषण सूद समेत वापस लौटा कर वो आत्म संतुष्टि पा लेती हैं. उनका ब्लॉग सुरक्षित है इसलिए पंक्तियाँ यहाँ नहीं दे पा रहा हूँ, आप कविता इस लिंक पर पढ़ सकते हैं. बस उन्ही की कविता के जवाब में मेरी ये प्रस्तुति:
21वी सदी की नारी है,
हाँ, चैट कर लेती है.
आपसे, मुझसे,
हर किसी से.
कोई इनमे माँ ढूंढता है,
कोई बहन कोई दोस्त.
कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका.
हर कोई ढूंढता है
इनका एक नया रूप.
इस बात से अनजान
कि वो किसे ढूंढ रही.
अपने आप को चालाक समझती है,
धूर्त है, परिचय अनजाने में दे जाती है.
फिर भी समझ नहीं आता.
गफलत में रहती है,
जब सामने वाला इनका इस्तमाल करता है
ये खुश रहती है
सोचकर के इस्तमाल तो वो कर रही हैं.
पता नहीं खुद को क्या समझती है.
पर इतना जरूर है,
इस्तमाल हो जाने के बाद जब अहसास होता है
तो आँखों में आंसू जरुर आते हैं,
अपनी सच्चाई पता चले न चले
दुहाई जरूर देती है.
दुहाई अपने अबला होने की,
दुहाई मर्दों द्वारा तथाकथित शोषण की,
दुहाई अपनी ऐतिहासिक कमजोरी की.
दुहाई अपने औरत होने की!
Saturday, October 23, 2010
There are times when...
There are times when,
Life throws at us
Instances.
To look into,
To learn from,
To observe,
To conserve.
There are times when,
Life throws at us
Circumstances.
To understand itself,
To struggle,
To cope with,
To emerge ultimately, the Winner.
There are these same times when,
Despite life throwing at us
Chances,
We don't hold onto,
We don't change,
We don't improve,
We remain what we were.
The same person,
Sometimes a fool,
Sometimes arrogant,
Sometimes an amateur,
Most of the times, Errant and Ignorant!
Friday, October 22, 2010
कल रात, फिर से
कल रात, फिर से
बिस्तर की सिलवटों में,
बेचैनी की करवटों में.
कई ख्याल,
चंद सवाल.
नींद के इंतज़ार में,
मेज़ पर रखी घड़ी,
टिक-टिक करती घुमती घड़ी की सुइयां,
छत पर घूमता पंखा,
हलकी सी बारिश में भींगी
मिट्टी की भीनी -भीनी खुशबू,
हल्की चलती हवाओं से
पत्तियों की सरसराहट.
मन का क्या, निकल पड़ा.
बचपन की गलियों में,
यादो की टोली के साथ.
वो मोहल्ला,
वो पतली सी सड़क,
जामुन के पेड़ पर की
भूतों की कहानी,
शाम ढलते ही
घर लौटने की बेचैनी,
वो पुराने दोस्त,
वो पुरानी दोस्ती.
मन को कौन समझाए,
न अब वो मोहल्ला रहा,
न अब वो दोस्त, न दोस्ती रही.
मन तो फिर भी मन ही है,
न कोई ओर, न कोई छोड़,
न पतंग की कोई डोर.
कैसे बाँध लूं इसको.
कभी हवा के साथ,
कभी यादों के भंवर में,
कभी पुरानी बातों में,
तो कभी भविष्य के ख्यालों में.
मन घूमता रह गया,
कभी स्कूल की मस्ती में,
कभी कॉलेज की बातों में.
घूमता हुआ मन
न जाने कहाँ निकल गया.
वो नहीं रुकता,
न दिल को दुखाने वाली यादों से,
न आने वाली ज़िन्दगी के
संघर्ष के ख्यालों से.
कभी प्यारे दिनों की यादों में
होठों पर मुस्कराहट देता,
कभी उन उदास रातों को याद दिलाकर
आँखों में दो आंसू देता.
मन कुछ नहीं समझता,
वो तो बस घूमना चाहता है
ख्यालों में, यादों में,
कभी कभी सवालों में.
कल रात, फिर से
बिस्तर की सिलवटों में,
बेचैनी की करवटों में...
Wednesday, October 20, 2010
तुम्हारे साथ!
उस शाम, राह पर
तुम्हारे साथ,
नज़रें झुकाकर,
ज़माने से बचाकर
चल रहा था.
कोई बात नहीं,
कुछ ख़ास नहीं.
बस चुपचाप.
सिर्फ एक अहसास,
सिर्फ दिल की एक आवाज़,
कि पकड़ लूं तुम्हारा हाथ.
कि ले चलूँ कहीं ज़माने से दूर.
वहां जहाँ कोई नज़र न हो
वहाँ जहाँ किसी का कोई डर न हो.
पर,
झुकी नज़रों का वो डर
मन का वो करना हमेशा 'किन्तु, अपितु, पर'.
हिम्मत हुई, सोचा
कब तक नज़रें झुकाकर
ज़माने की नज़रों को नज़रअंदाज करूंगा,
आखिर कब उस डर को भूलकर
अपने दिल के लिए इन्साफ करूँगा.
दिल ने एक आवाज़ दिया,
आवाज़ से ज्यादा धिक्कार दिया.
हिम्मत हुई, हाथ बढाया,
नज़रों को उठाया
ज़माने की नज़रों से नज़र मिलाया.
और फिर,
चिढाती हुई वो दोस्तों की ऑंखें,
सवाल पूछती वो बुजुर्गों की आँखें,
वो लोगों की नज़र,
उन नज़रों का डर,
वो ज़माने के पत्थर,
अपने घर के शीशे,
तुम्हारे परिवार की इज्ज़त,
अपने माँ-बाप की बेईज्ज़ती का डर.
वो सबकुछ,
बढ़ते हुए हाथ को फिर वापस कर लिया,
बस सबकुछ चुपचाप सोचता रहा,
मन में सब कुछ दबाकर
तुम्हारे साथ बस चलता रहा, चलता रहा.
Saturday, October 09, 2010
वक़्त बदल गया, हम बदल गए मैं वही रह गया, तुम आगे निकल गए!
वक़्त बदल गया, हम बदल गए
मैं वही रह गया, तुम आगे निकल गए.
सिर्फ एक साल ही तो छोटे थे तुम
भाई से ज्यादा दोस्त होते थे तुम.
साथ खेलना, साथ खाना, साथ उठना-बैठना,
कभी कभी तो साथ इतना वक़्त बिताने के लिए मार तक खाना.
दोस्ती की तकरार को भय्यारी से मिटा देना
भय्यारी की मुसीबतों को दोस्ती से सलटा लेना.
मुसीबतों में देना हमेशा एक दुसरे का साथ
एक दुसरे को बताना अपनी वो हर एक बात.
अचानक ये क्या हो गया?
तुम तुम न रहे,
मैं मैं न रहा
दोस्त तो हम नहीं ही रहे,
अब तो भाई भाई भी न रहा.
कभी सोचने बैठता हूँ तो सोच नहीं पाता कि दोषी है कौन,
मैं, तुम, हमारी दोस्ती, ये वक़्त या फिर कोई और.
वक़्त बदलता है, बदलेगा ही और बदला भी,
मगर हमारा वक़्त के साथ में बदलना जरूरी तो नहीं,
या कि दोषी ठहराऊं अपनी उस गहरी दोस्ती को
जो अपनी सारी बातें न बांटते तो आज ऐसा कुछ हुआ होता तो नहीं.
क्या तुम्हारी ज़िन्दगी में किसी और के आने से मैं अहम् न रहा
या ये मेरी ही नासमझी थी जिसके कारण हमारे बीच आज कुछ न रहा.
दोषी ठहराऊं तो किसे ठहराऊं, समझ नहीं आता
सब कुछ भूल जाऊं, ये सोचता हूँ, मगर कर नहीं पाता.
पांच महीने हो गए जब तुमने अंतिम बार मुझसे बात किया था
पता नहीं कहीं वो ही तो वो आखिर बार नहीं, जब तुमने मुझे याद किया था.
वक़्त बदल गया, हम बदल गए
मैं वही रह गया, भाई, तुम आगे, बहुत आगे निकल गए!
मैं वही रह गया, तुम आगे निकल गए.
सिर्फ एक साल ही तो छोटे थे तुम
भाई से ज्यादा दोस्त होते थे तुम.
साथ खेलना, साथ खाना, साथ उठना-बैठना,
कभी कभी तो साथ इतना वक़्त बिताने के लिए मार तक खाना.
दोस्ती की तकरार को भय्यारी से मिटा देना
भय्यारी की मुसीबतों को दोस्ती से सलटा लेना.
मुसीबतों में देना हमेशा एक दुसरे का साथ
एक दुसरे को बताना अपनी वो हर एक बात.
अचानक ये क्या हो गया?
तुम तुम न रहे,
मैं मैं न रहा
दोस्त तो हम नहीं ही रहे,
अब तो भाई भाई भी न रहा.
कभी सोचने बैठता हूँ तो सोच नहीं पाता कि दोषी है कौन,
मैं, तुम, हमारी दोस्ती, ये वक़्त या फिर कोई और.
वक़्त बदलता है, बदलेगा ही और बदला भी,
मगर हमारा वक़्त के साथ में बदलना जरूरी तो नहीं,
या कि दोषी ठहराऊं अपनी उस गहरी दोस्ती को
जो अपनी सारी बातें न बांटते तो आज ऐसा कुछ हुआ होता तो नहीं.
क्या तुम्हारी ज़िन्दगी में किसी और के आने से मैं अहम् न रहा
या ये मेरी ही नासमझी थी जिसके कारण हमारे बीच आज कुछ न रहा.
दोषी ठहराऊं तो किसे ठहराऊं, समझ नहीं आता
सब कुछ भूल जाऊं, ये सोचता हूँ, मगर कर नहीं पाता.
पांच महीने हो गए जब तुमने अंतिम बार मुझसे बात किया था
पता नहीं कहीं वो ही तो वो आखिर बार नहीं, जब तुमने मुझे याद किया था.
वक़्त बदल गया, हम बदल गए
मैं वही रह गया, भाई, तुम आगे, बहुत आगे निकल गए!
Wednesday, October 06, 2010
उस पुराने वाले 'तुम' को कहीं न कहीं खोज कर अपना वही 'हम' ज़रूर बनाऊंगा
कई बार ज़िन्दगी में कुछ ऐसे दुखों का सामना करना पड़ता है कि फिर ज़िन्दगी पर से विश्वास उठने लगता है. किसी बहुत अपने को खोने के बाद ये डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं बाकी सब भी छोड़ कर न चले जाये. ऐसे में दोस्तों के साथ की जरुरत होती है और मन बार बार इस बात की तसल्ली लेना चाहता है कि वो साथ हैं या नहीं. ऐसी ही कुछ स्थिति एक अभिन्न मित्र के ज़िन्दगी में कुछ साल पहले घटी. उसने अपने पिताजी को खोया और आज भी हम दोस्तों से इस बात की तसल्ली लेता रहता है कि हम उसके साथ हैं या नहीं. उसी को समर्पित मेरी ये कविता!
दोस्त,
वो बचपन के दिन याद हैं?
मेरे लिए एक नया स्कूल, एक नयी जगह,
कोने में चुपचाप बैठे रहने की मेरी एक ही वजह.
मेरा कोई दोस्त न था वहाँ.
पुराने दोस्तों को पीछे छोड़ आया था,
नए बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था.
जब चाहा था किसी का साथ
तब तुमने ही बढाया था अपना हाथ.
हाँ, दोस्त,
मुझे वो सबकुछ याद है.
वो क्लासरूम की मस्ती,
लंच पीरियड की वो मटरगस्ती,
स्कूल फी जमा करने के बहाने क्लास बंक करना,
स्पोर्टस पीरियड लगवाने के लिए टीचर से जंग करना,
कैंटीन के समोसे की लाइन में मुझे धकेल देना,
और क्लास में पनिशमेंट के लिए मेरी जगह खुद चले जाना.
तुम्ही तो रहते थे हर पल साथ.
हाँ दोस्त,
मुझे सब कुछ है याद.
मगर आज फिर भी तुम पूछते हो, मैं दूंगा न तुम्हारा साथ?
सच्चे दोस्त कभी बदलते नहीं,
जो बदलते हैं वो सच्चे होते नहीं.
मैं जानता हूँ दोस्त तुमने क्या खोया है,
इतनी कच्ची उम्र में ही कितना रोया है.
पिता को खोने के दर्द को मैं ले तो नहीं सकता हूँ
पर उस दर्द को बांटने का जतन तो कर सकता हूँ.
जानता हूँ, उस वक़्त तुम्हारे आंसू पोछने न आ सका
मालूम है मुझे, तुम्हारी दोस्ती का क़र्ज़ न चुका सका.
पर दोस्त,
ज़रा सोचो,
हमने भी तो खोया है किसी अपने दिल के करीब को.
वो 'तुम' जो उस दर्द के मिलने के पहले हुआ करते थे
आज उस दर्द के साए में कहीं खो गए हो,
वो 'तुम' जो कभी मेरे 'हम' का हिस्सा थे
आज कहीं दूर हो गए हो.
पर याद रखना, दोस्त,
अपनी दोस्ती का क़र्ज़ ज़रूर चुकाऊंगा
उस पुराने वाले 'तुम' को कहीं न कहीं खोज कर
अपना वही 'हम' ज़रूर बनाऊंगा.
Sunday, October 03, 2010
गाँधी, सिर्फ एक सोच या स्वतंत्रा संग्राम का प्रणेता भी?
"I want world sympathy in this battle of right against might."- M.K. Gandhi, 5/4/1930 |
बचपन से थोडा गरम दिमाग का रहा हूँ, शायद इसीलिए गाँधी की कार्यशैली कुछ ज्यादा पसंद नहीं आई. फिर भी वो महात्मा, जो गाँधी हैं, उनकी इज्ज़त करता हूँ. इंसानी पीड़ा को समझने की उनकी क्षमता और इस ओर अपना सब कुछ न्योछावर करके लोगों को उनके अधिकार दिलाने के उनके शतत प्रयास को हमेशा मेरा शत-शत नमन है. गाँधी, जो एक सोच है, हमेशा उसका कायल रहा हूँ. 'सत्य' और 'अहिंसा' से अधिक विश्वास उनकी 'समानता' और 'निरपेक्षता' की सोच पर है. गाँधी को अगर गांधीजी कहता हूँ तो वो सिर्फ उस इंसान के लिए है जिसने सामाजिकता का ज्ञान भारत को दिया, उस गाँधी के लिए नहीं जिसे आसानी से लोग भारत का सबसे बड़ा स्वतंत्रा सेनानी मान लेते हैं.
गाँधी नाम के उस स्वतंत्रा सेनानी, जिसे आम तौर पर भारतीय स्वतंत्रा संग्राम का प्रणेता माना जाता है, उसपर कुछ ख़ास यकीन मैं नहीं रखता. पहले भी लिख चुका हूँ कि शायद इसका कारण मेरा गरम दिमाग का होना है. आज जब इस तस्वीर को देखा तो फिर से वो सारे विचार मन में आ गए जिनसे कई बार पहले भी साक्षात्कार हो चुका है. क्या सच में गाँधी भारत की स्वतंत्रा के लिए लड़े थे, क्या गाँधी के आन्दोलनों के पीछे की मंशा आज़ादी थी, क्या गाँधी को हमारी स्वतंत्रा के लिए उतना श्रेय दिया जाना चाहिए जितना उन्हें मिला है? मेरे लिए इन सभी सवालों का जवाब ना ही है.
अफ्रीका में सामाजिक द्वेष के खिलाफ अपनी लड़ाई के बाद जब गाँधी भारत आये तो उन्हें यहाँ के आम भारतीयों की हालत भी वैसी ही लगी. और तब शुरू हुई गाँधी की लड़ाई, लड़ाई मौलिक अधिकारों के लिए, लड़ाई सामाजिक एकता के लिए. कहीं भी इस लड़ाई का मकसद आज़ादी नज़र नहीं आता. वो चंपारण का सत्याग्रह हो या डांडी का नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन हो या असहयोग आन्दोलन कहीं भी आज़ादी की लड़ाई नहीं दिख रही थी. अगर अंग्रेज़ भारतीयों को उनके अधिकार दे देते और उनपर ज़ुल्म ढाना बंद कर देते तो शायद फिर गाँधी को अंग्रेजी हुकुमत से कोई परहेज नहीं था. 1942 के भारत छोडो आन्दोलन के पहले के लगभग 27 साल के उनके संघर्ष में कहीं भी भारत को आज़ादी दिलाने के बारे में कोई बात नहीं हुई.
बीसवीं सदी के पांचवे दशक तक आते आते दुनिया के हालात ऐसे हो गए थे जहां उपनिवेशवाद अपना अस्तित्व खोता जा रहा था. पूरी दुनिया में एक राय बन चुकी थी उपनिवेशवाद के खिलाफ. दो दो विश्व युद्ध देखने के बाद हुकूमतों की ऐसी हालत नहीं रह गयी थी कि वो इसका अस्तित्व बचा कर रख सके. इसी कड़ी का एक हिस्सा '42 का भारत छोडो आन्दोलन भी था और '47 की हमारी आज़ादी भी. शायद यही कारण है कि सोचता हूँ कि यदि गाँधी नहीं होते तो क्या हम आज़ाद नहीं हुए होते.
भारत-पाकिस्तान बंटवारे, भगत सिंह की फांसी, और सुभाष चन्द्र बोस पर उठते रहे विवादों के कारण भी मन गाँधी को मानने से इनकार करता रहा. अगर गाँधी ने कांग्रेस से नाता न जोड़ा होता तो शायद भारत का कभी बंटवारा नहीं हुआ होता. जिस वक़्त गाँधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सम्बन्ध बनाया था उस वक़्त जिन्ना एक मजबूत कांग्रेसी की तरह स्थापित हो चुके थे. जिन्ना की भव्य जीवनशैली के सामने गाँधी को नेहरु का खादी धारण करना ज्यादा पसंद आया. जिन्ना कांग्रेस से दूर होते गए और नेहरु की धाक जमती गयी. अंत क्या हुआ ये आप और हम सब जानते हैं. पाकिस्तान के रूप में एक नासूर हमें आज भी दर्द दे रहा है. नेहरु की इसी बढती धाक का एक और नतीजा सुभाष चन्द्र बोस जैसे सच्चे स्वतंत्रा सेनानी के नैतिक गिरावट के रूप में भी आया. भगत सिंह की फांसी का मामला किसी से छुपा नहीं है. 1931 के द्वितीय गोल मेज़ सम्मलेन में भाग लेने के लिए कांग्रेसियों को मनाने की अंग्रेजी हुकुमत की कोशिशें गाँधी-इरविन पैक्ट के रूप में कामयाब हुई. असहयोग आन्दोलन में गिरफ्तार किये गए सभी कांग्रेसियों की रिहाई इस पैक्ट का एक महत्वपूर्ण बिंदु थी. उस वक़्त भगत सिंह जैसे उन क्रांतिकारियों को छोड़ दिया गया जिनका मकसद भी वही था जो कांग्रेस का था सिर्फ रास्ते अलग अलग थे. ऐसी बातों से मन में विचार जरूर आने लगते हैं कि कहीं न कहीं गाँधी अपने अनुयायिओं के प्रति ज्यादा वफादार थे. हालांकि, गाँधी, जो एक सोच है, उसके हिसाब से ऐसा नहीं हो सकता मगर फिर भी इनकार नहीं करूंगा कि ऐसे सोच मन में कभी नहीं आते.
खैर, वैसे भी आज गाँधी को लेकर दोस्तों से इन्ही बातों पर काफी बहस हो चुकी है और अब यहाँ भी काफी कुछ अपनी बात रख चुका हूँ. जिस तरह से आम धारणाओं के विपरीत मैंने बातें की हैं उससे तो यही लग रहा है कि कई लोग मुझसे सहमत नहीं होंगे, मगर ये सिर्फ एक नजरिया है. ये मेरी सोच है, आपसे भिन्न हो सकती है. आपकी सहमति और असहमति दोनों का स्वागत है. धन्यवाद!
Thursday, September 30, 2010
अयोध्या: राम-जन्मभूमि या हिन्दू-मुस्लिम दंगों की नींव?
इधर राष्ट्रमंडल खेलों के साथ-साथ देश में अगर किसी चीज़ ने सुर्खियाँ बटोरी है तो वो अयोध्या है. बहुचर्चित अयोध्या मामले में पिछले 60 साल पुराने केस का निर्णय न्यायालय में आज दिन के 3 .30 बजे आने वाला है. 24 तारीख को ही आने वाला ये निर्णय सर्वोच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के बाद लंबित होकर अंततः आज आने वाला है. एक बार फिर वो सारी तय्यरियाँ की जा रही हैं जो सब 24 तारीख को आने वाले उस तथाकथित तूफ़ान के लिए की गयीं थी. हालांकि इस निर्णय का कोई व्यापक असर नहीं होने वाला क्यूंकि मामले का सर्वोच्च नयायालय में जाना तय है मगर फिर भी, किसी अनहोनी घटना से पूर्णतया इनकार नहीं किया जा सकता और इसीलिए, असाधारण सुरक्षा इन्तजाम किये जा रहे हैं.
इस अयोध्या मामले ने कहीं न कहीं मुझे भी ख़ासा प्रभावित किया है. जब इसके दोनों संभव फैसलों के बारे में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि फैसला जिसके भी पक्ष में जाए हार तो भारत की ही होनी है. अगर फैसला वहां पर मंदिर बनाने का आता है तो सवाल भारत की साम्प्रदायिकता पर उठेंगे कि अपने आप को सेकुलर कहने वाले हिंदुस्तान में इतना बड़ा फैसला हिन्दुओं के पक्ष में कर दिया गया. अगर फैसला मस्जिद बनाने का आता है तो फिर सवाल भारतीय राजनीति पर उठेंगे कि मुस्लिम वोट बैंक को बचाने के लिए ये फैसला उनके पक्ष में कर दिया गया. कुछ भी हो, भारतीय न्याय व्यवस्था शायद इससे पहले इस तरह के सवालों से कभी नहीं घिरी थी. न्यायपालिका पर सवाल उठना अब अपरिहार्य हो चला है.
फैसला कुछ भी आये, फर्क तो हम सब पर जरूर पड़ेगा, ज्यादा नहीं तो थोडा ही सही. आने वाले इस निर्णय और उसके परिणाम की कल्पना करता हूँ और, झूठ नहीं कहूँगा, मन एक बार सिहर जरूर जाता है. डर लग जाता है कि कहीं बम्बई और गुजरात की पुनरावृत्ति न हो जाए. इस डर के साथ जब पूरे मामले को खंगालना शुरू करता हूँ तो यही सवाल मन में बार बार दस्तक देते हैं. आखिर ये अयोध्या क्या है? क्या है इसका मतलब मेरी पीढ़ी के लिए? पूरे अयोध्या काण्ड में मेरी पीढ़ी खुद को कहाँ देखती है?
1947 में भारत के साथ भारत में एक अजीब सी आग ने जन्म लिया था. बंटवारे की उस आग में अपनी आज़ादी को भूल कर न जाने कितने मतवाले हिंदवासी रातों रात 'हिन्दू' और 'मुस्लिम' बन गए थे. एक ऐसी ज्वाला भड़की थी जिसकी लपटों ने हिन्दू-मुस्लिम दंगों की शक्ल लेकर न जाने कितनी जानें ली थी. न जाने कितनी जिंदगियां बर्बाद हुई थी, न जाने कितने परिवार उजड़े थे. उस आग की गर्मी में झुलसता हुआ भारत, फिर भी, अपनी आज़ादी को पाकर आगे बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध था. समय के साथ भारत जवान होता गया. नयी पीढ़ियों ने पुरानी पीढ़ी का स्थान लेना शुरू किया. बंटवारे के दंश को झेलने वाली उस पीढ़ी के साथ हिन्दू-मुस्लिम की वो आग भी धीरे धीरे मद्धिम पड़ गयी. अगर दिसंबर '92 न हुआ होता तो शायद मेरी पीढ़ी तक आते आते कोई कभी धर्म की बंदिशों को अपने विकास के रास्ते में रोड़ा नही बनने देता. मगर दिसंबर '92 हुआ और हम सब जानते हैं कि फिर क्या क्या हुआ. राम के नाम पर न जाने क्या क्या घिनौने खेल खेले गए पूरे देश में. जब यह सब हुआ था तब सिर्फ 5 साल का था. सच पूछिए तो ख़ुशी होती है कि सिर्फ 5 साल का ही था, कम से कम मैंने जो भी जाना वो सिर्फ अखबारों में पढ़ा या टीवी पर देखा. उस समय की कोई भी याद मेरे ज़हन में नहीं है. और इस बात के लिए शुक्रगुजार हूँ अपनी उम्र का कि मुझे कुछ नही याद. मेरे लिए तो अयोध्या का सिर्फ एक ही मतलब बनता है. उस बुझती हुई आग की लपटों को फूँक मार कर फिर जिंदा कर देना जो आग बंटवारे के वक़्त सब के सीनों में लगी थी.
राम के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद् ने जिस तरह का काम किया है शायद उसी का कारण है कि हिन्दू होने के बावजूद दिल से कभी इन दोनों से नहीं जुड़ पाया हूँ. हम उस देश में रहते हैं जहां 'जय राम जी की' का इस्तमाल अभिवादन के लिए आता है. हिन्दू हो या मुस्लमान, हर कोई इसे नमस्ते या सलाम के रूप में इस्तेमाल करता है. इसी 'जय राम जी की' उद्घोष के साथ जिस तरह पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगों की नींव रखी गयी उससे आज मन में इन शब्दों के लिए भी भिनक पैदा हो गयी है. जिस 'राम-राज' को लाने की बात RSS और VHP करते हैं, वही 'राम-राज' कब 'राम-राजनीति' बन गया, कभी पता ही नहीं चला. अपने राज दरबार में सीता, लक्ष्मण और हनुमान संग बैठे मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की तस्वीर कब धनुष उठाये प्रचंड राम में बदल गयी इसका कोई अंदाजा ही नहीं लग सका. कार-सेवा के नाम पर जो कलंक राम की नगरी अयोध्या पर चढ़ गया उस कलंक से छुटकारा पाने की कोई स्थिति मुझे तो नज़र नहीं आती. अपने राजनीतिक फायदे के लिए सभी पार्टियों ने मिलकर जो कुछ किया वो दिल को दुखा देने के लिए काफी है.
अयोध्या की उस ज़मीन का विवाद सदियों पुराना है. न्यायालय तक यह विवाद 60 साल पहले पंहुचा, जब मैं क्या मेरे पिताजी ने भी जन्म नहीं लिया था. इतने समय से जिस निर्णय का इंतज़ार हो उसके लिए उत्सुकता तो मन में रहेगी ही. पता नहीं क्या निर्णय आने वाला है. यथार्थ से दूर देखें तो जी चाहता है कि उस ज़मीन पर ऐसा कुछ बने जो समाज के लिए एक प्रतीक हो, एक उपहार हो. कोई स्कूल बन जाए, कोई अस्पताल बन जाए या कुछ भी. मगर क्या अपने फायदे के लिए मस्जिद तक को गिरा देने वाले इतने से शांत हो जायेंगे. फिर विवाद उठेगा कि अस्पताल का नाम श्री राम अस्पताल रखा जाए या बाबरी हॉस्पिटल. काम करने वाले हिन्दू हों या मुसलमान और न जाने क्या क्या. जब तक फायदा उठाने वाले ये राजनीतिक दल मौजूद रहेंगे तब तक इस विवाद का कोई हल संभव नहीं है. या यूँ कहें कि जब तक इन राजनीतिक दलों के बहकावे में आने के लिए हम तैयार रहेंगे तब तक इसका कोई हल नहीं.
अज दिन में क्या निर्णय आने वाला है इसे भविष्य के गर्भ में ही छुपा छोड़ देते हैं मगर फिर भी, दिल सोचने को मजबूर हो ही जाता है कि उसके बाद क्या होगा. इस बार कहाँ कहाँ दंगे भड़केंगे और कितने लोग बेमौत मारे जायेंगे. एक मन करता है कि कभी ये फैसला आता ही नहीं तो कितना अच्छा होता. मगर काल्पनिक दुनिया से निकल कर हकीकत को देखता हूँ तो लगता है कि ये एक ऐसा तूफ़ान है जो आज नहीं तो कल भारत को झेलना ही है. कभी न कभी तो ये निर्णय आएगा ही. कई लोग आपसी सुलह की वकालत कर रहे हैं. अगर किसी सूरत में ये संभव हो तो सच में स्वागत है इसका मगर फिर, जब बात यथार्थ की आती है तो सब कुछ खोखला ढकोसला लगने लगता है. जिस सुलह की गुंजाईश पिछले 60 सालों में नहीं बन पायी वो अब क्या बनेगी. हाँ इतना जरूर सोचता हूँ कि ये जो आपसी सुलह की वकालत कर रहे हैं, ये यदि इतने जागरूक और परिपक्व हैं तो फिर निर्णय के बाद किसी अनहोनी की बात ही कहाँ उठती है. यही तो वो लोग हैं जिनसे हमें डर है कि न जाने अपने फायदे के लिए निर्णय के बाद क्या क्या गुल खिलाएंगे.
हिन्दू हूँ और इसलिए ये नहीं कहूँगा कि निर्णय में मंदिर बनाने की बात यदि आती है तो मन में ख़ुशी नहीं होगी. खुश जरूर होऊंगा ऐसी सूरत में. मगर, यदि ये राम मंदिर खून से सने पत्थरों की नींव पर बनायीं जाती है तो मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ. निर्णय में जो कुछ भी हो, बस इतना चाहता हूँ कि देश को '93 की बम्बई और '02 का गुजरात फिर न देखना पड़े.
इस अयोध्या मामले ने कहीं न कहीं मुझे भी ख़ासा प्रभावित किया है. जब इसके दोनों संभव फैसलों के बारे में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि फैसला जिसके भी पक्ष में जाए हार तो भारत की ही होनी है. अगर फैसला वहां पर मंदिर बनाने का आता है तो सवाल भारत की साम्प्रदायिकता पर उठेंगे कि अपने आप को सेकुलर कहने वाले हिंदुस्तान में इतना बड़ा फैसला हिन्दुओं के पक्ष में कर दिया गया. अगर फैसला मस्जिद बनाने का आता है तो फिर सवाल भारतीय राजनीति पर उठेंगे कि मुस्लिम वोट बैंक को बचाने के लिए ये फैसला उनके पक्ष में कर दिया गया. कुछ भी हो, भारतीय न्याय व्यवस्था शायद इससे पहले इस तरह के सवालों से कभी नहीं घिरी थी. न्यायपालिका पर सवाल उठना अब अपरिहार्य हो चला है.
फैसला कुछ भी आये, फर्क तो हम सब पर जरूर पड़ेगा, ज्यादा नहीं तो थोडा ही सही. आने वाले इस निर्णय और उसके परिणाम की कल्पना करता हूँ और, झूठ नहीं कहूँगा, मन एक बार सिहर जरूर जाता है. डर लग जाता है कि कहीं बम्बई और गुजरात की पुनरावृत्ति न हो जाए. इस डर के साथ जब पूरे मामले को खंगालना शुरू करता हूँ तो यही सवाल मन में बार बार दस्तक देते हैं. आखिर ये अयोध्या क्या है? क्या है इसका मतलब मेरी पीढ़ी के लिए? पूरे अयोध्या काण्ड में मेरी पीढ़ी खुद को कहाँ देखती है?
1947 में भारत के साथ भारत में एक अजीब सी आग ने जन्म लिया था. बंटवारे की उस आग में अपनी आज़ादी को भूल कर न जाने कितने मतवाले हिंदवासी रातों रात 'हिन्दू' और 'मुस्लिम' बन गए थे. एक ऐसी ज्वाला भड़की थी जिसकी लपटों ने हिन्दू-मुस्लिम दंगों की शक्ल लेकर न जाने कितनी जानें ली थी. न जाने कितनी जिंदगियां बर्बाद हुई थी, न जाने कितने परिवार उजड़े थे. उस आग की गर्मी में झुलसता हुआ भारत, फिर भी, अपनी आज़ादी को पाकर आगे बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध था. समय के साथ भारत जवान होता गया. नयी पीढ़ियों ने पुरानी पीढ़ी का स्थान लेना शुरू किया. बंटवारे के दंश को झेलने वाली उस पीढ़ी के साथ हिन्दू-मुस्लिम की वो आग भी धीरे धीरे मद्धिम पड़ गयी. अगर दिसंबर '92 न हुआ होता तो शायद मेरी पीढ़ी तक आते आते कोई कभी धर्म की बंदिशों को अपने विकास के रास्ते में रोड़ा नही बनने देता. मगर दिसंबर '92 हुआ और हम सब जानते हैं कि फिर क्या क्या हुआ. राम के नाम पर न जाने क्या क्या घिनौने खेल खेले गए पूरे देश में. जब यह सब हुआ था तब सिर्फ 5 साल का था. सच पूछिए तो ख़ुशी होती है कि सिर्फ 5 साल का ही था, कम से कम मैंने जो भी जाना वो सिर्फ अखबारों में पढ़ा या टीवी पर देखा. उस समय की कोई भी याद मेरे ज़हन में नहीं है. और इस बात के लिए शुक्रगुजार हूँ अपनी उम्र का कि मुझे कुछ नही याद. मेरे लिए तो अयोध्या का सिर्फ एक ही मतलब बनता है. उस बुझती हुई आग की लपटों को फूँक मार कर फिर जिंदा कर देना जो आग बंटवारे के वक़्त सब के सीनों में लगी थी.
राम के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद् ने जिस तरह का काम किया है शायद उसी का कारण है कि हिन्दू होने के बावजूद दिल से कभी इन दोनों से नहीं जुड़ पाया हूँ. हम उस देश में रहते हैं जहां 'जय राम जी की' का इस्तमाल अभिवादन के लिए आता है. हिन्दू हो या मुस्लमान, हर कोई इसे नमस्ते या सलाम के रूप में इस्तेमाल करता है. इसी 'जय राम जी की' उद्घोष के साथ जिस तरह पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगों की नींव रखी गयी उससे आज मन में इन शब्दों के लिए भी भिनक पैदा हो गयी है. जिस 'राम-राज' को लाने की बात RSS और VHP करते हैं, वही 'राम-राज' कब 'राम-राजनीति' बन गया, कभी पता ही नहीं चला. अपने राज दरबार में सीता, लक्ष्मण और हनुमान संग बैठे मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की तस्वीर कब धनुष उठाये प्रचंड राम में बदल गयी इसका कोई अंदाजा ही नहीं लग सका. कार-सेवा के नाम पर जो कलंक राम की नगरी अयोध्या पर चढ़ गया उस कलंक से छुटकारा पाने की कोई स्थिति मुझे तो नज़र नहीं आती. अपने राजनीतिक फायदे के लिए सभी पार्टियों ने मिलकर जो कुछ किया वो दिल को दुखा देने के लिए काफी है.
अयोध्या की उस ज़मीन का विवाद सदियों पुराना है. न्यायालय तक यह विवाद 60 साल पहले पंहुचा, जब मैं क्या मेरे पिताजी ने भी जन्म नहीं लिया था. इतने समय से जिस निर्णय का इंतज़ार हो उसके लिए उत्सुकता तो मन में रहेगी ही. पता नहीं क्या निर्णय आने वाला है. यथार्थ से दूर देखें तो जी चाहता है कि उस ज़मीन पर ऐसा कुछ बने जो समाज के लिए एक प्रतीक हो, एक उपहार हो. कोई स्कूल बन जाए, कोई अस्पताल बन जाए या कुछ भी. मगर क्या अपने फायदे के लिए मस्जिद तक को गिरा देने वाले इतने से शांत हो जायेंगे. फिर विवाद उठेगा कि अस्पताल का नाम श्री राम अस्पताल रखा जाए या बाबरी हॉस्पिटल. काम करने वाले हिन्दू हों या मुसलमान और न जाने क्या क्या. जब तक फायदा उठाने वाले ये राजनीतिक दल मौजूद रहेंगे तब तक इस विवाद का कोई हल संभव नहीं है. या यूँ कहें कि जब तक इन राजनीतिक दलों के बहकावे में आने के लिए हम तैयार रहेंगे तब तक इसका कोई हल नहीं.
अज दिन में क्या निर्णय आने वाला है इसे भविष्य के गर्भ में ही छुपा छोड़ देते हैं मगर फिर भी, दिल सोचने को मजबूर हो ही जाता है कि उसके बाद क्या होगा. इस बार कहाँ कहाँ दंगे भड़केंगे और कितने लोग बेमौत मारे जायेंगे. एक मन करता है कि कभी ये फैसला आता ही नहीं तो कितना अच्छा होता. मगर काल्पनिक दुनिया से निकल कर हकीकत को देखता हूँ तो लगता है कि ये एक ऐसा तूफ़ान है जो आज नहीं तो कल भारत को झेलना ही है. कभी न कभी तो ये निर्णय आएगा ही. कई लोग आपसी सुलह की वकालत कर रहे हैं. अगर किसी सूरत में ये संभव हो तो सच में स्वागत है इसका मगर फिर, जब बात यथार्थ की आती है तो सब कुछ खोखला ढकोसला लगने लगता है. जिस सुलह की गुंजाईश पिछले 60 सालों में नहीं बन पायी वो अब क्या बनेगी. हाँ इतना जरूर सोचता हूँ कि ये जो आपसी सुलह की वकालत कर रहे हैं, ये यदि इतने जागरूक और परिपक्व हैं तो फिर निर्णय के बाद किसी अनहोनी की बात ही कहाँ उठती है. यही तो वो लोग हैं जिनसे हमें डर है कि न जाने अपने फायदे के लिए निर्णय के बाद क्या क्या गुल खिलाएंगे.
हिन्दू हूँ और इसलिए ये नहीं कहूँगा कि निर्णय में मंदिर बनाने की बात यदि आती है तो मन में ख़ुशी नहीं होगी. खुश जरूर होऊंगा ऐसी सूरत में. मगर, यदि ये राम मंदिर खून से सने पत्थरों की नींव पर बनायीं जाती है तो मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ. निर्णय में जो कुछ भी हो, बस इतना चाहता हूँ कि देश को '93 की बम्बई और '02 का गुजरात फिर न देखना पड़े.
Tuesday, September 28, 2010
दो तस्वीरें, एक शर्म और एक गर्व, फैसला आपको लेना है आप किसके साथ हैं!!!
राष्ट्रमंडल खेलों के शुरू होने में सिर्फ 5 दिन बाकी रह गए हैं. पिछले कुछ दिन इन खेलों को लेकर काफी असमंजस बना रहा. दिल्ली सरकार, भारतीय ओलम्पिक संघ और पूरी आयोजन समिति ने मिलकर देश का काफी बेड़ा गर्क किया. मीडिया की माने तो देश की काफी खिल्ली उडी विदेशों में. जिन खेलों के द्वारा "Brand India" को बाहर दुनिया में स्थापित करने की बात की जा रही थी उन्ही खेलों की तय्यारी ने इसी "Brand India" के नाम पर एक धब्बा लगाया. मीडिया की माने तो हर भारतीय के ऊपर इन खेलों की तय्यारियों ने एक जोरदार तमाचा मारा है. मगर क्या सच में ऐसा बहुत कुछ हुआ है? कुछ तो हुआ है मगर जहां बात बहुत कुछ की आती है वहाँ दिल थोडा रूककर सोचने को चाहता है और फिर कई विचार मन में आने लगते हैं.
भारत को इन खेलों की मेजबानी लगभग 8 साल पहले मिली थी. वादा किया गया था एक अद्वितीय अनुभव का जो सभी को हमेशा याद रहेगा. एक कल्पना की गयी थी अद्भुत खेलों की जो पहले कभी नहीं हुआ था और हर दिशा में अप्रतिम ही था. आज 8 साल बाद उन सपनों के साकार होने का जब समय आया है तो हम जरूर अपनी कल्पनाओं से पीछे छुट गए हैं मगर जो हमने किया है वो क्या किसी सपने से कम है.
चाहे कोई कुछ भी कह ले, भारत आज भी एक विकासशील देश ही है. पिछले ८ सालों में न जाने भारत ने क्या क्या देखा और झेला है. जब दुनिया मंदी के दौड़ से गुजर रही थी वही भारत एक मजबूत अर्थ-व्यवस्था के रूप में उभर रहा था. इसके लिए महंगाई के रूप में एक बड़ी कीमत भारतीयों ने चुकाई है. पिछले ८ सालों में न जाने कितनी बार आतंकियों और नक्सलियों ने हमारे सीनों को छलनी किया है मगर भारत आज भी दृढ विश्वास के साथ सबों का स्वागत कर रहा है. सूखे और बाढ़ से लड़ता हुआ भारत अपने वादों को पूरा करने के लिए आज भी तत्पर है.
ज़रा सोचिये, ऐसी स्थिति में हमने अपने देश को क्या दिया है सिवाय आलोचना, नाउम्मीदी और कभी-कभी तो गालियों के. ये हम हैं, हम भारतीय. हर बात पर जो हमें पसंद नहीं हो उसका ठीकड़ा सरकार के ऊपर फोड़ना हमारा शौक है. अपने देश में मौजूद भ्रष्टाचारी को इस कदर गरियाते हैं जैसे एक हमारा ही देश भ्रष्ट हो. इस लिंक को देखिये. जहां हमारा देश भारत ऐसे देशों में 35 नंबर पर है वहीँ हम सब का 'गौरव और सपना' अमेरिका दुसरे नंबर पर है. हर बात पर हमारा हाय तौबा मचाना कि भारत कभी नहीं सुधर सकता, हमारी आदत बन चुकी है मगर हम कभी इतना नहीं सोचते कि हम कितना सुधर गए हैं.
चलिए मानता हूँ तय्यारियों में जो देरी हुई वो नहीं होनी चाहिए थे. मानता हूँ कि जो पुल टूट गया वो नहीं होना चाहिए था या जो छत गिरी वो भी नहीं होना चाहिए था, या खेल गाँव में जो गन्दगी फैली हुई थी हो नहीं होनी चाहिए थी मगर इस सब को देख के हमने क्या किया. गालियाँ दी. किसे? उनको जिन्होंने हमारे सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया था. जरूर उन्होंने हमारे इस सपनों में सेंध लगाकर अपनी निजी सपनों की दुनिया बनायीं मगर क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता कि हम उनका सहयोग करें. उन्हें वो प्रोत्साहन दें जिसकी उन्हें जरूरत है. कुछ दिन पहले ही फेसबुक पर एक फोटो अल्बम लोड की गयी जिसमे 52 तस्वीरें थी जिन्हें कभी किसी ने प्रकाशित नहीं किया, क्यूंकि उनमे TRP नहीं थी. उनमें खेल गाँव की अद्भुत सुन्दरता को दिखलाया गया है, मगर हमने उन्हें देखने की कोई जहमत नहीं उठाई, हमें तो बस टोपिक चाहिए, सरकार और देश को गाली देने का.
हमें बुरा लगा कि पश्चिमी मीडिया ने हमारे खेल-गाँव की वो ही तस्वीरें अपने मुल्क में छापी जिसमे भूखे-नंगे लोग इस सपने की दुनिया को बनाने के लिए मजदूरी कर रहे थे मगर हमने कभी ये नहीं सोचा कि ये तस्वीरें उनके पास गयी कैसे. अपने घर में ही सेंध लगाने की हमारी आदत पुरानी है. मीडिया को जब खेल गाँव का हिस्सा दिखाया जा रहा था तो उन्हें वो 60 % भाग कभी नहीं दिखे जो सच में विश्व-स्तरीय थे मगर बाकी के 40 % में हमेशा उन्हें दिलचस्पी रही. बुराइयों को दिखाइए मगर, अच्छाइयों को छुपाना कहाँ तक जायज़ है.
दुनिया में कभी भी किसी भी खेल में जो न हुआ वो भारत में इस राष्ट्रमंडल खेलों में करने की योजना थी. एक महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की गयी थी. आज तक कभी कोई खेल गाँव "5 star" नहीं बना था, हमने वो सपना देखा और कोशिश भी की. कुछ हिस्से बने भी शानदार मगर समय पर काम ख़त्म करने की कवायद ने बाकी हिस्सों को वैसा नहीं बनने दिया. आज जब हम अपने खेल गाँव को देख रहे हैं तो तुलना उससे की जा रही है जो कभी किसी ने देखा ही नहीं. हाँ, "5 star" खेल गाँव नहीं बन सका मगर जो बना वो कही से विश्वस्तरीय नहीं हो ऐसा नहीं है. भारत पर हमें विश्वास रखना होगा. भौतिक सुख देना हमारी पहचान नहीं, हम जाने जाते हैं रिश्तों को निभाने के लिए. "Hi", "Hello" और गाल को चूम कर स्वागत करना हमें नहीं आता, हम दिल के अन्दर से "नमस्ते" बोल कर सत्कार करते हैं. जो हम हैं, वो हमें दिखना भी चाहिए. झूठी शान ज्यादा दिनों तक नहीं रहती. मुश्किलें कहाँ नहीं आती. मुश्किलों से निकलकर एक शानदार आयोजन करके ही हमें दुनिया को दिखलाना है कि हम सिर्फ 'संपेड़ों की धरती' ही नहीं 'सोने की चिड़िया' भी हैं!
कुछ तस्वीरें भी लगा रहा हूँ, एक शर्म और एक गर्व, फैसला आपको लेना है आप किसके साथ हैं!!!
भारत को इन खेलों की मेजबानी लगभग 8 साल पहले मिली थी. वादा किया गया था एक अद्वितीय अनुभव का जो सभी को हमेशा याद रहेगा. एक कल्पना की गयी थी अद्भुत खेलों की जो पहले कभी नहीं हुआ था और हर दिशा में अप्रतिम ही था. आज 8 साल बाद उन सपनों के साकार होने का जब समय आया है तो हम जरूर अपनी कल्पनाओं से पीछे छुट गए हैं मगर जो हमने किया है वो क्या किसी सपने से कम है.
चाहे कोई कुछ भी कह ले, भारत आज भी एक विकासशील देश ही है. पिछले ८ सालों में न जाने भारत ने क्या क्या देखा और झेला है. जब दुनिया मंदी के दौड़ से गुजर रही थी वही भारत एक मजबूत अर्थ-व्यवस्था के रूप में उभर रहा था. इसके लिए महंगाई के रूप में एक बड़ी कीमत भारतीयों ने चुकाई है. पिछले ८ सालों में न जाने कितनी बार आतंकियों और नक्सलियों ने हमारे सीनों को छलनी किया है मगर भारत आज भी दृढ विश्वास के साथ सबों का स्वागत कर रहा है. सूखे और बाढ़ से लड़ता हुआ भारत अपने वादों को पूरा करने के लिए आज भी तत्पर है.
ज़रा सोचिये, ऐसी स्थिति में हमने अपने देश को क्या दिया है सिवाय आलोचना, नाउम्मीदी और कभी-कभी तो गालियों के. ये हम हैं, हम भारतीय. हर बात पर जो हमें पसंद नहीं हो उसका ठीकड़ा सरकार के ऊपर फोड़ना हमारा शौक है. अपने देश में मौजूद भ्रष्टाचारी को इस कदर गरियाते हैं जैसे एक हमारा ही देश भ्रष्ट हो. इस लिंक को देखिये. जहां हमारा देश भारत ऐसे देशों में 35 नंबर पर है वहीँ हम सब का 'गौरव और सपना' अमेरिका दुसरे नंबर पर है. हर बात पर हमारा हाय तौबा मचाना कि भारत कभी नहीं सुधर सकता, हमारी आदत बन चुकी है मगर हम कभी इतना नहीं सोचते कि हम कितना सुधर गए हैं.
चलिए मानता हूँ तय्यारियों में जो देरी हुई वो नहीं होनी चाहिए थे. मानता हूँ कि जो पुल टूट गया वो नहीं होना चाहिए था या जो छत गिरी वो भी नहीं होना चाहिए था, या खेल गाँव में जो गन्दगी फैली हुई थी हो नहीं होनी चाहिए थी मगर इस सब को देख के हमने क्या किया. गालियाँ दी. किसे? उनको जिन्होंने हमारे सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया था. जरूर उन्होंने हमारे इस सपनों में सेंध लगाकर अपनी निजी सपनों की दुनिया बनायीं मगर क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता कि हम उनका सहयोग करें. उन्हें वो प्रोत्साहन दें जिसकी उन्हें जरूरत है. कुछ दिन पहले ही फेसबुक पर एक फोटो अल्बम लोड की गयी जिसमे 52 तस्वीरें थी जिन्हें कभी किसी ने प्रकाशित नहीं किया, क्यूंकि उनमे TRP नहीं थी. उनमें खेल गाँव की अद्भुत सुन्दरता को दिखलाया गया है, मगर हमने उन्हें देखने की कोई जहमत नहीं उठाई, हमें तो बस टोपिक चाहिए, सरकार और देश को गाली देने का.
हमें बुरा लगा कि पश्चिमी मीडिया ने हमारे खेल-गाँव की वो ही तस्वीरें अपने मुल्क में छापी जिसमे भूखे-नंगे लोग इस सपने की दुनिया को बनाने के लिए मजदूरी कर रहे थे मगर हमने कभी ये नहीं सोचा कि ये तस्वीरें उनके पास गयी कैसे. अपने घर में ही सेंध लगाने की हमारी आदत पुरानी है. मीडिया को जब खेल गाँव का हिस्सा दिखाया जा रहा था तो उन्हें वो 60 % भाग कभी नहीं दिखे जो सच में विश्व-स्तरीय थे मगर बाकी के 40 % में हमेशा उन्हें दिलचस्पी रही. बुराइयों को दिखाइए मगर, अच्छाइयों को छुपाना कहाँ तक जायज़ है.
दुनिया में कभी भी किसी भी खेल में जो न हुआ वो भारत में इस राष्ट्रमंडल खेलों में करने की योजना थी. एक महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की गयी थी. आज तक कभी कोई खेल गाँव "5 star" नहीं बना था, हमने वो सपना देखा और कोशिश भी की. कुछ हिस्से बने भी शानदार मगर समय पर काम ख़त्म करने की कवायद ने बाकी हिस्सों को वैसा नहीं बनने दिया. आज जब हम अपने खेल गाँव को देख रहे हैं तो तुलना उससे की जा रही है जो कभी किसी ने देखा ही नहीं. हाँ, "5 star" खेल गाँव नहीं बन सका मगर जो बना वो कही से विश्वस्तरीय नहीं हो ऐसा नहीं है. भारत पर हमें विश्वास रखना होगा. भौतिक सुख देना हमारी पहचान नहीं, हम जाने जाते हैं रिश्तों को निभाने के लिए. "Hi", "Hello" और गाल को चूम कर स्वागत करना हमें नहीं आता, हम दिल के अन्दर से "नमस्ते" बोल कर सत्कार करते हैं. जो हम हैं, वो हमें दिखना भी चाहिए. झूठी शान ज्यादा दिनों तक नहीं रहती. मुश्किलें कहाँ नहीं आती. मुश्किलों से निकलकर एक शानदार आयोजन करके ही हमें दुनिया को दिखलाना है कि हम सिर्फ 'संपेड़ों की धरती' ही नहीं 'सोने की चिड़िया' भी हैं!
कुछ तस्वीरें भी लगा रहा हूँ, एक शर्म और एक गर्व, फैसला आपको लेना है आप किसके साथ हैं!!!
Monday, August 02, 2010
यादें, याद आती हैं...
पूरी तो नहीं कहूँगा मगर कम से कम आधी दुनिया के लिए कल का दिन बहुत महत्वपूर्ण था. मेरे लिए भी कल का दिन एक अलग तरह की महत्ता के साथ आया. जहां मेरे सारे दोस्त और शायद अनगिनत और लोग कल "Friendship Day" मना रहे थे वहीँ मैं भी खुश था मगर कारण कुछ और था.
सबसे पहले तो मैं ये बताना चाहता हूँ कि ऐसे किसी भी Day पर मुझे कोई विश्वास नहीं है. मेरा तो मानना है कि दोस्ती और दोस्त 365 दिन के लिए होते हैं, किसी एक दिन पर इनकी याद करने से सिर्फ इनकी महत्ता कम ही की जा सकती है और कुछ भी नहीं. अचानक से न जाने कहाँ से इतने सारे दिन आ गए हैं हमारे मनाने के लिए. कभी friendhip day, कभी rose day, कभी father's day, कभी mother's day, कभी brother's day, कभी sister's day, और न जाने कितने कैसे कैसे दिन. पश्चिमी सभ्यता से कुछ चीजें अगर लेने में हमने कोई कोताही नहीं बरती है तो वो ये दिन ही हैं. जन्म से अभी तक साढ़े तेईस साल हो चुके हैं और सत्रह-अट्ठारह साल की उम्र तक मुझे नहीं याद कभी ऐसे दिनों के बारे में सुना भी करता था. शायद यही कारण है कि अभी जब इन दिनों को मनाने के बारे में सुनता हूँ तो बरा अटपटा लगता है, यहाँ तक कि अगर कोई अपना मुझे इनकी बधाई दे जाता है तो मन करता है बस मुंह नोच लूं. मगर बचपन में पढाया गया था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इसी बात को ध्यान में रखकर बस समाज की राह पर ही चलते हुए मैं भी जवाब दे जाता हूँ. भाइयों के लिए भय्या दूज और बहनों के लिए राखी का पर्व मनाने वाले हमारे समाज में कब इन दिनों ने अपनी जगह बना ली समझ नहीं आया.
बहरहाल, कहाँ मैं कल के दिन की अपनी ख़ुशी के बारे में बात कर रहा था और कहाँ इन सब पचड़ों में पडा रह गया. जैसा कि पहले भी लिख चुका हूँ, कल का दिन मेरे लिए अलग तरह से महत्वपूर्ण था. ये पोस्ट कल ही लिखना चाह रहा था मगर इन्टरनेट कनेक्शन के न रहने के कारण लिख नहीं सका. कल का दिन यादों की कश्ती में बैठकर पुराने दिनों के समंदर में दूर तक सफ़र करने में ही बीत गया. बचपन में एक सपना देखा था, डाक्टर बनने का. 5 साल पहले कल के ही दिन इस सपने की तरफ अपना पहला कदम बढाया था. अपने कॉलेज जीवन का वो पहला कदम 1 अगस्त 2005 को रखा था और आज पूरा आधा दशक बीत चुका है और नाम के आगे "Dr." लगाने का वो सपना आज पूरा हो चुका है. 5 साल पहले के उस दिन को लम्हा-दर-लम्हा एक बार फिर जी लिया कल बैठे बैठे ही. मेडिकल कॉलेज में घुसने की ख़ुशी, सीनियर की रैगिंग का डर, नए दोस्तों से मिलने की उत्सुकता और न जाने क्या क्या. सफ़ेद शर्ट, सफ़ेद पैंट, ऊपर से एप्रन और खादी की हरे रंग की एक बैग के उस ड्रेस कोड में जोकर से कम नहीं लग रहा था मगर सीना इस तरह चौड़ा करके चल रहा था जैसे कहीं का राजा बन गया हूँ. एहसास हो रहा था कि दुनिया का पहला डाक्टर बनने वाला हूँ, इस बात से पूरी तरह से बेखबर कि एक ऐसे कैम्पस में कदम रख रहा हूँ जहां कौवा बीट भी करता है तो गिरता किसी डाक्टर के सर पर ही है.
खैर, ख़ुशी का वो मंजर फिर से जीने की इच्छा होती है. समय को वापस घुमाने का कोई भी रास्ता होता तो शायद उसी पल को जीता, एक बार नहीं बार बार. अभी कल की ही बात लगती है जब हॉस्टल के छत पर रैगिंग में अपने इज्ज़त की नीलामी देख रहा था, मगर तभी हवा का एक झोका आता है और कैलेंडर के साठ पन्नों को उड़ाकर आज का दिन दिखा जाता है और तब एह्साह होता है कि आधा दशक बीत गया सब कुछ हुए. अपने जैसे न जाने कितनों की इज्ज़त की नीलामी उसी छत पर कर चुका हूँ, न जाने कितनों को उसी तरह सीना चौड़ा किये हुए इस कैम्पस में घुसते हुए देख चुका हूँ और न जाने कितनों को इसी चौड़े सीने की बलि चढ़ते हुए सड़क पर ही मुर्गा बनते हुए देख चुका हूँ. मगर फिर भी उस दिन की यादें हैं जो जाने का नाम नहीं लेतीं. यादें, याद आती हैं...
सबसे पहले तो मैं ये बताना चाहता हूँ कि ऐसे किसी भी Day पर मुझे कोई विश्वास नहीं है. मेरा तो मानना है कि दोस्ती और दोस्त 365 दिन के लिए होते हैं, किसी एक दिन पर इनकी याद करने से सिर्फ इनकी महत्ता कम ही की जा सकती है और कुछ भी नहीं. अचानक से न जाने कहाँ से इतने सारे दिन आ गए हैं हमारे मनाने के लिए. कभी friendhip day, कभी rose day, कभी father's day, कभी mother's day, कभी brother's day, कभी sister's day, और न जाने कितने कैसे कैसे दिन. पश्चिमी सभ्यता से कुछ चीजें अगर लेने में हमने कोई कोताही नहीं बरती है तो वो ये दिन ही हैं. जन्म से अभी तक साढ़े तेईस साल हो चुके हैं और सत्रह-अट्ठारह साल की उम्र तक मुझे नहीं याद कभी ऐसे दिनों के बारे में सुना भी करता था. शायद यही कारण है कि अभी जब इन दिनों को मनाने के बारे में सुनता हूँ तो बरा अटपटा लगता है, यहाँ तक कि अगर कोई अपना मुझे इनकी बधाई दे जाता है तो मन करता है बस मुंह नोच लूं. मगर बचपन में पढाया गया था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इसी बात को ध्यान में रखकर बस समाज की राह पर ही चलते हुए मैं भी जवाब दे जाता हूँ. भाइयों के लिए भय्या दूज और बहनों के लिए राखी का पर्व मनाने वाले हमारे समाज में कब इन दिनों ने अपनी जगह बना ली समझ नहीं आया.
"डॉ." बनने की तरफ पहला कदम, 1st Year |
Dr. Anshuman Aashu |
Friday, July 30, 2010
Last 15 days that I can never forget!
Again, this time its over 10 days that I wrote something in here and no awards for guessing that I am going to start yet another post with my favourite excuse that the last couple of weeks have been quite busy for me. As always, the excuse is just an excuse and when I start thinking what I was busy in all these days, I can find just nothing, so, better to say that I was only "busy for nothing!" Well, better late than never and here I am with yet another boring post to eat away your mind in pieces with it.
From the start of this year, my blog has mostly been a Hindi blog with only just one post coming in English and that too over 6 months back. Writing in Hindi has been fun for me and also a way to show my respect to my mother tongue. It feels lovely to be a part of Hindi blog-world and I am proud to be one. But this doesn't mean that I don't want to write things in English. All these months, there have been time when I wanted to write something in English, but just could not. In fact, I have spent many hours thinking to maintain separate blogs in Hindi and English and such thoughts have taken a great share of my time when I am that "busy for nothing." Every time, when such impulses of creating a whole new blog comes in my mind, I just think of my attitude towards this blog and the impulse again gets dormant without any effort. Anyways, here I am with a hope that I always be regular on my blog and also that I be able to manage a balance between both languages.
Anyways, so many things already said about me being "busy for nothing" stuff, but let me clear this time that it is not completely true. In 15 days, if you have spent almost 40 hours in internship duty at the Dermatology OPD, some uncountable hours on facebook, a few on blogging and still fewer in studies, and rest in watching 2 and a half seasons of 'Friends', then, I don't think one can call it being "busy for just nothing." Although, as far as counting some constructive work is concerned, these 15 days have just got nothing but hey, technically, I am busy in a lot of things.
4 months of my internship duty are almost over and the last station that I crossed is Dermatology. Last 15 days were spent sitting in the Dermatology OPD. I even based my last post on this duty. Today, when this duty is over, I am sitting, thinking in retrospection and also introspection as to what I got to do and learn in these 15 days. When I am thinking back, what I can remember is just sitting and watching the filthy nodules, the dirty ulcers, ugly pus draining wounds, crying children, ailing patients, tense faces and hapless characters and to add to those, many soaring penises. Can these all things make anyone happy about his job that he himself has chosen with complete authority? Yes they can. They can make you happy when you follow them a week later when the nodules have subsided, the ulcers healed, wounds closed, the child is enjoying yet again and you see smile on the faces. Its an irony for us doctors that we have to make money and feed ourselves by other's ailments but this is the happiness of curing these ailments that matters the most for us.
When I entered into MBBS life, there was a common parlance about the Dermatology department, that you never get a disease there that kills or heals or panics you out. As far as my views about this particular department was concerned, I was not very interested in it, maybe, because of the physical ugliness of the lesions involved. I entered this department 15 days back with the same views and the first day itself was so very annoying and, sometimes, nauseating for me. A few days went like that but then, I started liking it and today after completing my tenure there, I must be the saddest person of the group of other 17 person who joined the duty with me.
What changed my views was the happiness that I saw on the faces of person who were treated during this period. A man who has a cancer inside his body has only a physical lesion that nobody can see from outside and he has to suffer only the physical aspects of the disease, but if he has the lesion on his skin then what he has to go through is not only the physical pain but also a social suffering that is associated with almost each and every skin disease. The social stigmata attached to every skin disease makes its patient a sinner and hence, gives a pain of rejection and isolation that is even more intense than a pain of cancer inside his body. Treating such diseases doesn't only cure that patient of his lesion but also helps him regain his place in the society. This is what I love about being in this department. My whole 15 days would have been gone in condemning Dermatology but for my senior working there I am here praising it. She was the one who pointed out this beautiful aspect of this subject to me. I am really grateful to her for this. Thank You Di!
Sitting here in front of my lappy and writing the post, I am actually reliving each and every moment of last 15 days that I spent in that department. In the 4 months of my internship duty so far, I think, these 15 days were the best and probably, will be the best when I complete the whole year of my duty. I am remembering everything I did there and except the first day, every other day is getting a smile on my face. There are a lot of things and memories that I am gonna cherish the whole life. Where Roy Sir's scary big eyes staring from just above his glasses easily took the hell out of me, there, at just the next moment, his smile restored my belief in myself. Arjun sir's ever smiling character and Binod sir's hilariously lovely conversation with patients are something that can never be forgotten. Teasing Niti di for treat and managing to get a samosa treat from Roy sir is cherishable for lifetime. And then how can the fantastic diagnoses made by us students in that OPD be forgotten. Calling a Tinea's simple lesion Zoster or diagnosing Plantar Hyperkeratosis for a dirty sole is something that I will remember in my whole life. And last of all, what made these 15 days even more enjoyable and special was the presence of my "HER" with me sitting beside me every single day. Certainly, I am not going to forget these wonderful days!!!
From the start of this year, my blog has mostly been a Hindi blog with only just one post coming in English and that too over 6 months back. Writing in Hindi has been fun for me and also a way to show my respect to my mother tongue. It feels lovely to be a part of Hindi blog-world and I am proud to be one. But this doesn't mean that I don't want to write things in English. All these months, there have been time when I wanted to write something in English, but just could not. In fact, I have spent many hours thinking to maintain separate blogs in Hindi and English and such thoughts have taken a great share of my time when I am that "busy for nothing." Every time, when such impulses of creating a whole new blog comes in my mind, I just think of my attitude towards this blog and the impulse again gets dormant without any effort. Anyways, here I am with a hope that I always be regular on my blog and also that I be able to manage a balance between both languages.
Anyways, so many things already said about me being "busy for nothing" stuff, but let me clear this time that it is not completely true. In 15 days, if you have spent almost 40 hours in internship duty at the Dermatology OPD, some uncountable hours on facebook, a few on blogging and still fewer in studies, and rest in watching 2 and a half seasons of 'Friends', then, I don't think one can call it being "busy for just nothing." Although, as far as counting some constructive work is concerned, these 15 days have just got nothing but hey, technically, I am busy in a lot of things.
4 months of my internship duty are almost over and the last station that I crossed is Dermatology. Last 15 days were spent sitting in the Dermatology OPD. I even based my last post on this duty. Today, when this duty is over, I am sitting, thinking in retrospection and also introspection as to what I got to do and learn in these 15 days. When I am thinking back, what I can remember is just sitting and watching the filthy nodules, the dirty ulcers, ugly pus draining wounds, crying children, ailing patients, tense faces and hapless characters and to add to those, many soaring penises. Can these all things make anyone happy about his job that he himself has chosen with complete authority? Yes they can. They can make you happy when you follow them a week later when the nodules have subsided, the ulcers healed, wounds closed, the child is enjoying yet again and you see smile on the faces. Its an irony for us doctors that we have to make money and feed ourselves by other's ailments but this is the happiness of curing these ailments that matters the most for us.
When I entered into MBBS life, there was a common parlance about the Dermatology department, that you never get a disease there that kills or heals or panics you out. As far as my views about this particular department was concerned, I was not very interested in it, maybe, because of the physical ugliness of the lesions involved. I entered this department 15 days back with the same views and the first day itself was so very annoying and, sometimes, nauseating for me. A few days went like that but then, I started liking it and today after completing my tenure there, I must be the saddest person of the group of other 17 person who joined the duty with me.
What changed my views was the happiness that I saw on the faces of person who were treated during this period. A man who has a cancer inside his body has only a physical lesion that nobody can see from outside and he has to suffer only the physical aspects of the disease, but if he has the lesion on his skin then what he has to go through is not only the physical pain but also a social suffering that is associated with almost each and every skin disease. The social stigmata attached to every skin disease makes its patient a sinner and hence, gives a pain of rejection and isolation that is even more intense than a pain of cancer inside his body. Treating such diseases doesn't only cure that patient of his lesion but also helps him regain his place in the society. This is what I love about being in this department. My whole 15 days would have been gone in condemning Dermatology but for my senior working there I am here praising it. She was the one who pointed out this beautiful aspect of this subject to me. I am really grateful to her for this. Thank You Di!
Sitting here in front of my lappy and writing the post, I am actually reliving each and every moment of last 15 days that I spent in that department. In the 4 months of my internship duty so far, I think, these 15 days were the best and probably, will be the best when I complete the whole year of my duty. I am remembering everything I did there and except the first day, every other day is getting a smile on my face. There are a lot of things and memories that I am gonna cherish the whole life. Where Roy Sir's scary big eyes staring from just above his glasses easily took the hell out of me, there, at just the next moment, his smile restored my belief in myself. Arjun sir's ever smiling character and Binod sir's hilariously lovely conversation with patients are something that can never be forgotten. Teasing Niti di for treat and managing to get a samosa treat from Roy sir is cherishable for lifetime. And then how can the fantastic diagnoses made by us students in that OPD be forgotten. Calling a Tinea's simple lesion Zoster or diagnosing Plantar Hyperkeratosis for a dirty sole is something that I will remember in my whole life. And last of all, what made these 15 days even more enjoyable and special was the presence of my "HER" with me sitting beside me every single day. Certainly, I am not going to forget these wonderful days!!!
Monday, July 19, 2010
कुष्ठ रोग कब तक समाज का कोढ़ बना रहेगा?
पिछले हफ्ते कोई ब्लॉग नहीं लिख पाया। कारण कुछ ख़ास नहीं था, बस, पढाई की थोड़ी टेंशन और कुछ निकटतम मित्रों से हुई अनबन ने सारा खेल बिगाड़ दिया। खैर, 16 तारीख को साल भर लम्बी चलने वाली इंटर्नशिप ड्यूटी का पहिया चर्म रोग विभाग में आकर रुका। 3 दिन चर्म रोग विभाग के OPD में ड्यूटी करने के बाद कैसा लग रहा है, क्या महसूस कर रहा हूँ, ये सब बाद में कभी बताऊंगा। इस पोस्ट में ख़ास तौर पर कुष्ठ रोग के बारे में कुछ बातें आपसे बांटना चाहता हूँ।
अभी जब आपने 'कुष्ठ रोग' शब्द पढ़ा होगा तो आपकी नज़रों के सामने आपके शहर के सबसे बड़े मंदिर की सीढियों का नज़ारा आ गया होगा। ट्रेन का इंतज़ार करते वक़्त प्लेटफोर्म पर भीख मांगते भिखमंगे याद आ गए होंगे। कुष्ठ रोग से कोई भी आम आदमी सबसे पहले ऐसी ही तस्वीर मन में बनाता है। टेढ़े-मेढ़े, बिना अँगुलियों के हाथ-पैर, उनपर वो लाल रंग के घाव, और वो सब कुछ जो उन्हें भीख मांगने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसी ही कुछ सोच मेरी भी थी इस बीमारी के बारे में। साढ़े चार साल की पढाई में कई बार इस बीमारी के बारे में पढ़ा मगर किताब में लिखी गयी बातों को नज़र से देखी हुई हकीकत के सामने तवज्जो नहीं दे पाया। डाक्टर होकर भी इस बीमारी के सिर्फ अंतिम भयानक रूप को ही समझ पाया था। कभी इस ओर ध्यान नहीं दे पाया कि ऐसी स्थिति किसी मरीज की अचानक नहीं होती। इस स्थिति तक पहुचने से पहले ही वहाँ तक पहुचने से इसे रोका जा सकता है।
जब पहले दिन चर्म रोग की OPD बैठा तो दंग रह गया। आने वाले हर 10 मरीजों में 2-3 कुष्ठ रोग के मरीज ही रहते थे। सही मायनों में कुष्ठ रोग से मेरी मुलाक़ात उसी दिन हुई। एक भला-पूरा स्वस्थ आदमी कमरे में प्रवेश करता है और हमारा ध्यान अपने हाथ पर के एक हलके रंग के धब्बे की तरफ ले जाता है। उस धब्बे की पड़ताल के बाद पता चलता है कि वो कुष्ठ रोग का ही एक धब्बा है। कुष्ठ रोग के अंतिम रूप, जो हमें भिखमंगों में दिखता है, की कल्पना से ही मन सिहर जाता है, मगर इस शुरूआती रूप को देखकर ऐसा कुछ भी नहीं होता। आदमी पूरी तरह से स्वस्थ होता है। कई बार तो एक धब्बे के सिवा और कोई शिकायत भी नहीं होती मरीज को। ऐसे मरीजों का इलाक्स संभव ही नहीं बल्कि आसान भी है। 6 महीने या साल भर चलने वाली दवाईयां सरकार की तरफ से मुफ्त में मिलती हैं। इलाज़ होता है और लोग ठीक भी होते हैं। इतने सरल इलाज़ के बावजूद भी हमें मंदिरों, तीर्थ-स्थानों और रेलवे प्लेटफोर्म पर ऐसे मरीजों की कोई कमी महसूस नहीं होती। यह अपने आप में इस समाज के मुंह पर एक तमाचा है। एक आदमी जो अपना सारा काम बिना किसी दिक्कत के कर सकता है वो कुछ सालों के अंतराल में एक ऐसी स्थिति में पहुच जाता है जहां उसके सिवा भीख मांगने के अलावा कोई चारा नहीं बचता, ये सिर्फ और सिर्फ हमारे समाज में इस बीमारी के प्रति जागरूकता की कमी के कारण है। मेरे जैसा डाक्टरी का विद्यार्थी जब इस बीमारी के बारे के सिर्फ एक ही रूप को पहचानता है तो औरों का क्या कहना।
कई बार ये सवाल उठ चूका है कि इलाज़ होते हुए भी इन मरीजों की तादाद में कोई कमी क्यूँ नहीं आती। ठीकरा कई बार मेडिकल साइंस पर और स्वस्थ्य विभाफ पर फोड़ा जा चूका है मगर ऐसा होना सिर्फ मेडिकल साइंस की नाकामी के कारण ही नहीं हो सकता। इसके पीछे एक बड़ा कारण समाज में इस बीमारी के प्रति फैली कुधारणाएं हैं। आज भी मरीज को दवाइयां देने वक़्त यह बतलाने में डर लगता है कि उसे क्या रोग हुआ है। इस बीमारी में मिलने वाली शारीरिक पीड़ा के साथ साथ इसे जान जाने के बाद एक मानसिक पीड़ा भी मरीजों को सहनी पड़ती है। इस बीमारी को पाप की निशानी मानने वाले इस समाज में अलग-थलग रह जाने का डर मरीजों को सताने लगता है। किसी से वो अपने कष्ट को बाँट नहीं पाते और स्वयं में घुटते रह जाते हैं। डर सिर्फ उसकी इस मानसिक पीड़ा का ही नहीं लगता हमें, बल्कि हम इलाज़ के प्रति उस मरीज के विश्वास को लेकर भी शशंकित रहते हैं। जैसे ही उसे पता चलता है कि उसे कुष्ठ रोग है वैसे ही वो सोचता है बनारस के घात पर गंगा स्नान करने का। और भी न जाने कितने अंध-विश्वास सदियों से जुड़े हैं इस बीमारी से जो आज भी इलाज़ के प्रति मरीजों के विश्वास को खोखला बनाने के लिए काफी हैं। समाज में इस बीमारी को कोढ़ का नाम दे दिया गया है। कोढ़ शब्द शायद पहली बार इस बीमारी के लिए ही उपयोग किया गया था मगर इस शब्द का उपयोग धड़ल्ले से हिंदी साहित्य वाले अपनी रचनाओं में हर उस चीज के लिए करते हैं जो घृणित है और जिन्हें समाज पाप का द्योतक मानता है।
ऐसी सोच रखने वाले हमारे समाज में जहां पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी भी कुष्ठ रोग के एक नाम का प्रयोग इस तरह से करते हैं उस समाज में इसके रोगियों के लिए क्या स्थान होगा ये समझ पाना बड़ा ही आसान है। दोष सिर्फ समाज का हो, ऐसा नहीं हो सकता। बराबर के भागीदार खुद खुस्थ रोग से पीड़ित रोगी भी हैं। ऐसे कई भिखमंगे आसानी से दिख जाते हैं जो इस रोग का बहाना करके काम करने की मेहनत से भीख मांग कर जी लेने की ज़िल्लत को ज्यादा आसान समझते हैं। कई भिखमंगे ऐसे होते हैं जिनका रोग ऐसी स्थिति में होता है जब उन्हें ठीक किया जा सकता है मगर वो इलाज़ नहीं करते और भीख मांगने में जुटे रहते हैं। सावन का महिना आ रहा है। सुल्तानगंज से देवघर कांवर लेकर चले जाइए। सैंकड़ों भिखमंगे ऐसे मिल जायेंगे जो अपने हाथ-पैर पर नेल-पोलिश लगाकर इस बीमारी का ढोंग करते नज़र आयेंगे। जब तक लोग इसी तरह से इस बीमारी का उपयोग इस घृणित कार्य के लिए करते रहेंगे, तब तक समाज इन्हें घृणा की नज़रों से देखता रहेगा। और तब तक इन रोगियों को समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान पाने के लिए इंतज़ार करना पड़ेगा। जरूरत है, खुद को सजग करने की, समाज को सजग करने की। मेडिकल साईंस तैयार है इससे लड़ने के लिए, पहल आप कर के तो देखिये। कोशिश कीजिये, इस कोढ़, जो समाज के मुंह पर यह बीमारी खुद है, को जड़ से मिटाने की। ये संभव है, चलिए हाथ बढ़ा कर देखते हैं!!!
अभी जब आपने 'कुष्ठ रोग' शब्द पढ़ा होगा तो आपकी नज़रों के सामने आपके शहर के सबसे बड़े मंदिर की सीढियों का नज़ारा आ गया होगा। ट्रेन का इंतज़ार करते वक़्त प्लेटफोर्म पर भीख मांगते भिखमंगे याद आ गए होंगे। कुष्ठ रोग से कोई भी आम आदमी सबसे पहले ऐसी ही तस्वीर मन में बनाता है। टेढ़े-मेढ़े, बिना अँगुलियों के हाथ-पैर, उनपर वो लाल रंग के घाव, और वो सब कुछ जो उन्हें भीख मांगने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसी ही कुछ सोच मेरी भी थी इस बीमारी के बारे में। साढ़े चार साल की पढाई में कई बार इस बीमारी के बारे में पढ़ा मगर किताब में लिखी गयी बातों को नज़र से देखी हुई हकीकत के सामने तवज्जो नहीं दे पाया। डाक्टर होकर भी इस बीमारी के सिर्फ अंतिम भयानक रूप को ही समझ पाया था। कभी इस ओर ध्यान नहीं दे पाया कि ऐसी स्थिति किसी मरीज की अचानक नहीं होती। इस स्थिति तक पहुचने से पहले ही वहाँ तक पहुचने से इसे रोका जा सकता है।
जब पहले दिन चर्म रोग की OPD बैठा तो दंग रह गया। आने वाले हर 10 मरीजों में 2-3 कुष्ठ रोग के मरीज ही रहते थे। सही मायनों में कुष्ठ रोग से मेरी मुलाक़ात उसी दिन हुई। एक भला-पूरा स्वस्थ आदमी कमरे में प्रवेश करता है और हमारा ध्यान अपने हाथ पर के एक हलके रंग के धब्बे की तरफ ले जाता है। उस धब्बे की पड़ताल के बाद पता चलता है कि वो कुष्ठ रोग का ही एक धब्बा है। कुष्ठ रोग के अंतिम रूप, जो हमें भिखमंगों में दिखता है, की कल्पना से ही मन सिहर जाता है, मगर इस शुरूआती रूप को देखकर ऐसा कुछ भी नहीं होता। आदमी पूरी तरह से स्वस्थ होता है। कई बार तो एक धब्बे के सिवा और कोई शिकायत भी नहीं होती मरीज को। ऐसे मरीजों का इलाक्स संभव ही नहीं बल्कि आसान भी है। 6 महीने या साल भर चलने वाली दवाईयां सरकार की तरफ से मुफ्त में मिलती हैं। इलाज़ होता है और लोग ठीक भी होते हैं। इतने सरल इलाज़ के बावजूद भी हमें मंदिरों, तीर्थ-स्थानों और रेलवे प्लेटफोर्म पर ऐसे मरीजों की कोई कमी महसूस नहीं होती। यह अपने आप में इस समाज के मुंह पर एक तमाचा है। एक आदमी जो अपना सारा काम बिना किसी दिक्कत के कर सकता है वो कुछ सालों के अंतराल में एक ऐसी स्थिति में पहुच जाता है जहां उसके सिवा भीख मांगने के अलावा कोई चारा नहीं बचता, ये सिर्फ और सिर्फ हमारे समाज में इस बीमारी के प्रति जागरूकता की कमी के कारण है। मेरे जैसा डाक्टरी का विद्यार्थी जब इस बीमारी के बारे के सिर्फ एक ही रूप को पहचानता है तो औरों का क्या कहना।
कई बार ये सवाल उठ चूका है कि इलाज़ होते हुए भी इन मरीजों की तादाद में कोई कमी क्यूँ नहीं आती। ठीकरा कई बार मेडिकल साइंस पर और स्वस्थ्य विभाफ पर फोड़ा जा चूका है मगर ऐसा होना सिर्फ मेडिकल साइंस की नाकामी के कारण ही नहीं हो सकता। इसके पीछे एक बड़ा कारण समाज में इस बीमारी के प्रति फैली कुधारणाएं हैं। आज भी मरीज को दवाइयां देने वक़्त यह बतलाने में डर लगता है कि उसे क्या रोग हुआ है। इस बीमारी में मिलने वाली शारीरिक पीड़ा के साथ साथ इसे जान जाने के बाद एक मानसिक पीड़ा भी मरीजों को सहनी पड़ती है। इस बीमारी को पाप की निशानी मानने वाले इस समाज में अलग-थलग रह जाने का डर मरीजों को सताने लगता है। किसी से वो अपने कष्ट को बाँट नहीं पाते और स्वयं में घुटते रह जाते हैं। डर सिर्फ उसकी इस मानसिक पीड़ा का ही नहीं लगता हमें, बल्कि हम इलाज़ के प्रति उस मरीज के विश्वास को लेकर भी शशंकित रहते हैं। जैसे ही उसे पता चलता है कि उसे कुष्ठ रोग है वैसे ही वो सोचता है बनारस के घात पर गंगा स्नान करने का। और भी न जाने कितने अंध-विश्वास सदियों से जुड़े हैं इस बीमारी से जो आज भी इलाज़ के प्रति मरीजों के विश्वास को खोखला बनाने के लिए काफी हैं। समाज में इस बीमारी को कोढ़ का नाम दे दिया गया है। कोढ़ शब्द शायद पहली बार इस बीमारी के लिए ही उपयोग किया गया था मगर इस शब्द का उपयोग धड़ल्ले से हिंदी साहित्य वाले अपनी रचनाओं में हर उस चीज के लिए करते हैं जो घृणित है और जिन्हें समाज पाप का द्योतक मानता है।
ऐसी सोच रखने वाले हमारे समाज में जहां पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी भी कुष्ठ रोग के एक नाम का प्रयोग इस तरह से करते हैं उस समाज में इसके रोगियों के लिए क्या स्थान होगा ये समझ पाना बड़ा ही आसान है। दोष सिर्फ समाज का हो, ऐसा नहीं हो सकता। बराबर के भागीदार खुद खुस्थ रोग से पीड़ित रोगी भी हैं। ऐसे कई भिखमंगे आसानी से दिख जाते हैं जो इस रोग का बहाना करके काम करने की मेहनत से भीख मांग कर जी लेने की ज़िल्लत को ज्यादा आसान समझते हैं। कई भिखमंगे ऐसे होते हैं जिनका रोग ऐसी स्थिति में होता है जब उन्हें ठीक किया जा सकता है मगर वो इलाज़ नहीं करते और भीख मांगने में जुटे रहते हैं। सावन का महिना आ रहा है। सुल्तानगंज से देवघर कांवर लेकर चले जाइए। सैंकड़ों भिखमंगे ऐसे मिल जायेंगे जो अपने हाथ-पैर पर नेल-पोलिश लगाकर इस बीमारी का ढोंग करते नज़र आयेंगे। जब तक लोग इसी तरह से इस बीमारी का उपयोग इस घृणित कार्य के लिए करते रहेंगे, तब तक समाज इन्हें घृणा की नज़रों से देखता रहेगा। और तब तक इन रोगियों को समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान पाने के लिए इंतज़ार करना पड़ेगा। जरूरत है, खुद को सजग करने की, समाज को सजग करने की। मेडिकल साईंस तैयार है इससे लड़ने के लिए, पहल आप कर के तो देखिये। कोशिश कीजिये, इस कोढ़, जो समाज के मुंह पर यह बीमारी खुद है, को जड़ से मिटाने की। ये संभव है, चलिए हाथ बढ़ा कर देखते हैं!!!
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